‘पाटलिपुत्र’ निर्भीक पत्रकारिता की बानगी

‘पाटलिपुत्र’ निर्भीक पत्रकारिता की बानगी

काशी प्रसाद जायसवाल के संपादन में पटना से 1914 में शुरू हुआ ‘पाटलिपुत्र’ ने 7 वर्षों तक स्वतंत्रता की लौ जगाने में अग्रणी भूमिका निभाई।

‘बिहार बंधु’ के बाद संयुक्त बिहार में वैसे तो देश, प्रजाबंधु, महावीर आदि अनेक पत्र प्रकाशित हुए लेकिन उनमें सबसे ज्यादा सम्मान और प्रतिष्ठा मिला तो वह था ‘पाटलिपुत्र’। इसका प्रकाशन 1914 ईस्वी में देश के नामी बैरिस्टर और सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल के संपादकत्व में शुरू हुआ और जिस प्रेस से इसका प्रकाशन शुरू हुआ वह ‘एक्सप्रेस प्रेस’ हथुआ महाराज श्री महादेव आश्रम सिंह का था। उन्होंने यह प्रेस पटना सिटी के चौधरी टोला निवासी कृष्ण प्रसाद सिंह चौधरी को ठेके पर दे रखा था। 

उन दिनों काशी प्रसाद जायसवाल एक विधिवेत्ता, इतिहासकार, लेखक और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। उनकी गिनती देश के गिने-चुने विद्वानों में होती थी। उनके विद्वतपूर्ण और गंभीर लेखों से ‘पाटलिपुत्र’ की छवि एक सुसंस्कृत साप्ताहिक पत्र के रूप में होने लगी। उन्हें बतौर संपादक ढाई सौ रुपये मिलते थे। सहकारी संपादक के रूप में महावीर प्रसाद गहमरी नियुक्त किए गए, जो गाजीपुर के गहमर के निवासी थे। उनकी सैलरी प्रतिमाह 75 रुपये हुआ करती थी। उन दिनों बिना प्रूफ रीडिंग के अखबारों के प्रकाशन की कल्पना नहीं की जा सकती थी। अतः प्रूफ संशोधक के रूप में शाहपुर पट्टी (शाहाबाद) के पारसनाथ त्रिपाठी को 35 रुपये मासिक वेतन पर नियुक्त किया गया। समाचार व विचारों के साथ-साथ ‘पाटलिपुत्र’ अपनी साफ-सुथरी छपाई और साज-सज्जा के लिए भी जाना जाता था।

सुप्रतिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय रामजी मिश्र मनोहर के शब्दों में इस अखबार का ‘पाटलिपुत्र अंक’ (विशेषांक) ऐसा सुंदर निकला था कि आज तक वैसा विशेषांक किसी साप्ताहिक का नहीं देखा गया। यह डबल क्राउन के 8 बड़े पृष्ठों में छपता था और इसकी सुंदर छपाई देखते ही बनती थी। इसकी सुंदरता और साफ-सुथरी छपाई पाठकों में लोकप्रियता का एक बड़ा कारण था। दूसरा कारण इसका बहुत सस्ते दर पर लोगों के लिए उपलब्धता थी। वार्षिक मूल्य केवल तीन रुपये निर्धारित किए गए थे। 

अपने शुरुआती दिनों से ही ‘पाटलिपुत्र’ बिहार और पड़ोसी राज्यों की प्रबुद्ध और जागृत जनता का पुरोधा बन गया था। इसका मुखर राष्ट्रीय स्वर, सुसंपादित लेख और आकर्षक छपाई। यह सब मिलकर पाटलिपुत्र को लोकप्रियता की शिखर की ओर ले गया। इसकी लोकप्रियता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन दिनों इसकी प्रसार संख्या तीन हजार से ऊपर पहुँच गई। हालाँकि हथुआ महाराज पर अँग्रेजों का बहुत दबाव था। फिर भी पाटलिपुत्र का संपादक मंडल ब्रिटिश शासन की गलत नीतियों की कटु आलोचना करने से कभी पीछे नहीं रहा। जेल और जुर्माने की परवाह किए बगैर शासन के गलत फैसलों का निर्भीकतापूर्वक धज्जियाँ उड़ाने में यह गौरवशाली पत्र कभी पीछे नहीं हटा। इसके पाठकों को जोशीले लेखों की प्रतीक्षा रहती थी। लोगों की आशाओं के अनुरूप काशीप्रसाद जायसवाल कभी-कभी अग्रलेख भी लिखा करते थे। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अंक में ‘स्वतंत्रता’ शीर्षक से ओजपूर्ण लिख डाला। उन दिनों यूरोप के आकाश पर युद्ध के मेघ गरजने लगे थे। ऐसे में जनता की मनोवृत्ति के अनुकूल कुछ लिखना खतरा मोल लेना था। इसका परिणाम यह हुआ कि चारों ओर हलचल मच गई। एक महाराज का समाचार पत्र होने के कारण वैसे भी इस पत्र पर अँग्रेजों की कड़ी निगाह और निगरानी थी। अतः ‘स्वतंत्रता’ का असर तो होना ही था। अँग्रेजों ने इस लेख पर आपत्ति की। यह तो सभी लोग जानते थे कि जनता की आशाओं के अनुकूल कुछ भी लिखना खतरा मोल लेना है। यह जानते-समझते हुए भी संपादक काशीप्रसाद जायसवाल यह खतरा मोल लेते रहते थे। परिणामस्वरूप दूसरे ही दिन ‘पाटलिपुत्र’ से उन्हें अलग होना पड़ा। उन्होंने लगभग एक वर्ष तक ‘पाटलिपुत्र’ का संपादन किया। 

उनके पश्चात इस पत्र के संपादक बने सोना सिंह चौधरी। इनके संपादन में ‘पाटलिपुत्र’ का प्रकाशन जुलाई 1921 तक होता रहा। सोना सिंह चौधरी का वेतन निर्धारित किया गया प्रतिमाह 200 रुपये। इनके सहयोगियों में आरा के मिश्री टोला निवासी ईश्वरी प्रसाद शर्मा और मिर्जापुर के रामानंद द्विवेदी थे। इन दोनों को सौ-सौ रुपये प्रतिमाह मिला करते थे। ईश्वरी प्रसाद शर्मा ‘मनोरंजन’ के संपादक थे जबकि रामानंद द्विवेदी कोलकाता से प्रकाशित ‘वीर भारत’ के संपादक थे। रामानंद द्विवेदी लगभग 5 वर्षों तक यानी 1919 तक ‘पाटलिपुत्र’ से जुड़े रहे, जबकि ईश्वरी प्रसाद शर्मा दो सालों के उपरांत 1917 में कोलकाता चले गए। उनकी जगह सहायक संपादक के रूप में भानपुरा (इंदौर) निवासी सुख संपत राय भंडारी नियुक्त हुए। 1919 में जब रामानंद द्विवेदी का निधन हो गया, तब पूर्वोक्त त्रिपाठी प्रमुख सहकारी संपादक बनाए गए। 

1918 में इस अखबार से जुड़ी एक रोचक घटना हुई। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। ‘पाटलिपुत्र’ की घटना यह है कि 1918 में छपरा में हथुआ नरेश (पाटलिपुत्र के प्रकाशक व स्वामी) के सभापतित्व में एक सभा हुई। इस सभा में ब्रिटिश सरकार की मदद करने का निश्चय किया गया। जब यह समाचार ‘पाटलिपुत्र’ में प्रकाशन के लिए आया तो संपादकीय कार्यालय में संशय की स्थिति उत्पन्न हो गई। पूरा संपादक मंडल इस राष्ट्र विरोधी खबर के प्रकाशन के पक्ष में नहीं था। किंतु इस समाचार का छपना भी अनिवार्य था। बहुत सोच-विचार के बाद एक रणनीति बनाई गई और उसके तहत ‘पाटलिपुत्र’ की केवल 12 प्रतियाँ विशेष रूप से उस सरकार के समर्थन वाली खबर के साथ छपी। शेष जनता में वितरित होने वाली प्रतियाँ पूर्व निर्धारित व निश्चित सिद्धांत के अनुकूल छपी। जो 12 प्रतियाँ छपी, उनमें से सात हथुआ महाराज के पास भेजी गई और 5 सरकारी अधिकारियों के पास। इस तरह से ‘पाटलिपुत्र’ से जुड़े पत्रकारों ने अपनी नौकरी की परवाह न करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान किया।

1917 में भी ऐसी ही एक रोचक घटना ‘पाटलिपुत्र’ के साथ हुई। उन दिनों अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का दसवाँ वार्षिक सम्मेलन पटना में पंडित विष्णुदत्त शुक्ल की अध्यक्षता में आयोजित हुआ। विष्णु दत्त शुक्ल मध्य प्रदेश के निवासी थे और हिंदी के प्रकांड पंडित माने जाते थे। विशेष बात यह थी कि इस सम्मेलन के दौरान चार दिनों तक ‘पाटलिपुत्र’ का दैनिक संस्करण प्रकाशित हुआ। गौर करने लायक बात यह है कि ‘पाटलिपुत्र’ साप्ताहिक समाचार पत्र था। यह था ‘पाटलिपुत्र’ का हिंदी के प्रति प्रेम। उन दिनों मुरली मनोहर प्रसाद और अशीष कुमार बनर्जी दोनों पाटलिपुत्र के लिए संवाद संकलन किया करते थे। हालाँकि दोनों अँग्रेजी अखबार ‘एक्सप्रेस’ के नगर संवाददाता थे। बाद के दिनों में मुरली मनोहर प्रसाद पटना से प्रकाशित ‘सर्चलाइट’ के संपादक बने। ‘पाटलिपुत्र’ का राष्ट्रीय दृष्टिकोण होने के कारण कई बार उसे सरकार के कानूनी फंदे का शिकार भी बनना पड़ा था। इस घटना से इसे समझा जा सकता है। छपरा निवासी कविवर रघुवीर नारायण के ‘बटोहिया’ गीत की प्रसिद्धि का एक कारण उसका ‘पाटलिपुत्र’ में प्रकाशन था। ‘पाटलिपुत्र’ में छपने के बाद राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत बटोहिया गीत ने इतनी लोकप्रियता पाई कि पटना नगर के हर गली में जन-जन के कंठ से यह गीत सुना जाने लगा। बटोहिया की लोकप्रियता से प्रभावित होकर एक अन्य कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह ने ‘फिरंगिया’ शीर्षक से एक लोकरंजक गीत लिख डाला। कवि मनोरंजन बाद में राजेन्द्र कॉलेज छपरा के प्राचार्य भी हुए। इधर बटोहिया के प्रकाशन से ‘पाटलिपुत्र’ के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो गया, क्योंकि अपने राष्ट्रवादी दृष्टिकोण और संपादकीय तेवर के कारण ‘पाटलिपुत्र’ का कार्यालय साहित्यकारों का पूजनीय स्थल बन गया था। प्रदेश के बाहर से कोई भी साहित्यकार बिहार आता तो कम-से-कम एक बार ‘पाटलिपुत्र’ के दफ्तर अवश्य आना चाहता था। उन्हें ऐसे राष्ट्रभक्त पत्रकारों से मिलकर खुशी होती जो अपनी नौकरी दाव पर लगा कर समाचार पत्र में जनता की आवाज को बुलंद करते। ‘पाटलिपुत्र’ समाचार पत्र से जुड़े प्रमुख कवियों और लेखकों में प्रसिद्ध लेखक-साहित्यकार शिवपूजन सहाय, पटना निवासी शिव प्रसाद पांडे ‘सुमति’, भागलपुर के शोभाराम ‘धेनु-सेवक’, चंपारण के पांडे जगन्नाथ, पटना कॉलेज के विद्वान प्रोफेसर अक्षयवट मिश्र ‘विप्रचंद’, पटना सिटी के डॉक्टर विशेश्वर दत्त मिश्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। ‘पाटलिपुत्र’ में नियमित लेखन करने वालों में चूड़ामणि पंडित राम अवतार शर्मा भी शामिल थे। उनकी व्यंग्य रचनाएँ ‘पाटलिपुत्र’ के पाठकों में खूब लोकप्रिय थी। आचार्य शिवपूजन सहाय ने ‘मेरा जीवन’ में पृष्ठ संख्या-43 पर ‘पाटलिपुत्र’ और पंडित राम अवतार शर्मा की विशेष चर्चा की है।

‘पाटलिपुत्र’ के प्रकाशन के अंतिम दिनों में महात्मा गाँधी की अगुवाई में असहयोग आंदोलन छिड़ गया और इस अखबार के संपादक सोना सिंह चौधरी और सहकारी संपादक पूर्वोक्त त्रिपाठी दोनों इस से जुड़ गए।

संपादक मंडल की इस ‘नीति’ की जानकारी हथुआ महाराज को हो ही गई। आखिर ऐसी बात कब तक छुपी रहती। उन्हें यह भी पता चल गया संपादक मंडल में शामिल लोग किन भावनाओं के पुजारी हैं। पत्र की बदलती नीति से वह चिंतित हो उठे। उन्होंने अखबार की नीति बदलने की कोशिश की। उन्होंने संपादक मंडल से इस आशय का अनुरोध भी किया किंतु स्वाभिमानी पत्रकार अपनी नीति पर डटे रहे। आखिर प्रकाशक और संपादक के बीच टकराव का यह सिलसिला कब तक चलता? और वही हुआ जिसका डर था। 1921 में 3 मई को अचानक एक तार (टेलीग्राम) संपादक को मिला–‘सीज पब्लिकेशन’ यानी प्रकाशन बंद करो। तार मिलते ही ‘पाटलिपुत्र’ समाचार पत्र बंद कर दिया गया। इस तरह जनप्रिय ‘पाटलिपुत्र’, जिसने बिहारी जनजीवन के अभिमान के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी, उसका असमय अस्त हो गया।

‘पाटलिपुत्र’ से लोगों का ऐसा जुड़ाव हुआ कि इसके बंद हो जाने के बाद इसके बिना लोगों का दिन काटना मुश्किल हो गया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और कवि ठाकुर नंदकिशोर सिंह ‘किशोर’ ने ‘पाटलिपुत्र के संस्मरण’ में अपनी भावनाएँ व्यक्त की, जो उन दिनों ‘बिहार बंधु’ में प्रकाशित हुआ– 

‘अस्त हुआ रवि कनक किरण ले, उदय क्षितिज पर फिर होता है

इष्ट सिद्धि  के बिना मिटा जो, काल-अंक कब तक सोता है।’

लगभग 16 साल बाद ‘पाटलिपुत्र’ की स्मृति कायम रखने के लिए 1937 में आरा से पारसनाथ त्रिपाठी ने इसका प्रकाशन शुरू किया। छपाई और सामग्री दोनों दृष्टि से यह समाचार पत्र अच्छा निकलने लगा। धीरे-धीरे यह पाठकों में अपनी पैठ भी बनाने लगा था, किंतु अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि पारसनाथ त्रिपाठी एक मोटर दुर्घटना में काल-कलवित हो गए और इस तरह एक बार फिर बिहार का यह जाज्वल्यमान नक्षत्र असमय अस्त हो गया।


Image: Reading woman, Mae Phim market
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