फकीर मोहन सेनापति का कथा-साहित्य

फकीर मोहन सेनापति का कथा-साहित्य

कीर मोहन सेनापति ओड़िया कथा-साहित्य के जनक हैं। इन्होंने ओड़िया भाषा और साहित्य को प्रतिष्ठा दिलाने हेतु अथक संघर्ष किया। ओड़िया भाषी जनों में इनके द्वारा विरचित ‘गल्प-गल्पस्वल्प’ प्रथम भाग, ‘गल्पस्वल्प’-द्वितीय भाग (1817), ‘छमाण आठ गुंठ’ (1902), ‘लछिमा’ (1914), ‘मामू’ (1913), ‘प्रायश्चित’ (1915), ‘संस्कृत रामायण’ का पद्यानुवाद (1884-1895), ‘महाभारत’ का पद्यानुवाद (1887-1905), ‘हरिवंश’ का पद्यानुवाद (1902), ‘उपनिषद’ का पद्यानुवाद (1905), ‘आत्म-जीवनी’ (1877) तथा ‘श्रीमद्भागवत गीता’ (1885) का बहुत सम्मान है। आधुनिक ओड़िया के जनक फकीर मोहन सेनापति इन दिनों अनुवाद की वजह हिंदी में भी खूब पढ़े जा रहे हैं। ओड़िया साहित्य में यथार्थवादी साहित्य लेखन का श्रेय इन्हें जाता है। हिंदी के बड़े आलोचकों में–नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय और ललन प्रसाद सिंह ने उनके लेखन को बखूबी रेखांकित किया है। उनकी तमाम कहानियाँ तत्कालीन समाज व राजनीति का यथार्थ अंकन करती हैं। उनकी कहानियों से गुजरना प्रेमचंद से पूर्व प्रेमचंद का दर्शन करने जैसा है। फकीर मोहन ने भारतीय साहित्य वांग्मय को आमजन के जीवन से जोड़कर साहित्य का बड़ा उपकार किया है। इन्होंने कहानी की नई शैली भी विकसित की है जहाँ यथार्थ व व्यंग्य आसानी से अपना रूप धारण कर लेते हैं। साथ ही उनकी कहानियाँ तत्कालीन ओड़िया समाज का यथार्थ भी प्रस्तुत करती हैं।

फकीर मोहन सेनापति ओड़िया साहित्य के अमर कथाशिल्पी हैं। ओड़िया साहित्य को नया यथार्थवादी लेखन की भूमि तैयार करने का श्रेय इन्हें जाता है। ये ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीति को गहरे से समझ रहे थे और यह भी कि वह किस तरह भारतीय जनजीवन, उद्योग और संस्कृति को प्रभावित कर रहा है। उसके प्रभाव और कुप्रभाव को बड़ी बारीकी से अपनी कहानियों में इन्होंने उजागर किया है। इनकी ‘पुनर्मूषकोभव’ कहानी की शुरुआत होती है–‘आज से चालीस साल पहले की बात है। बालेश्वर जिले में नमक उत्पादन पर पाबंदी लग गई। लुनादांड़ी इलाके के लोग तबाह हो गए। बालेश्वर जिले का पूर्वांचल यानी सुवर्णरेखा नदी के उत्तरी किनारे से लेकर धामरा नदी के दक्षिणी तट तक के समुद्री तट वाले इलाके का नाम लुनादांड़ी है। इस इलाके के पचास हज़ार से भी अधिक लोगों की आजीविका का एकमात्र साधन नमक उत्पादन था। कोई नमक बनाता तो कोई बनाने वाले की मदद करता है। कुछ व्यापारी होते हैं और कुछ सरकारी कर्मचारी। और जिससे कुछ नहीं बन पाता वह चोरी करता। नमक चोर और चोरी का नमक फुटकर बेचने वालों की तादाद होती। भट्ठीवाले ने नमक जमा किया है। सरकार उसका हिसाब लेगी और बेचेगी।’

सरकार की नीति का शिकार आमजन का होना उपनिवेश-काल में स्वाभाविक बात थी। क्योंकि वह जनता की सरकार नहीं थी। पचास हज़ार लोगों का बेरोजगार होना कम आश्चर्यजनक नहीं है। फकीर मोहन सेनापति तत्कालीन व्यवस्था के एक अंग भी थे इसलिए उन्होंने जो कुछ देखा उसे ही लिखा। कुछ लोग जो उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वे अँग्रेजों के चाटुकार थे, उन्हें इनकी ‘पुनर्मूषकोभव’ कहानी को पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद ने भी ‘नमक का दारोगा’ कहानी आबकारी विभाग में फैले भ्रष्टाचार की पोल खोलती है। फकीर मोहन सेनापति की यह कहानी उस काल के अर्थशास्त्र को समझने में भी काफ़ी मदद करती है। ‘फकीर मोहन सेनापति की कहानियाँ’ के नाम से अनुवाद करने वाले ओड़िया व हिंदी के जाने-माने साहित्यकार व अनुवादक अरुण होता ने लिखा है–‘उन्नीसवीं शताब्दी में ओड़िशा के नमक उद्योग का ख़ास महत्त्व है। अँग्रेजों के षड्यंत्र तथा उनका उद्योग पर एकाधिकार ने ओड़िशा के अर्थशास्त्र को बुरी तरह प्रभावित किया।’

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की करतूतों को समझने के लिए फकीर मोहन सेनापति की कहानियाँ व उपन्यास एक अच्छे साधन के रूप में काम करते हैं। इनकी कहानी ‘सभ्य ज़मींदार’ तंबाकू के कारोबार के मुनाफे और पाश्चात्य शिक्षा प्रभाव में आकर अपनी अच्छी चीज़ व संस्कृति को भी भूल जाने की कहानी है। इस कहानी में फकीर मोहन सेनापति लिखते हैं–‘बाबू बलराम बल कलकत्ता बड़ाबाजार के गद्दीदार महाजन हैं। उत्कल के सभी व्यापारियों के दलाल हैं। पूरे माल का उन्हीं के हाथ से होते हुए आयात तथा निर्यात होता है। लाखों का कारोबार होता है। बरसों पुरानी बात है। रेल का नाम तो लोगों ने सुना न था। स्टीमर भी नहीं चला था। बालेश्वर के जहाज़ों से माल का आयात और निर्यात जारी था। कलकत्ता से आयात होने वाले माल में तंबाकू मुख्य था। कलकत्ता से जहाज़ से माल लाया जाता और बालेश्वर बंदरगाह पर उतारा जाता तो भीड़ लग जाती है। यहाँ से बैलगाड़ियों में सारे उत्कल में भेजा जाता। इसलिए सारे उत्कल में तंबाकू का नाम बालेश्वरी तंबाकू है। सच यह है कि बालेश्वर के लोगों ने तंबाकू का पौधा कभी देखा ही नहीं है।’

ऐसे तो उस जमाने में कलकत्ता को ठगों की खान माना जाता था। वहाँ अँग्रेज सौदागरों की भी ठाट थी। बल बाबू का उनसे संबंध था। गोपाल को अँग्रेजी नहीं आती थी। उनके लड़के राजीव ने वहाँ शिक्षा पाकर एक ईसाई लड़की नयनतारा से शादी करता है। ये जुगल जोड़ी काफ़ी खर्राच हैं। नतीजा यह हुआ कि कलकत्ते के महाजन ने कलकत्ता हाई कोर्ट में बीस हज़ार रुपये की डिक्री करवा दी। अंत में दोनों प्राणी दुर्दशा को प्राप्त होते हैं। फकीर मोहन सेनापति की कहानियों में त्रासदी लगभग हर जगह उपस्थित है। ‘बगुला बगुली’ कहानी का अंत भी त्रासदी से होती है। पासी जाति का सपना और उसकी पत्नी चेमी तत्कालीन ओड़िया समाज का एक भयानक सच है और यह भी कि सुख आदमी को निकम्मा बना देता है और मनुष्य बर्बाद हो जाता है। एक दिन चेमी अपने पति से कहती है–‘ए खाविंद! तुम दूसरे की मजूरी क्यों करोगे? तिन्नी झाड़कर ले आए तो छह महीने तक चल सकते हैं।’ और एक दिन सपना को बुखार होता है और चेमी वैद्य को बुलाकर दिखाती है। सन्निपात था। कस्तूरी-भैरव की गोली के लिए चार रुपये जुट नहीं पाए; जबकि वह अपनी बचाई सारी संपत्ति देने के लिए तैयार है; पर वह बच नहीं  पाता है। चेमी भी उसी के साथ स्वर्ग सिधार जाती है। 

हिंदी और ओड़िया कहानी में समान रूप से चर्चित इनकी कहानी ‘रेवती’ का अंत भी त्रासद तरीके से होता है। यह कहानी रेवती, श्यामबंधु, वसू और रेवती की दादी के जीवन, विचार, अंधविश्वास से सज गई है। श्याम अपनी बेटी रेवती को वसू से पढ़वाना चाहता है पर उसकी बूढ़ी दादी इसे अपशकुन के रूप में देखती है। श्याम की मृत्यु का कारण वह रेवती का पढ़ना मानती है। वसू भी हैजे की वजह अकाल को प्राप्त करता है। रेवती भी बच नहीं पाती। फकीर मोहन सेनापति ने लिखा है–‘इसके बाद श्यामबंधु महांति के परिवार के किसी प्राणी को संसार में कोई और देख न सका। पड़ोसियों ने रात के प्रथम प्रहर में आखिरी आवाज सुनी थी। ‘अरी रेवती, अरी रेवी, अरी मुँहझौंसी, अरी करमजली’!’

फकीर मोहन सेनापति ने प्रेम, अंधविश्वास, शिक्षा, महामारी और जीवन को इस कहानी में इतनी सुंदर तरीके से पिरोया है कि त्रासद अंत के बावजूद भी कला की दृष्टि से यह कहानी बहुत उत्तम बन गई है। 

फकीर मोहन सेनापति के संबंध में नामवर सिंह का चिंतन बहुत ही सकरात्मक और मौलिक है। इनके उपन्यास ‘छमाण आठ गुंठ’ के पात्र भगिया के संबंध में उनकी राय है–‘फकीर मोहन का भगिया संभवत: भारतीय उपन्यास का पहला जीवंत किसान चरित्र है-एकदम एक नया कथानक।’ 

बिल्कुल एक नया कथानक रचने वाले फकीर मोहन सेनापति के कई पात्र बिल्कुल नए अंदाज़ में भारतीय कथा साहित्य में उपस्थित हुए हैं। इनमें उनकी कहानी डाकमुंसी के हरिसिंह और गोपाल, धूलिया बाबू के पात्र राम साहू व श्याम साहू, प्यारी बहू की चंपा व रामहरि बाबू, विमला देवी, नाना और नाती की कथा का गणपति आदि मुख्य हैं। मैनेजर पांडेय ने लिखा है–‘फकीर मोहन सेनापति की कथादृष्टि की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने उड़ीसा के जातीय जीवन की कथा कहते हुए भी भारत के राष्ट्रीय जीवन के वर्तमान और भविष्य को भी अपनी दृष्टि में रखा है।’ ‘पेटेंट मेडिसिन’ और ‘अधर्म वित्त’ उनकी प्रसिद्ध कहानियों में से है। ‘अधर्म वित्त’ में ओड़िशा के इतिहास की एक सुंदर झलक का दर्शन होता है। गढ़जात (सामंत शासित क्षेत्र) और मुगलबंदी (मुग़ल शासित) इलाके की जानकारी होती है। मुग़लों और गढ़जातों में शादी-ब्याह भी होता था। सोनपुर, हरिहरपुर की ऐतिहासिक बानगी भी इस कहानी को इतिहास के साथ जोड़ता है। यह कहानी ओड़िशा, बिहार, बंगाल की सामाजिक-व्यापारिक जीवन पर भी फोकस करती है। ललन प्रसाद सिंह ने भी फकीर मोहन सेनापति के उपन्यास ‘छमाण आठ गुंठ’ को महान कृति बतलाया है, साथ ही यह भी बतलाया है कि वहाँ के किसान ‘नई मुद्रा की अनुपलब्धता की वजह से किसान मालगुजारी व लगान अदा करने में असमर्थ हो गए। जिसके कारण हज़ारों कृषकों की अपनी पुश्तैनी भूमि ही बिक गई। रातों-रात कलकत्ता के धनासेठ तथा कुलीन लोग उड़ीसा के जमींदार-जागीरदार बन गए।’ ‘सभ्य जमींदार’ कहानी में भी एक रात में ही जमींदार गोपालचंद्र के बेटे व बहू बगुला-बगुली (दीन-हीन) बनने पर विवश हो जाते हैं। उनकी जमींदारी निलाम हो जाती है।

फकीर मोहन सेनापति ने अपनी कहानियों में युग का यथार्थ लिखा है। अँग्रेजी सरकार की कारगुजारियों से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर उनका ध्यान सदैव बना हुआ दिखता है। वे पुरोहितों और ब्राह्मण जनों की चतुराई पर अपनी कहानियों में टिप्पणी करने से बाज नहीं आते। ‘मौना-मौनी’ तथा ‘नाना और नाती की कथा’ कुछ इसी तरह की उनकी कहानियाँ हैं, जहाँ वे पाखंडी साधुओं की पोल खोलते और धर्म को झूठ से सँवारने वाले पुरोहितों की मान्यताओं को वे खंडित करते हैं।

फकीर मोहन सेनापति की कहानियों व उपन्यासों को पढ़ने पर ऐसा जान पड़ता है कि उनका प्रभाव प्रेमचंद के लेखन पर गहरे में है। लेकिन प्रेमचंद उन्हें पढ़े थे, ऐसा सबूत मेरे पास नहीं है। शायद इसीलिए नामवर सिंह ने प्रेमचंद कथा साहित्य के ‘पूर्वाभास’ के तौर पर फकीर मोहन को रेखांकित किया है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि फकीर मोहन सेनापति ने अपने कथा साहित्य से उन्नीसवीं शताब्दी के सत्यबोध से हमें गहराई से परिचित कराया है। इनकी कहानियाँ ईस्ट इंडिया कंपनी, ब्रिटिश उपनिवेशवाद, महाजनी सभ्यता, पुरोहितों की चतुराई, ओड़िया समाज और जनजीवन का यथार्थ, त्रासदपूर्ण जिंदगी, अर्थाभाव, संघर्ष व महामारी का ऐसा सच्चा चित्रण करते हैं कि ओड़िया समाज का बीता कल चित्रपट की भाँति आँखों के सामने दिखने लगता है, जहाँ महामारी, सन्निपात, अकाल और ऊपर से उपनिवेशवादी शोषण जीवन को बद से बदतर बना दिया है।