हिंदी कहानी में श्रमिक जीवन

हिंदी कहानी में श्रमिक जीवन

मानव इतिहास की हर सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में सर्व मानव सुख और शांतिमय जीवन को कायम रखना ही प्रधान उद्देश्य रहा था। तदनुरूप नियम, कानून और व्यवस्थाओं का निर्माण भी हुआ। लेकिन, मानव समाज का यह प्रयास व्यावहारिक रूप में शत-प्रतिशत सफल होना संदेहास्पद ही है। इसका प्रधान कारण नियमों, कानूनों और व्यस्थाओं को कड़े रूप में पालन करने में होनेवाली समस्याएँ और समय-समय पर मानव चिंतन में वृद्धि, वैज्ञानिक तरक्की, जीवन स्तर में आनेवाले बदलाव आदि के कारण पुराने नियमों, कानूनों और व्यवस्थाओं के संशोधन की आवश्यकता होती है। यदि परिवर्तित परिस्थितियों व परिवेश के अनुरूप व्यवस्था में बदलाव नहीं लाया जाता है, तो व्यक्तियों के जीवन स्तर में पुरोगति असंभव है। मनुष्य-मनुष्य के बीच अंतर प्रकट होते हैं। असमानता का बीज यहीं से अंकुरित होता है। समाज में प्रधानतया दो क्षेत्रों में असमानताएँ देखने को मिलती हैं, सामाजिक स्तर और आर्थिक स्तर पर। ये दोनों व्यक्ति, परिवार और समाज को शासित करनेवाले प्रधान तत्व हैं। इनके कारण ही व्यक्ति या समुदाय में कुंठाएँ, श्रेष्ठता-न्यूनता, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब जैसी असमानताएँ पनपती हैं। ये ही असमानताएँ अधिकांशतः सामाजिक संघर्ष की मूल होती हैं। 

भारतीय समाज सामासिक संस्कृति की विशेषता रखता है। भिन्न क्षेत्रों के भिन्न समुदाय, भिन्न संस्कृतियाँ, भिन्न जीवन शैलियाँ, भिन्न धर्म, भिन्न वर्ग भारतीय समाज की विशेषताएँ हैं। लेकिन, जहाँ इन्हें हम विशेषताएँ कहते हैं, वहीं ये समाज के बँटवारे के तत्व भी रहे हैं। परंपरागत वर्ण व्यवस्था के विकृत रूप से विकसित जाति व्यवस्था, छुआ-छूत और आर्थिक स्तर के अंतर से श्रेष्ठता-न्यूनता के भाव फैलकर समाज वर्गों में बँट गया है। सामाजिक और आर्थिक अंतर व्यक्ति और समुदायों में श्रेष्ठता और न्यूनता ग्रंथि को विकसित करता है। यही भारतीय समाज के साथ भी हुआ। वर्ण, जाति, धर्म, प्रदेश, भाषा, समुदायों में बँट गए भारतीय समाज में, आज भिन्नताएँ शाखोपशाखाओं में विस्तरित होकर अपनी जड़ों को मजबूत करती जा रही हैं। 

भारतीय समाज में प्राचीनकाल के लोगों के जीवन का आर्थिक आधार कृषि रही थी और अब भी 70 प्रतिशत कृषि पर ही निर्भर हैं। मानव समुदाय के आरंभिक जीवन काल में कृषक स्वेच्छा के साथ कृषि करते थे। लेकिन, धीरे-धीरे समाज में आनेवाले बदलाव विशेषतया आधुनिक काल में उनके व्यवसाय जीवन पर और गहरा प्रभाव डालते आए हैं। साहूकार, सेठ, जमींदार आदि व्यवस्थाओं के आविर्भाव के कारण इनके दबाव में कृषकों और खेत में काम करनेवाले मजदूरों को आना पड़ा था। उन्हें सेठ, साहूकारों और जमींदारों के शोषण का शिकार बनना पड़ता था। इन्हें ही नहीं सेठ, साहूकार, जमींदार आदि के शोषण और अत्याचारों का शिकार उनकी स्त्रियों को भी होना पड़ता था। परिणामस्वरूप, वे आर्थिक रूप से ही तबाह नहीं होते थे, अपितु, पारिवारिक मान-मार्यादा की दृष्टि से भी बरबाद होते थे। इस प्रकार की कई घटनाएँ इतिहास के पन्नों में देखने को मिलती हैं। 

भारत की स्वतंत्रता के पहले तक समाज में कृषकों और मजदूरों की यही स्थिति रही थी। प्रेमचंद जैसे रचानाकारों ने अपनी रचनाएँ–गोदान, कफन आदि में इनके जीवन की करुण कथा को चित्रित किया है। स्वतंत्रता के बाद निर्मित कानून व्यवस्था के कारण कृषक और मजदूरों की इस स्थिति में सुधार आई तथा जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन हुआ। आधुनिक युग में उद्योग और प्रौद्योगिकी का विकास हुआ है। सूचना प्रौद्योगिकी और औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप भारत की आर्थिक व्यवस्था में बदलाव आया, लेकिन इसके साथ-साथ लोगों में आर्थिक लोभ की मानसिकता भी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। गरीब तो गरीब रह गए हैं। अमीर और अमीर बनते जा रहे हैं। निम्न वर्ग निम्न-मध्य-वर्ग में और मध्य वर्ग उच्च-मध्य-वर्ग में तबदील हुए हैं। आज भारत के लोगों के आर्थिक स्तर के विकास का मूल कारण प्रवास होना कहा जा सकता है। गाँव में रहनेवाले मजदूरी की तलाश में शहर और महानगर की ओर निकलकर अपने जीवन स्तर को विकसित करने में संघर्षशील रहे हैं। भारत में अधिकांश समस्या उन प्रवासियों की होती है, जो गाँव से शहर को मजदूर के रूप में प्रवासित होते हैं, लेकिन इनकी उम्मीदों के अनुसार उनका जीवन नहीं गुजरता। इसका प्रधान कारण समय-समय पर आर्थिक परिस्थितियों में आनेवाले बदलाव और प्राकृतिक विपदाएँ जैसे बाढ़, अकाल, सूखा, छूत की बीमारियाँ कहे जा सकते हैं। कभी-कभी बाढ़ के कारण समस्या उत्पन्न होती हैं, तो कभी संक्रमित बीमारियों के कारण। आज विश्व को तड़पा रही बीमारी कोविड-19 जैसी लंबे समय के लिए मानव जीवन को प्रभावित करनेवाली परिस्थितियाँ भी निम्न वर्ग के जीवन को बुरी तरह से तबाह कर देती हैं। सन् 1918 में प्लेग जैसी छूत की बीमारियाँ फैली थी, लेकिन हिंदी साहित्य व अन्य भारतीय साहित्य में ऐसी बीमारियों से प्रभावित मानव जीवन का अधिक जिक्र नहीं मिलता है। उस समय भी भारत में करोड़ से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। भारत ने कॉलरा, क्षय, चेचक जैसी छूत की बीमारियों और अनेक प्राकृतिक विपदाएँ जैसी अकाल, सूखा, बाढ़, आँधी आदि के कारण लाखों की मृत्यु समय-समय पर होते हुए देखा और लाखों लोगों को विडंबनात्मक जीवन बिताना पड़ा। ऐसे में लोगों की जान का नुकसान ही नहीं आर्थिक रूप से जीवन तबाह हुआ था। हरिवंशराय बच्चन की कविता ‘बंगाल का अकाल’ मानव की असह्य स्थिति का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। ऐसी विपदाओं  में लोगों का, विशेषतः गरीब और निम्न वर्ग के लोगों का जीवन संकटग्रस्त होता है। कहानीकार मार्कण्डेय की कहानी ‘दाना-भूसा’ सूखे के कारण प्रभावित गरीबों की यथार्थ गाथा को प्रस्तुत करती है। सूखा हो या अकाल या और कोई विपदा, मानवीय संबंध ही नहीं, बल्कि आत्मीय संबंध और मानवता भी थरथराती है। यही गरीबों के जीवन की विडंबना है। 

प्राकृतिक विपदाओं के सामने मानव की शक्ति फीकी पड़ जाती है। अमीर व्यक्ति धन के बलबूते अपनी जान बचा लेता है, लेकिन सामान्य व गरीब व्यक्ति को पेट की भूख मिटाने के लिए जूझना पड़ता है। थोड़े पैसे रखने के बावजूद धन के अभाव के कारण उसकी खरीददारी नहीं हो पाती है। सूखा जैसी प्राकृतिक आपदा में भूख मिटाने के लिए गरीबों को होने वाली पीड़ा रामदरश मिश्र की कहानी ‘माँ सन्नाटा और बजता हुआ रेडियो’ में देखी जा सकती है। इस कहानी का पिता बच्चों की भूख मिटा न पाने की अशक्तता और सूखे से उत्पन्न भयानक स्थिति को लेकर चिंताग्रस्त हो जाता है कि–क्या खाती थी, अरे खाने को और मिलता भी क्या? चना, मटर, मक्का, सत्तू, भूजा और वह भी  कहाँ मिलता है। इन दिनों घर-घर तो भूख दहाड़ रही है, पैसा देने पर भी अब कोई अन्न नहीं मिलता।

सूखे के कारण किसान को आर्थिक रूप से ही नहीं खाद्य पदार्थों को संग्रह करने में भी समस्या का सामना करना पड़ता है। सूखे के कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न होती है। सूखे में फसल सूख जाती हैं, जिससे अन्न भी मयस्सर नहीं होता। किसान के लिए यह दोहरी आपत्ति की स्थिति होती है। एक ओर उसकी फसल सूख जाती है, तो दूसरी ओर उससे लगान भरना मुश्किल हो जाता है, जिसके कारण उसे कर्ज लेना पड़ता है और उसके लिए उसे ब्याज पर ब्याज चुकाते हुए कंगाल होना पड़ता है। सूखा जैसी प्राकृतिक विपदाओं से किसान को संकटों के नीचे दबना पड़ता है। सूखे के कारण किसान की होनेवाली दयनीय स्थिति गिरिराजशरण अग्रवाल की कहानी सर्टिफिकेट के पिता की जैसी ही होती है। वह न बच्चों की भूख को मिटाने में समर्थ होता है, ऊपर से सूख गई फसल, उस पर लगान उसकी चिंता को दुगुना करते हैं कि कुछ तो करना ही होगा…लगान अभी तक माफ नहीं हुआ है, कर्ज का भुगतान जरूरी है। पाँच-पाँच का पेट पालना है। एक बार तो सोचा कि कहीं भाग जाए और इन सारी मुसीबतों से एक ही साथ छुटकारा पा जाए। ऐसी स्थिति में मनुष्य जीवन से पलायन करने के लिए विवश होता है। इसीलिए आज किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएँ हो रही हैं।

प्राकृतिक प्रकोप के कारण जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार सेठ-साहूकारों के अमानवीय व्यवहार के कारण भी अपमानों को सहते हुए अभावग्रस्त जीवन उन्हें जीना पड़ता है। प्राकृतिक प्रकोप के कारण अपना खेत छोड़कर दूसरे गाँव में मजदूरी के लिए जानेवाले किसान के खेत पर सेठ-साहूकार कब्जा कर लेते हैं। मृदुला गर्ग की ‘बेनकाब’ कहानी में खेत को छोड़कर पेट को हाथ में पकड़कर जानेवाले किसान के साथ सेठ-साहूकारों के द्वारा किए जानेवाले अन्याय इस तरह के होते हैं कि गाँव में सूखा पड़ गया था, जमीन बंजर हो गई थी। बापू और भाई दूसरे गाँव दूसरों के खेतों पर मजदूरी करने गए थे और पीछे चौधरी खा गया उनका अपना खेत। जोत ली थी धरती ट्यूबवेल खुदवाकर। मना किया था बापू के सब भले आदमियों ने, कोर्ट कचहरी मत करो। सबने सलाह दी थी, नेक सलाह, पर बापू नहीं माने। भाई को लेकर शहर चले गए नालिश करने और पीछे से पुलिस आकर हम माँ-बेटे को पकड़ ले गई।

बाढ़ आती है, तो ग्रामीणों की जिंदगी यातनाग्रस्त होती है। खाने तक के लिए उन्हें तरसना पड़ता है। ऐसे में ज्यादा समस्या उन लोगों को होती है, जो पैसा कमाने के लिए गाँव छोड़कर शहर के लिए प्रवास गए होते हैं। वे अपने परिवारजनों के बारे में सोचकर चिंतित होने के बजाय और कुछ नहीं कर सकते। आर्थिक मजबूरियों के कारण प्रवासी जीवन जीनेवाले लोगों की जान बाल-बच्चों और परिवार को लेकर ऐसे ही तड़पती हैं जैसे अशोक कुमार सिन्हा की ‘बैरी पइसवा हो राम’ कहानी के पिता की तड़पती है–नवाँ माह चल रहा है फुलनी के गर्भ-धारण के। कहाँ होगी वह बाढ़-दहाड़ के बीच। कैसे होगी, सोच-सोचकर हरखू का मन घबरा रहा है। अगर फुलनी ने अपना बच्चा बाढ़ में ही जन दिया तो? वह नवजात शिशु को लेकर कहाँ होगी…कौन बताए उसे।

प्राकृतिक विपदाएँ जहाँ किसान, मजदूर व गरीबों की जिंदगी से खिलवाड़ करती हैं, वहीं जमींदार, सेठ-साहूकारों के द्वारा भी मजदूर और किसानों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी जमींदारों के द्वारा मजदूर लोग  धमकाये जाते हैं। ऐसे लोगों की धमकियों से परेशान नारी का चित्रण रामदरश मिश्र ने ‘सवाल के सामने’ कहानी में  किया है। इस कहानी में मजदूर और उसके बेटे की हत्या की जाती है। जब मजदूर की पत्नी गवाह देने जाती है, तो जमींदार के गुंडों के द्वारा इस प्रकार वह धमकायी जाती है कि अब तो तुम्हारा मरद और बेटा वापस आएँगे नहीं। अगर तुमने मुकदमे में कुछ ऐसी-वैसी गवाही दी तो तुम्हारा यह लड़का भी नहीं बचेगा।

सिर्फ धमकी ही नहीं कभी-कभी उनकी भलाई करने के नाम पर सेठ-साहूकार व गाँव के प्रधान कमजोर और नादान लोगों का शोषण करते हैं। यह व्यवहार आज के राजनीतिक क्षेत्र में भी व्याप्त है। शिवमूर्ति की ‘कसाईबाड़ा’ कहानी में लोगों की भलाई के नाम पर बुराई करनेवाले गाँव के प्रधान का यह व्यवहार आज के स्वार्थी और भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं की याद दिलाता है कि अपना परधान कसाई है। इसने पैसा लेकर हम सबको बेच दिया है। शादी की बात धोखा थी। हम सबको पेशा करना पड़ता है। जिस तरह गाँव में सूखापन, बाढ़, तूफान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण जीवन तबाह हो जाता है तथा सेठ-साहूकारों के शोषण के कारण जीवन यातनामय बन जाता है, उसी प्रकार शहर में काम करने वाले मजदूरों को भी अपने जजमानों के द्वारा किए जानेवाले शोषण का शिकार होना पड़ता है। कभी-कभी उनसे ओवरटाइम करवाते हैं, लेकिन उसका मेहनताना नहीं देते। इस प्रकार ओवरटाइम करनेवाले मजदूरों की स्थिति संजीव की ‘भूखे रीछ’ कहानी के पिता की स्थिति जैसी ही होती है–ओवरटाइम के पैसे न मिले तो खर्च चले कहाँ से और एफ.एस. के बंगले की रखवाली न किया करे तो रहे कहाँ? उनके सर्वेंट्स क्वार्टर में रहने से घर-भाड़े की तो बचत हो जाती है। पाँच-पाँच खानेवाले और घर जो पैसा भेजने पड़ते हैं सो अलग।

इतना ही नहीं, सालों भर की मजदूरी के बावजूद पैसा इकट्ठा न कर पाने के कारण मजदूरों को वेदनाग्रस्त होना पड़ता है। अपनी संपूर्ण जिंदगी की मेहनत के बावजूद एक कौड़ी भी बचा न पाने की विवशता सामान्य मजदूर व नौकरों के लिए चिंता का कारण बनती है। संजीव की कहानी ‘भूखे रीछ’ के रामलाला जिंदगी भर मेहनत करने के बावजूद रोजमर्रे की जरूरतों की पूर्ति करने में असमर्थ होता है कि इस कारखाने ने उसके पंद्रह साल निगल लिए हैं–जवानी के कीमती पंद्रह साल और बदले में दिया है क्या इस पंद्रह साल के सफर में? अभी तक ऐसा मुकाम नहीं आया कि कभी  इत्मीनान से पेट भरने और तन ढकने की जरूरतों को पूरा कर सके।

ठेकेदारों के द्वारा भी मजदूरों को अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दिन भर काम करने के बावजूद उनकी मजदूरी देने के लिए ठेकेदार तैयार नहीं होते हैं। इस कारण भी उनको भरपेट भोजन नहीं मिलता तथा बीमारियों का इलाज भी नहीं करा पाते हैं। मजदूरों की दयनीय स्थिति के लिए बाध्य ठेकेदारों का अमानवीय व्यवहार संजीव की कहानी ‘गुंजन शर्मा बीमार है’ के ठेकेदार के जैसे अंतहीन रहता है–आज भी ठेकेदार आदित मुखिया ने मजदूरी नहीं दी जबकि उसे काम करते हुए दस दिनों से भी ज्यादा हो गए। यह भीतर से इतना टूट चुका है कि अब घर लौटने के नाम से ही उसे दहशत सी होने लगती है, लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं, वह जाए कहाँ!

फैक्टरी में काम करनेवाले मजदूरों की भी समस्याएँ कम नहीं हैं। यदि कोई मजदूर दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है, तो मुआवजा देकर उसकी छुट्टी कर दी जाती है। उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है। परिवार पर मुश्किलें टूट पड़ती हैं। फैक्टरियों में काम करनेवाले मजदूरों की समस्याओं पर ‘खोटे सिक्के’ कहानी में मन्नू भण्डारी ने प्रकाश डाला है। इस कहानी के मालिक का अमानवीय व्यवहार मजदूरों के जीवन को किस तरह समस्यात्मक बनाता है, इस संवाद से स्पष्ट होता है कि ‘नौकरी में टाँग गई तो मुआवजा नहीं मिल गया दो सौ रुपये, अब क्या जागीर लिख दूँ उसके नाम? चपरासी बाहर निकालो इसे।’  

मजदूरों का जीवन हमेशा अपमानों को सहते हुए गुजरता है। इन्हें समाज में ही नहीं अपितु, अपने यजमान और उसके परिवारवालों के द्वारा किए जानेवाले अपमानों को सहते हुए जिंदगी व्यतीत करनी पड़ती है। उनके अपमानों से तरस खाकर कभी-न-कभी उन्हें मुँह खोलना पड़ता है, तो तब भी अपमान उन्हें नहीं छोड़ता। अरविंद कुमार सिंह की कहानी ‘सती’ की मजदूर माँ इसका जीता-जागता उदाहरण है। अपनी संतान के साथ उच्च वर्ग के अपने यजमान के बच्चे के द्वारा अपमानजनक व्यवहार किया जाता है, तो उससे बरदाश्त नहीं होता। जब यजमान के बच्चे और उसके दोस्तों के द्वारा उसके बेटे को जूठा खिलाने की चेष्टा की जाती है, तो वह उसका प्रतिघटन करते हुए अपना आत्माभिमान का परिचय देती है कि दो जून की रोटी मिलने लगी है तो राजा मत समझो खुद को। अक्सर निम्न वर्ग या मजदूर वर्ग के साथ होनेवाले अमानवीय व्यवहार पर राजेश कुमार बुद्ध ने ‘आतंक’ कहानी में गौर किया है। गाँव के उच्च वर्ग के प्रति आवाज उठानेवाली महिला के साथ उच्च वर्ग का यह सख्त व्यवहार होता है, जो इस कहानी के उच्चवर्ग के व्यक्ति के द्वारा गाँव के लोगों को दिए गए इस आदेश से पता चलता है कि राखी को खाना-पानी देने की किसी ने कोशिश भी की तो उन्हें भी पीटा था जिससे गाँव के लोग भयभीत हो गए। यही नहीं गाँववालों को इतना आतंकित कर दिया गया कि कोई भी व्यक्ति खाना-पानी देने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाया। परिवार के अन्य लोगों को उनके घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी गई। 

उच्च वर्ग के लोगों के निम्न वर्ग पर किए जानेवाले जुर्मों में उन्हें शिक्षा से वंचित रखना भी एक है। उच्चवर्ग के शिक्षक द्वारा निम्न वर्ग के छात्रों को दी जानेवाली मानसिक वेदना का चित्रण रतन वर्मा ने ‘बलात्कारी’ कहानी में किया है। इस कहानी का लड़का बिल्टुआ के साथ होनेवाले शिक्षक का बदव्यवहार, परिणामस्वरूप निम्न वर्ग के छात्र उन्नति से वंचित रह जाने की बात स्पष्ट होती है कि बदतमीज, बोलने का शउर नहीं और चला है हमारे स्कूल में पढ़ने। चल भाग यहाँ से। भागता है या…यानी उस बड़का इस स्कूल में नामांकन नहीं हो पाया था बिल्टुआ का। फिर तो उसने भी कोई जिद नहीं की थी दुबारा पढ़ने की।

आधुनिक हिंदी कहानी साहित्य प्राकृतिक विपदाओं के कारण यातनाओं से गुजरनेवाले निम्नवर्ग की दीन गाथा को ही नहीं, बल्कि समाज के उच्च वर्ग के चंद लोगों के द्वारा किए जानेवाले शोषण, अत्याचारों और अपमानों को सहते हुए, विडंबनात्मक जीवन जीने के लिए मजबूर होनेवाले निम्नवर्ग के यथार्थ जीवन को प्रस्तुत किया गया है।


Image: Memory Head
Artist: Anunaya Chaubey
© Anunaya Chaubey

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