कन्हैयालाल नंदन से वे अद्भुत मुलाकातें

कन्हैयालाल नंदन से वे अद्भुत मुलाकातें

वे दिन : वे लोग

ब से लेखन-कर्म की शुरुआत हुई और एक लेखक के रूप में मैंने दुनिया को देखना-जानना शुरू किया, नंदन जी को सर्वत्र अपने आस-पास महसूस किया। पहले ‘पराग’ के बड़े ही जिंदादिल और हरदिल अजीज संपादक के रूप में, फिर ‘सारिका’, ‘दिनमान’, ‘संडे मेल’–हर पत्रिका में अपने एक ख़ास अंदाज़ में लेखकों और पाठकों को संबोधित करते हुए, और उनसे कुछ-कुछ घरेलू सा रिश्ता बनाते हुए सबके अपने, बिल्कुल अपने कन्हैयालाल नंदन। यानी ऐसे संपादक, जिनसे मन की हर बात कही जा सकती है, खुलकर बतियाया जा सकता है और कभी जी उखड़े तो बेशक झगड़ा भी जा सकता है। जैसे अपने बड़े भाई या उम्र में बड़े किसी दोस्त से। 

चलिए, उनसे हुई पहली मुलाकात से ही शुरू करते हैं, जिसके बाद दूसरी, तीसरी, चौथी कई मुलाकातें बहुत जल्दी-जल्दी हुईं। और मैं इस सम्मोहक शख्स के जादू की गिरफ्त में आ गया था। हालाँकि इस मुलाकात के लिए उकसाने वाले अभिन्न मित्र और बालसखा विजयकिशोर मानव के जिक्र के बिना तो इसका वर्णन करना बड़ा अटपटा लगेगा। यह तय है कि नंदन जी को उनके संपादन-कर्म, रचनाओं और उनके लेखन से जानता भले ही रहा होऊँ, पर उनसे हुई मेरी शुरुआती मुलाकातों का श्रेय पूरी तरह मानव जी को ही जाता है।

मानव जी उन दिनों ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ के साहित्य संपादक थे और ख़ासकर रविवासरीय का काम देखते थे। मानव जी से मेरी मित्रता ख़ासी सर्जनात्मक किस्म की मित्रता थी, जिसमें साहित्य पर लगातार गहरा संवाद भी शामिल था। कहीं-कहीं विचार-भिन्नता भी थी। पर मैं और मानव दोनों ही इसकी कद्र करते थे। इसी निरंतर साहित्यिक संवाद के बीच उन्हें मुझमें न जाने क्या दीख गया कि वे रविवासरीय के लिए मुझसे निरंतर लिखवाने लगे। मेरे लिए यह मित्र की मानरक्षा का भी प्रश्न था। इसलिए जो काम वे मुझे करने को देते, मैं उसमें जान उड़ेलता था। उन्होंने मुझसे काफ़ी-कुछ लिखवाया। और कुछ चीज़ें तो बेतरह आग्रह और जिद करके लिखवाईं।

मानव जी ने उन दिनों मेरे जिम्मे एक काम डाला था–नंदन जी का एक लंबा इंटरव्यू करना। सुनकर मैं थोड़ा बिदका था, भला नंदन जी का क्या इंटरव्यू होगा? ठीक है, वे पत्रकार हैं और जरा ऊँचे पाये के ठसके वाले पत्रकार हैं, मगर इंटरव्यू तो रामविलास शर्मा का हो सकता है, त्रिलोचन जी का हो सकता है, कमलेश्वर का हो सकता है–और भी बहुत से मूर्धन्य लेखकों का हो सकता है। भला नंदन जी से मैं क्या पूछूँगा और वे बताएँगे भी क्या? और उस इंटरव्यू में पढ़ने लायक क्या होगा? कोई गंभीर साहित्य-चर्चा तो होने से रही। तो अपनी आदत के मुताबिक मैं टालता रहा और मानव जी अपनी आदत के मुताबिक ठकठकाते रहे। फिर एक दिन नंदन जी का फोन नंबर दिया। कहा, ‘बात करके चले जाओ।’

पर मैं थोड़ा झेंपू और थोड़ा अक्खड़ किस्म का ऐसा विचित्र जीव था कि मुझे फोन पर बात करने में भी हिचक हो रही थी। सो मानव जी ने ही बात करके समय ले लिया। बोले, ‘जाओ, वे इंतजार कर रहे हैं।’ ‘तो चलो, ठीक है!’ के भाव से कुढ़ते-कुढ़ते मैं गया था–कोई भीतरी उत्साह से नहीं। 

उन दिनों कस्तूरबा गाँधी मार्ग पर हिन्दुस्तान टाइम्स भवन में तीसरे माले पर ‘नंदन’ पत्रिका का दफ्तर था, जहाँ मैं काम करता था। पहले माले पर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ का दफ्तर था, जिसमें एक अलग कक्ष में मानव जी बैठते थे। संयोग से उन दिनों ‘संडे मेल’ का दफ्तर भी कस्तूरबा गाँधी मार्ग पर ही था। हिन्दुस्तान टाइम्स भवन के लगभग सामने ही, सड़क के दूसरी ओर। मुश्किल से पैदल पाँच-सात मिनट में वहाँ पहुँचा जा सकता था। मैं गया, पर कुछ इस तरह कि एक पैर आगे चल रहा था, एक पीछे। अनिच्छा मुझ पर हावी थी, पर मित्र का मन रखने के लिए जा रहा था। फिर जिस तरह का स्वभाव मेरा था, मैं रास्ता चलते सोच रहा था कि बहुत बदतमीजी के दो-चार सवाल मैं पूछूँगा और नंदन जी अपनी संपादकी अकड़ दिखाएँगे तो बस, झगड़ा-टंटा हो जाएगा। और किस्सा खत्म!

लेकिन बात खत्म नहीं हुई, बात चल पड़ी और एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो बरसोंबरस चला। आज नंदन जी नहीं हैं। उन्हें गुजरे हुए कोई बारह साल बीत गए। पर उनके लिखे-पढ़े और पुरानी स्मृतियों के जरिये उनसे संवाद तो मेरा आज तक जारी है। और शायद जब तक मैं हूँ, वह जारी ही रहेगा।

अलबत्ता वह इंटरव्यू हुआ–और एक नहीं, कई किस्तों में हुआ। कई दिनों तक लगातार चला। यहाँ तक कि रात को ‘संडे मेल’ का दफ्तर खत्म होने तक हम बैठे रहते और वापसी में नंदन जी मुझे आश्रम चौक पर छोड़ देते, जहाँ से मुझे फरीदाबाद की बस मिल जाती। आखिरी एक-दो बैठकों में मानव भी इसमें शामिल हुए। कुछ सवाल जो मैं पूछने से कतरा रहा था, उन्होंने पूछे और इंटरव्यू की अनौपचारिकता इससे और बढ़ गई। वह इंटरव्यू थोड़े संपादित रूप में ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ के रविवासरीय में पूरे सफे पर छपा और मुझे उस पर ढेरों प्रतिक्रियाएँ मिलीं। आज भी उसकी चर्चा करने वाले मिल जाते हैं। 

इंटरव्यू की शुरुआत में ही नंदन जी खुल गए। और पूरी बातचीत में उनका यही बेबाक और बेधक अंदाज़ बना रहा। मेरे इस सवाल पर कि पत्रकारिता में वे क्या करना चाहते थे, नंदन जी ने एकदम देसी लहज़े में जवाब दिया कि ‘प्रकाश, मैं चाहता हूँ जिस काम को भी मैं करूँ, उसमें इस तल्लीनता से लग जाऊँ कि फिर उसमें किसी और के करने के लिए कुछ और न बचे।’ फिर उन्होंने एक उदाहरण भी दिया। बोले, ‘अगर मैं धोती निचोड़ने बैठूँ, तो मैं चाहूँगा कि मैं उसकी आखिरी बूँद तक निचोड़ डालूँ, ताकि अगर उसे कोई और निचोड़ने बैठने तो उसमें से एक बूँद भी पानी न निकाल सके। ऐसे ही अगर मैं तबला बजाने बैठूँ, तो मेरी कोशिश यह होगी कि उसमें इतनी कामयाबी प्राप्त करूँ कि अल्ला रक्खा खाँ की छुट्टी कर सकूँ।’ इसी तरह पत्रकारिता के बारे में उनका कहना था कि उनका आदर्श यह रहा कि पत्रकारिता की दुनिया में वे कोई हिमालय बना सकें।  

अगर इस लिहाज़ से देखें तो बेशक ‘पराग’ और ‘सारिका’ के संपादन के जरिये नंदन जी ने साहित्यिक पत्रकारिता की ऊँचाइयों को छुआ, नए मयार कायम किए तथा काफ़ी बड़े और अविस्मरणीय काम किए। संभवतः धर्मवीर भारती की तरह कोई हिमालय वे नहीं बना सके, पर पत्रकारिता की नब्ज पर उनका हाथ था और पत्रकारिता का कोई भी इतिहास उनके जिक्र के बिना पूरा नहीं हो सकता। मैं समझता हूँ कि यह उपलब्धि भी कोई छोटी उपलब्धि नहीं है और बहुत से लेखकों, पत्रकारों के लिए यह आज भी स्पृहणीय जरूर होगी। 

खैर, ‘संडे मेल’ के दफ्तर में ख़ासे गहमागहमी वाले माहौल में सवालों और जवाबों का यह जो निरंतर सिलसिला चल रहा था, उसके बीच-बीच में फोन तथा दफ्तर के काम भी आ ही जाते थे। नंदन जी जब ऐसे कामों में लगते थे, तो उनमें भी पूरी तरह से लीन हो जाते थे। और फिर बगैर किसी खीज के, उसी तन्मयता से बातचीत की रौ में बहने लगते। ‘संडे मेल’ के संपादकीय के कुछ पन्ने टाइप होकर उनके सामने आए, तो बड़े मनोयोग से कलम उठाकर वे उन्हें दुरुस्त करते रहे। फिर उन्हें भेजने के बाद मुझसे मुखातिब हुए, ‘प्रकाश, मैंने भागते-भागते ही पत्रकारिता की है?’

‘और शायद भागते-भागते ही जिंदगी जी है…?’ मैंने उनके जवाब में एक टुकड़ा और जोड़ दिया, जो सवाल की तरह नत्थी हो गया था। नंदन जी को मेरा यह ढंग भा गया। थोड़े उल्लसित होकर बोले, ‘हाँ, लेकिन इस बारे में मेरी कोशिश यह रहती है कि अगर मैं किसी चीज़ को समूचा नहीं पा सकता और एक छोटा सा टुकड़ा ही मेरे सामने हैं, तो कम-से-कम उस टुकड़े को ही संपूर्णता से जिया जाए। अगर मेरे पास पाँच ही मिनट हैं तो मैं सोचूँगा कि उस पाँच मिनट में ही क्या अच्छे-से-अच्छा गाया-बजाया या जिया जा सकता है। पूरा राग नहीं तो उसका एक छोटा सा टुकड़ा ही सही! उस पाँच मिनट को इस तरह तो जिया ही जा सकता है कि उस समय मैं सब कुछ भूलकर उसी एक छोटे से टुकड़े या छोटे से काम में पूरी तरह लीन हो जाऊँ।’

बातचीत अच्छे और पुरलुत्फ़ अंदाज़ में चल रही थी। और नंदन जी के स्वभाव और पत्रकारी जीवन के पन्ने एक-एक कर खुल रहे थे। मुझे अच्छा लग रहा था। ख़ासकर इसलिए कि नंदन जी पूरे मूड में थे और सवालों से टकराने का उनका अनौपचारिक अंदाज़ और बेबाकी मुझे लुभा रही थी। 

अचानक एक शरारती सवाल कहीं से उड़ता हुआ आया और मेरे भीतर उछल-कूद मचाने लगा। यह सवाल मेरा नहीं, मेरे एक कवि मित्र महावीर सरवर का था। यहाँ यह बता दूँ कि महावीर कबीरी साहस के साथ अपनी बात कहने वाले थोड़े खुद्दार किस्म के कवि-लेखक हैं, जिनका लेखकों और पत्रकारों को देखने-परखने का नजरिया कहीं ज्यादा सख्त और आलोचनात्मक है। उनकी सब बातें मुझे पसंद नहीं आतीं, पर बेशक वे खरे और ईमानदार लेखक हैं। लिहाज़ा उनकी बातें सुनना मुझे प्रिय है।

एक दिन यों ही बातों-बातों में महावीर ने कहा था, ‘नंदन जी ने एक लेखक के रूप में मुझे कभी प्रभावित नहीं किया। हाँ, वे हिंदी साहित्य के सबसे बढ़िया ‘क्रीजदार’ लेखकों में से एक हैं, उनके कॉलर की क्रीज और टाई की नॉट मुझे कभी गड़बड़ नहीं मिली।’

सो नंदन जी जब अपनी गुफ्तगू के पूरे अनौपचारिक रंग में थे, मैंने यह सवाल चुपके से उनके आगे सरकाया। पूछा, ‘मेरे मित्र की यह टिप्पणी आपको कैसी लगती है?’ सुनकर नंदन जी एक क्षण के लिए थोड़ा रुके। गुस्से की हलकी सी लाली उनके चेहरे पर आई, और आवाज में जरा सी तुर्शी आ गई। लेकिन फिर भी असहज वे नहीं हुए। बोले–

‘प्रकाश, अपने मित्र से कह देना कि मैंने बहुत गरीबी देखी है, लेकिन अपनी गुरबत को कभी नहीं बेचा और जान-बूझकर दैन्य को कभी नहीं ओढ़ा। अगर मेरे पास एक ही कमीज होगी, तो उसे भी मैं रात में अच्छी तरह धोकर, लोटे से इस्तिरी करके, अगले दिन ठाट से पहनकर दफ्तर जाऊँगा। और किसी को अहसास नहीं होने दूँगा कि इस आदमी के पास एक ही कमीज है।…’

फिर इसी संदर्भ में जिक्र छिड़ गया विष्णु प्रभाकर जी का। विष्णु जी ने किसी गोष्ठी में नंदन जी के देर से पहुँचने पर टिप्पणी की थी, ‘ये कारों वाले पत्रकार क्या जानें, हम लेखकों का समय कितना कीमती है!’ इस पर नंदन जी का खुद्दारी से भरा जवाब था कि कोई जरूरी नहीं कि गरीबी और संघर्षों का ठेका आपने ही ले लिया हो। वे जो आज आपको खुश और मुसकराते दिख रहे हैं, वे किन हालात से निकलकर आज यहाँ तक आए हैं, इसका आपको क्या पता? 

और फिर स्वाभाविक रूप से जिक्र इस बात का चल पड़ा कि नंदन जी के बचपन के हालात क्या थे, किस तरह वे पले, बढ़े और पढ़े। नंदन जी ने बताया कि हालत यह थी कि क्लास में नंबर सबसे अच्छे आते थे, लेकिन पिता के पास फीस देने के लिए पैसे नहीं होते थे। पढ़ाई बीच में रोक दी गई और कहीं किसी दुकान पर छोटा-मोटा मुनीमी का काम उन्हें करना पड़ा। उनके एक अध्यापक ने यह देखा, तो उन्हें दुख हुआ। उन्होंने नंदन जी के पिता के पास जाकर कहा, ‘आपका लड़का इतना होशियार है पढ़ाई में। उसे पढ़ाइए, फीस के पैसे मैं दूँगा।’

तो फीस का इंतजाम तो हो गया, लेकिन किताबें…? किताबें खरीदने के पैसे तक उनके पास नहीं थे। किसी तरह किताबें जुटीं और उन्होंने पढ़ाई आगे जारी रखी। गाँव से जिस पुरानी साइकिल पर बैठकर वे शहर जाते थे, उसका पैडल ढीला था और बार-बार निकल जाता था। तब उसके तकुए बार-बार टाँगों में चुभ जाते थे। ‘मेरी दोनों पिंडलियों पर उस तकुए के चुभने के लाल-लाल निशान अब भी है’, कहकर नंदन जी पैंट के पाँयचे थोड़े ऊपर सरकाकर मुझे वे निशान दिखाने लगते हैं।

मैं हिल उठता हूँ और सचमुच नंदन जी की आँखों का सामना करने में मुझे दिक्कत महसूस होने लगती है।

मुझे खुद पर खीज आती है, मैंने यह बेढंगा सवाल पूछा ही क्यों? लेकिन मेरे भीतर पालथी लगाकर बैठे जिज्ञासु किस्म के इंटरव्यूकार को कोई खेद नहीं। उलटे उसे हल्का सा संतोष मिला कि चलो, इसी बहाने नंदन जी के भीतरी व्यक्तित्व के एक ऐसे गुमनाम अँधेरे कोने तक मैं चला गया, जहाँ तक वैसे शायद मेरी आवाजाही होनी मुश्किल थी! यों अच्छा यह भी लग रहा था कि ऐसे अप्रिय और लगभग बदतमीजी वाले सवाल को भी नंदन जी झेल गए और बगैर ज्यादा असहज हुए झेल गए। इससे नंदन जी के ‘गुरुत्वाकर्षण’ के प्रभाव को मैंने खुद पर कहीं ज्यादा महसूस किया। 

ऐसा ही एक संजीदा प्रसंग और छिड़ा अज्ञेय जी को लेकर। मैंने नंदन जी से पूछा, ‘क्या आप कुछ कनफेस करेंगे?…या कि क्या कुछ ऐसे लोग हैं, जिनका आपने जाने या अनजाने दिल दुखाया हो और बाद में इसका गहरा पछतावा रहा हो?’ 

इसी सिलसिले में अज्ञेय जी का जिक्र आया था। नंदन जी ने बताया कि उनकी एक बुरी आदत है कि जिसे वे बेहद चाहते हैं, वे उसके बारे में भी जान लेना चाहते हैं कि वह व्यक्ति उन्हें उसी भाव से चाह रहा है या नहीं? अज्ञेय जी से उनकी निकटता थी और अकसर फोन पर लंबी बातचीत होती थी। जाहिर है, ज्यादातर फोन नंदन जी ही करते थे। पर एक दिन अपनी इसी ‘दुष्ट’ इच्छा से प्रेरित होकर उन्होंने खुद फोन न करने का निश्चय किया। और ऐसा एक नहीं, कई दिनों तक चला।

खुद नंदन जी के लिए ये बहुत भारी दिन थे। एक-एक दिन बहुत मुश्किल से कट रहा था। अंदर ख़ासी उथल-पुथल मची हुई थी। पर वे जबरन अपने को रोके हुए थे। फिर कई दिनों बाद अचानक एक दिन अज्ञेय जी का फोन आया, ‘नंदन जी हैं?’ 

‘हाँ, भाई जी, मैं बोल रहा हूँ’ नंदन जी ने कहा। और अज्ञेय जी ने फोन करने का एक छोटा सा बहाना यह निकाला कि ‘नंदन जी, असल में मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस शब्द को आपके यहाँ क्या कहते हैं…?’ और फिर बोले, ‘मुझे चिंता हुई, आपका स्वास्थ्य तो ठीक है न!’ 

इस पर नंदन जी को पछतावा हुआ–इतना गहरा पछतावा कि वे जीवन भर उसे भूल नहीं पाए। 

‘प्रकाश, अपनी इस भूल के लिए मैं आज तक खुद को माफ नहीं कर पाया कि मैंने अज्ञेय जी जैसे आदमी की परीक्षा लेनी चाही थी, कि कहीं मेरा उनके प्रति प्रेम इकतरफा ही तो नहीं! इस चीज़ के लिए मैं आज तक खुद को माफ नहीं कर पाया।…’

कहते-कहते नंदन जी का गला रुँध जाता है। फिर एकाएक वे भावनाओं की तेज बाढ़ में बह जाते हैं और उनका सारा चेहरा आँसुओं से भीग जाता है।

इसके बाद दो-तीन मिनट कुछ ऐसे गीले, व्यग्र और उदास थे कि मैं चुपचाप हक्का-बक्का सा उनकी ओर देख रहा था। इसके अलावा न कुछ सोच पा रहा था, न कुछ पूछ पा रहा था। आखिर नंदन जी ने रूमाल निकालकर आँखें पोंछी और खुद ही जैसे भीतर का पूरा जोर लगाकर उस हालत से उबरते हुए कहा, ‘अच्छा प्रकाश, पूछो…आगे पूछो।’

बहरहाल नंदन जी के व्यक्ति और पत्रकार के समूचे ग्राफ को समेटता हुआ यह इंटरव्यू तीन-चार मुलाकातों के बाद पूरा हुआ। मैंने टाइप कराकर उनके पास पहुँचाया तो उसी शाम को उनका फोन आया, ‘इंटरव्यू बहुत अच्छा है प्रकाश। मुझे आश्चर्य है, तुमने सारी बातें जस की तस कैसे लिख दीं, यहाँ तक कि बातचीत का मेरा अंदाज़ भी उसमें आ गया है।’

हालाँकि एकाध जगह उन्होंने कलम भी चलाई और कुछ जवाबों की तुर्शी को थोड़ा कम किया। जब आज की पत्रकारिता के सनसनी भरे दौर और सस्तेपन की ओर मैंने उनका ध्यान खींचा तो उन्होंने बदले हुए समय और पाठकों की बदली हुई रुचियों का वास्ता देकर कहा था, ‘आज अगर गणेशशंकर विद्यार्थी होते तो वे भी बदल गए होते।’ लेकिन आश्चर्य, इस वाक्य को बाद में उन्होंने हटा दिया। फिर एक-दो सवालों के जवाब ऐसे थे कि हमें लगा नंदन जी ने यहाँ ज्यादा ईमानदारी नहीं बरती और उनके साथ गहराई तक उतरने के बजाय, सिर्फ भाषिक चतुराई से उन्हें टाल देना चाहा। इनमें एक सवाल यह था कि ‘संडे मेल’ को हम महत्त्वपूर्ण अखबार क्यों मानें, वह तो बारह मसाले की चाट है? और नंदन जी का जवाब था कि यही तो उसकी खूबी है। 

अलबत्ता बरसों पहले हुए उस इंटरव्यू के प्रसंग को इतना लंबा खींचने के पीछे मेरा आशय सिर्फ यह बताना ही था कि नंदन जी जिस चीज़ को जीते हैं, उसे पूरी जिंदादिली, खूबसूरती और तन्मयता से जीते हैं, लिहाज़ा वह चीज़ यादगार बन जाती है। अगर उन्होंने सवालों के कामचलाऊ या औपचारिक जवाब दिए होते या कुछ सवालों के जवाब देने के बाद घड़ी देखनी शुरू कर दी होती, तो न तो वह इंटरव्यू ऐसा होता कि उसका इतना लंबा जिक्र छिड़ता और न मैं नंदन जी के इतने निकट ही आ पाता। 

थोड़े अंतराल के बाद नंदन जी से फिर से मुलाकात का सिलसिला शुरू हुआ। हालाँकि इस बार भी उत्प्रेरक बने मानव ही। वही नंदन जी के पास मुझे ले गए। और वहाँ जाकर उन्होंने जो पहला वाक्य कहा, वह मुझे अब भी याद है, ‘भाईसाहब, मैं अपने मित्र को आपके सुपुर्द करके जा रहा हूँ। अब यह आपके लिए लिखेंगे। मैंने इनसे यही कहा है कि ये आपमें और मुझमें कोई फ़र्क़ न समझें।’ 

उस दिन के बाद से नंदन जी के साथ संबंधों में एक नया आयाम जुड़ा–संपादक और लेखक वाला रिश्ता। नंदन जी के संपादक के रूप में मैंने कई तरह की प्रचारित बातें सुनी हैं, लेकिन उनके संपादक के साथ मेरा संबंध सचमुच गरिमायुक्त और शानदार रहा। मैंने उन्हें लेखकों को अपने विचार प्रकट करने की पूरी स्वतंत्रता देने वाला एक बड़ा संपादक ही पाया। उन्होंने कभी किसी से हिसाब-किताब बराबर करने के लिए मेरा इस्तेमाल नहीं करना चाहा और न कभी अपने संबंध मुझ पर थोपने चाहे। यहाँ तक कि बहुत बार उनके मित्रों की किताबों पर मैंने लिखा और बेतरह कठोरता के साथ लिखा। लेकिन उन्होंने एक भी शब्द संपादित किए बगैर उसे छापा। 

इस बारे में अजित कुमार के संस्मरणों की पुस्तक ‘निकट मन में’ पर लिखे गए मेरे लंबे आलोचनात्मक लेख और उस पर कई अंकों तक चली बहस खुद में एक इतिहास बन गई। ऐसे ही चार खंडों में छपे राजेन्द्र यादव जी के संपादकीयों के संचयन पर मैंने बहुत मेहनत करके लेख लिखा था, ‘अंधी गली में भटकता विचारों का काफिला’, जिसे नंदन जी ने ‘संडे मेल’ के दो अंकों में बड़ी धूमधाम के साथ छापा था। लेख में मैंने न सिर्फ राजेन्द्र जी के वैचारिक अंतर्विरोधों को पकड़ा था, बल्कि चीज़ों को जबरन सनसनीखेज और नकारात्मक बनाने की उनकी प्रवृत्ति पर भी गहरी चोट की थी। राजेन्द्र जी के कहानीकार का मैं काफ़ी प्रशंसक था। उनसे मेरा किसी किस्म का कोई मन-मुटाव न था। बल्कि मैं एक तरह से उनका सम्मान ही करता था। पर कुछ समय से वे ‘हंस’ के संपादकीयों के जरिये जिस तरह की उत्तेजक बहसें, सेक्स और देहवादी विचारों को आगे बढ़ा रहे थे, उसे मैं अच्छा नहीं समझता था। लेख में उसी पर चोट थी, बल्कि कहना चाहिए, बड़ी करारी चोट थी। मैं नहीं समझता कि हिंदी का कोई और संपादक उसे इस ढंग से छाप और प्रचारित कर सकता था। इस लिहाज़ से कम-से-कम हिंदी पत्रकारिता का कोई और ‘शोमैन’ नंदन जी के मुकाबले का नहीं है, यह मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ।

उन्हीं दिनों मैं पत्रकारिता पर केंद्रित अपने उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’ पर काम कर रहा था। उपन्यास पूरा हुआ तो मैंने नंदन जी से कहा, ‘आप पत्रकार हैं और यह पत्रकारिता पर लिखा गया उपन्यास है। एक तरह से दिल्ली में पत्रकारिता के मेरे दस वर्ष के अनुभव इस किताब में किसी-न-किसी रूप में आए हैं। तो मेरी इच्छा है कि आप इसे पढ़कर अपनी बेबाक राय दें। उसी को मैं इस किताब में भूमिका के रूप में शामिल कर लूँगा।’ उपन्यास की पांडुलिपि मैंने नंदन जी के पास छोड़ दी थी। उसे जिस तल्लीनता के साथ उन्होंने पढ़ा, उस पर अपनी बेबाक प्रतिक्रिया, यहाँ तक कि कई बढ़िया सुझाव भी दिए, वो सब मेरे लिए एक न भूलने वाला अनुभव है। ‘यह जो दिल्ली है’ पढ़कर जो पत्र उन्होंने मुझे लिखा था, वही उपन्यास की भूमिका के रूप में छपा है और उसी को नंदन जी ने ‘संडे मेल’ के एक संपादकीय के रूप में बड़ी प्रमुखता के साथ छापा था। यहाँ तक कि ‘यह जो दिल्ली है’ के भी कई अंश ‘संडे मेल’ में धारावाहिक छपे और ख़ासी धूमधाम के साथ छपे। इसके अलावा बीच-बीच में वहाँ थोड़ा-बहुत लिखने का सिलसिला तो चल ही रहा था। 

मेरे लिए सबसे खुशी की बात यह थी कि एक लेखक के रूप में नंदन जी ने मुझे पूरी आजादी दी थी। उनका हर बार यही कहना होता था, ‘मैं खुद को तुम पर थोपना नहीं चाहता, क्योंकि ऐसा करने का मतलब तो तुम्हारी हत्या होगी। इसके बजाय मैं चाहता हूँ कि जो तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ है, वह सामने आए।’

यही नहीं, वे मेरी कितनी चिंता करते थे, यह भी मुझसे छिपा न रहा। एक छोटी सी घटना याद आ रही है। उस दिन मैं ‘संडे मेल’ में उनसे मिलने गया था। बातों-बातों में काफ़ी देर हो गई। शाम को दफ्तर बंद होने के बाद उन्होंने मुझे अपनी गाड़ी में ही बैठा लिया, ताकि मुझे आश्रम तक छोड़ दें। वहाँ से फ़रीदाबाद की बस मिल जाती थी। रास्ते में उनसे बातें चल पड़ीं। अचानक बहुत भावुक होकर मैंने कहा, ‘नंदन जी, मेरी इच्छा है कि मैं आपके साथ काम करूँ! जिस दिन आप कहेंगे, मैं अपनी नौकरी छोड़कर आ जाऊँगा।’ इस पर नंदन जी ने मेरी भावुकता पर विराम लगाते हुए कहा, ‘नहीं प्रकाश अभी ‘संडे मेल’ के हालात इतने अच्छे नहीं है। जिस दिन हो जाएँगे, तभी मैं तुमसे कहूँगा।’

उस दिन उनकी यह बात मुझे बहुत प्रिय नहीं लगी थी। पर उसके कुछ महीने बाद ही ‘संडे मेल’ के बंद होने की खबर मिल गई। तब नंदन जी की कही हुई बात पर मेरा ध्यान गया और मैंने मन-ही-मन उन्हें शुक्रिया कहा। इसलिए कि ‘संडे मेल’ में जाने पर मैं बीच अधर में ही लटक जाता, जबकि अभी मेरी गृहस्थी कच्ची थी और बच्चे बहुत छोटे थे। ऐसे में ‘संडे मेल’ में जाता तो उसके बंद होने पर, कोई नई नौकरी खोज पाना मेरे जैसे सीधे-सादे, भावुक और अव्यावहारिक आदमी के लिए बहुत आसान नहीं था।

‘संडे मेल’ बंद होने के बाद भी नंदन जी से जब-तब मुलाकातें होती रहीं। और हर बार मैंने उनकी आँखों में वही गहरे विश्वास से लबालब कौंधती हुई मुसकान पाई, जिसने उनके साथ मानवीय रिश्ते की ऊर्जा को कभी छीजने नहीं दिया। 

मैं रामदरश जी के आग्रह पर एक लेखक सम्मेलन में भाग लेने के लिए कानपुर गया था और उसमें दिल्ली से रामदरश जी के अलावा हिमांशु जोशी, महीप सिंह, प्रदीप पंत और नंदन जी शामिल हुए थे। जिस राजधानी एक्सप्रेस से हमें जाना था, उसके एक कंपार्टमेंट में मैं, रामदरश जी और महीप सिंह थे, नंदन जी और जोशी जी अलग कंपार्टमेंट में थे। मैं रामदरश जी के साथ वाली सीट पर था। 

थोड़ी देर के लिए मैं बाहर टहलने के लिए निकला। लौटा तो देखा, मेरी सीट पर नंदन जी जमे हैं। मजे में रामदरश जी से बतिया रहे हैं।

मैंने खुश होकर कहा, ‘यह तो अच्छा हुआ नंदन जी। मैं आपसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था।’  

‘तो ठीक है, फिर तो मैं यहीं रह जाता हूँ।’ कहते-कहते नंदन जी के होंठों पर बड़ी प्रफुल्लित मुस्कान सज गई। बोले, ‘टीटी से कहूँगा कि मेरी सीट यहाँ शिफ्ट कर दें। वहाँ किसी और को भेज दें।’

‘टीटी मान जाएगा?’ मैंने विस्मय से आँखें पटपटाईं, ‘वे आम तौर से नहीं मानते?’ 

‘हाँ, मगर कहने वाले नंदन जी हों तो भला वे क्यों नहीं मानेंगे? जरूर मान जाएँगे राजा।’ नंदन जी विनोद भाव से हँसे।

वे अपने पूरे मूड में थे। उस दिन कंपार्टमेंट के पीछे वाली कुछ सीटें खाली थीं। हमलोग वहीं जाकर बैठे और गाड़ी चल दी। टिकट चेकर आया तो मैंने उसे बताया कि नंदन जी की सीट बगल वाले कंपार्टमेंट में है, लेकिन ये हमारे साथ ही बैठेंगे। इसमें कहीं कुछ दिक्कत तो नहीं है? वह नंदन जी को पहचानता था। मुसकराता हुआ बोला, ‘नहीं साहब, आपलोग ठाट से बैठिए।’ और चला गया।

उस दिन दिल्ली से कानपुर तक की यात्रा में नंदन जी के मुख से इतनी कविताएँ, इतने गीत सुने और इस कदर झूम-झूमकर, लहर-लहरकर और आत्मिक आनंद से ऊभ-चूभ होकर वे उसे सुना रहे थे कि शब्द भले ही याद न रहे हों, लेकिन नंदन जी की वे मुद्राएँ और अदाएँ, मस्ती और बाँकपन मैं तो सात जन्मों तक नहीं भूल सकता। जो कविताएँ उन्होंने सुनाईं, वे सिर्फ उनकी ही नहीं थीं, उनके प्रिय मित्रों की भी थीं। और वे इस कदर तल्लीन होकर सुना रहे थे कि उन कविताओं की भीतरी शक्ति और अर्थ खुल-खुल पड़ते थे। उस दिन पहली बार मैंने यह जाना कि नंदन जी इतना अच्छा गाते भी हैं और इतना अच्छा जमते और जमाते भी हैं। बीच-बीच में कुछ हलके-फुलके प्रसंग याद आते तो वे भी झूमते-झामते संग चल पड़ते। हर पल छेड़-छाड़, मस्ती और हास्य-विनोद की गुदगुदी। 

थोड़ी देर बाद महीप सिंह उठकर उधर आए, तो उन्हें भी खींच लिया गया। और फिर एक नई लौ, एक नई शरारत का शरारा! मालूम ही नहीं पड़ता था कि हम गाड़ी में यात्रा कर रहे हैं या किसी अंतरंग घरेलू गोष्ठी में बैठे हैं।

उसी यात्रा में जब महीप सिंह फिर से उठकर अपनी दूरस्थ सीट पर चले गए और रामदरश जी कुछ निंदासे होकर अपनी सीट पर ऊँघने लगे, मैंने मौके का फायदा उठाकर बातचीत के कुछ छूटे हुए सूत्रों को लेकर फिर से चर्चा छेड़ दी। और देखते ही देखते यह चर्चा गंभीर और गझिन होती गई, बहुतेरे आगे-पीछे के प्रसंग और संदर्भ इससे जुड़ते चले गए। इसमें नंदन जी की नेपाल यात्रा का प्रसंग भी था, जिसमें खुद को मुख्य धारा का कवि मानने वाले बहुत से कवि फीके पड़ गए थे और नंदन जी की कविताओं ने श्रोताओं का मन मोह लिया था। 

जब वे हॉल से उठकर जा रहे थे तो मुख्य धारा के एक चर्चित कवि ने, जो शराब में बुरी तरह धुत थे और डगमगा रहे थे, नंदन जी की ओर उँगली उठाकर कहा, ‘नंदन जी, आप में पोटेंसी तो बहुत है, लेकिन जरा खुद को थोड़ा सँभालिए!’ कहते-कहते मुख्य धारा के कवि लड़खड़ाकर गिर गए। इस पर नंदन जी ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘ठीक है, लेकिन फिलहाल तो पहले आप खुद को सँभालिए।’

बिना कुछ कहे, करारी चोट कैसे की जा सकती है, यह नंदन जी से सीखना चाहिए।

फिर जाने कैसे जैनेन्द्र जी का प्रसंग छिड़ गया। उनके उस इंटरव्यू की चर्चा होने लगी, जिसमें उन्होंने ‘पत्नी बनाम प्रेमिका’ विषय पर अपने विचार प्रकट किए थे। और बाद में आलोचना होने पर सारा इल्जाम नंदन जी पर धरकर मुकर गए थे। इस पर नंदन जी का जो जवाब ‘धर्मयुग’ में छपा था, मुझे याद था। हालाँकि इसके पीछे की बहुत सी स्थितियाँ जो मुझे पता नहीं थीं, वे उस दिन मालूम पड़ीं और नंदन जी की खुद्दारी भी।

उनकी यही खुद्दारी ‘चितकोबरा’ प्रसंग में भी उभरकर आई। मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘चितकोबरा’ पर प्रतिक्रिया के रूप में जैनेन्द्र जी के कहे पर विवाद छिड़ जाने पर, बहुत से लेखकों ने ताने मारने और व्यंग्य कसने शुरू कर दिए थे। पहले तो नंदन जी चुपचाप सुनते रहे। लेकिन फिर उनके भीतर का ठसके वाला पत्रकार जागा और उन्होंने कहा, ‘जैनेन्द्र जी, एक लेखक के रूप में मैं आपका बेहद सम्मान करता हूँ। और व्यक्तिगत रूप से आप मुझे जो भी चाहे, कह लें। मैं बुरा नहीं मानूँगा। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन के संपादक का एक सम्मान है। उसका आप इस तरह से अपमान करें, यह ठीक नहीं है।’ और उन्होंने जैनेन्द्र जी का भरपूर सम्मान करते हुए भी अपने उस ठसके को निभाया और पूरी दबंगी से निभाया। यह जानते हुए भी कि जैनेन्द्र जी के साहू शांति प्रसाद जैन से संबंध हैं और अच्छे, घनिष्ठ संबंध हैं, उन्होंने अपनी जिद में कोई कमी नहीं आने दी। इसलिए कि यहाँ उनकी जिद एक व्यक्ति नंदन की जिद न होकर, एक पत्रकार या संपादक के स्वाभिमान की जिद थी। 

इसी चर्चा में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय जी से जुड़े कुछ ऐसे मार्मिक प्रसंग भी छिड़ गए कि मेरी आँखें आर्द्र हो गईं। शुरू में जब नंदन जी ‘दिनमान’ के संपादक होकर आए, तो सर्वेश्वर जी के कारण उन्हें बड़ी विचित्र स्थिति झेलनी पड़ी थी। सर्वेश्वर जी ‘दिनमान’ में ‘चरचे और चरखे’ स्तंभ लिखा करते थे। अपने स्तंभ में उन्होंने नंदन जी को संपादक बनाए जाने का विरोध किया। नंदन जी ने इसे देखा, पर कुछ नहीं कहा। उसे वैसा ही जाने दिया। सर्वेश्वर जी के लिए यह चकित करने वाली बात थी। इसी तरह महीनों निकल गए, पर सर्वेश्वर जी एक बार भी नंदन जी की केबिन में नहीं गए। अगर उन्हें कुछ कहना होता था तो वे ‘सुनो नंदन…!’ कहकर वहीं से आवाज लगा देते थे। तब एक दिन नंदन जी खुद सर्वेश्वर जी की मेज़ के पास गए और बोले, ‘सर्वेश्वर जी, आप तो मेरी केबिन में कभी चाय पीने तक नहीं आए। पर चलिए, अब मैं आपके पास चाय पीने आया हूँ।’ 

नंदन जी की इस सरलता और आदर भाव ने सर्वेश्वर जी के दिल को छू लिया। फिर तो उनके संबंधों में इतनी प्रगाढ़ता हो गई, कि सर्वेश्वर जी अपने मन की हर बात नंदन जी को बता दिया करते थे। अपने जीवन के आखिरी चरण में सर्वेश्वर जी जब थोड़े निराश हो चले थे, नंदन जी ने ‘पराग’ पत्रिका के संपादक के लिए उनके नाम को आगे बढ़ाया, और अपने प्रयत्नों में सफल भी हुए। यह बात सर्वेश्वर जी को पता चली तो उन्होंने नंदन जी के प्रति गहरी कृतज्ञता प्रकट की थी। 

धर्मवीर भारती जी से जुड़े कुछ प्रसंग भी नंदन जी ने सुनाए। ‘धर्मयुग’ में भारती जी के साथ काम करते हुए, नंदन जी को बहुत अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ा। पर फिर भी नंदन जी के मन में भारती जी के प्रति गहरे सम्मान की भावना थी, और वह अंत तक रही। वे पत्रकारिता में उन्हें अपना गुरु मानते थे। लिहाज़ा जब भी उन्होंने किसी नई पत्रिका का संपादन भार सँभाला, तो पहला पत्र वे हमेशा धर्मवीर भारती जी को ही भेजते थे, और उनका आशीर्वाद माँगते थे। 

इसी तरह रघुवीर सहाय नंदन जी को ज्यादा पसंद नहीं करते थे। पर एक छोटे से प्रसंग में जब उन्होंने नंदन जी की अपने प्रति अतिशय विनय और सम्मान की भावना देखी, तो वे अवाक रह गए। यह उनके लिए लगभग अप्रत्याशित था। उन्होंने नंदन जी से कहा, ‘क्षमा करें, आपको लेकर मेरे मन में कुछ गलतफहमी थी।’

नंदन जी ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘सहाय जी, मेरे लिए यही बड़ी बात है कि अब आपकी वह गलतफहमी दूर हो गई।’

नंदन जी जब ये प्रसंग सुना रहे थे, तब उनके चेहरे पर कोई अभिमान नहीं, बल्कि साहित्य और साहित्यकारों के लिए गहरे आदर और विनम्रता का ही भाव था। मानो इन बड़े और समर्पित साहित्यकारों के लिए कुछ करके, वे स्वयं ही कृतार्थ हो रहे हों। यों भी, मैंने कई बार महसूस किया कि बड़े साहित्यकारों के आगे झुकना उनके स्वभाव में था, और इसमें उन्हें बड़ा आत्मिक सुख मिलता था।

इससे नंदन जी के व्यक्तित्व का एक बिल्कुल अलग पहलू मेरी आँखों के आगे आया, जिसे भूल पाना मेरे लिए कठिन है।

हाँ, उस साहित्यिक गोष्ठी की बात तो रह ही गई जिसमें शामिल होने के लिए हमलोग कानपुर गए थे। हम सभी लेखकों को अपनी रचना-यात्रा के बारे में कहना था, सभी ने कहा भी। पर नंदन जी का ‘कनपुरिया’ स्टाइल सबसे अलग था। उन्होंने साहित्य में पाठकों की कमी और ख़ासकर किताबें खरीदकर पढ़ने वाले पाठकों की कमी की ओर इशारा किया कि इससे हिंदी के लेखकों की स्थिति दुर्बल होती है। लेकिन फिर जल्दी ही उन्होंने साहित्य की चिंतनधारा को कानपुर की टूटी-फूटी, गंदी सड़कों और पर्यावरण की ओर मोड़ दिया। बोले, ‘यहाँ की सड़कें इतनी गंदी और टूटी-फूटी हैं, तो आपलोग मिलकर आंदोलन क्यों नहीं करते?’ 

और मुझे याद आया, बरसों पहले मेरे पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि पत्रकारिता का मतलब कोरा पत्रकार होना थोड़े ही हैं! उसे जीवन के हर क्षेत्र और हर विषय की अच्छी जानकारी होनी चाहिए।

नंदन जी की कविताओं की भी ख़ासी धूम रही है। वे कवि सम्मेलनों में छा जाने वाले कवियों में से थे। श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। उनकी कविताओं की दो पुस्तकें छपी हैं और स्वयं उनके मुख से भी उनकी कुछ बेहतरीन कविताएँ सुनने का मुझे सौभाग्य मिला है। इनमें ईश्वर को संबोधित एक कविता तो मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। तो भी नंदन जी की छवि मेरी आँख के आगे एक लेखक नहीं, पत्रकार की ही ठहरती है। वे कविताएँ लिखते हैं, लगातार लिखते आए हैं और बुरी तो हरगिज नहीं लिखते। लेकिन तो भी वे मुझे जितने बड़े पत्रकार लगते हैं, उतने बड़े कवि नहीं। ये मूलत: पत्रकार ही हैं और पत्रकारों की जो बड़ी पीढ़ी हमने देखी है, उसकी आखिरी और महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में उन्हें हमेशा आदर के साथ याद किया जाएगा।

मुझे याद है, एक दफा यों ही बातों-बातों में मैंने उनसे पूछा था, ‘आपके जीवन का सबसे बड़ा सपना क्या है?’ सुनकर उन्होंने कहा, ‘एक ऐसा अखबार निकालना, जिसमें मेरी पूरी टीम मेरे साथ हो और अपने ढंग से काम करने और कुछ कर दिखाने की पूरी छूट हो। मेरा ख़याल है कि वह हिंदी का एक अनोखा अखबार होगा। पर वह चल कितना पाएगा, कह नहीं सकता।’ कहते-कहते एक शरारती हँसी उनके होंठों से छलक पड़ी थी। नंदन जी गंभीर होकर जितनी ‘अगंभीर’ बातें और अगंभीर होकर जितनी गंभीर बातें कर लेते हैं, वैसी सामर्थ्य वाले हिंदी में शायद बहुत कम लेखक मिलेंगे। और आप माने न माने, मुझे तो यह भी एक बड़े पत्रकार के रूप में उनके सफल होने का एक राज़ लगता है। उनका यह अंदाज़ ऊपर से थोपा हुआ नहीं, कहीं भीतर से आता है और इससे उनके कहे में एक अलग ताकत और पुख्ताई आ जाती है। 

नंदन जी और गुच्छों के रूप में मौजूद आज के तमाम पत्रकारों के बीच असली फ़र्क़ ही यही है। लोग कहते हैं–तमाम लोग कहते हैं, पर उनके कहने का कोई अलग अंदाज़ नहीं होता। मगर नंदन जी के पास बात तो थी ही, बात कहने का एक बिल्कुल अलग अंदाज़ भी था, जो उन्हें हिंदी के पत्रकारों की एक दुर्लभ होती बिरादरी की बड़ी प्रमुख और महत्त्वपूर्ण कड़ी साबित करता था।

देश की आजादी के बाद हिंदी के पत्रकारों की जो दो-तीन पीढ़ियाँ सबसे अधिक सक्रिय, जिम्मेदार और कर्मशील रही हैं, उनमें नंदन जी निश्चय ही शिखरस्थ पत्रकारों में हैं। यह दीगर बात है कि टाइम्स ऑफ इंडिया के मालिकों से संबंधों को लेकर, नंदन जी के बारे में जब-तब कुछ गलतफहमियाँ और अटपटी किंवदंतियाँ भी कानों में पड़ जाती थीं। वे कितनी सही, कितनी गलत हैं, मैं कह नहीं सकता। पर अगर वे सही हैं, तो भी एक शिखरस्थ पत्रकार होने की उनकी हैसियत को इससे चुनौती नहीं मिलती। सच तो यह है कि वे अपना प्रतिमान आप थे।

हिंदी में व्यक्तित्वहीन पत्रकारों की अपरंपार भीड़ के बीच नंदन जी को एक ऐसे बड़े पत्रकार के रूप में याद किया जाना चाहिए, जो अंत तक निरंतर अपनी ‘धमक’ बनाए रहे। साथ ही, जिसके लेखन और संपादन-कर्म के पीछे उसका ठोस व्यक्तित्व, स्वाभिमान और ‘ठेठ हिंदी का ठाट’ है। और संपादक की इन बड़ी उपलब्धियों के पीछे एक सदाबहार शख्स और शख्सियत की निरंतर सक्रियता को भी चीन्हा जा सकता है।

कभी बातों-बातों में नंदन जी ने मुझे अपना एक बड़ा ‘राज़’ बताया था कि जीवन के हर पड़ाव पर उन्हें एक राज़दार व्यक्ति की जरूरत हमेशा रही है, जिसे वे सब कुछ कहकर मुक्त हो सकें। यहाँ इसमें सिर्फ इतना जोड़ना और काफ़ी है कि किसी ‘राज़दार’ को खोजता हुआ नंदन जी का ‘यारबाश’ और हरफ़नमौला व्यक्तित्व ही, उन्हें इतना बड़ा, जिंदादिल और असाधारण पत्रकार बनाता है।


प्रकाश मनु द्वारा भी