माधोपुर का घर

माधोपुर का घर

जानवर को केंद्र में रखकर कई पुस्तकें लिखी गई हैं। इस मामले में यह उपन्यास थोड़ा अलग है। एक पालतू जानवर कहानी के केंद्र में है, जहाँ वह सिर्फ एक पात्र नहीं है। कथाक्रम को बढ़ाने की जिम्मेदारी भी लेखक ने उसी के कंधे पर डाल दिया है। कुत्ते का मानवीकरण ही इस उपन्यास की आत्मा है। कुत्ते के अलावा किसी और जानवर का सहारा लिया गया होता तो शायद ग्राह्य नहीं होने का भी खतरा था, क्योंकि कुत्ता जितना इनसान के करीब होता है या इनसानी फितरत, हावभाव और इशारे को आसानी से समझता है, उतना कोई नहीं। ‘लोरा’ जो एक विदेशी नस्ल की मादा कुत्ता (स्त्रीलिंग नाम गाली के रूप में लिया जाता है) है। वह तीन पीढ़ी की कहानी कहती है। कुछ आँखों देखी कुछ ‘दादी’ से कानों सुनी। लोरा और दादी की जुगलबंदी ही कथानक को गति प्रदान करता है। कहानी फ्लैश बैक में चलती है। घर के मालिक ‘बाबा’ द्वारा लोरा को घर लाने से कहानी की शुरुआत होती है। बाबा की गोद में कुत्ते के पिल्ले को देख ‘दादी’ नाराज़ ही नहीं होती, घर छोड़कर चली जाती है। बड़ी मुश्किल से वापस आती है। पहले तो मादा पिल्ले को यह बात समझ में नहीं आती लेकिन बीतते समय के साथ उसे उस घर और घर के लोगों की समझ आने लगती है। इनसान और जानवर का फ़र्क़ भी वह समझने लगती है। उसके सामने मनुष्य की चारित्रिक परतें खुलने लगती हैं। बाबा, दादी के साथ-साथ घर के रिश्तेदारों, दोस्तों, परिचितों की कलई भी खुलने लगती है। दादी का उससे नफ़रत करने के वाबजूद लोरा उनसे नफ़रत नहीं करती, क्योंकि पहले भी इस घर में उसकी प्रजाति की ‘लेडी’ रहा करती थी लेकिन दादी ने कभी आपत्ति नहीं की। 

प्यार और तिरस्कार की देहरी पर खड़ी वह मान-अपमान की चिंता से बेखबर परिवार के हर सदस्य को समझने की कोशिश में लग जाती है। वह सभी को सिर्फ सुनती ही नहीं, गुनती भी है। मालिक ‘बाबा’ के प्यार और मालकिन ‘दादी’ की तिरस्कार के बीच खुद का जगह तलाशती लोरा दादी की कही और खुद के कानों सुनी कहानी बयाँ करती है। ‘लोरा का आख्यान’ और ‘दादी की डायरी’ के सहारे लेखक एक परिवार के तीन पीढ़ियों की यात्रा कथा का वर्णन करता है। उस परिवार की मुख्य पात्र ‘दादी’ के जीवन के संघर्षों के साथ जीने की जद्दोजहद ही ‘माधोपुर का घर’ की व्यथा कथा है। लोरा को भी पता है कि दादी के उलझे व्यक्तित्व को समझने में हम पाठकों को दिक्कत होगी, इसलिए वह कहती है–‘समझने के लिए आपको दादी के व्यक्तित्व की पृष्ठभूमि समझनी होगी। इसके लिए आप दादी द्वारा लिखी गई डायरी पढ़ें।’ (पृष्ठ-18) इतना ही नहीं दादी का लोरा के प्रति नफ़रत में भी उसे सकारात्मक पक्ष ही दिखता है–‘एक छोटे से बच्चे का मोहक रूप-रंग को देखकर दादी को मेरे ऊपर दया तो जरूर आती होगी लेकिन वह अपने-आपको कमजोर नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए मेरे प्रति किसी प्रकार का प्रेमभाव का प्रदर्शन वह नहीं करती थीं।’ (पृष्ठ-12) यह एक जानवर के मानवीकरण और मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्ति देने का अप्रतिम उदाहरण है।

उपन्यास ‘माधोपुर का घर’ के नौ खंडों में बँटा होना भी कथा  प्रवाह को बाधित नहीं करता। शुरू करें तो खतम कर ही कुछ सोचने को मजबूर होंगे। लोरा एक वाचक की भूमिका में है। वाचक लोरा अपने प्रति घृणा के भाव को भी सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में देखती है–‘मनोविज्ञान हमें इतना तो जरूर बताता है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों के कारक तत्व उसकी परवरिश में खोजे जा सकते हैं।’ (पृष्ठ-28)

‘दादी की डायरी’ के पहले खंड में लोरा दो पीढ़ी पहले ले जाती है। दादी से सुनी पांडेय परिवार के उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से बिहार के मुजफ्फरपुर के माधोपुर तक की कहानी जस-का-तस हमारे सामने रखती है। रमनपुर गाँव के बखतौर पांडेय और बहोरन पांडेय के रियासत से कहानी का जन्म होता है। इसी घर की 15-16 साल की एक लड़की आगे चलकर ‘दादी’ के रूप में हमारे सामने होती है। कभी इस रियासत की ड्योढ़ी पर जार्ज पंचम का भी आगमन हुआ था। अँग्रेज राज से घनिष्ठ संबंधों और रियासत के रुतबे के कारण राजसी ठाट-बाट में कोई कमी नहीं थी। घर के अंदर की राजनीति और अभिभावक के जाने-अनजाने की अनदेखी उसी घर की एक लड़की को बिहार में मुजफ्फरपुर के एक गाँव माधोपुर में शर्मा जी (बाबा) के साथ ब्याही जाती है। इसी लड़की (दादी) की कहानी लोरा बड़े ध्यान से सुनती भी है और सुनाती भी है। ‘दादी की डायरी’ के माध्यम से लोरा पांडेय परिवार के उत्थान और पतन की गाथा का हमें भी गवाह बनाती है। अँग्रेज अफसरों के साथ पांडेय परिवार का संबंध और दबंग जातियों के उत्थान के कारणों से भी रूबरू कराती है–‘इलाहाबाद से लेकर बंगाल तक अठारहवीं शताब्दी में जो सबसे व्यापक राजनीतिक बदलाव आया वह था राजपूत और  भूमिहार ब्राह्मण जातियों के राज्यों और राजाओं द्वारा इस काल खंड में अपने प्रभाव क्षेत्र को समेकित करते हुए उसे और प्रभावशाली बना पाना।’ (पृष्ठ-22) इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की भी जरूरत है। पूर्वी भारत के अधिकांश हिस्सों पर इन दो जातियों ने अपना वर्चस्व स्थापित किया। जो बाद के जमींदारी उन्मूलन तक जारी रहा।

इस उपन्यास में पशु के मानवीकरण का आलम यह है कि लोरा अपनी हैसियत नहीं भूलती। पशु प्रेम की हमारी आत्मप्रवंचना से भी वह हमें आगाह करती है। अपने मालिक बाबा के मित्र शर्मा जी से कहलवाती है कि–‘कुत्ता तो कुत्ता ही होता है। एक मनुष्य के समान क्षमता उसमें कैसे हो सकती है।’ (पृष्ठ-37) लेकिन दुनिया चाहे कुछ भी कहे, लोरा अपने बाबा के स्वान प्रेम को जानती है। इसलिए लोरा बाबा के प्यार पर सवाल खड़ा नहीं होने देना चाहती–‘कुत्तों की क्षमता मनुष्यों से बेहतर भी हो सकती है, जिसके कारण वह आपके मनोभावों के साथ परस्पर तालमेल बिठा सकते हैं।’ (पृष्ठ-37)

कुत्ते के मानवीकरण में सिर्फ लोरा का ही उपयोग नहीं किया गया है। ‘लेडी’ (मादा कुत्ता) भी है। दादी लोरा के बहाने बीच-बीच में लेडी का जिक्र करना नहीं भूलती। पाँच बच्चों की माँ लेडी का प्रारंभिक दिनों में जो मान था, बाबा के हजारीबाग से माधोपुर गाँव आते-आते पीड़ादायी हो गया। ग्रामीण परिवेश में एक विदेशी नस्ल के कुत्ते की देखभाल आसान काम नहीं है। विभागीय राजनीति में एक नाम रमा सिंह का भी आया है जो लेडी के मौत का कारण बनी है। बाबा और रमा सिंह के बीच के रिश्तों पर दादी से सुनी कहानी पर लोरा ने यूँ प्रकाश डाला है–‘कभी-कभी हम किसी दूसरे व्यक्ति की हमारे प्रति उदारता को बहुत सहज ढंग से नहीं भी लेते हैं। हमारे मन में उस व्यक्ति के लिए एक अव्यक्त रोष-सा घर कर जाता है।’ (पृष्ठ-41)

‘लोरा के आख्यान’ में लेखक ने ग्रामीण परिवेश के पारिवारिक संबंधों का चित्रण भी बेबाकी से किया है। तब के परिवेश में पति-पत्नी के बीच के संबंधों की भी अपनी मर्यादा थी। पति-पत्नी के मिलन का साक्षी केवल घर की बुजुर्ग महिलाएँ ही होती थी, जो बहुओं को बेटे, पोते के कमरे में सोने का आदेश पारित करती थी। बच्चों के शादीशुदा होने तक उसके दुनिया में आने की कहानी अलग तरह की सुनाई जाती थी, जिसमें मंदिर से लाने या भगवान द्वारा भेजे जाने का मुहावरा आम था। कभी-कभी चंदा मामा का भी सहारा लिया जाता था। काम के सिलसिले में सालों पति-पत्नी का मिलन संभव नहीं हो पाता था। पति की याद में महिलाएँ विरह-वेदना प्रकट कर अपने दर्द को गीतों के माध्यम से जाहिर करती थीं। ज्यादातर लोकगीतों और लोकनृत्यों में ऐसी ही विरह-वेदना की छाप हमें मिलती है। डॉक्टर साहब के संदर्भ में औरत की यही वेदना सामने आई है–‘उस जमाने में ऐसे भी तथाकथित संपन्न मध्यवर्गीय परिवार, जो गाँवों में रहते थे, के बीच पति-पत्नी के संबंध में बोलचाल बस उतनी ही होती थी जिससे काम चलाया जा सके। आँगन और ओसरा वाले घर की बहुओं का संसार आँगन और ओसारे तक ही सीमित होता था। पोता-पोती हो जाने के बाद ही ऐसी औरतें घर से बाहर, दिन के उजाले में, जा सकती थीं।’ (पृष्ठ-50)

जानवर के मानवीकरण का एक और उदाहरण देखिए जब लोरा लेखक की कलम पर सवार हो कहती है–‘कमजोर कड़ियों को इकट्ठा कर कहानी खड़ी करने में एक नैतिक संकट निहित है। कहानी अपने उद्देश्य से भटक सकती है। (पृष्ठ-54)

‘समाज और स्वजनों के बीच चर्चित होना या रहना एक धुन की तरह व्यक्ति की सोच में समा जाता है, कभी-कभी एक विकृति के रूप में भी।’ (पृष्ठ-55)

‘किसी का एहसान लेना आसान होता है परंतु किसी को उसके ऊपर किए जा सकने वाले एहसान के लिए मना करना मानवीय संबंधों में एक अलग किस्म का जोखिम पैदा करता है।’ (पृष्ठ-55)

‘जीवन में सब दुःखों से बड़ा दुःख तब होता है जब आपके आसपास कोई ऐसा नहीं हो जिसको आप अपना दुःख दिखा सकें।’ (पृष्ठ-63) ‘क्या लगाव का स्वभाव ऐसा नहीं होता कि किसी भी जड़ अथवा चेतन वस्तु के साथ लगातार समय बिताने के क्रम में चाहे-अनचाहे उससे एक लगाव सा पैदा हो जाता है।’ (पृष्ठ-63)

अब एक नजर कुत्ते की खुद के लिए आम नसीहत पर भी डालते हैं–‘अगर आपने अपने कुत्ते को पर्याप्त ट्रेनिंग दी है और साथ-साथ उसी अनुपात में उसे प्यार भी दिया है तो वह आपकी छाया की तरह चलने लगता है। चेन से बाँधकर रखने की बात जितनी घर से बाहर लागू होती है उतनी ही घर के अंदर भी। बाँधे रखने से कुत्ता न सिर्फ अप्रसन्न रहता है कि आप उसकी सीमित आजादी को भी उससे छीन लेते हैं बल्कि बाँधे रखने के परिणामस्वरूप कुत्ते के ज्यादा खूँखार हो जाने की भी आशंका बनी रहती है। ऐसे में न सिर्फ आपके घर के आगंतुकों बल्कि घर के सदस्यों पर भी आक्रमण का खतरा बना रहता है।’ (पृष्ठ-56)

बाबा के माध्यम से विदेशी नस्ल के कुत्तों की कमियों को भी उकेरा गया है–‘अल्सेशियन नस्ल के कुत्तों का स्वभाव प्रायः डरपोक होता है, अन्य कुत्तों से सामना करने के मामले में। उनकी आक्रामकता सीमित होती है। वे मनुष्य पर आक्रमण कर सकते हैं किंतु कुत्तों के झुंड से यदि वो घिर जाएँ तो उनसे निबटने की क्षमता प्रायः इस नस्ल में बहुत कम होती है।’ (पृष्ठ-61) ‘दादी की डायरी’ के दूसरे खंड में लोरा दादी से बीसवीं शताब्दी के पाँचवें-छठे दशक की सामाजिक परिवेश की कहानी सुनती है। दादी अपने युवावस्था में पारिवारिक जीवन की आपसी खींचतान, रियासतों की बेचैनी और महिलाओं की दारुण दास्ताँ को बयाँ करती है–‘अपनी महागाथाओं और गाथाओं का ज्ञान एक चीज़ होती है किंतु इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है मनुष्य के सामान्य कोतुहल का समाधान।’ (पृष्ठ-64)

दादी के पास अपने समय की किस्सों की एक लंबी फेहरिस्त है। दुनिया ने चाहे जितनी भी तरक्की कर ली हो, महिलाएँ कछुए की चाल से ही आगे बढ़ रही हैं। किसी भी घर की महिला हो उसके पास हर घर के किस्से और कच्चे चिट्ठे जुबान पर हैं। सामाजिक ताना-बाना तभी तक सलामत है, जब तक उन किस्सों को बीच चौराहे पर नहीं सुना रही हैं। ऐसा सिर्फ आज नहीं, सदियों से हो रहा है। तभी तो दादी कहती हैं–‘कुछ किस्से हम विरासत के रूप में पाते हैं और उनमें से कुछ पुस्त-दर-पुस्त थोड़ा बहुत कुछ नया-पुराना जोड़कर सुनाया जाता है और उनसे जो सत्य उजागर होता है वह सटीक अथवा एकदम सही भले न हो, प्रभावशाली जरूर होता है।’ (पृष्ठ-80)

यही कारण है कि दादी अपनी कहानी को अपने तक ही सीमित रखना चाहती है। ‘ये मेरी अपनी कहानी है जिसे मेरी ही जैसी औरतों ने अलग-अलग समय में जिया होगा। अतः इसके कथन और स्वरूप पर अधिकार और नियंत्रण भी मेरा है। आप देखते चलिए कि इसमें कितने घुमावदार मोड़ हैं।’ (पृष्ठ-83)

‘लोरा का आख्यान’ के दूसरे खंड में लोरा अपनी कहानी कहती है। कुत्तों की, पिल्लों की कहानी। पिल्लों के आकार प्रकार, उसकी उपलब्धता, उसके पालन-पोषण और पिल्लों को पालने के शौकीनों की। बाबा भी इसमें शामिल हैं।

‘बाबा तीस वर्षों के अंतराल के बाद कुत्तों को पालने के अपने शौक को अंजाम देने जा रहे थे। बाबा की लेडी (मादा कुत्ता) को गुजरे हुए तीस वर्ष बीत गए थे। लेडी ने बाबा को जो सुख और सम्मान दिया था उसे बाबा कभी भूल नहीं पाए थे।’ (पृष्ठ-105)

इस खंड में 1966-67 में बिहार में आए भीषण अकाल का भी वर्णन लोरा ने किया है। बीतते समय के साथ बाबा के चारों बेटे बड़े हो गए। लेकिन ‘जीवन की दशा सतत तौर पर समान नहीं रहती है। कुछ बना है तो कुछ टूट भी जाता है। जीवन भले ही शून्य जमा का खेल, जिसे अँग्रेजी में ‘जीरो सम गेम’ कहते हैं, न हो किंतु यह भी तय है कि इसका धरातल समान रूप से समतल नहीं होता है।’ (पृष्ठ-118)

फ़ौज में अफसर बेटे की असामयिक मृत्यु ने बाबा, दादी को तोड़ कर रख दिया। रिटायरमेंट के बाद बाबा की खुशी कहीं खो सी गई। पूरे परिवार के लिए यह एक असहनीय पीड़ा ही थी। ‘जीवन में जब कतिपय जटिल प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं तो वे मनुष्य के ऊपर भारी आघात कर जाते हैं।’ (पृष्ठ-121)

बाबा के बाकी तीनों बेटे अफसर बन चुके थे लेकिन बड़े को खोने का गम सालता रहा।

‘जिंदगी के मेले और जहूर मियाँ’ खंड में बाबा के पिता डॉक्टर साहब के साथ जहूर मियाँ की परिवार में इंट्री, डॉक्टर साहब का कैंसर से मौत और बाबा के दूसरे बेटे उमंग के छात्र जीवन की राजनीति और इमरजेंसी के बाद जे.पी. आंदोलन में उमंग को आठ महीने तक जेल की घटना का विशद वर्णन किया गया है। जेल की घटना ने उमंग के जीवन में सकारात्मक बदलाव भी लाया। ठोकर और अभाव ही इनसान की सफलता की सीढ़ी होती है। बाबा के दूसरे बेटे उमंग के साथ भी यही हुआ।

‘जब व्यक्ति ऐसा कर पाता है तो जीवन में कुछ कर लेने, कुछ कर पाने की ललक उसके अंदर कहीं जन्म लेने लगती है। वह अपनी तुलना अपने आसपास के लोगों के साथ करने लगता है और फिर उसे लगने लगता है कि उसकी अलग पहचान होनी चाहिए। उसकी उपलब्धियों का दायरा उनलोगों से बड़ा होना चाहिए। उसने तो असामान्य परिस्थितियों में जीवन जीने का सूत्र सीख लिया है तो सामान्य परिस्थितियों में कुछ असामान्य हासिल कर पाने का माद्दा होना चाहिए उसमें।’ (पृष्ठ-173)

‘मेरी कहानी’ खंड में लोरा खुद की कहानी कहती है। बाबा लेब्राडोर नस्ल के कुत्ते का मोह छोड़ नहीं पाए थे परंतु दादी का कुत्ता नहीं पालने देने का अल्टीमेटम भी उन्हें बखूबी याद था। तभी तो लोरा कहती है–‘उस आदमी का जीवन भी क्या जीवन है जो अपने जीवन में अपने छोटे-मोटे शौक भी पूरा न कर सके। वैसे भी देखा गया है कि मनुष्य की दमित इच्छाएँ बहुत दिनों तक उसके दिल में कुलाँचें भरती रहती है।’ (पृष्ठ-189)

माधोपुर के घर में रहते हुए लोरा बाबा और दादी के बीच की दूरियों के कारणों को भी समझने की कोशिश करती है। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ लोरा के इस घर में आने के कारण ऐसा संभव हुआ हो। जितने प्यार से दादी बेटे तीपू से बात करती है उसने कभी भी बाबा से करते नहीं देखा। कहीं ऐसा तो नहीं–‘पितृसत्तात्मक संस्कृति की गिरफ्त में इस समाज में यह आम बात है–पति का पत्नी की बातों को महत्व न देना, यह मानकर चलना कि वह जो सोचते हैं या करते हैं वही सही है।’ (पृष्ठ-208)

लोरा अपनी प्रजाति के गली के कुत्तों के संघर्षमय जीवन में भी झाँकने की कोशिश करती है। अपनी कहानी कहते-कहते लोरा थोड़ा अधिक दार्शनिक हो जाती है। ऐसो-आराम से जीवन जीने वाली लोरा को भी गली के कुत्तों से रश्क हो जाता है। उसकी स्वतंत्रता उसे खलती है। इसलिए वह स्ट्रीट डॉग की बातें करना नहीं भूलती–‘हमारी जाति यानी स्वान समुदाय में भी ख़ासकर वैसे जो घरों में पालतू बनाकर नहीं रखे गए हैं, में छोटे-छोटे सामूहिक टुकड़ों में जीवन बसर करने की प्रवृत्ति बड़ी प्रबल होती है। उनके जीवन की अन्य तकलीफें चाहे जो हों, कम-से-कम सामाजिक जीवन के जो विविध आयाम हैं उनसे तो वंचित नहीं रहता वह प्राणी।’ (पृष्ठ-209)

129 पृष्ठों का यह उपन्यास लोरा से शुरू होकर लोरा की कहानी पर ही समाप्त होता है। अंत ‘दादी के आख्यान’ से होता है। जो सिर्फ दादी की यादों का पिटारा ही नहीं खोलता, बाबा के साथ छोड़ने की दारुण कथा भी कहता है। लोरा के माधोपुर के घर के ग्रिल के पीछे दम तोड़ने की सूचना भी शामिल है। दादी अपने पीहर रमनपुर की यादों में खो जाती है। जब एक नाबालिग लड़की के कंधे पर परिवार की जिम्मेदारी थी, कमाने की नहीं, चलाने की। आज वही दादी अपने बेटे के घर माधोपुर गाँव के घर से दूर, बिना बाबा और लोरा के जीवन बसर करने को मजबूर है।

इस उपन्यास में लोरा सिर्फ एक जानवर नहीं है। सिर्फ विदेशी नस्ल की मादा कुत्ता भी नहीं है। वह एक परिवार के बहाने हमारी कहानी कहती है। उसे अपनी प्रजाति की जानकारी कम है। बचपन से वह अपना पूरा जीवन संभ्रांत या कुत्ते के शौकीन परिवारों के साथ गुजारी है। कार की पिछली सीट के डैश पर बैठ भागती सड़कों की गवाह भी है वह। ऊँची अट्टालिकाओं से कंक्रीट के जंगल का भी नजदीक से दर्शन किया है उसने। अपनी प्रजाति (स्वान) की समझ उसे कम है लेकिन बनते-बिगड़ते मानवीय रिश्तों की साक्षी है वह। वैसे भी कुत्ता इनसान के ज्यादा करीब होता है। इनसानी भावों को समझने में उसे महारत होती है। यही कारण है कि लेखक को लोरा जैसी मादा कुत्ते का मानवीकरण करना आसान लगा और वह हमारी कहानी कहने में सक्षम हो पाई।

हम में से कइयों ने अज्ञेय की ‘शेखर : एक जीवनी’ पढ़ी होगी। इस उपन्यास को पढ़ने से कुछ वैसी ही अनुभूति हो सकती है। लोरा को नेपथ्य से लेखक के अतिरिक्त कोई और तो अपनी कहानी नहीं सुना रहा? पन्ने पलटिये तो सही।


शम्भु पी. सिंह द्वारा भी