मेरा सर्जना कर्म

मेरा सर्जना कर्म

मेरे लिए सर्जना कर्म एक सांस्कृतिक उत्सव है। यह उत्सव केवल शौक और आनंद के लिए नहीं बल्कि नियति द्वारा प्रदत्त मौलिक और अनिवार्य कर्तव्य की भाँति है। सांस्कृतिक उत्सव से आशय यह है कि सर्जना चाहे समकाल की पृष्ठभूमि पर हो या अतीत के स्रोतों से पुष्पित हो, अंततः वह सांस्कृतिक कर्म ही होती है, क्योंकि अंतिम लक्ष्य मानव का कल्याण ही होता है। सांस्कृतिक बोध ही पाठक को सुसंस्कृत बनाता है और उसमें मानवीय गुण पैदा करता है। आदमी को सभ्य बनाना और समष्टि के प्रति उत्तरदायित्व से संपन्न करना ही साहित्य का लक्ष्य है। केवल कागद कारे करते रहना भर सर्जना नहीं कही जा सकती। हमारे पुरखों की यह पद्धति थी कि वे कहानी सुनाकर बच्चों से पूछते थे कि इस कहानी से आपको क्या शिक्षा मिली? मुझे लगता है कि हर सर्जक को अपने आप से यह सवाल करना ही चाहिए कि आखिर उसकी सर्जना से पाठक को क्या शिक्षा मिलेगी? समकाल के विषयों पर की गई सर्जना सामाजिक सरोकारों, समष्टिगत चिंताओं पर केंद्रित होती ही है। जब तक सर्जक का मानस भीतर से आहत नहीं होता तब तक सच्ची सर्जना का जन्म नहीं होता। कोई भी समकाल अनायास नहीं होता। हर समकाल का अपना अतीत है और हर घटना का अपना इतिहास होता है। इनकी जड़ों में जाना भी सर्जक का कर्म है। डॉ. रामविलास शर्मा की कृति ‘गाँधी आम्बेडकर लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ’ को इस संबंध में देखा जा सकता है। इन अर्थों में सुमित्रानंदन पंत की ये ऐतिहासिक पंक्ति हर काल में रूपांतरित होकर समीचीन बनी रहेगी–‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।’ सर्जना का स्रोत सदा यही रहा है और भविष्य में भी यही रहेगा। यह आह सर्जक के मानस में सदा बनी रहे, यही मानवता के लिए हितकर होगा। 

जब अतीत के स्रोतों से सर्जना के सूत्र लिए जाते हैं, तब भी उसे समकाल के अनुरूप ही बनाया जाता है। उदाहरण के लिए रामचरितमानस की पृष्ठभूमि अतीत से लेकर बाबा तुलसी ने उसे अपने समकालीन जरूरतों के अनुरूप बनाया। पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘राम की शक्ति पूजा’ की पृष्ठभूमि, रामकथा से ली, लेकिन उसे अपने समकालीन मुहावरों में प्रस्तुत किया। श्री नरेश मेहता ने ‘संशय की एक रात’, ‘महाप्रयाण’, ‘शबरी’, ‘प्रवाद पर्व’ आदि की पृष्ठभूमि पुराण से ली, किंतु उसे अपने समकाल की आवश्यकताओं के अनुसार पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया। ‘साकेत’, ‘कामायनी’ आदि रचनाओं के साथ भी यही भावभूमि अनुस्यूत है। जैसे कोई सुनार पुराने सोने को गला कर नए युग की चाल के अनुरूप गहने बनाता है। ऐसे ही सर्जक को अतीत की घटनाओं के साथ करना पड़ता है।

राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘उर्वशी’, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ जैसी रचनाओं की पृष्ठभूमि अतीत से ली, मगर उन्हें केवल इतिहास की तरह पाठक को नहीं सौंपा। इसका अर्थ है कि सर्जक सर्जना के लिए खाद, पानी अतीत से ले रहा है या नितांत वर्तमान से। यह बात उतनी मूल्यवान नहीं रहती जितनी कि उसकी प्रस्तुति का मूल्य होता है। सर्जना कर्म में एक समय ऐसा आता है कि जब समय का अंतराल लुप्त हो जाता है। अंतराल ही नहीं सर्जक का व्यक्तित्व और कृतित्व घनीभूत होकर एकाकार हो जाते हैं। रामविलास शर्मा कहते है–‘साहित्यकार का व्यक्तित्व उसके कृतित्व से अलग नहीं किया जा सकता। उसका कृतित्व उसके व्यक्तित्व की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है। उसका आंतरिक मानसिक जीवन और बहुत हद तक उसका बाह्य सामाजिक जीवन उसके रचनाकर्म में संबंध रहता है।’ (निराला की साहित्य साधना, भाग-1, पृष्ठ क्रमांक-537)

ऐसे में सर्जक और सर्जना को अलग-अलग मूल्यांकित करना असंभव हो जाता है। श्री नरेश मेहता कहते हैं–‘बाहर हो रहे सूर्यास्त के साथ जब हम अपने भीतर के सूर्यास्त को रचते हैं, वही कविता है। जब हम अपने भीतर के फूल को बाहर के फूल के साथ भाषा की टहनी लगाकर रख देते हैं तब प्रकृति द्वारा सृजित फूल भाषा में लिखित फूल हो जाता है। इसे ही शायद कविता या साहित्य कहते हैं। (हम अनिकेतन, पृष्ठ-31) सर्जना में शब्दों की शक्ल में जो कुछ भी कागज पर उतरता है, उसका पूरा विवरण पहले लेखक के भीतर घटित होता है। इस प्रक्रिया से कोई सर्जना पाठक तक पहुँचती है। इसलिए लेखक की भावभूमि बहुत साफ-सुथरी होनी चाहिए। उसका जीवन पथ भी निर्भांत होना ही चाहिए। भीतर से उलझा हुआ लेखक अपने सर्जन कर्म में सुलझा हुआ नहीं हो सकता। बाबा तुलसी कहते हैं–‘गिरा अनयन, नयन बिनु वाणी अर्थात गिरा (जिभ्या) के पास नेत्र नहीं है और नेत्रों के पास जीभ नहीं हैं। इसका अर्थ हुआ जब तक नेत्र देखते और उसे वाणी शब्द देती है तब तक देर हो जाती है और जो कहना चाहा वह नहीं कहा जा सका। सर्जना का रास्ता बहुत महीन है।

मेरे लिए सर्जना कर्म ‘अहं से वयं’ बन जाने की यात्रा भी है। लेखक का मानस जीवन और जगत के बारे में जैसा स्वप्न देखता है अपनी सर्जना में वह वैसी ही दुनिया बनाने का स्वप्न देखता है। उसके स्वप्न का संसार कोरी कल्पना नहीं होती, बल्कि मानवता के लिए, एक कल्याणकारी संसार की कामना होती है। दार्शनिक बताते हैं कि ईश्वर अकेला था और बहुत होना चाहता था तब उसने संसार रचा, इसे मनीषियों ने कहा–‘एको अहं बहुष्यामि।’ बहुत गहरे अर्थों में किसी भी सर्जक की सर्जना के निहितार्थ भी ठीक यही होते हैं, सर्जक भी अपने अनुरूप संसार बनाना चाहता है। इन्हीं दार्शनिक अर्थों में कवि को ‘सृष्टा’ और ‘मनीषी’ कहा गया है। मेरी सर्जना का आस्वाद भारतीयता की इसी स्थापित मनीषा के आस-पास रहता है। भारतीय मनीषा के विविध पक्षों पर रचे गए सुचिंतित ग्रंथ विशेषकर उपनिषद मुझे सर्जना की शक्ति देती हैं। इनमें जीवन को बहुत गहराई से देखा गया है। यहाँ समूचे मानवीय समाज की चिंताएँ हैं। मानवेतर जगत मनुष्य की अभ्यंतर और बाह्य यात्रा का सहचर है। प्रकृति प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि मनुष्य को माँ की भाँति पालती हुई दृष्टिगत होती है। आज के आदमी का संकट यही है कि उसने प्रकृति का नियंता होने का भ्रम पाला है, जो किसी भी रूप में आदमी के लिए कल्याणप्रद नहीं है। बहुत गहरे अर्थों में संभव भी नहीं है। कोरोनाकाल ने यह बात मनुष्य को ठीक से समझाई भी है।

सर्जना में समय का विभाजन वर्तमानकाल, भूतकाल और भविष्यकाल के रूप में संभव नहीं होता। घटनाएँ आगे या पीछे हो सकती हैं। मगर इसमें एक डोर, एक संबंध हमेशा बना रहता है। लेखक को इस संबंध को पकड़ना चाहिए। इसलिए लेखक सभी कालखंडों में उसी भाँति चहलकदमी करता है जैसे कोई अपने निवास के कक्षों में अनजाने ही आता-जाता रहता है। सर्जना में मूल्यांकन समकाल के दाय पर ही किया जाना चाहिए। कोई भी लेखक अपने समकाल की अनदेखी करके सार्थक, सर्जना नहीं कर सकता। मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि बीता हुआ समय केवल स्मृतिकोश के लिए होता है और भविष्य मनुष्य ने अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए रचा है। केवल वर्तमान ही है जो हमारे साथ है और हम वर्तमान में रहते हैं। ठीक-ठीक कहा जाए तो वर्तमान को पकड़कर ही हम सर्जना को सार्थक कर सकते हैं। बीता हुआ समय किसी के लिए भी शक्ति का प्रतिष्ठान हो सकता है। भारत जैसे पुरातन संस्कृति वाले राष्ट्र के लिए नवजागरण के अवलंब अतीत से प्राप्त किए जा सकते हैं। इसलिए गाँधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन में प्रवेश करने से पहले भारत का भ्रमण किया, भारत के इतिहास को समझा, भारत के आम लोगों की शक्ति को जाँचा और फिर आंदोलनों की रूपरेखा बनाई। मुझे लगता है कि जो आंदोलन चले और सफल हुए उनके पीछे भारतीय इतिहास की शक्ति ने काम किया। किसी भी लेखक को लोक और लोकमत की गहरी जानकारी होनी ही चाहिए। यह लोक ही है, जिसकी स्मृति में साहित्य, संस्कृति सुरक्षित रहते हैं और लोक ही सर्जना का ऊर्जा प्रतिष्ठान भी है। इसी से हम शक्ति लेते हैं और इसी को अर्पित कर निश्चिंत होते हैं। 

कोई भी आंदोलन एक समय अवधि में अपना लक्ष्य पूरा कर समाप्त हो जाते हैं, किंतु सर्जना का काम अनंत कालों तक अपने लक्ष्य की तलाश करता रहता है। कथा यह है कि हमारे पहले कवि वाल्मीकि ने जिस कौंच पक्षी का शिकार करते हुए बहेलिये को देखा था और उसकी करुणापूरित आंतर्नाद से पहली कविता उतरी थी, ठीक इसी तरह का दृश्य आज के सर्जक के लिए भी प्रभावी है। जब भी समाज में कहीं कोई निःअपराध मारा जाता है, हिंसा, बलात्कार, दलन और भेदभाव को देखकर आज का कवि मानस भी चीत्कार कर उठता है और सर्जना जन्म लेती है। यह सिलसिला अनवरत है और रहेगा। यही परिदृश्य भरोसा देता है कि सर्जना का कारवाँ इसी भाँति अबाध चलता रहेगा। सर्जक संवेदनशील प्राणी होता है अतः उसका रचा हुआ साहित्य समाज को संवेदनशील बनाने का काम करता रहता है। साहित्य का मार्ग जीवन के अन्य आयामों से पृथक है। वह मंद गति से सामाजिक परिवर्तनों का काम करता है। साहित्य के यहाँ प्रदर्शन, शीघ्रता, दिखावा आदि के लिए कोई स्थान नहीं होता। उसका कार्य मनुष्य के आंतरिक संसार को बदलना है तथा यह सिखाना है कि धरती पर तुम अकेले नहीं हो। संपूर्ण समष्टि तुम्हारे साथ है और सच यही है कि मनुष्य भी इस विराट साहित्य का छोटा-सा अंश है।

मेरी सर्जना कविता, कहानी, निबंध, संपादकीयों और लघुकथाओं में फैली है। इन सब में मेरा यह मानना है कि हमारे समकाल में अनेक असंगतियाँ हैं। असंगतियाँ हर काल में रही है और रहेंगी। यही तो सर्जक के मानस को कुछ लिखने की प्रेरणा देती रहती है। इनसे विकल मनुष्य सर्जना का रास्ता चुनता है। कोई प्रशांत मन और विलासिता में डूबा आदमी, सर्जना जैसे असमतल रास्ते को क्यों चुनेगा? इसीलिए कबीर ने ठीक कहा था–‘सुखिया सब संसार है खाबै अरु सोबे, दुखिया दास कबीर है जागे और रोबै।’ सर्जना कर्म प्रकारांतर से रोना भी है। इसीलिए नागार्जुन ने ठीक सवाल पूछा था–‘कालिदास सच सच बतलाना, इन्दुमति के अज विलाप में, अज रोये या तुम रोये थे।’ सच तो यही है कि इस जगत की असमानता देखकर सर्जक ही रोता है। लेकिन यह रोना ही साहित्य में सर्जना कहा गया है और सर्जना समय को, भावों का, विचारों को, संवेदना को एक-दूसरे को सिलने का काम भी है। संसार को और खूबसूरत बनाने, मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाने की चेष्टा ही सर्जना है।

जब समाज किसी सर्जक का सम्मान करता है तब वह सम्मान उसके व्यक्तित्व का कम और उसकी सर्जना का अधिक होता है। कृतित्व का अभिनंदन इसलिए, क्योंकि यह कृतित्व ही है, जो व्यक्तित्व की सीमा से परे हो जाता है। जैसे हम किसी साधु का सम्मान करते हैं तब हम साधुत्व को ही प्रणाम कर रहे होते हैं। तुलसीदास की पंक्ति है–‘कालनेमि निमि रावण राहू।’ कालिनेमि, रावण और राहू ने साधुत्व का कवच धारण कर व्यक्तित्व को छुपा लिया था। हमारा समाज व्यक्तित्व से अधिक कृतित्व का मूल्यांकन करता है और लोक दोनों का मूल्यांकन करता है। अन्यथा तुलसीदास पुनः नहीं लिखते–‘उघरे अंत न होइ निवाहू।’ आप व्यक्तित्व को छद्म पूर्वक छिपा सकते हैं और सर्जना अपनी गवाही और वकालत स्वयं करती है।

सम्मान, रचनाकार की जिम्मेदारी बढ़ाता है, उससे और अधिक गहरे समर्पण की माँग करता है। जिस माथे पर सम्मान का तिलक लगता है, उसे और विनम्र और समर्पित होने की प्रेरणा देता है। यह सम्मान ग्रहण करते समय मैं, ‘नई धारा’ परिवार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। आपने दो पत्रिकाओं को या यों कहें तो परंपराओं को एक मंच से याद किया है। मेरी पत्रिका ‘वीणा’ और ‘नई धारा’ सादर आभार। आप सबको प्रणाम।


राकेश शर्मा द्वारा भी