मैं और मेरा कथाकर्म

मैं और मेरा कथाकर्म

वक्तव्य

ब कुछ कह लेने के बाद अंत में कही जाने वाली बात यानी उपसंहार मैं शुरू में ही एलान कर देना चाहता हूँ। मेरा भी दृष्टिबोध कहता है–साहित्य सौंदर्य व लालित्य से आविष्ट प्रेममयी संसार है; जीवन की कठोर सच्चाई की धूनी-धौंकनी से गुजरकर मुलायम-माकूल कथानक पर खड़ा होता संसार, मुहब्बत की अंतहीन सीमाओं को शब्द-शैली के फीते में बाँधता चलता संसार, और हक़ीक़त में मुहब्बत के खूबसूरत रंगों से सजा संसार! मेरी भी अंतर्दृष्टि रचना-रूप में प्रेम के उदात्त स्वरूप की खोज करती फिरती है; प्रेम जो मानवीय जीवन का जीव-रस है, प्रेम जो मानव-मानव के बीच अक्षत सेतु है, प्रेम जो जीवन जीने का मार्ग आलोकित करता चलता है! आज दिल खोलकर बोलूँ तो नर-नारी के बीच विश्वास की नींव पर सहज-स्वाभाविक रूप से उगते-उपजते सान्निध्य-समर्पण के रंग-रस में डूबा हमजोली-हमसफ़र! लेकिन प्रकृति-प्रदत्त प्रेम-प्रणय से आगे निकलकर आम जीवन में सन्निहित पर नग्न कठोरता के नीचे दबे पड़े प्रेममयी अदृश्य संसार की खोज भी! मेरी 60-65 कहानियाँ और इकलौता उपन्यास ‘रामघाट में कोरोना’ तक की मेरी साहित्यिक यात्रा कुछ ऐसे ही ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरती रही है। लेकिन अपने आज के वक्तव्य में मैं प्रेम-लोक के बजाय नग्न सच्चाई ही बयाँ कर पाऊँगा; यह प्रेम करने का समय नहीं है!

यूँ तो कहानी लिखते मुझे ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, लेकिन तेरह-चौदह साल कम भी नहीं होते हैं। पर इससे यह नहीं माना जाना चाहिए कि इस दुनिया से मेरी बावस्तगी भी कुल इतनी ही है। जब कक्षा नौ-दस में पढ़ता था तभी से हिंदी साहित्य, विशेषकर उपन्यास और कहानी, से बतौर पाठक मेरा अटूट अभंजनीय रिश्ता रहा है। शायद इसी रिश्ते का असर था कि तब से लेकर स्नातकोत्तर (और पीएच.डी. भी) तक की पढ़ाई मैंने हिंदी माध्यम से ही पूरी की; न सिर्फ इतना बल्कि 1996 में सिविल सेवा की परीक्षा में कामयाबी भी मैंने अपनी इसी देसी भाषा के जरिये ही हासिल की। तो हिंदी भाषा से लगाव कुछ ऐसा था कि एक वक्त के बाद अपने भीतर की बाड़-बंदी जमा होते गए अनुभवों-एहसासों के बीच अभिव्यक्ति के लिए छटपटाहट-सी होने लगी, जो समयांतर में कलम की निब के रास्ते कहानियों के माध्यम से रूप-स्वरूप ग्रहण करते ही जा रहे हैं।

यह कभी भी तर्क-तकरार का विषय नहीं रहा कि एक लेखक की रचनाधर्मिता में उनके परिवेश-पृष्ठभूमि का ख़ासा दख़ल रहता है; जन्म (14 अप्रैल, 1966) उत्तरी-पूर्वी बिहार में नेपाल बॉर्डर की तरफ तत्समय संयुक्त पूर्णिया जिले का एक सुदूरवर्ती गाँव में (ग्राम–बकैनियाँ; महान कथा-शिल्पी रेणु जी के गाँव को थोड़ी ही दूरी से आलिंगन करता हुआ!), गाँव के गाय-गँवारी खेती-बाड़ी में भरपूर भजन-भागीदारी, जिला स्कूल पूर्णियाँ के छात्रावास में चार साल के अधिवासमय शिक्षा, नामी टी.एन.बी. कॉलेज भागलपुर से बायो-स्ट्रीम में इंटर व संस्कृत-अँग्रेजी-इतिहास-हिंदी से स्नातक, पूर्णियाँ कॉलेज से इतिहास (प्रतिष्ठा), बी.एन. मंडल विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर, इग्नू से हिंदी में स्नातकोत्तर, कालांतर में राँची विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय सैन्य-व्यवस्था पर पीएच.डी.–इस अनवरत जीवन-धारा ने मेरी साहित्यिक भूमि के कितने भाग-संभाग को सिंचित किया है; इसका आकलन अभी आरंभ नहीं किया है। पूज्य पिता जी सन् 1962 से ही पंचायत-सेवक (अहा, अब पंचायत सचिव!) में कर्तव्यरत थे; स्वाभाविक ही भारत सरकार की सिविल सेवा में आने से पहले मैं 9 सालों तक बिहार सरकार की सेवा में रहा। इस दौरान राजस्व विभाग में राजस्व-कर्मचारी (सर्वत्र अवज्ञात पटवारी) के रूप में, तत्पश्चात सहायक शिक्षक एवं पुलिस विभाग में सचिवालय सहायक के पदों पर कार्य-घूर्णन के सिलसिले में लोगों और उनकी दुश्वारियाँ से रू-बरू होने के सैंकड़ों-हज़ारों मौके मिलते रहे; यह अनुभवों का एक विशद-विषाद संसार था। बाद में भारतीय रक्षा संपदा सेवा के अधिकारी के तौर पर इस यथार्थ के और भिन्न-भिन्न रूप दिखाई दिए। तो अब तक बहुतेरे गाँवों-कस्बों-सैनिक छावनियों-नगरों-महानगरों में फैले विकट-विद्रूप व्यवस्था वाले अनंत-आकाश का पंछी रहा हूँ मैं! इसमें जनता नामक निरीह इकाई के शिकार में लगे तंत्र के भयावह जंतुओं-तंतुओं को एक साथ देखने-पररखने और उनसे जूझने-निपटने की प्रक्रिया मन के साहित्य-संवेदी घड़े में जीवन दृष्टि का निरंतर परिपाक करती रही। इसी को समझने के क्रम में, बिल्कुल शुरुआती कोशिश के तौर पर, वर्ष 1997 के अंतिम महीना में मैंने अपनी पहली कहानी ‘क्रांति की मौत’ लिखी थी; यह कहानी जयपुर के हरिश्चंद्र माथुर राजस्थान लोक प्रशासन संस्थान की पत्रिका में दिसंबर 1997 में प्रकाशित हुई थी, जहाँ मैं उन दिनों सिविल सेवा के अंतर्गत विभिन्न सेवा के अधिकारियों की जमात में चार महीने की अनिवार्य फाउंडेशन कोर्स पर था। फिर एक लंबा अंतराल आया और नौकरी की व्यवस्थाएँ किसी भी अन्य कोशिशों को निषिद्ध किए रहीं। लेकिन 28 अक्टूबर 2008 में एक ऐसी घटना घटी जिसने अकस्मात साहित्य सृजन के निमित्त-निर्धारित मेरे बंद कपाट को हौले से खोल दिया! हुआ यों कि रानीखेत छावनी में एक विभागीय जाँच के सिलसिले में मेरे कर्तव्य-निर्वहन से कुछ लोगों को दिक्कत होने लगी थी। उस रोज उन्हीं में से एक कुपित ने पहाड़ के एक नाज़ुक सिरे पर खड़े होने के दौरान मुझे जोरदार धक्का दे दिया, नतीजे में मुझे बड़ी भारी परेशानी का सामना करना पड़ा; घुटने की व्यापक अस्थि-भंजन के कारण एक वर्ष के अंतराल में दो बड़े ऑपरेशनों से गुजरा और एक वर्ष तक सैय्या पर पड़े रहना पड़ा। उन्हीं दिनों न जाने कैसे वर्षों से संचित संवेदनाओं-भावनाओं के ज्वार पन्नों पर अंकित होने लगे! इस बार की शुरुआत मुकम्मल थी; कहानी लिखने की एक अनवरत शृंखला की शुरुआत हो चुकी थी! और इसी दौरान लिखी मेरी पहली कहानी ‘एक चुटकी’ वाक् पत्रिका के दिसंबर 2009 अंक 6 में प्रकाशित हुई थी। विनम्र होकर याद करूँ तो तब से से आज तक मेरी लगभग पाँच दर्जन से ऊपर कहानियाँ हंस, कथादेश, समकालीन भारतीय साहित्य, नई धारा, पाखी, कथाक्रम, अकार, वाक्, लमही, बया, वर्तमान साहित्य, साहित्य अमृत, सोच-विचार, परिकथा, आधारशिला, नया, किस्सा-कोताह, संवादिया, स्पर्श समकालीन, साँवली आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रकाशित कहानियों के चार संग्रह : पहला रिश्ता, क्रांति की मौत, हिंदुस्तान की डायरी व चंदर की सरकार–किताबघर प्रकाशन से तथा पहला उपन्यास ‘रामघाट में कोरोना’ किताबघर प्रकाशन से वर्ष 2023 में प्रकाशित हैं। समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित कहानी ‘यारसा गम्बू’ काफ़ी चर्चित रही तथा शिक्षा निदेशालय, दिल्ली द्वारा पर्यावरण आधारित कहानी संकलन ‘आधा पेड़ आधे हम’ में सम्मिलित है। पाखी पत्रिका में प्रकाशित कहानी ‘रानीखेत हो आइए महाराज’ रवीद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा ‘हिंदी साहित्य के दो वर्षों की कथा यात्रा’ पर संकलित कहानी संकलन ‘कथा देश’ के युवा खंड में सम्मिलित है। कहानी ‘पूरे एक’ किताबघर प्रकाशन द्वारा आयोजित ‘आर्य स्मृति साहित्य सम्मान’ अंतर्गत वर्ष 2011 में प्रकाशित है। 

अपनी कहानियों पर खुद अपनी ओर से कोई टिप्पणी करना अनुचित होगा; हाँ, यह जरूर कह सकता हूँ कि मेरी कलम से देश-समाज में किनारे पर धकेल दिए गए किसिम-किसिम के चरित्रों-चित्रों की समस्याओं व संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हैं। ऐसे पात्रों की कहानियाँ होती हैं जिनकी पिछली पीढ़ी सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार और व्यवस्था पर चंद लोगों की एकाधिकार से लड़ते-जूझते गुजर चुकी थी और अब वे खुद भी अपने कमजोर सिंग भिड़ा-भिड़ा कर थक-से रहे हैं। ऐसे में इन पात्रों की अगली पीढ़ी के लिए या तो घोर निराशा बचती है या मुख-मिसाइल से हवा में जब-तब छोड़े जाते रहे आशावाद का सम्मोहन! यह वैसे चरित्र हैं जिन्हें सुने-समझे बगैर यह देश विकास का एक समावेशी और टिकाऊ स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकता! मेरी कहानियों के पात्र विकास के हाशिये पर रह रही इस देश की सौ करोड़ आबादी की अभिव्यक्ति है। अपने देश में जीवन की मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे लोगों की संख्या पर अब कोई भी बहस-मुबाहसा ग़ैरजरूरी-सा होता गया है। जो परिवार दो वक्त का खाना ठीक से न खा पाएँ, जहाँ बच्चों को सरकारी शिक्षा तंत्र की असफलता के कारण औसत ढंग से शिक्षित होने के अवसर भी मुहैया न हों, जिन्हें इलाज के लिए सरकारी चिकित्सालयों की भीड़ में कोई तवज्जो न मिलती हो, कोई बड़ी बीमारी होने की स्थिति में जिनकी मृत्यु अकाट्य भविष्यवाणी जैसी हो, जिन्हें कभी भी गिरा दिए जाने की आशंका से घिरे आम जगह पर झोपड़े-झाड़ी में रहना पड़ता हो और जिनके लिए पीने का साफ पानी, टॉयलेट जैसी चीज़ भी मुहैया न हो ऐसे परिवारों को सुविधाभोगी मंडलियों द्वारा गरीबी रेखा के ऊपर घोषित कर देने भर से देश में वास्तविक गरीबी कम नहीं हो जाएगी। अपने तमाम तबादलों में हर जगह मैंने पाया कि जिम्मेदार लोग निरंतर ज्यादा अमानवीय होते जा रहे हैं। दूसरों के दुख-दर्द के प्रति वे उदासीन ही नहीं निर्जीव-निस्पंद हो चले हैं! कार्ल मार्क्स से काफ़ी पहले तुलसीदास जी ने कहा था–‘नहिं दरिद्र सम दुख जग माही!’ क्या वजह है कि तुलसीदास के इस पद का यथार्थ जिम्मेदार लोगों को संवेदित नहीं करता? यही कुछ बातें हैं जो अलग-अलग पैटर्न-प्रारूप में मेरी कहानियों में आती रही हैं।

अपनी कहानियों में भारतीय जीवन और जनमानस के विविध पक्षों के यथार्थ और उन यथार्थ के नायकों को अपनी शैली में अभिव्यक्ति दी है मैंने, गढ़ंत और कल्पना-रस वाली नमी प्रदान करते हुए। मेरी कहानियाँ साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, उन पर चर्चा होती रही है, उन कहानियों के बारे में यहाँ विस्तार से लिखना अकार्य-सा होगा। संक्षिप्ततः मेरी कहानी आजादी के बाद के भारतीय गाँवों की कहानी है। किसान, स्त्री, जीवन के हाशिये पर धकेले गए लोग, उनकी अनंत समस्याएँ-संघर्ष और उन अकथ विषाद के मध्य भी उनके जीवन की निरंतरता को पहचानने-पकड़ने की खोज पर निकले यात्री-रूप में पाता हूँ अपने को। प्रेमचंद के समय के गाँव बदले जरूर हैं परंतु सामंतवादी व्यवस्था की जगह वर्चस्व की राजनीति, शोषण-उत्पीड़न के नए-नए रूप, बाजार-आवाज के फैलते प्रभाव-पंजे, जातिगत-सांप्रदायिक विद्वेष-विद्रोह, सदाचार-सद्भाव का विलोप, किसानों की हताशा, पलायन और आत्महत्याओं से पूरा परिदृश्य ज्यादा विकृत होता गया है! विकास के नाम पर गाँव का दोहन-शोषण तो हुआ ही पिछले पायदान पर खड़ा व्यक्ति व्यक्ति नहीं रह गया है; पंचायती राज, गाँव के विकास के लिए सरकारी योजनाओं, चकबंदी, भूमि सुधार के नाम पर गरीब-दलित-स्त्री, जिस पर किसी वर्चस्वशाली का हाथ नहीं है, का शोषण आम बात हो गई है। इन सारे अम्लीय-क्षारीय तत्वों का संकुल मेरे अंदर एक जुनून-सा पैदा करता रहा है, जिसे कहानियों में पुरजोर ढंग से उठाना मेरा इंक़लाब बनता गया है।

इस पर असहमति की स्थिति नहीं है कि भारतीय भू-खंड, जो प्राचीन काल में आर्यावर्त नाम से जाना जाता था, कालांतर में भारत व हिंदुस्तान के स्वरूप में प्रसिद्धि पाई; और अब तीव्र गति से इंडिया के रूप में अमीरों की सैरगाह और गरीबों की क़यामतगाह बनती जा रही है! हाँ इंडिया, जिसके बाहरी आवरण में है पूरी आबादी का पाँचवा हिस्सा जो समृद्धि संसाधन-संपदा-सामंती शासन का सुख भोग रहा है, तो अंदरूनी विशाल आवरण में आबादी का बड़ा भाग अभावग्रस्त, समस्याग्रस्त, रोगग्रस्त तथा चहुँ ओर से त्रस्त और उपेक्षित तो है ही साथ ही अपने बड़ों से अपेक्षित भी है कि देश की बड़ी आबादी होने के नाते वे देश के जुए को ‘जैसा भी है’ अवस्था में ही ढोता रहे। यह लिखना कोई नई खोज या नव दर्शन नहीं है कि देश में संसाधन संपन्न अल्प समूह की समृद्धि तथा वृहद आबादी की अल्प-लब्धता के बीच की खाई तेजी से चौड़ी ही नहीं गहरी भी होती जा रही है। जिस प्रकार देश के महानगरों में प्रदूषण का बढ़ता स्तर मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, वैसे ही अमीरों व गरीबों के बीच बढ़ती विषमता देश की सेहत के लिए घातक है। तो एक तरह से पूरा देश कॉलोनी और बस्ती के स्वरूप में दृश्य-अदृश्य रूप से विभाजित होता गया है; कॉलोनी में इंडिया का अधिवास है तो बस्तियों में भारत बसता है। इंडिया और भारत के विलक्षण जीवन-पट्टी में पसरी जिंदगियाँ अभिव्यक्ति के लिए मेरे पास भी आती रही हैं; और जिन्हें मैं पिछले पंद्रह वर्षों से शबदमान करता रहता हूँ, इंडिया की कहानी भारत की जुबानी के तौर पर! 21वीं सदी में जटिल हो रहे समय और समाज के अंदर झाँकती कहानियाँ आमजनों के बीच लाने का प्रयास करता रहा हूँ मैं। संक्षेप में मेरी कहानियाँ हमारे-आपके परिवेश-पड़ोस की कहानी हैं, भारत देश के जन-जन की कहानी हैं, जिसे हर कहानी के कथानक व कथा नायक खुद अभिव्यक्ति देते चलते हैं। इस बात से भला कौन इनकार कर सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सत्ता में आती पार्टियों की प्राथमिकताएँ क्या होती हैं! मेरी कई कहानियाँ इंडियन पॉलिटिकल सिस्टम के क्रूरतम पक्ष को नग्न करती हैं।

इस बात से आप असहमत हो सकते हैं कि इस देश में साहित्य लेखन से जुड़े लोग या तो भारत में बसते हैं, यदि इंडिया में बसे भी हैं तो उनकी आत्मा भारत में रोना पसंद करती है। लेखक का वास अधिवास चाहे जहाँ भी हो साहित्य का सफर सच्चाई के साथ ही आगे बढ़ता है। सत्ता-साधन मिट जाएँगे, समाज और साहित्य नहीं। व्यक्तिगत तौर पर मुझे तो दृष्टिगोचर हो रहा है आजादी के सौवें साल का जश्न यह देश इंडिया के मलबे पर मनाएगा! इस कथन को तंत्रासीनगण शायद ‘शहरी नक्सलवाद’ के चश्मे से देखें, पर इसका खुलासा यही है कि सन् 2047 तक समय व संविधान इतना पक चुका होगा और परिपक्व हो चुका होगा कि सौवें साल का जश्न विषमता को लघुत्तम करके ही शांतिपूर्वक मनाया जा सकेगा; अन्यथा वंचित वृहद वर्ग इंडिया के ऊँचे मीनार पर चढ़ बैठेगा!

कहानी के बहुआयामी स्वरूप पर भी कुछ कहने का कॉर्नर है मेरा यह वक्तव्य। वस्तुतः कहानियों में मैं अपने समय, समाज व बदलती संस्कृति की धड़कन देखना चाहता हूँ। अनुभव को जिंदगी से निकाल कर कहानियों में इस तरह प्रविष्ट करा देना चाहता हूँ कि विविध पक्षीय संबंधों-मूल्यों पर संजीदगी से विमर्श-व्योम फैलता चला जाए। कहानियाँ जो वर्तमान को गहराई से अंकित तो करे ही, एक गंभीर व सकारात्मक भविष्य-दृष्टि भी सृजित करे, जिससे हमारे समाज को संचालित करने वाली शक्तियाँ सचेत हो सकें। मुझे अपनी वो कहानियाँ ज्यादा भाती हैं जो संवेदनशीलता से भरी दुनिया का पिटारा खोलती हैं। एक ओर वे जहाँ भयावह होती जा रही दुनिया के दरवाजे पर जोर की थपकी देती हैं, वहीं दूसरी ओर जीवन की उन तल्ख़ सच्चाइयों से साक्षात्कार भी करवाती हैं, जहाँ जाकर आदमी सचमुच ठिठक-सा जाता है। मुझे अपनी कहानियों में शहरी जीवन की विद्रूपताओं-विडंबनाओं को सजीव बना देना पसंद है, जहाँ तथाकथित भद्रता के मुखौटे उतारते हुए उन ‘बड़ों’ के बदरंग जीवन में जरूरी ताक-झाँक की जाती है। वहीं दूसरी ओर आम आदमी के हाल-चाल जानने के लिए उनके जीवन की सच्ची और अनकही व्यथाओं तक पहुँचना मेरी अनवरत यात्रा-सी बन पड़ी है। तभी निरंतर बदलते जा रहे गाँव की विभिन्न रूपाकृतियाँ ‘अपील’ करती हैं, जो नयी संवेदना के साथ कहानियों में अपनी पूरी मुखरता के साथ जीवित हो उठती हैं। व्यक्ति और उनके सामाजिक संबंधों के विविधरंगी पर-पंख कहानियों में न उगे हों तो कहानियों में जीवन भला कैसे नजर आएँगे! शहर और गाँव के नित्य बदलते यथार्थ को मैं अपनी कहानियों में सच्चाई और साफ़गोई से व्यक्त करना चाहता हूँ। कहानियों में आज के समय और समाज की घनीभूत और बड़ी चिताओं को एक दूसरे से गुँथी जानी होती है। कहानियों में भारतीय ग्रामीण जीवन में हाशिये पर धकेल दिए गए उन वर्गों और व्यक्तियों की पीड़ा, शोषण और असमाप्त संघर्ष सजीव हो उठना चाहिए, जिनकी समाज की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका रही है, और प्रगति और विकास के तमाम दावों के बावजूद जिनकी हैसियत बाद से बदतर होती जा रही है। वृहत्तर समाज के विभिन्न आयामों को सहज शैली व पात्रों-चरित्रों की स्वाभाविक बोली में प्रस्तुत किए जाने का प्रयास करता हूँ जो सहज और स्वाभाविक संवाद स्थापित करती है।

अपने वक्तव्य के बहाने मैं साहित्य की सार-संरचना पर भी अपनी समझ साझा करना चाहता हूँ। इसमें मतभेद की स्थिति नहीं है कि आधुनिक कला और साहित्य में यथार्थ का बड़ा योगदान है। वस्तुतः यथार्थ इसकी धुरी-सी बनती गई है। पिछले दो-तीन दशकों की रचनाओं पर गौर करने से परिलक्षित होता है कि यथार्थ धीरे-धीरे साध्य बनता गया है, जो हकीकत में साहित्य में शुष्कता लाने का एक कारण भी बनता गया है। मेरे नजरिया से यथार्थ को साध्य के बजाय साधन होना चाहिए। यथार्थ कहने का एक ढंग हो सकता है, लिखने का एक पैटर्न या प्लेटफार्म हो सकता है, किसी भी रूप में यह साहित्य की मंजिल नहीं हो सकती। मेरी राय में साहित्य की मंजिल तो मानव, मानवीय परिवेश, मानवीय मूल्य, मानवीय संवेदना सहित संपूर्ण संसार का बोध है! यदि कहानियों की बात करें तो गढ़ंत और कल्पना यानी फेंटेसी यहाँ एक साधन तथा शैली दोनों रूपों में प्रकट होता है। यथार्थ, परिवेश और वातावरण को गढ़ंत व कल्पना के बगैर जीवंत नहीं किया जा सकता। यदि कहानी के यथार्थ और परिवेश में लालित्य के रंग न भरा जा सके फिर तो यथार्थ बिल्कुल निस्पंद-निर्जीव सा खड़ा-पड़ा मिलेगा, रचना का बोझ बनकर। विगत वर्षों में मैंने गेब्रियल मार्खेज की ‘द सेंट’, ‘सफेद बर्फ पर लाल खून की धार’; ओरहान पामुक की ‘मैं सोने का सिक्का हूँ’; जेम्स जायस की ‘मिट्टी’; लैला अल अतरस की ‘खालिद के नाम चिट्ठी’; ओ थियाम चिन की ‘आँख और कान’; यासुनारी कावा बाटा की ‘द मोल’ तथा विश्व के अन्य कई नामचीन रचनाकारों की कहानियाँ पढ़ी हैं। उन सभी में मैं यथार्थ को एक पैटर्न के तौर पर कहन शैली में पाता हूँ। तभी तो मेरी धारणा पुख्ता हुई है कि रचना का साध्य है जीवन के रंग! कल्पना के ईंधन से यथार्थ की सवारी करते हुए, गढ़ंत का वायु-सा स्पर्श पाते हुए ही विश्व साहित्य में रचना रस समृद्ध होता गया है।

इससे आगे अपने रचनाकर्म पर कुछ कहने का अवसर नहीं है; यहाँ से आगे जो कहती है वह मेरी कहानियाँ खुद ही कहती चलती हैं।