हवा में लहलहा रही ‘कलगी बाजरे की’

हवा में लहलहा रही ‘कलगी बाजरे की’

क्या है जिससे कविता को आवृत्ति नहीं, सृष्टि का गौरव मिलता है? यह गौरव मिलता है शब्द को नया संस्कार देने से, नये प्रतीकों के निर्माण से, पुराने प्रतीकों में नया अर्थ भरने से। जीवंत काव्य हमेशा नये प्रतीकों की सृष्टि करता है या पुराने प्रतीकों में नया अर्थ भरता है। दरअसल निरंतर प्रयोग से शब्द का चमत्कार मरता जाता है। कविता की भाषा निरंतर गद्य की भाषा होती जाती है। कवि के सामने हमेशा चमत्कार सृष्टि की समस्या बनी रहती है–वह शब्दों को निरंतर नया संस्कार देता चलता है और वे संस्कार क्रमशः सार्वजनिक मानस में पैठ कर फिर ऐसे हो जाते हैं कि उस रूप में कवि के काम के नहीं रहते। यहाँ चमत्कार का अभिप्राय मात्र उक्ति वैचित्र्य नहीं है। चमत्कार का अभिप्राय है एक नया संघात उत्पन्न करना, जिससे चेतना की पर्तें अधिक संवेदनशीलता से ग्रहण कर सकें। भाषा की इस समस्या से टकराये बिना कवि कर्म चल ही नहीं सकता। अज्ञेय इस समस्या से बराबर टकराते रहे हैं। इसी प्रक्रिया में उन्होंने नये अर्थवान शब्दों को ढूँढ़ा है, शब्दों में नया अर्थ भरा है और ऐसे बिंबों की कल्पना की है जो सर्वथा नये और अछूते हैं। ‘हरी घास पर क्षण भर’ संग्रह की कविता ‘कलगी बाजरे की’ प्रारंभिक पंक्तियाँ कवि की इस समस्या को तीखी, सुंदर और सारगर्भित अभिव्यक्ति देती हैं–‘हरी बिछली घास/दोलती कलगी छरहरी बाजरे की/अगर मैं तुम को ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका/अब नहीं कहता/या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुई/टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो/नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है/या कि मेरा प्यार मैला है।/बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं/देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।/कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।’

कवि के ऐसा महसूसने का कारण, नये प्रतीकों की भाषा में बात करने का कारण केवल काव्यशास्त्रीय नहीं, बल्कि उसके नेपथ्य में समय का बदला हुआ संदर्भ भी है। समय के बदलने के साथ कविता की शैली, संरचना, भाषा और अंतर्वस्तु का भी बदलना, नया और विकसित होना लाजिमी है। उत्कंठा, आत्मीयता, गहराई, सहजता और औदात्य के निकष आज की कविता में वे नहीं हो सकते हैं, जिनकी बदौलत वह समृद्ध माना जाता था, वे अब रूढ़ियाँ हैं। उन पर दूसरे या पूर्ववर्ती कवियों की प्रतिभा ही नहीं, उनके समय की भी छाप है। इसी मानी में वे ‘वे मैले हो गए हैं।’ उनकी महज आवृत्ति या अनुकरण कर सकते हैं, पर वह सृजन नहीं होगा, क्योंकि उसमें मौलिकता नहीं होगी। मौलिकता, यानी अपने जिये हुए जीवन का ताप और व्याकुलता, उससे छनकर प्रकट हुआ अपनी आत्मा का वैशिष्ट्य। पहले से चले आ रहे प्रतीकों में हमारी आत्मा, हमारे समय की अभिव्यक्ति नहीं है। इसी अर्थ में ‘देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।’ अनुकरण करते हुए हम रच नहीं सकते, तो जी भी नहीं सकते, क्योंकि परिस्थिति लगातार परिवर्तनशील है, तो उससे प्रतिकूल होने का हमारा ढंग भी हमेशा नया होने का बाध्य है। इसलिए अज्ञेय की यह कविता सृजन की चुनौती से जितनी संबंधित है, उतनी ही नये जीवन बोध से भी। कभी सीता के सौंदर्य पर लिखते हुए तुलसी ने अफसोस जाहिर किया था कि ‘मैं सीता की उपमा किससे करूँ, क्योंकि सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूठा कर रखा है–‘सब उपमा कवि रहे जुठारी, केहि पटतरौं बिदेहकुमारी।’ दीगर बात है कि तुलसी के ऐसा लिखने पर किसी को आपत्ति नहीं हुई, लेकिन अज्ञेय ने वही बात कह दी तो हंगामा खड़ा हो गया।

बहरहाल, सारभूत मंतव्य यह है कि कविता हो या प्यार, पायी हुई भाषा में मुमकिन नहीं है। उस भाषा को अपने संघर्ष-अपनी संवेदना, सौंदर्य बोध और विचारशीलता से अर्जित करना पड़ता है। अन्यथा रूढ़ियाँ ही हमारी असमर्थता का विज्ञापन बन जाती हैं। हर सच्चा कवि अनिवार्यतः इस चुनौती को महसूस करता है। नया और अद्वितीय होने में ही कवि कर्म की सार्थकता है। अकारण नहीं कि निराला अपनी कविता में बार-बार नव्यता का विकल आह्वान करते हैं। ‘कल्पना के कानन की रानी’ से उनका यह अनुरोध गौरतलब है–‘मेरी अखिल पुरातनप्रियता हर दो, मुझको एक अमर वर दो, मैंने जिसकी हठ ठानी।’ नव्यता ओर विशिष्टता का आग्रह–जैसा कि पहले कहा जा चुका–शुद्ध काव्यशास्त्रीय नहीं, बल्कि संस्कृति या मूल्यों के सवाल से अंश्लिष्ट है।

अज्ञेय की इस कविता में प्रिया के लिए ‘तारिका’, ‘नीहार-न्हायी कुंईं’ और ‘चंपे की कली’ के बजाए ‘दोलती कलगी छरहरी बाजरे की’ और ‘हरी बिछली घास’ सरीखे रूपक का इस्तेमाल निश्चय ही छायावादी और उत्तर छायावादी सौंदर्य बोध और मूल्य दृष्टि से कवि के क्रांतिकारी अलगाव या भिन्नता का जबर्दस्त साक्ष्य है। गौरतलब है कि ‘हरी घास पर क्षण भर’ के बाद के संकलन ‘बावरा अहेरी’ की 1952 में लिखी कविता ‘नख शिख’ में अज्ञेय ने खुद अपनी प्रिया को दुहराए गए उपमान ‘कनक चंपे की कली; कहकर संबोधित किया है–‘तुम्हारी देह मुझको कनक चंपे की कली है, दूर से ही स्मरण में भी गंध देती है।’ जबकि इस कविता में वे ‘कनक चंपे’ की कली उपमान का निषेध करते हैं। इससे साफ प्रकट होता है कि परंपरागत परिपाटी से भिन्न मूल्य बोध को स्थापित करना इस कविता की रचना के केंद्र में रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में कविता की अगली पंक्तियों में प्रयुक्त ‘आज’ शब्द को समझा जा सकता है–‘आज हम शहरातियों को पालतू मालंच पर सँवरी जूही के फूल से/सृष्टि के विस्तार का–ऐश्वर्य का–औदार्य का–/कहीं एक सच्चा, कहीं एक प्यार प्रतीक, बिछली घास है/या शरद के साँझ के सूने गगन की पीठिका पर/दोलती कलगी अकेली बाजरे की।’ यानी पुराने समय से भिन्न सृष्टि के विस्तार, ऐश्वर्य और औदार्य का प्रतीक आज ‘बिछली घास’ और ‘अकेली कलगी बाजरे की’ हो सकती है, पालतू बनाकर रखा गया बनावटी से ढंग से सँवरा हुआ जूही का फूल नहीं। एक अन्य कविता ‘छंद’ है या ‘फूल’ में भी अज्ञेय निश्चयपूर्ण स्वर में यह कहते दिखते हैं–‘कौन सा वह अर्थ जिसकी अलंकृति कर नहीं सकती, यही पैरों तले की घास?’ यह परंपरा से चले आ रहे सौंदर्य के अभिजात, उपमानों के विपरीत सर्वव्यापी प्रकृति की निपट साधारणता में सुंदरता खोजने और देखने की हिमायत है। इस अर्थ में यह कविता अज्ञेय से जुड़े मिथक को तोड़ती है कि वे अरबन, अभिजात व्यक्तिवादी, कलावादी कवि थे।

‘बिछली घास’, ‘लहलहाती हवा में कलगी बाजरे की’ कहना सिर्फ नव्यता और विशिष्टता का आग्रह और साधारण की हिमायत भर नहीं है। यह स्वयं अज्ञेय के शब्दों में निजी, सहज, गहरे बोध और प्यार से कही गयी बात है। क्या है वह निजी बोध? क्या खूबी है ‘बिछली घास’ में? घास तनती नहीं, अंतःस्मित, अंतःसंयत सहज बिछी होती है। कोई आकर रौंदे तो भी उग-उग आती है। अदम्य जिजीविषा और सिसृक्षा है उसकी। आँधी तूफान में बड़े-बड़े वृक्ष उखड़ जाते हैं लेकिन घास बची रहती है, अपनी नव्यता के कारण। अकड़ नहीं उसमें, प्रकृति की लय के साथ एक समर्पण है। कहने को कोई कह सकता है कि प्रेम में प्रिया की यह समर्पित छवि स्त्री की पारंपरिक छवि का ही पोषण है। स्त्री झुकी रहे, बिछी रहे, समर्पित रहे। अज्ञेय का पुरुषवादी अहं यही चाहता है। ऐसा लग सकता है अगर हम इन पंक्तियों को न देखें–‘मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी : तुम्हारे रूप के, तुम हो, निकट हो, इसी जादू के–निजी किस सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ–।’ जिसके भीतर प्यार की पहचान है, उसकी अंतःप्रक्रियाओं का नितांत निजी और गहरा बोध है, जिसने भी प्रेम यज्ञ में आहुति दी है वह जानता है कि झुक जाने, लचीला होने पर ही प्रेम टिका रहता है। अकड़ आई की प्रेम गया। प्रेम का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण आधार आजादी हवा में ही प्रेम की फसल लहलहाती है जैसे ‘लहलहाती हवा में कलगी बाजरे की।’

बिछली घास और हवा में लहलहाती, दोलती बाजरे की कलगी में जो गत्यात्मक सौंदर्य है, वह कटी-छंटी सँवरी जूही में कहाँ! कहना न होगा कि यह संचित सौंदर्य अलक्षित ही रह जाता अगर इसे अज्ञेय जैसे सौंदर्यग्राही कवि की दृष्टि न मिलती। दरअसल एक सौंदर्य होता है जो इन वस्तुओं में है। दूसरा सौंदर्य वह है जो इस रूप में श्री और कवि दृष्टि की राग श्री के योग से उत्पन्न होता है। यह दूसरा सौंदर्य ही रस है, बल्कि रसायन है, राज रसायन है। अज्ञेय के इन नये उपमानों में पाठक को वही रस मिलता है।

जिस कवि के पास ऐसी मर्मग्राहिणी सौंदर्य दृष्टि हो, उसी का देखना सचमुच का देखना है। उसके देखने में पूरी दुनिया घनीभूत होकर सिमट आती है। ऐसी प्राणवान, सघन दृष्टि के कारण ही तो अज्ञेय के लिए बिछली घास और बाजरे की कलगी में ही पूरी कायनात सिमट जाती है–‘और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ, यह खुला वीरान संसृति की घना हो सिमट आता है–’ जैसे प्रेम के क्षण में प्रिया में संपूर्ण सृष्टि समाहित हो जाती है और घट जाता है पूर्ण समर्पण। उस एकांत समर्पण के स्वतः संपूर्ण क्षण को जिसने भोगा, जिसने उस जादू को शब्द में बाँधने की कोशिश की वहीं जान पाता है कि एक सीमा के बाद यह कोशिश व्यर्थ है। जीवन शब्द से बहुत बड़ा है। अज्ञेय में शब्द के मुकाबले जीवन की विशालता की बहुत गहरी और उत्कट चेतना है। इसलिए जीवन के ऐसे अनुभव को शब्दों के जादू में पिरोने की भरसक कोशिश के बाद वे पूछ बैठते हैं–‘शब्द जादू हैं/मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है?’

प्रेम की अनुभूति को शबें में पिरोना, प्रकृति के सौंदर्य को शब्दबद्ध करना एक रस है। लेकिन उस सौंदर्य के आगे नतमस्तक हो जाना, एकांततः समर्पित हो जाना महारस है। शब्दबद्ध करने से साहित्य समृद्ध होता है और आपाततः डूबने से जीवन। वास्तविकता तो यह है कि अनुभूति वास्तव घटना है, घटमान है, अस्ति है जो सम्प्रेषित हो ही नहीं सकती। केवल उसकी अभिव्यक्ति, उसकी जानकारी, धारणाओं पर आधारित उसकी एक पहचान का ही संप्रेषण हो सकता है। जैसे अमर बेल पेड़ को खा जाती है, अभिव्यक्ति भी अनुभूति को मार देती है। बाजरे की कलगी और बिछली घास–इनके माध्यम से प्रेम के विराट तत्त्व के घनीभूत होकर सिमट जाने की अनुभूति–यदि अज्ञेय इसे और शब्द देने के प्रयास में ही संलग्न रहते तो वह अनुभूति ही मारी जाती जिसे उन्होंने एकांत समर्पण कहा है। अज्ञेय आकंठ डूबे उसमें, इसलिए पूछ पाए कि क्या वह एकांत समर्पण कुछ नहीं है? निस्संदेह वह डूबना ही बहुत कुछ है। वह शब्द के जादू से बहुत ज्यादा, जीवन का जादू है। वह शुद्ध, सघन जीवनानुभूति है जिसमें सभी इंद्रियों की संपूर्ण जागृति के साथ जीया जाता है, जीने को भोगा जाता है।

यह कविता अज्ञेय की काव्य यात्रा के पूर्वार्द्ध की कविता है। उस दौर में उन्होंने पूर्ववर्ती काव्य आंदोलनों की रूढ़ और अप्रासंगिक हो चुकी प्रवृत्तियों से विद्रोह किया था और साहित्य की दुनिया में नये, प्रयोगवादी तथा प्रगतिवादी कवियों के इस तरह के विद्रोहों को ‘सप्तकों’ के संपादन के जरिये संगठित भी किया था। यों कविता के एक नये ही संसार का सूत्रपात हुआ। उस दौरान अज्ञेय ने जो कविताएँ लिखीं उनमें नयी काव्य भाषा की तलाश है। यह काव्य भाषा लोक और शास्त्र, गाँव और शहर, संस्कृति, उर्दू और हिंदी की अनेक बोलियों के बीच पुल बनती हुई आती है। वह इन सबके बीच सतत् सान्निध्य, आवाजाही और अंतःक्रिया से संभव हुई भाषा है। इसमें एक जीवंत, अनगढ़ और नैसर्गिक प्रवाह है, एक कशिश है। शास्त्रीयता, पुर्वानुगेयता और दुरूहता की बजाय ताजगी, खुलापन और मर्मबेधकता है। यह भाषा विशाल और वैविध्यपूर्ण ‘ऑडिएन्स’ से संवाद बना पाने में सक्षम है। प्रस्तुत कविता की भाषा में ये सारे गुण प्रकट हैं। बासन, मालंच, औदार्य, पीठिका जैसे वैविध्यपूर्ण शब्द प्रयोग उदाहरण के तौर देखे जा सकते हैं। कविता की पंक्तियाँ ‘ये उपमान मैले हो गए हैं’, ‘देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं। कूच’, ‘कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्का छूट जाता है’ साहित्य जगत के स्थायी जुमलों के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

अपूर्व क्लासिकल संयम और संतुलन के साथ इस कविता की पंक्तियों के वामन डगों से अज्ञेय बहुत कुछ नाप लेते हैं यह उच्च कोटि की प्रेम कविता है। यह प्रेम की आजादी, समर्पण, जिजीविषा, सघनता, सौंदर्य को स्वर देने वाली कविता है। सृजन की चुनौती और नये काव्य मूल्यों को स्थापित करने वाली कविता है। यह बंधे हुए, बनावटी शहरी सौंदर्य की बनिस्बत उन मूल्यों को प्रस्तावित करने वाली कविता है जो ज्यादा सच्चे और आत्मकीय हैं, व्यापक मनुष्यता के हित में हैं। यह शब्द से आगे निःशब्द की ओर संकेत करने वाली कविता है। अभिव्यक्ति के जादू के समक्ष अनुभूति के रस में डूबने का प्रस्ताव करती कविता है। वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से साहित्य जगत में स्थायी महत्त्व की अधिकारिणी कविता है।

वर्ष 1994 में दिल्ली में ‘भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’ समारोह की अध्यक्षता करते हुए कवि नागार्जुन ने एक दिलचस्प संस्मरण सुनाया था। 1949 में जब अज्ञेय का कविता संग्रह ‘हरी घास पर क्षण भर’ आया ही था, तो उन्होंने भारतभूषण अग्रवाल से पूछा–‘अज्ञेय का यह संग्रह कैसा है?’ भारतभूषण जी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में जवाब दिया–‘हरी घास यह चर जायेंगे वृषभ काल के/सुनो बोल कवि भारतभूषण अग्रवाल के।’

बात निरे परिहास में ही कही गयी हो, लेकिन यह तो साबित हो ही चुका है कि काल के वृषभ ‘हरी घास’ को नहीं चर पाये। ‘कलगी बाजरे की’ आज भी हवा में लहलहा रही है।


Image: An Old Man Brooklyn Museum on
Image Source: Wikimedia Commons
Image in Public Domain