रेणु की सामो आमाँ

रेणु की सामो आमाँ

रेणु का प्रारंभिक जीवन!

उनका एक पैर पूर्णिया जिले में रहता तो दूसरा सरहद के उस पार नेपाल में। नेपाल की धरती, वहाँ के लोग, वहाँ के इतिहास और भूगोल से उनका गहन लगाव था। भारत-भूमि उनकी माँ थी और नेपाल की भूमि मौसी।

रेणु लिखते हैं : ‘नेपाल राज्य! स्वतंत्र राज्य! हिमालय की सुनहरी चोटियाँ! आजाद मिट्टी, मुक्त हवा–कितना मोहक! कितना सुंदर! आखिर आप मचल पड़े उस पार जाने को।’

प्राचीन काल में भारतवर्ष अनेक राज्यों का समुच्चय था। हिमालय के पर्वतीय अंचल में भी कई राज्य बसे हुए थे। नेपाल के प्रमुखतः तीन राज्यों को जो बात आपस में जोड़ती थी, वह थी उसकी सांस्कृतिक चेतना। नेपाल को राजनीतिक रूप से एकीकृत करने का श्रेय पृथ्वीनारायण शाह को दिया जाता है, किंतु वहाँ के लोगों को आपस में जोड़ने में कई महापुरुषों का योगदान रहा है।

ने, नै, नय नेपाली भाषा में ऊन को कहते हैं। जनश्रुति है कि एक ऋषि काठमांडू से (जिसे प्राचीन काल में कांतिपुर कहते थे) तीन किलोमीटर उत्तर-पूर्व में तपस्या करते थे। जटाजूटधारी ऋषि के पूरे शरीर पर लंबे-लंबे बाल थे, जिसके कारण आसपास के लोग उन्हें ‘ने ऋषि’ कहते थे और कुछ लोग नै या नय ऋषि। उन्होंने ही उस जगह की खुदाई करवाई और धरती के गर्भ में स्थित पशुपतिनाथ को बाहर निकलवाया। कहा यह भी जाता है कि प्राचीन काल में वहाँ एक मंदिर था, जो कभी भूकंप में भूमिगत हो गया था। ‘ने ऋषि’ ने पशुपतिनाथ की पुनस्र्थापना की और काष्ठ का मण्डप बनवाया। यह काष्ठ मंडप कांतिपुर के लोगों को इतना पसंद आया कि उन्होंने भी उसी रूपाकार के लकड़ी के अपने घर बनवाने शुरू कर दिए। बाद में कांतिपुर का नाम ही काष्ठमंडल हो गया। यही काष्ठमंडल कालांतर में काठमांडौ या काठमांडू के नाम से जाना गया।

‘ने ऋषि’ के नाम पर पूरे राज्य का नाम नेपाल पड़ा। पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल का केंद्रीय स्थल है। पहले भी था और आज भी है। यह नेपाल ही नहीं, सभी हिंदुओं का पवित्र तीर्थ-स्थल है। इस मंदिर के निकट ही शंकराचार्य की कुटिया है। जनश्रुति है कि बौद्धों को खदेड़ते हुए जब आदि शंकराचार्य यहाँ पहुँचे तो इस मंदिर के निकट लंबे समय तक रहे और इसका जीर्णोद्धार करवाया। इन्होंने शिव की पूजा फिर से प्रारंभ करवाई। उनकी कुटिया में उनकी चरण-पादुका आज भी रखी हुई है। पशुपतिनाथ मंदिर बागमती नदी के किनारे बसा हुआ नेपाल का हृदयस्थल है। हिमालय की गोद में बसे अनेक पहाड़ी गाँवों के लोगों के बीच पहली बार जन-जागरण लाने का काम गुरु गोरखनाथ ने किया। गोरखनाथ ने हिमालय की कंदराओं में रहकर लंबे समय तक योग-साधना की थी। वे दिव्य पुरुष थे। देखते-ही-देखते उनके अनुयायियों या शिष्यों की संख्या बढ़ती चली गई। हिमालय की गोद में बसे पहाड़ी लोग गोरखनाथ के भक्त हो गए और नई ऊर्जा से भर उठे। गोरखनाथ को गुरु या पूज्य मानने के कारण ही उन्हें ‘गोरखा’ कहा जाने लगा। यह गोरखा जाति के रूप में तब विख्यात हुई, जब भारतीय फ़ौज में उसकी विशेष जगह बनी। पहाड़ी अंचल में बसे इस समुदाय में शासन-प्रशासन की व्यवस्था भी गोरखनाथ ने ही की थी। पृथ्वीनारायण शाह के पूर्वजों को उन्होंने गोरखाराज का राजा नियुक्त किया था।

अपने पिता नर भूपाल शाह की मृत्यु के बाद 1742 ई. में पृथ्वीनारायण शाह गोरखा राज्य के राजा हुए। उन्होंने काठमांडू को अपनी राजधानी बनाई। उस समय नेपाल छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। इन राज्यों में आपसी संघर्ष होता रहता था। उन्होंने इन राज्यों को जीतकर नेपाल को एकीकृत किया। वे कहा करते थे कि नेपाल किसी एक व्यक्ति का नहीं, वरन् चारों वर्ग एवं छत्तीस जातियों की फुलवारी है। उन्होंने सभी जातियों के सैनिकों के एक पंगत में बैठकर भोजन करने की प्रथा चलाई। गोरखा जाति को ‘बहादुर’ की उपाधि भी उन्होंने ही दी और उसे योद्धा बनाया। उन्होंने नेपाल के विभिन्न मठ एवं मंदिरों में अंत्यज तथा शूद्र जाति तक के पुजारियों को मान्यता दी थी। पृथ्वीनारायण शाह गोरखनाथ के परम उपासक थे। उन्होंने गोरखनाथ के प्रति श्रद्धा-निवेदन करते हुए एक भजन लिखा है, जो गोरखाओं के बीच अब भी प्रचलित है–

बाबा गोरखनाथ सेवक सुख दाये, भजहुँ तो मन लाये।
बाबा चेला चतुर मछिन्द्रनाथ को, अद्यवधु रूप
शिव में अंश शिवासन कावे, सिद्धि महा बनि आये।

सिंधिनाद जटाकुवरि, तुम्बी बगल दबाये
समरधन बाँध बघम्बर बैठे, तिनहि लोक वरदाये

मुन्द्र कान में अति सोभिते, गेरुआ वस्त्र लगाए
गलै माल कद्राच्छे सेली, तन में भसम चढ़ाये।

नरभूपाल साह जिउको नन्दन पृथ्वीनारायण गाये
बाबा गोरखनाथ सेवक सुख दाये, भजहुँ तो मन भाये।

पृथ्वीनारायण शाह के हाथ में शासन-सूत्र के आते ही नेपाल में शांति, सुख तथा ऐश्वर्य स्थापित होने लगे। आपसी वैमनस्य, मनोमालिन्य, युद्ध तथा षड्यंत्र समाप्त हुए। 1768 ई. में नेपाल के टुकड़ों में बँटे राज्य मिलकर एकाकार हुए। नेपाल में धर्म, संस्कृति तथा भौगोलिक स्थिति एक होने पर भी वह भाषा के आधार पर अनेक बोलियों में बँटी हुई थी। ये बोलियाँ थीं–पर्वतिया, नेवार, तराई में बोली जाने वाली मैथिली और भोजपुरी, गुरूँग, मगर, तामाँग आदि जातियों की विभिन्न बोलियाँ। पूरे नेपाल में नेपाली भाषा का व्यापक प्रचार-प्रसार भानुभक्त के रामायण के द्वारा हुआ। भानुभक्त पृथ्वीनारायण शाह के समकालीन थे। उनके नेपाली भाषा में लिखे रामायण ने पूरे नेपाल को एक भाषा दी, जिसे नेपाली भाषा कहा जाता है। नेपाली भाषा के वास्तविक संस्थापक भानुभक्त ही थे। उन्होंने इस भाषा के साहित्यिक रूप का निर्माण किया, उसे व्याकरण-सम्मत बनाया, सजाया-सँवारा तथा लोकरुचि के अनुकूल बनाया।

भानुभक्त के समय में ही नेपाल के विद्वान और कुशल प्रधानमंत्री भीमसेन थापा का अवसान हुआ और जंग बहादुर राणा जैसे अवसरवादी, कुटिल प्रधानमंत्री का अभ्युदय हुआ। उस समय नेपाल का राजदरबार षड्यंत्र, हत्या और कूटनीतिक चालों का अड्डा बना हुआ था। भानुभक्त सम-सामयिक राजनीतिक उथल-पुथल से निरपेक्ष हो भक्तिभाव से रामायण की रचना कर रहे थे जो भविष्य में नेपाल की जनता को एक भाषा-सूत्र में जोड़कर सांस्कृतिक एकता का मार्ग प्रशस्त करनेवाला था। कहा जाता है कि पृथ्वीनारायण शाह के पुत्र बहादुर शाह ने नेपाल का खूब विस्तार किया और हिमालय पर्वत पर बसे चौबीस राज्यों का नेपाल में विलय किया। पूर्व में भूटान से लेकर पश्चिम में कश्मीर तक तथा उत्तर में तिब्बत से लेकर दक्षिण में अवध की सीमा तक नेपाल का विस्तार हो गया।

परंतु बहादुर शाह के द्वारा स्थापित वृहद् नेपाल बहुत कम समय तक ही कायम रहा। इधर भारत में स्वतंत्र राज्य-राजवाड़े एक-एक कर धीरे-धीरे अँग्रेजों के अधीन आते जा रहे थे। उधर वृहत्तर नेपाल के विभिन्न क्षेत्रों पर धीरे-धीरे अँग्रेजों का अधिकार होता जा रहा था। 1814 से 1816 तक अँग्रेजों से नेपाल का युद्ध होता रहा। इसका अधिकांश भू-भाग ब्रिटिश भारत के अधीन हो गया और आज भी यह भारतीय राज्य उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और पश्चिमी बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र के रूप में भारत का अभिन्न अंग है। अँग्रेजों की नेपाल नरेश से एक संधि हुई थी जिसे सुगौली संधि कहते हैं। इस संधि में यह तय हुआ था कि हर वर्ष नेपाल एक तय की गई रकम अँग्रेजों को देगा और स्वतंत्र राज्य के रूप में उसकी स्वायत्तता बनी रहेगी। तभी से काठमांडू में एक ब्रिटिश रेजिडेंस रखने की परंपरा भी स्थापित हो गई।

पृथ्वीनारायण शाह के वंश में बहादुर शाह एक मानवीय संवेदना-सिक्त राजा हुए। अपने प्रधानमंत्री भीमसेन थापा के साथ मिलकर उन्होंने नेपाल के विकास के लिए कई जन-कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की। किंतु उनके दरबार में षड्यंत्रकारियों का एक जाल फैला हुआ था। उनका मानसिक संतुलन खो गया और उन्होंने आत्महत्या कर ली। उनके बाद उनकी पत्नी ने नेपाल की बागडोर अपने हाथ में ले ली और भीमसेन थापा को कैद कर लिया। इन्होंने भी जेल में आत्महत्या कर ली। अब प्रधानमंत्री पद प्राप्त करने के लिए दरबारियों में दलबंदी शुरू हो गई। नेपाल में शासन-प्रबंध लचर हो जाने के कारण चारों ओर अराजकता फैल गई। इसी समय जंगबहादुर कुँवर एक शक्तिशाली सैन्य कमांडर के रूप में उभरे। उन्होंने नेपाल के शासन पर अपनी पकड़ बना ली। रानी ने उन्हें समाप्त करने के लिए कई उपाय किए। फलस्वरूप भीषण लड़ाई हुई। रानी के सैकड़ों समर्थक मारे गए। जंग बहादुर और ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरे। 1846 ई. में जंगबहादुर कुँवर ने नेपाल का पूरा शासन अपने हाथों में ले लिया। उन्होंने राजपरिवार को काठमांडू के राजमहल नारायण हिट्टी में ही सीमित कर दिया तथा पूरे नेपाल पर अपना आधिपत्य जमा लिया। उन्होंने कुँवर की जगह अपनी उपाधि राणा रख ली और यहीं से नेपाल में राणाशाही का दमनकारी शासन शुरू हुआ। उन्होंने पृथ्वीनारायण शाह के वंश को श्री 5 राजा और अपने वंश को श्री 3 प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित किया। इन्होंने प्रधानमंत्री के पद को खानदानी बना दिया। 1857 के गदर में विद्रोहियों को कुचलने के लिए उन्होंने गोरखा सैनिकों की टुकड़ी भेजकर अँग्रेजों की सहायता की। फलस्वरूप भारत का ब्रिटिशराज भी इनका संरक्षक बन गया। जंगबहादुर राणा ने अपने भाइयों और उनके लड़कों को पूरे नेपाल में बड़े-बड़े पद दिए। सेना की अलग-अलग शहरों में स्थित छावनियों का प्रमुख बनाया गया।

जंगबहादुर राणा के वंश के अधिकांश प्रधानमंत्रियों ने नेपाल की जनता का भीषण दोहन किया और विदेशी बैंकों में धन जमा किए।

शाहवंश के राजा त्रिभुवन छह वर्ष की उम्र में 30 जून, 1906 को गद्दी पर बैठे। जैसे ही वे बड़े हुए, उनके मन में राणाशाही के प्रति असंतोष पैदा होने लगा। लेकिन उनके समय के प्रधानमंत्री भीम शमशेर राणा ने उनकी एक न चलने दी। नेपाल के गाँधीवादी तुलसी मेहर, जोगवर सिंह, लक्ष्मी प्रसाद देवकोटा, बैकुंठ प्रसाद सिंह आदि 46 लोगों को चर्खा समिति बनाने पर सौ रुपये प्रति व्यक्ति जुर्माना लगा दिया गया। राणा शासन के द्वारा जितना अत्याचार किया जाता, नेपाली जनता के मन में उतना ही असंतोष बढ़ता जाता। राणाशाही को खत्म करने के लिए पहली बार 1929 में ‘प्रचंड गोरखा’ नामक एक संगठन की स्थापना गुप्त रूप से की गई। इसके संस्थापक थे–उमेश विक्रम शाह, मैन बहादुर, खड्गमान सिंह तथा रंगनाथ शर्मा। इन सभी को गिरफ्तार कर लिया गया और कठोर कारावास का दंड मिला। उमेश विक्रम शाह को देश निकाला कर दिया गया। महाराज त्रिभुवन की प्रेरणा से उनके व्यायाम शिक्षक धर्मभक्त के घर ‘प्रजा-परिषद’ की स्थापना 1936 में हुई जिसका सभापति टंक प्रसाद आचार्य को बनाया गया। जब इस संस्था की जानकारी राणा युद्ध शमशेर को मिली, तो उन्होंने इसके सभी सदस्यों को कैद कर लिया। 18 अक्टूबर, 1940 को नेपाल के जिन देशभक्तों को कैद किया गया था, उनमें शुक्रराज शास्त्री, दशरथ चंद, धर्म भक्त तथा गंगा लाल श्रेष्ठ की सारी संपत्ति जब्त कर प्राणदंड दे दिया गया तथा टंक प्रसाद आचार्य, रामहरि शर्मा, चूड़ा प्रसाद तथा गोविन्द प्रसाद शर्मा को पूरी संपत्ति जब्त कर आजीवन कारावास दिया गया। राणाशाही के इस कृत्य से राजा त्रिभुवन बहुत व्यथित हुए और उन्होंने इस दमनकारी राणाशाही शासन से सामना करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। राणाशाही नेपाल में लंबे समय से कायम थी और दमनकारी स्वरूप के साथ-साथ नेपाली लोगों को कभी-कभार खुश करने का काम भी करती रहती थी। युद्ध शमशेर के बाद चंद शमशेर जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इसी उपक्रम में कुछ स्कूल-कॉलेज स्थापित किए। भारत के कुछ उद्योगपतियों को नेपाल में कारखाना खोलने के लिए आमंत्रित किया। उनके बाद वीर शमशेर प्रधानमंत्री बने और उन्होंने कुछ अस्पताल बनवाए। उन्होंने नेपाल के राजा त्रिभुवन की रजत जयंती भी पूरे नेपाल में धूमधाम से मनाई। लेकिन क्रूर और दमनकारी राणाशाही के खिलाफ जन-आक्रोश बढ़ता जाता था। जगह-जगह जन-संगठन बन रहे थे। गुप्त रूप से क्रांतिकारी विद्रोही संगठनों का निर्माण हो रहा था। 1940 ई. में युद्ध शमशेर की दमनकारी क्रिया-कलापों से जन-आक्रोश और भी बढ़ गया था।

युद्ध शमशेर के बाद जब पद्म शमशेर प्रधानमंत्री हुए तो उन्हें नेपाल की जन-भावना की खबर मिली और डरकर उन्होंने घोषणा की–‘मैं नेपाल का नौकर हूँ।’ उन्होंने 15 दिसंबर, 1945 ई. को नागरिक अधिकार संबंधी पर्चे बँटवाए। किंतु, नेपाल की जनता उनके झाँसे में नहीं आई और व्यापक आंदोलन की तैयारी में लगी रही। विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला और टंक प्रसाद आचार्य पूरे नेपाल में दौरा कर नेपाल की जनता में जागरण कर रहे थे। कहीं-कहीं वे अपने साथ रेणु को भी ले जाते थे। नेपाल की जनता से रेणु का जुड़ाव और घनिष्ठ होता जाता था। कोइराला के मन में एक पार्टी बनाने की इच्छा लंबे समय से आकार ले रही थी। लेकिन नेपाल में कहीं सार्वजनिक सभा करना मुश्किल था।

विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला को लोग उसी तरह बी.पी. कहते थे, जैसे बिहार के लोग जयप्रकाश नारायण को जे.पी.। जयप्रकाश नारायण से बी.पी. नियमित सलाह-मशविरा लिया करते थे। उन्होंने उन्हीं की सलाह से ‘नेपाली राष्ट्रीय काँग्रेस’ नामक पार्टी बनाने का निर्णय लिया। इस पार्टी की स्थापना बैठक उन्होंने एक छोटे से रूपाकार में 1946 में दिल्लीरमण रेग्मी के साथ मिलकर की। जब इसके सदस्यों की संख्या काफी हो गई तब 15 जनवरी, 1947 ई. को इसका उद्घाटन कलकत्ता में हुआ, जिसके सभापति राणाशाही की कैद में बंद टंक प्रसाद आचार्य को बनाया गया। सभापति की कुर्सी पर उनकी तस्वीर रखी थी। लेकिन कार्यकारी सभापति बी.पी. थे, जिन्होंने सर्वप्रथम इस सभा में फैसला लिया कि विराटनगर में एक बड़ा आंदोलन चलाया जाए। उन्होंने रेणु को अपने लेखन से इस आंदोलन को तीव्र करने के लिए आग्रह किया।

फणीश्वरनाथ रेणु अपने घर से एक घंटा में विराटनगर पहुँच सकते थे। वे विराटनगर बचपन से जाते रहते थे। वे साप्ताहिक ‘जनता’ में वहाँ की खबरों की रपट भेजने लगे। फिर बी.पी. के निर्देश पर एक लंबा रिपोर्ताज लिखा–‘विराटनगर की खूनी दास्तान’। बी.पी. ने इसे पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करवा कर जन-जन में वितरित करवाया। वे कोइराला भाइयों के साथ वहाँ के मजदूरों का संगठन बनाने का काम भी कर रहे थे। ‘जनता’ के 2 मार्च, 1947 के अंक में उनका रिपोर्ताज ‘सरहद के पार’ प्रकाशित हुआ और 4 मार्च, 1947 को एक बड़ा जन-आंदोलन विराटनगर के जूट मिल में शुरू हुआ, जिसे राणाशाही के द्वारा कुचल दिया गया। रेणु भी इसमें लहूलुहान हुए और मातृका प्रसाद कोइराला के द्वारा बचाए गए। यह आंदोलन कुचल दिया गया, लेकिन पूरे नेपाल में इसकी धमक महसूस की गई थी। इसके बाद मोहन शमशेर नेपाल के प्रधानमंत्री बनाए गए। उन्होंने पूरे नेपाल को सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया।

मोहन शमशेर ने अपने भाइयों पर दबाव डालकर त्यागपत्र ले लिया। ऐसे में कुछ भारत प्रवास कर गए और वहीं से मंत्री पद छोड़ने की घोषणा कर दी। वे भी मोहन शमशेर की निरंकुशता के खिलाफ हो गए। उन्होंने अपने जनरल भाई सुवर्ण शमशेर और महावीर को उनके पदों से बर्खास्त कर उनकी संपत्ति जब्त कर ली। राणाशाही को खत्म करने में अब राणाओं की भी एक बड़ी संख्या खड़ी हो रही थी। बी.पी. कोइराला को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। वे वहाँ आमरण अनशन पर बैठ गए। यह खबर जब जे.पी. को मिली तो उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से बात की। नेहरू की अपील पर मोहन शमशेर ने उन्हें मुक्त किया।

नेपाल में सत्ता का दमन और जन-प्रतिरोध बढ़ता ही जा रहा था। बी.पी. कोइराला के ‘नेपाली राष्ट्रीय काँग्रेस’ और निर्वासित राणाओं ने मिलकर ‘नेपाली काँग्रेस’ नामक एक नवीन संस्था का गठन किया। इसकी स्थापना 9 अप्रैल, 1950 में की गई। इसका अध्यक्ष मातृका प्रसाद कोइराला को बनाया गया।

नेपाल में क्रूर राणाशाही को उखाड़ फेंकना मुश्किल था। जिस नेपाली फ़ौज को तीन वर्ष तक अँग्रेजों की अजेय भारतीय सेना नहीं पछाड़ सकी थी, उससे नेपाल की जनता कैसे मुकाबला कर सकती थी? सैन्य शक्ति का मुकाबला निहत्थी जनता नहीं कर सकती–यह बात जे.पी. ने बी.पी. के दिमाग में डाली। बी.पी. ने जे.पी. से आग्रह किया कि वे हथियारों की व्यवस्था करें। जे. पी. ने नेहरू से बात की, पर उन्होंने भारतीय सेना का हस्तक्षेप नेपाल में करने से इनकार कर दिया। लेकिन यह भी कहा कि शांतिपूर्ण तरीके से जो भी हो सकता है, वे करेंगे। जे.पी. ने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह से भी मदद करने का आग्रह किया। उन्होंने भी अपनी मौन स्वीकृति दी।

अब सवाल उठता था कि हथियारों को कैसे उपलब्ध किया जाए? और नेपाली क्रांति के लिए तत्पर युवकों को हथियार चलाने की ट्रेनिंग कैसे दी जाए? वह भी गुप्त तरीके से। 1942 के आंदोलन में ‘आजाद दस्ता’ बनाकर क्रांतिकारी गतिविधियाँ चलाने वाले जे.पी. को इसका बड़ा अनुभव था। उन्होंने बर्मा (अब म्यांमार) की सरकार से हथियारों का सौदा किया। इसकी कीमत बी.पी. और नेपाल काँग्रेस के नेताओं के द्वारा चंदे के रूप में जुटाकर अदा की गई।

इस पूरे संदर्भ का खुलासा भोला चटर्जी द्वारा लिखित ‘नेपाली क्रांति के संदर्भ में–हिंसा और जे.पी.’ शीर्षक से प्रकाशित जे.पी. के एक इंटरव्यू से चलता है। यह इंटरव्यू ‘जनता’ साप्ताहिक के 18 अगस्त, 1974 के अंक में छपा है। इस इंटरव्यू को प्रस्तुत करने के पूर्व संपादक ने एक छोटी-सी टिप्पणी इस प्रकार लिखी थी–‘नेपाल की क्रांति में सोशलिस्ट पार्टी और उसके महान नेता स्व. राममनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण ने नैतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक और हथियारी मदद भी पहुँचाई थी। जयप्रकाश नारायण ने नेपाली क्रांति से संबंद्ध भोला चटर्जी को एक पत्र के साथ बर्मा भेजा था। उस पत्र के आधार पर बर्मा सरकार ने नेपाल की क्रांति में मदद पहुँचाने के लिए हथियारों से लदा एक जहाज भेजा था।’ भोला चटर्जी ने पूछा–‘आपको स्मरण होगा कि आपने 1950 में बर्मा की सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष, उप प्रधानमंत्री और प्रतिरक्षामंत्री उ.बा. स्वे के नाम एक पत्र दिया था। मैं वह पत्र लेकर बर्मा गया और नेपाल में लोकतंत्र के सशस्त्र संघर्ष के लिए एक जहाज हथियार लाने में सफल हुआ। बर्मा के समाजवादी नेताओं, खासकर उ.बा. स्वे ने हमसे बार-बार ये पूछा कि किस तरह जयप्रकाश नारायण जैसे आदमी, जो पूरी तरह अहिंसा से प्रतिबद्ध हैं और गाँधीवाद में जिनका अडिग विश्वास है, किसी दूसरे देश, नेपाल में सशस्त्र क्रांति का समर्थन करते हैं। आपके पास इसका क्या जवाब है?’

इस पर जयप्रकाश नारायण ने बताया–‘यह बहुत सीधी-सी बात है। मेरी राय में उ.बा. स्वे ने गाँधी को भी ठीक-ठीक नहीं समझा। भारत की आजादी की लड़ाई के नेता के रूप में गाँधी ने अहिंसा के कार्यक्रम के प्रति निष्ठा पर बल दिया। लेकिन साथ ही दुनिया के हर स्वाधीनता आंदोलन का, चाहे उनमें किसी भी तरीके का इस्तेमाल हो रहा हो, चाहे वो सशस्त्र हो या शस्त्र के बिना, उसका उन्होंने समर्थन किया। भारत शायद ऐसा अकेला देश है, जहाँ का स्वाधीनता आंदोलन बिना हथियार के लड़ा गया। लेकिन युवा और दूसरे लोगों के ऐसे छोटे हिस्से थे, जो कि सशस्त्र क्रांति में विश्वास रखते थे। उन्हें भी गाँधी का साथ देना पड़ा, क्योंकि गाँधी जनता में ऐसी जागृति ला सके थे, जिस कार्य में और किसी की सहायता नहीं मिली थी। जहाँ तक दूसरे देशों का सवाल था, गाँधी को भली-भाँति पता था कि अगर वहाँ के लिए अहिंसा व्यावहारिक नहीं है तो किसी भी तरीके का इस्तेमाल करेंगे और इसीलिए उन्होंने अहिंसा या हिंसा का ख्याल किए बिना राष्ट्रीय आंदोलनों का समर्थन किया। मेरी भी यही दृष्टि रही है और नेपाल के मामले में भी मेरी यही दृष्टि थी।’

जे.पी. ने आगे कहा–‘मैंने बी.पी. कोइराला से हिंसा बनाम अहिंसा के सवाल पर कई बार बातचीत की। वह यही कहते रहे और आज भी यही कहते हैं कि नेपाल में अहिंसक संघर्ष संभव ही नहीं है। इसलिए जो वस्तुस्थिति है वह मुझे स्वीकार करनी पड़ेगी। इस बात में मैं गाँधी से एक कदम आगे गया, जिसकी शायद गाँधी जी इजाजत नहीं देते। और मैं समझता हूँ कि निश्चित ही इससे सहमत होते वह कि मैंने राणाओं के निरंकुश शासन के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति छेड़ने के लिए नेपाली काँग्रेस को हथियार दिलाने की कोशिश भी की। क्योंकि मुझे लगा कि अगर नेपाल के राष्ट्रीयतावादियों, नेपाली काँग्रेस के लिए अहिंसा का अनुकरण संभव नहीं है तो उनकी मदद न करना, गलत होगा। मैं आजादी में, लोकतंत्र में विश्वास करता था और मैं चाहता था कि नेपाली जनता को इस निरंकुश शासन से छुटकारा मिले।’

अंत में जे.पी. ने कहा–‘अगर वे उत्पीड़न का प्रतिरोध नहीं कर सकते तो जिस तरह प्रतिरोध कर सकते हैं, उस तरह करें। गाँधी जी ने अनेक बार कहा था कि अगर तुम अन्याय का, उत्पीड़न का अहिंसा से मुकाबला नहीं कर सकते तो ठीक है, तुम उसका हिंसा से मुकाबला करो। वह बिल्कुल इसके विरुद्ध नहीं थे। गाँधी जी ने खुद इसमें सहायता नहीं दी होती, लेकिन अहिंसा के बारे में जो मेरी दृष्टि है, उससे मैं दूर नहीं गया। उ.बा. स्वे के प्रश्न का मेरा यही उत्तर है।’

बर्मा से आयात किए आधुनिक युद्धक हथियारों को कलकत्ता से ट्रकों में लादकर नेपाल से सटे इलाकों में रखा गया। विराटनगर के बहुत करीब रेणु के इलाके फारबिसगंज में बृजमोहन गुप्त (जो राममनोहर लोहिया के मित्र थे), के जगदीश मिल्स में ज्यादातर हथियार रखे गए। कुछ हथियार रेणु के मित्र सरयू मिश्र के गाँव में रखे गए। वहीं नेपाल और भारत के नेपाली क्रांति के योद्धाओं को ट्रेनिंग दी गई। कुछ हथियार सहरसा, मधेपुरा और सुपौल में रखे गए थे। इस ट्रेनिंग सेंटर का संचालन भोला चटर्जी ने सँभाला था। उनके बारे में रेणु ने लिखा है–‘बंगाल के समाजवादियों में भोला चटर्जी गोरिल्ला-युद्ध की ट्रेनिंग देने से शुरू करके विदेश से, मित्र-देशों से अस्त्र-शस्त्र लाने का काम उसने किया है।’ डॉक्टर लोहिया ने बी.पी. से इस बहादुर बंग-संतान का परिचय देते हुए कहा था–‘यह स्वयं एक भीषण मारात्मक विस्फोटक पदार्थ है…।’ भोला चटर्जी के मित्र तारापद राय और उनकी मित्र-मंडली के कई लोग राणाशाही से युद्ध लड़ने को तत्पर नौजवानों को ट्रेनिंग दे रहे थे। फारबिसगंज के जगदीश मिल्स में ट्रेनिंग चल रही था और लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था रेणु के परम मित्र मधुसूदन सिंह कर रहे थे। 1942 आंदोलन के ‘आजाद दस्ता’ के सेना नायक और रेणु के मित्र लखनलाल कपूर भी इस यज्ञ में जी-जान से जुटे थे।

जब नेपाल में भीषण युद्ध की तैयारी चल रही थी। नेपाल के राजा त्रिभुवन एक रात सपरिवार राजभवन से निकले और दिल्ली जाकर भारतीय दूतावास में शरण ले ली। मोहन शमशेर को इसका पता भी नहीं चला। 11 नवंबर, 1950 को विशेष वायुयान से जैसे ही उन्होंने दिल्ली के लिए कूच किया, उसी रात नेपाल-क्रांति के अग्रदूतों ने अचानक नेपाल के प्रसिद्ध शहर वीरगंज में राणा की सैन्य छावनी पर अँधेरे में हमला किया और राणा के सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया। इस तरह इस युद्ध का प्रारंभ ही मुक्ति वाहिनी सेना के लिए खुशी का संदेश लेकर आया। लेकिन सबसे कठिन था, विराटनगर का युद्ध जो लंबे समय तक चला। इस युद्ध का आँखों देखा अद्भुत वृतांत रेणु ने ‘नेपाली क्रांति-कथा’ में विस्तार से लिखा है। धीरे-धीरे नेपाल की सभी सैनिक छावनियों पर मुक्ति-सेना का कब्जा होता चला गया। रेणु ने उसकी खबरें लिखकर पटना के कुछ साप्ताहिक पत्रों में भेजी, जो अगले सप्ताह के अंकों में छपीं। पटना से ‘योगी’ नामक साप्ताहिक पत्र में ये सब खबरें प्रकाशित हुईं–

5 जनवरी, 1951 : मोरंग में छापामारों की सुव्यवस्था
हर मोर्चे पर जीत–राणा की फ़ौज का आत्म-समर्पण

नेपाल की जनक्रांति जारी है।… नेपाली काँग्रेस की फ़ौज का बढ़ाव जारी है। गत 2 जनवरी को दो सौ राणा के सैनिकों ने काँग्रेसी छापामारों पर आक्रमण कर दिया, किंतु उन्हें लौटना पड़ा। मोर्चे पर कुशाघाट के समय भी दोनों पक्षों के बीच खुलकर युद्ध हुआ। और राणा के सैनिकों ने अंत में समर्पण कर दिया। कहा जाता है कि दोनों मोर्चे पर एक सौ के लगभग राणा सैनिक हताहत हुए।

‘योगी’ के 12 जनवरी, 1951 के पृष्ठ 14 पर छपी खबर का शीर्षक है : ‘जनक्रांति के सम्मुख राणाशाही को झुकना पड़ा।’

19 जनवरी, 1951 के पृष्ठ 11 पर खबर–‘नेपाल में उपयुक्त वातावरण तैयार करने के लिए।’ 2 फरवरी, 1951 को खबर छपी–‘नेपाल नरेश श्री त्रिभुवन ने गत 28 जनवरी को नई दिल्ली में एक वक्तव्य द्वारा नेपाली जनता से अपील की कि वह सुधार की नई योजना को कार्यान्वित में बिना किसी वैयक्तिक या अन्य वैमनस्य को स्थान दिए सहयोग प्रदान करे। …मैं आशा करता हूँ कि इस नई सुधार योजना को पूर्ण सफल करने के लिए मैं शीघ्र ही नेपाल पहुँचूँगा, ताकि इसकी सफलता से जनता का उपकार हो और वह जनतंत्र की ओर बढ़ सके। इन सुधारों को लागू करने के लिए मैं एक शाही घोषणा करूँगा और जनप्रतिनिधि एवं अपने प्रधानमंत्री की राय से अंतरिम मंत्रिमंडल गठित करूँगा। नेपाल में शांति स्थापित हो रही है, इससे मैं खुश हूँ।’ बात वीरगंज शहर को मुक्त कराने के बाद अखबारी सूचना में अटक गई थी। बात फिर वहीं से शुरू की जाए। वीरगंज में मिली मुक्ति सैनिकों की सफलता से क्रांति की ज्वाला की लपटें पूरे नेपाल में फैल गई। पूरा नेपाल क्रांति की ज्वाला में धधक रहा था और नेपाल की जनता में खुशियों की लहर दौड़ रही थी। एक-एक शहर को मुक्त कराते हुए चारों तरफ से क्रांतिकारी काठमांडू की ओर बढ़ने लगे।

बर्मा के रक्षामंत्री ने जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर नेपाली क्रांति के बीच में ही एक युद्धक हवाई जहाज में भरकर हथियार भेजा, जिसे पटना में उतारा गया। वहाँ से ट्रकों में भरकर उसे नेपाल पहुँचाया गया। इस प्रसंग को रेणु ने कितने दिलचस्प अंदाज में लिखा है, इसे यहाँ पढ़ने की आवश्यकता महसूस कर रहा हूँ–‘और सबसे उत्साहवर्धक समाचार हेडक्वार्टर से बेतार संवाद आया है–मित्र देश से आने वाला अस्त्र-शस्त्र इस मोर्चे पर यानी ईस्टर्न कमांड में शीघ्र ही पहुँचने वाला है। सिंगापुर, मलाया और बर्मा के प्रवासी नेपाली, गुर्खे सैकड़ों की संख्या में इस मुक्ति युद्ध में शरीक होने के लिए आ रहे हैं।’

हिमालय एयरलाइंस का विशेष वायुयान मित्र-देश से चल चुका है। उसे कहाँ उतारा जाए? हवाई जहाज कुछ ही क्षण में भारत पहुँच जाएगा। हिमालय एयरलाइंस के कर्ता-धर्ता महावीर शमशेर कलकत्ते में परेशान हैं। बार-बार वह सुवर्ण शमशेर से पूछ रहे हैं–‘हवाई जहाज कहाँ उतारा जाए?’ सुवर्ण जी, महावीर शमशेर को समझाते हैं–‘पटना से अभी देवेन्द्र बासू का ट्रंक आएगा…लीजिए, आ गया ट्रंक…’

मित्र-देश से ‘सामान’ लेकर आते हुए विशेष वायुयान को गुप्त-बेतार-यंत्र से सूचना दी जा रही है : रोबट…रोबट…दिस इज पीटर कॉलिंग रोबट…हैलो रोबट…यस…डायवर्ट टुवाडर्स…डाइवर्ट वेस्ट पैटना स्ट्राइप–ओवर।

विशेष वायुयान में बैठा मुक्ति सैनिक नक्शे पर निगाह दौड़ा रहा है। वह पूछता है हैलो पीटर-पीटर…वेस्ट ऑफ पैटना…डू यू मीन बिहटा?…ओवर।

नेपाली क्रांति के दौरान नेपाल की जनता, अप्रवासी नेपाली, पूर्णिया-सहरसा जिले के सोशलिस्ट पार्टी के सभी कार्यकर्ता इसमें जुटे थे। यह बाकायदा फ़ौज नहीं थी, साधारण लोगों को ही मिलेटरी ट्रेनिंग देकर गुरिल्ला-युद्ध के लिए तैयार किया जा रहा था। ऐन युद्ध के दौरान जयप्रकाश नारायण के विशेष आग्रह पर बर्मा के एक कुशल सैन्य अधिकारी को विराटनगर भेजा गया जी.बी. सुब्बा उर्फ याकथुम्बा। ‘याकथुम्बा ने इस इलाके में एक सप्ताह रहकर एक अनुभवी फ़ौजी की दृष्टि से सब कुछ देख-परख लिया है। यों, उसके मुखड़े पर सदा मुस्कुराहट अंकित रहती है। किंतु, संग्राम-समिति में अपनी राय जाहिर करते समय उसके चेहरे पर एक अपूर्व गंभीरता छा जाती है। सैनिक-सुलभ अनुशासित वाणी में वह अपना मत प्रकट करता रहता है ‘हमारा मौजूदा लोक-बल निर्णायक आक्रमण के लिए यथेष्ट है। किंतु हमें कम-से-कम पाँच सौ राइफल चाहिए…’

‘कम-से-कम पाँच सौ राइफल और?’ वार काउंसिल में शरीक अधिकतर साथियों के चेहरे के रंग अचानक उतर गए–‘कहाँ से आएँगी इतनी राइफलें? न राधा को नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।’

सर्वाधिनायक सुवर्ण ने अधिनायक याकथुम्बा से बहुत ही सहज ढंग से कहा–‘कम-से-कम पाँच सौ राइफल हम आपको देंगे।’

याकथुम्बा ने तुरंत उठकर सर्वाधिनायक को फ़ौजी सलामी दी। सर्वाधिनायक ने अब संग्राम-समिति के विशेष आमंत्रित साथियों की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा। वे सभी चुपचाप खेमे से बाहर चले गए–चकित, प्रसन्न।

याकथुम्बा की इस मुक्तियुद्ध में प्रमुख भूमिका थी। थिरबलमल्ल भारतीय सेना का फ़ौजी वीरगंज की लड़ाई में गोलियों से छलनी हो जाता है। थिरबलमल्ल सुवर्ण शमशेर का भगिना, तेईस वर्षीय देहरादून के सैनिक विद्यालय से फ़ौजी तालीम पाया हुआ युवक शहीद हो जाता है। भोला चटर्जी के साथ आए तारापद बाबू का विराटनगर में एक बम धमाके में चिथड़े हो जाना रेणु को कितना सालता था कि नेपाली क्रांतिकथा का समापन उन्होंने इन पंक्तियों से किया है–‘और तारापद बाबू?–बलून ना–आपनार माँ के गिए की बोले दिबो?’ क्या कहूँगा आपकी माँ से?

लेकिन यह कैसे हुआ? रेणु बताते हैं–कॉमरेड तारापद अपने चार साथियों के साथ प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। असावधानी से एक ग्रेनेड गिरकर फूटा और सभी तैयार बम और गोले एक साथ…विस्फोटक धड़धड़ाकर फटने लगे…दीवारों में दरारें…ध्वंस…ईंट-सिमेंट, रक्त…रक्त, ध्वंसावशेष…तारापद बाबू और उनके साथियों की लाश की चित्थियाँ…माँस के कुचले और जले हुए लोंदे मात्र…और कुछ नहीं…न किसी का सिर, न किसी का पैर…हड्डियाँ चिंदी-चिंदी…एक वीभत्स चित्र!

रेणु इस मुक्ति-युद्ध में प्रचार अधिकारी थे। परचे लिखना, सभी संबंधित व्यक्तियों की जानकारी प्राप्त कर उनका प्रोफाइल बनाना, ‘मुक्ति-संदेश’ नामक बुलेटिन निकालना, रेडियो स्थापित कर प्रसारण करना। इस काम में उनके दो तारिणी नामक दोस्त साथ-साथ थे–तारिणी प्रसाद कोइराला और तारिणी प्रसाद निर्झर। रेणु युद्ध का आँखों देखा वृतांत लिख रहे थे। लिखने के क्रम में तरह-तरह के प्रसंगों को मितकथन में उपस्थित करना उनकी विशेषता थी। वे लिखते हैं–‘दुश्मन को एक दिन भी चैन मत लेने दो, गोरिल्ला-युद्ध की यह पहली शर्त है। और, तराई से लेकर पहाड़ियों के एक-एक गाँव तक मुक्ति फ़ौज का संदेश जितना शीघ्र हो पहुँचाने की व्यवस्था, धुआँधार प्रचार।’

अचरज की बात! जिस नेपाल में राणाशाही की नजर में ‘हिंदी टाइपराइटर मशीन’ रखना जुर्म हो और उसकी सजा आजीवन कारावास, गाँधी जी से मुलाकात करने की सजा कठोर काल-कोठरी की यातना। और…एक बार एक कृषि-विशेषज्ञ ने ‘मकई की खेती’ शीर्षक अपने लेख में एक ऐसी पंक्ति लिख दी कि उसे भयानक खूँखार व्यक्ति समझकर राणाशाही ने उसको तुरंत गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। वह पंक्ति है–‘यह बड़े दुख की बात है कि नेपाल के सभ्य और श्रेष्ठवर्ग के लोग ‘विदेशी कुत्ते’ पालने में जितनी दिलचस्पी लेते हैं उसका शतांश भी यदि ‘देसी खेती’ में…’–उसी नेपाल में आधुनिक ‘साज-सरंजाम’ से लैस ‘मुक्ति-युद्ध’ के गोरिल्ला मैदान में उतर पड़े हैं–‘वायरलेस, वायुयान, ऑटोमेटिक अस्त्र-शस्त्र’।

और मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ की पंक्ति यहाँ याद आती है–‘कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई।’ लेकिन रेणु तो इसका अद्भुत बिंब ही प्रस्तुत कर देते हैं। गतिमान चलचित्र की तरह। अद्भुत दृश्य का अंकन।

तराई के घने अँधकार में पेड़ की फुनगियों पर कैसी लाली छा रही है? लाली बढ़ती ही जाती है…आग? आग! आग लगी है आग…!! तुमुल कोलाहल-कलरव के बीच झापा ट्रेजरी धू-धूकर जल रही है। अब बैरक में भी आग लग गई? कैसे लगी आग? आग, आग! दौड़ो-बुझाओ-बचाओ!! जय नेपाल!

जनता रुक गई। जनता समझ गई, यह जनक्रांति की आग है। इसको बुझाने के बदले इसमें घी डालना ही जनता का पुनीत कर्तव्य है। भाइयो! यह राणाशाही मेधयज्ञ है–आहुति डालो इसमें। सदियों से नेपाल की छाती पर बैठकर रक्त चूसने वाली राणा-सरकार का नाश हो। झापा का बड़ा हाकिम (गवर्नर) क्या करे? पहले आग बुझाए या पहले…? पहले आग बुझाओ! हुक्म हुआ।

राणाशाही पलटन के जवान, राइफल रख, बाल्टी और घड़े लेकर दौड़े आग बुझाने। आग बुझाने वाले और आग लगाने वाले एक देश के लोग। एक ही बोली उनकी। इसलिए आग लगाने वालों की बात उनकी बुद्धि में तुरंत आ गई–नहीं! इस आग को बुझाना सचमुच पाप है। आग बुझाने वाले कई सिपाहियों ने बाल्टी रख दी–‘दाजु भाई हो। देशवासियो! मत करो प्रतिरोध। इस बर्बर, जालिम सरकार की रक्षा हम क्यों करें? चलो, चलो!! जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।’
राणा की इन पलटनों ने एक स्वर में कहा–‘जय नेपाल!!’

रेणु के नेपाली क्रांति के अलग-अलग दृश्यों का कोलाज बनाने की मैंने कोशिश की है। थोड़ा हेर-फेर कर प्रस्तुत करने से एक अद्भुत कला-कृति का दर्शन होता है। टुकड़ी के सभी मुक्ति-सैनिकों के मन में फ़ौजी बैंड के ताल पर, एक ही गीत गूँज रहा है–

‘नेपाली!
नेपाली!!
अगि बढ़दै बढ़दै जाऊ
क्रांति झंडा ले…ड्रम ड्रम ड्रम।’

इनके प्रत्येक पद्चाप पर धरती पुलक-पुलक उठती है। शहीद शुक्रराज, कृष्ण प्रसाद कोइराला तथा अनगिनत-अनाम-अमर शहीदों की आत्माएँ शांत हुई हैं–पहली बार। नक्षत्र-खचित आकाश में खलबली मची हुई मानो…।

मुट्ठीभर राणाओं की सामंतशाही चक्की में युगों से पिसती हुई जनता गुलामी की बेड़ियों को तोड़ चुकी है। काली रात का अंत हो चुका है। प्रजातंत्र का सूरज अब उगने वाला है। यह नेपाल की सर्वहारा जनता की लड़ाई है। यह जनयुद्ध है। मुक्तिसेना की जीत का मतलब है जनता की विजय, प्रजातंत्र का उदय…नेपाली प्रजातंत्र अमर हो!

भाइयो, हम अभी लड़ाई के मैदान में हैं! दुश्मन का रू-ब-रू मुकाबला कर रहे हैं। लड़ाई का हर लमहा नाजुक होता है। मगर, हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि जिस तरह सूरज का उगना सत्य है, हमारी जीत भी उसी तरह निश्चित है। सारी दुनिया की निगाह आज नेपाल पर है…!

जय नेपाल, जय नेपाल, जय जय…जै जै जै जै!!

भाइयो! अब न तो यहाँ ‘हजुरिया राज’ है और न कोई अब यहाँ ‘हुजूर’ कहलाएगा। मुक्तिसेना के जवान, राणाशाही के बंधन से देश और देशवासियों को मुक्त करने के लिए, अपनी जान कुर्बान कर रहे हैं…ये हैं नेपाली काँग्रेस के अध्यक्ष मातृका प्रसाद कोइराला का जनसभा में दिया गया संबोधन।

और रेणु का उपसंहार–शेष हुआ–विराटनगर का यह मृत्यु यज्ञ।

अपने प्राणों की आहुतियाँ डालकर जिन योद्धाओं ने इसे सफल और संपन्न किया–उनके नाम इतिहास के पृष्ठों पर कभी नहीं लिखे जाएँगे। वे सदा अनाम रह जाएँगे। किंतु, मुक्त नेपाल में जब कभी ‘स्वाधीनता दिवस’ या ‘प्रजातंत्र दिवस’ का उत्सव होगा–आकाश-पाताल में उनकी मृत्युंजय वाणी गूँजती रहेगी–‘जय नेपाल! जय नेपाली प्रजातंत्र!!’

युद्ध-विराम, हुआ। मोहन शमशेर और भारत सरकार के बीच शांति-समझौता हुआ। 14 फरवरी, 1951 के ‘योगी’ में रपट प्रकाशित हुई–जानकार क्षेत्रों में कहा जाता है कि आगामी 16 फरवरी को नेपाली अंतरिम मंत्रिमंडल की घोषणा की जाएगी। जन प्रतिनिधियों के संरक्षण में गृह तथा अर्थ-विभाग रहेगा, ऐसा भी सुनिश्चित हो चुका है। गत 10 फरवरी के अंतिम निर्णय के बाद अंतरिम मंत्रिमंडल के लिए काँग्रेसी प्रतिनिधियों की सूची नेपाली काँग्रेस के अध्यक्ष मातृका प्रसाद कोइराला द्वारा राजा त्रिभुवन को दे दी गई। 15 तारीख को पटना होते हुए नेपाल के महाराजा, नेता तथा पटने के कुछ पत्रकार नेपाल गए। नेपाली काँग्रेस की ओर से 5 मंत्री होंगे, वे ये हैं–1. विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला 2. भद्रकाली मिश्र 3. गणेश मान सिंह 4. सुवर्ण शमशेर 5. भारत मणि शर्मा। पाँच राणा वंश के लोग मंत्री बनाए गए। मोहन शमशेर को फिर प्रधानमंत्री बना दिया गया। 18 फरवरी, 1951 को राजा त्रिभुवन के द्वारा सभी मंत्रियों को शपथ दिलाई गई और हर वर्ष 18 फरवरी को नेपाल में ‘प्रजातंत्र दिवस’ मनाया जाने लगा।

मोहन शमशेर को प्रधानमंत्री और बी.पी. कोइराला को उपप्रधानमंत्री बनाए जाने पर रेणु का मन खट्टा हो गया। वैसे कुलदीप झा की शहादत से वे दुखी थे। उन्होंने कुलदीप झा की शहादत का पूरा वृतांत ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में लिखा है। रेणु के परम आत्मीय भोलानाथ मंडल से रेणु की बहुत बनती थी। उनके नाम से उन्होंने पूर्णिया से प्रकाशित ‘राष्ट्र संदेश’ में एक लेख लिखा, जिसमें कुलदीप झा की शहादत को याद किया है। इस लेख में वे लिखते हैं–‘भारतीय गणराज्य के उत्तरी छोर का आखिरी स्टेशन जोगबनी की उस जगह पर जहाँ-जहाँ भारत और नेपाल की सीमाएँ एक-दूसरे को अनवरत चूमती रहती हैं–ठीक उस सड़क के बगल में, जिससे होकर दोनों देशों का कोई यात्री बिना रोक-टोक के एक-दूसरे की मिट्टी में प्रवेश करता है–एक साधारण-सा टिल्हा स्थापित है, जो डॉ. कुलदीप की समाधि है। उस मामूली-सी मूक समाधि को देखते ही दोनों देशों के लोगों में दोस्ती का प्रेम-भाव एक बार फिर जग उठता है। वह फिर ताजा हो जाता है। काश, कि उस पर कभी एक स्थाई स्मारक बन पाता।’

उस समाधि के दर्शन-मात्र से मेरे जैसे लोगों को उनके अंतिम संस्कार का कारुणिक दृश्य आँखों के सामने नाचने लगता है–जैसे अभी सब कुछ होते दिख रहा हो। डॉ. कुलदीप झा रेणु के परम मित्र थे। कटिहार के रहने वाले थे। डॉक्टरी का पेशा छोड़कर अनेक जन-आंदोलनों में शामिल रहे थे। रेणु से उनकी गहरी मित्रता थी। नेपाल क्रांति में उनका शहीद हो जाना, रेणु के मर्म को कचोटता रहता था। वे मुक्ति वीर थे। वीरगति को प्राप्त कर रेणु के हृदय में बसते थे।

लेकिन रेणु के लिए नेपाल सानो आमाँ क्यों थी? कैसे थी? इसका वृतांत भी दिलचस्प है। रेणु के नेपाल में भी एक दूसरा परिवार था–कोइराला परिवार। कृष्ण प्रसाद कोइराला उनके दूसरे पिता थे और दिव्या कोइराला दूसरी माँ। उनके पाँच बेटे थे। और एक रेणु मिल गए पुत्र के रूप में तो छह बेटे हो गए। यही सानो आमाँ यानी दिव्या कोइराला प्रायः कहतीं कि मेरे पाँच नहीं, छह बेटे हैं।

कोइराला के पाँच पुत्र थे, सबसे बड़े मातृका प्रसाद कोइराला, जो सबसे बड़े होने के कारण ठुलो दाज्यु या बड़े भाई थे। उनसे छोटे विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला, रेणु के सान्दाज्यु थे। तीन नंबर पर केशव प्रसाद कोइराला रेणु के कोशुदाज्यु थे। तारिणी प्रसाद कोइराला चौथे बेटे थे और रेणु के ही हमउम्र। वे रेणु के शब्दों में ‘मुसल्लम मितर’ थे। दोनों की जोड़ी को यार-दोस्त कहा जाता। रेणु तारिणी प्रसाद कोइराला को ‘यार’ कहते और तारिणी रेणु को ‘दोस्त’। उनका सबसे छोटा भाई गिरिजा प्रसाद कोइराला।

वे अपने नाम को अँग्रेजी नामकरण की प्रथा अनुसार इस प्रकार लिखते–

मातृका प्रसाद कोइराला उर्फ एम.पी. कोइराला
विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला उर्फ बी.पी. कोइराला
केशव प्रसाद कोइराला उर्फ के.पी. कोइराला
तारिणी प्रसाद कोइराला उर्फ टी.पी. कोइराला
गिरिजा प्रसाद कोइराला उर्फ जी.पी. कोइराला।

रेणु ने भी अपना नाम इसी तर्ज पर लिखना शुरू किया–फणीश्वरनाथ मंडल उर्फ एफ.एन. मंडल। ‘रेणु’ तो उनका पुकारू नाम था।

1935 ई. से रेणु का कोइराला परिवार से इतना घनिष्ठ संबंध बना कि वे बराबर वहाँ जाते रहे। पिता जी की झोपड़ी में स्थापित ‘आदर्श विद्यालय’ में ही उन्होंने विधिवत् पढ़ाई की। कोइराला बंधुओं के साथ रहकर ही उनका बौद्धिक विकास हुआ। उनकी परिपक्वता तेजी से बढ़ी। उस समय कोइराला-निवास लकड़ी से निर्मित दो मंजिला मकान था, जो बरसों रेणु की स्मृतियों में बसा रहा। 1942 ई. में उनके पिता जी कृष्ण प्रसाद कोइराला की राणाशाही की जेल में मृत्यु हो गई। रेणु ने लिखा है–‘आश्रमतुल्य कोइराला-निवास में मेरी सारी महत्वाकांक्षाओं को सहारा मिला। साहित्य, राजनीति और कला की त्रिवेणी कोइराला-निवास। जहाँ भी रहा मन विराटनगर पर टँगा रहा। बाहर से जब लौटता–सीधे विराटनगर पहुँचता। मेरे इस व्यवहार से मेरे बाबू जी-माँ दुखी होते, कभी-कभी।’ मैंने देखा है, कोइराला-निवास के एक छोटे-से कमरे में नेपाल की मुक्ति की परिकल्पना–नए सिरे से की जा रही थी। शहीद शुक्रराज आदि की हत्या की गूँज–इसी कमरे से निकल कर भारतीय पत्रों में प्रकाशित हुई थी।… ‘जनता’ में नेपाल की चिट्ठी छपाने की योजना बनाई जा रही थी। और, श्री विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला के कथाकार की श्रेष्ठ कहानियों की रचना भी उसी कोठरी में हुई। संसार के सभी प्रसिद्ध लेखकों के संबंध में बातें वहीं सुनीं–उनकी किताबें भी निवास-पुस्तकालय में पढ़ने को मिलीं। जिस कोइराला-निवास में उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ, उसे वे बराबर याद करते रहते थे। बाद में कुछ-न-कुछ कोइराला-निवास पर लिखते रहते थे, जिससे उनकी मानसिकता का पता चलता है। एक उनकी हस्तलिखित आधी-अधूरी रचना ‘कोइराला निवास’ पर लिखी मिली है। पाँचों कोइराला-बंधु विराटनगर में अपना-अपना निवास बनाकर रह रहे थे और बचपन का वह लकड़ी का बना कोइराला-निवास जीर्ण-शीर्ण दशा में खड़ा रह गया था। रेणु जब भी विराटनगर जाते, उस मकान को देखते और गाँव में या पटना में रहते हुए उसे याद करते। उनकी लिखी यह आधी-अधूरी रचना कोइराला-निवास, कृष्ण प्रसाद कोइराला और बी.पी. कोइराला को याद करते लिखा गया है। यह रचना 1960 के आस-पास की है।

कोइराला निवास! नहीं, इसकी तुलना ‘आनंद भवन’ से नहीं करूँगा। लकड़ी की वह दुमंजिला आज भी खड़ी है। हालाँकि उसके कमरों में पलनेवाले प्राणियों में से देश के दो-दो प्रधानमंत्री हो चुके हैं। इस बार कुछ ही दिन पहले फिर देख आया हूँ–कोइराला निवास को। चौदह-पंद्रह साल की उम्र से ही इस ‘मकान’ के व्यक्तित्व को श्रद्धा की दृष्टि से देखता आया हूँ। अब तो, इसके सुनसान कमरों और टूटी कड़ियों को भी बोलते सुनता हूँ। विराटनगर अस्पताल के पास पश्चिम वाली सड़क पर आकर बायें मुड़ते ही–कोइराला निवास सिर ऊँचा किए हुए दिखाई पड़ता है। आह्लाद भरे स्वर में हँसकर कहता है–हः हः, एत्ति दिन पछि कसरि सझना…कितने दिनों के बाद, कैसे याद आई?

नेपाल का एक तत्कालीन प्रधानमंत्री (तीन सरकार) विलायत गया था। उसने पार्लियामेंट में मान्य अतिथि की हैसियत से भाषण दिया–‘आपलोग भारत के हर शहर में स्कूल-कॉलेज खोल रहे हैं और साथ ही यह भी उम्मीद करते हैं कि भारत की जनता स्वराज्य नहीं माँगे। हमें देखिए, हमारे देश में न एक पब्लिक स्कूल है, और न एक कॉलेज।’

ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य मन-ही-मन हँसे थे। किंतु जब वह संवाद सात समुद्र पार कर नेपाल की तराई तक पहुँचा तो ‘कोइराला निवास’ के संस्थापक प्रबुद्ध नेपाली पंडित श्रीकृष्ण प्रसाद कोइराला की आत्मा विद्रोही हो गई।…

रात भर ‘कोइराला निवास’ के कमरों ने खामोश रहकर देखा, सुखी-संपन्न-संतुष्ट दिखने वाला यह व्यक्ति इतना बेजार होकर रो क्यों रहा है? ग्लानि-दुख-लज्जा और अपमान से दिव्य मुखमंडल झमा गया है! बस, रह-रहकर एक ही टेकरू अब पुग्यों नहीं, अब सहन नहीं किया जा सकता!

इस अपमान का बदला उन्होंने अपने ही ढंग से लेने का निश्चय किया। विजयादशमी के अवसर पर ‘कोइराला निवास’ से तीन सरकार को स्वस्ति की ‘डाली’ दी जाती थी–उसमें रेशमी वस्त्र और अशर्फी के स्थान पर फटे-चिटे चीथड़े भेजे गए–महाराज! आपकी प्रजा को चीथड़े भी मयस्सर नहीं। हम रेशमी वस्त्र कहाँ से भेजें? और, इसके बाद ही भाई-भतीजों को ‘कोतपर्व’ में तलवार के घाट उतार बैठने वाले तीन सरकार ने ‘लालमोहर’ का छाप डाल कर फरमान भेजा–‘कृष्ण प्रसाद कोइराला को पिंजड़े में बंद करके काठमांडू भेजो!’

स्थानीय बड़ा हाकिम मोरंग जिला का गवर्नर–हुक्मनामा पढ़कर किंकर्तव्य विमूढ़! क्या किया जाए? श्रीकृष्ण प्रसाद कोइराला के पक्ष में सत्य और धर्म है। ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करके वह पाप नहीं लेगा। उसने राजद्रोह किया। रात के सन्नाटे में वह ‘कोइराला निवास’ के हमेशा खुले रहने वाले दरवाजे में प्रवेश किया। लेकिन, श्रीकृष्ण प्रसाद कोइराला ने तर्क शुरू किया–‘तुम क्यों राजद्रोह करते हो? तुम अपना कर्तव्य पालन करो। लो हथकड़ी पहनाओ!’

‘खरदार साहेब! आप मेरे पितातुल्य हैं इसलिए अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा–ऐसी बात नहीं। आपको हथकड़ी लगाने का अर्थ है–नेपाल को हथकड़ी लगाना। आप आज ही रात को सीमा पार करके ‘मधेस’ (भारत) चले जाइए। आपकी गिरफ्तारी के साथ ही यह चिनगारी सदा के लिए बुझ जाएगी।’

श्रीकृष्ण प्रसाद कोइराला तैयार हो गए–सिर्फ एक खुखरी (नेपाली कटार) और कुछ पैसे लेकर–अपनी पत्नी के साथ वे रात की पिछली पहर में निकले। भुरुकवा तारा के प्रकाश में ‘कोइराला निवास’ मौन, स्तब्ध खड़ा–मन-ही-मन मंगलकामना के मंत्र पढ़ रहा है। मॉरिशस, कलकत्ता, प्रयाग, बनारस प्रवास में वे रहे–उनका जी सदा इस काठ के मकान पर टँगा रहता–घनी तराई के बीच छोटा-सा कस्बा–विराटनगर! अपना छोटा-सा देश नेपाल!

भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के प्रमुख नेताओं से वे मिले। सभी ने इस विद्रोही का स्वागत किया। कहते हैं, सर तेज बहादुर सप्रू ने कानूनी सलाह देकर कहा था–‘भारत की भूमि पर आप निर्भय विचरण करें–अँग्रेजी सरकार की कोई भी कानून आपका बाल-बाँका नहीं कर सकता।’

उन्हीं दिनों की एक घटना है। देशबंधु चितरंजन दास के कमरे में एक सम्माननीय अतिथि मिलने के लिए आए हैं। साथ में है आठ-नौ वर्ष का सुंदर बालक। अतिथि बहुत देर तक अपना दुखड़ा रोते रहे। अपना दुखड़ा माने अपने देश की दुर्दशा की कहानी। बातें करते-करते उन्हें बीच में रुकना पड़ता था। उनका पुत्र तनिक चंचल है। देशबंधु के कमरे में घूम-घूमकर वह देख रहा है। जब कभी छूना चाहता है, पिता प्यार से पुकार कर कहते हैं–‘नहीं विशु! कुछ छू-छा मत करो!’ पिता की बात सुनकर वह एक क्षण चुप रहता। फिर, कौतूहलवश किसी वस्तु में हाथ लगा देता। तब, देशबंधु दास ने बालक को पास बुलाकर प्यार करते हुए कहा–‘देखो, यदि तुम दो मिनट चुपचाप बैठोगे तो…यह कलमदान तुम्हें इनाम में दिया जाएगा। लेकिन ठीक दो मिनट–घड़ी देखकर–चुप बैठा रहना होगा। तैयार?’

बालक मुसकुराया–‘हुँह!’ (ठीक है।)

देशबंधु अपने अतिथि से बातें करने लगे। इसी बीच लड़के ने ‘कलमदान’ को हठात् उलट दिया। दोनों एक साथ चिहुँके–‘अरे?’

बस, एक मिनट भी चुप नहीं? बालक लज्जित हुआ। बोला–‘असल में मैं देखना चाहता था कि इस कलमदान में ऐसी क्या खास बात है? अब मालूम हुआ कि इसे उलट देने पर भी रोशनाई–पोखिन्दैन–नहीं गिरती।’

सुना है, देशबंधु ने बालक को गोदी में लेते हुए अपने अतिथि से कहा था–‘कोइराला जी, आप व्यर्थ ही नेपाल की चिंता करते हैं। आपका यह बालक जो एक मिनट भी चुप नहीं बैठ सकता और जानबूझ कर ‘इनाम’ हार जाता है। कलमदान को उलट देता है, वही एक दिन राणाशाही को भी उलटेगा। यह चैन से नहीं बैठेगा कभी।’ देशबंधु की बात ठीक निकली।

विराटनगर में विद्यालय स्थापना और मोरंग जिले में शिक्षा प्रचार करने की शर्त पर श्रीकृष्ण प्रसाद कोइराला का परिवार एक युग के बाद नेपाल लौटा। इसके पहले टेढ़ी भागलपुर में एक आश्रम चला रहे थे। बड़ा बेटा मातृका प्रसाद कोइराला 1929-30 के सत्याग्रह के समय सदाकत आश्रम में राजेन्द्र बाबू का प्राइवेट सेक्रेटरी रह चुका है। छोटा बनारस में पढ़ते समय हमेशा सी.आई.डी. वालों की निगाह में रहा। एक बार पकड़ा भी गया है। हवालात की हवा खा आया है। भारत प्रसिद्ध क्रांतिकारियों से परिचित हो चुका है। रूस की बातें करता है।

उजाड़ कोइराला निवास युगों के बाद फिर आबाद हुआ। फिर जिंदगी चल पड़ी। लेकिन एक नई राह पर! इन आश्रमवासियों ने पूरी गृहस्थी को आश्रम के नियम-ढंग पर चलाने का व्रत लिया। बाँस-फूस के झोपड़ों में ‘आदर्श विद्यालय’ की स्थापना हुई। घर-घर घूमकर विद्यार्थियों को बटोरना, स्लेट-किताब बाँटना यही काम था कोइराला दंपत्ति का।

आदर्श विद्यालय की बात बाद में कभी। अभी तो ‘कोइराला निवास’ की याद आ रही है। इसी सप्ताह की एक प्रमुख खबर है–‘महाराजाधिराज महेन्द्र मोरंग जिले के दौरे पर जाने वाले हैं। बी.पी. कोइराला की बूढ़ी माता विरोध प्रदर्शन की तैयारी कर रही है। गाँव-गाँव घूम रही है। प्रचार कर रही है।’

इन पंक्तियों को लिखते समय फिर एक खबर मिली है–‘महाराजाधिराज ने अपनी यात्रा दो-तीन दिनों के लिए स्थगित कर दी है।…’ इस समाचार को पढ़ने के बाद, कथाकार का मन इसे रूपक में बाँधने को ललच उठा था–

नारायण हिटा दरबार पाँच सरकार ने भेजा हरकारा, बजा नगाड़ा-पूर्वी तराई-जिला मोरंग में सवारी श्री पाँच की–अपनी प्यारी प्रजा को देखने के निमित्त असंतुष्ट, उच्छृंखल और विरोधियों को दलने के निमित्त…डिग-डिग-डिग!

हँसा बूढ़ा कोइराला-निवास ठठाकर–हाहा!

रेणु जब तक जीवित रहे उनके मन में ‘कोइराला-निवास’ जगमगाता रहा। उनके अपने भाई दिवंगत हो गए थे, लेकिन कोइराला-बंधुओं के कारण उन्हें यह कमी कभी महसूस नहीं हुई। उनके दो बड़े भाई थे–मातृका प्रसाद कोइराला और विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला।

बी.पी. कोइराला स्वयं में एक आंदोलन थे। जिंदगी भर वे नेपाल और भारत की स्वाधीनता, स्वावलंबन और सुराज के बारे में संघर्ष करते रहे। नेपाली क्रांति कथा के तो वे प्रमुख सर्जक थे। इसकी पटकथा उनकी ही लिखी हुई थी। रेणु ने लिखा है–‘सचमुच बी.पी. कभी चैन से नहीं बैठा। कॉलेज में पढ़ते समय दो-दो बार क्रांतिकारी कार्यकलापों से संबंध रखने के अभियोग में अँग्रेजी सरकार द्वारा नजरबंद हुआ। कॉलेज की पढ़ाई के बाद बिहार सोशलिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य- 1942 के आंदोलन में हजारीबाग सेंट्रल जेल में तीन साल तक नजरबंद। जेल से मुक्त हुआ–कंठ में असाध्य रोग कैंसर लेकर। बम्बई में, टाटा कैंसर अस्पताल में जब तक चिकित्सा होती रही, बिछावन पर लेटे-लेटे ही नेपाली राष्ट्रीय काँग्रेस के संगठन की योजनाएँ बनाता रहा। और, जीवनी-शक्ति की जय हुई। असंभव, संभव हुआ। डॉक्टरों ने स्वीकार किया–प्रबल इच्छा-शक्ति ने रोग को रोकने में सहायता दी है। जड़ से यह दूर न हो, कोई बात नहीं। अब प्राण पर कोई संकट नहीं। जीवन भर बी.पी. और उनकी धर्मपत्नी सुशीला भाभी का आशीष उन्हें मिलता रहा।’

रेणु ने इस ‘कोइराला’ शब्द की व्याख्या अपने ढंग से की है। वे चुटकी लेते हुए लिखते हैं–‘वह (रेणु) एक ऐसे ‘श्रमजीवी पत्रकार’ को जानता है जो पिछले चार-पाँच साल में ‘कोइराला’ शब्द को भी कभी सही-सही न लिख सका, न बोल सका–‘कोरेला’ अथवा ‘कोरियाला’ या ‘कोयलावाला’ या ‘कोलियारा’। फिर वे इस शब्द को अपनी तरह से समझाते हैं–कोइराला नेपाल के उपाध्याय ब्राह्मणों की एक उपाधि है। यों, नेपाल में अर्जुनवृक्ष को कोइराला…। आयुर्वेदिक निघंटु के अनुसार जिनको कुटज और जिसके बीज को ‘इन्द्रजौ…एक वनौषधि जिसके सफेद फूलों की गुच्छ में बकाइन के फूल जैसी कटु-मधु मृदु मंद-मंद गंध होती है…उत्तर बिहार और मोरंग की तराई में जिसको ‘कोरैया फूल’ कहते हैं। तो इसी कोरैया के परिवेश में रहने के कारण इन परिवार के लोगों की उपाधि कोइराला पड़ी।’ रेणु अनुमान लगाते हैं कि संभव है, किसी उपाध्याय-पंडित के दरवाजे पर या पिछवाड़े में कोइराला का पेड़ रहा हो और वह ‘कोइराला वाला पंडित’ के रूप में तथा उसके वंशज ‘कोइराला’ के रूप में प्रसिद्धि पा गए हों।

रेणु के व्यक्तित्व का निर्माण इसी सानो आमाँ के अंचल में हुआ। कोइराला-निवास में रहते हुए और आदर्श विद्यालय में पढ़ते हुए उनके रचनाकार के स्वरूप का निर्माण हुआ और नेपाल के वातावरण में ही उनके अंतस में विद्रोही चेतना का उदय हुआ। वे स्वीकार करते हैं–मुझे नेपाल के जंगलों में ही राजनीति और साहित्य की शिक्षा मिली है। नेपाल की तरह काठ की कोठरी में ही मैंने समाजवाद की प्रारंभिक पुस्तकों से लेकर, महान ग्रंथ ‘कैपिटल’ तक को पढ़कर, समझने की धृष्टता की है। पहाड़ की कंदराओं में बैठकर, बँसहा कागज की बही पर ‘रशियन रेवोल्यूशन’ को नेपाली भाषा में अनुवाद करते हुए उस नेपाली पागल नौजवान की चमकती हुई आँखों को मैंने अपनी जिंदगी में मशाल के रूप में ग्रहण किया है और उस देवता की अमूल्य वाणी को कैसे भूल सकता हूँ, जो नेपाल के ‘पिता जी’ थे। हाँ, नेपाल के ‘बापू’। रेणु को जानने-समझने के लिए नेपाल को जानना जरूरी है। रेणु की छोटी माँ–सानो आमाँ!

सानो आमाँ यानी नेपाल!!