साहित्य-ऋषि उदय राज सिंह

साहित्य-ऋषि उदय राज सिंह

एक समय था जब बिहार पत्र-पत्रिकाओं की मरुभूमि के नाम से कुख्यात रहा, इसका कारण प्रतिभाशाली पत्रकारों या प्रबुद्ध पाठकों की कमी नहीं थी बल्कि एक संयोग था कि यहाँ के विद्वान कलकत्ता, दिल्ली, बनारस मुंबई, लखनऊ, कानपुर से प्रकाशित होनेवाली पत्र-पत्रिकाओं के संपादक थे और यहाँ के पाठक अन्य प्रदेशों से निकलनेवाली पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ रहे थे। हिंदी पत्रकारिता के प्रारंभिक दिनों में समय-समय पर यहाँ से काफी पत्र-पत्रिकाएँ निकलीं।

सन् 1936-37 तक बिहार में ऐसा वातावरण बन चुका था कि शुद्ध साहित्यिक पत्र छपे। प्रफुल्लचंद ओझा ‘मुक्त’ ने पटना से ‘बिजली’ साप्ताहिक को प्रारंभ किया। यह अपने ढंग की अनोखी पत्रिका थी, बाद में हंस कुमार तिवारी इसके संपादक हुए, पर इसे महाशून्य में लीन होना पड़ा। लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’ और जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के संपादकत्व में हिंदी साहित्य सम्मेलन की त्रैमासिक ‘साहित्य’ पत्रिका इसी समय निकली। इसमें उच्च कोटि के निबंध, गंभीर पांडित्यपूर्ण आलोचनाएँ छपती थी। यह साहित्यिक रुचि की पत्रिका थी, जिसे बाद में आचार्य शिवपूजन सहाय ने सँभाला। केसरी कुमार ने लिखा है–‘कैसे वे दिन थे, जब ‘साहित्य’ को शिवजी जैसे पुराने आचार्यों की परंपरा के महारथी और नलिन जी जैसे आधुनिक दिग्गजों की लेखनी सुलभ थी।’ सन् 1938 में बेनीपुरी एक प्रगतिशील साप्ताहिक पत्रिका ‘जनता’ लेकर आए। सन् 1939 के किसान आंदोलन को आगे बढ़ाने का श्रेय इसी को है। सन् 1940 में अज्ञेय जी के सहयोग से प्रफुल्लचंद्र ओझा ‘मुक्त’ ने ‘आरती’ निकाली। यह भी एक विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी। इसके संपादकीय में भारतीय, अंतर्राष्ट्रीय, राजनीतिक समस्याओं पर विचार होते, बिहार में हिंदी पत्रकारिता का वातावरण बन चुका था। अनेक पत्र-पत्रिकाएँ प्रारंभ होती, कुछ चलती, शेष बंद हो जाती। इन पत्र-पत्रिकाओं ने पढ़ने की रुचि जगाई और पाठकों को प्रबुद्ध किया। आचार्य शिवपूजन सहाय पहले कलकत्ता के ‘मतवाला मंडल’ से संबद्ध रहे और ‘समन्वय’ पत्रिका से जुड़े रहे। उसके बाद वे बिहार के भी अनेक पत्रों से जुड़े। ‘गंगा’, ‘माधुरी’, ‘जागरण’, ‘हिमालय’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करते हुए उन्होंने कालजयी रचनाकारों की महत्त्वपूर्ण कृतियों की भाषा का संशोधन-संपादन किया था। ‘अशोक प्रेस’ की स्थापना और ‘नई धारा’ का प्रकाशन हिंदी भूषण शिवपूजन सहाय की ही प्रेरणा से हुआ था। अप्रैल-मई, 2000 के ‘नई धारा’ अंक में उदय राज जी ने लिखा है ‘सुना है सहस्त्राब्दियों के बाद अहल्या का उद्धार भगवान रामचंद्र के चरणस्पर्श से त्रेतायुग में हुआ था, मगर कलियुग में मेरा उद्धार शिवपूजन बाबू की कृपा से चार वर्षों में ही हो गया।’ शिवपूजन जी उनके पास एक प्रेस खोलने का प्रस्ताव लेकर आए थे। उनका कहना था कि राजा साहब की सारी साहित्यिक निधि नष्ट हो रही है। सभी पुस्तकों की प्रतियाँ तितर-बितर हो रही हैं, छपाई-बँधाई में लगे पैसे भी डूब गए। पुस्तक वितरकों ने एक पैसा भी नहीं दिया। यदि घर का प्रेस होगा तो राजा साहब का सारा साहित्य वहाँ से प्रकाशित होगा और प्रतियों का वितरण भी सुचारु रूप से होगा। फिर आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन होकर रहेगा। पटना में प्रेस होगा तो पढ़ने-लिखने के सिलसिले के साथ-साथ लोगों से मिलने-जुलने का अवसर भी मिलता रहेगा। शिवपूजन जी ने यह सब सोचकर इलाहाबाद से अपनी शिक्षा पूरी कर लौटे उदय राज बाबू से कहा ‘यदि आप मन मजबूत करें तो मैं राजासाहब से एक ट्रेडिल, एक फ्लैट तथा आवश्यक टाइप खरीद देने के लिए सिफारिश करूँ।’ उदय बाबू को यह बात खूब जँची। शिवपूजन बाबू के आश्वासन ने उन्हें प्रेरणा दी। उनके प्रोत्साहन से 15 जनवरी, 1947 को पटना में ‘अशोक प्रेस’ का उद्घाटन हुआ। शिवपूजन बाबू ने ही लहेरियासराय के अपने पुराने सहयोगी श्री हवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’ को प्रेस का व्यवस्थापक बनाया। ‘सहृदय जी’ जीवन के अंतिम समय तक प्रेस से घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे।

‘अशोक प्रेस’ की नींव राजासाहब की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए पड़ी थी। इलाहाबाद से प्रेस के कल-पुर्जे आकर पटना में लग गए थे। बड़ी-बड़ी छपाई की अनगिन मशीनें। बिहार के लेखकों की पुस्तकें भी छप रही थीं। बिहार का मासिक पत्र ‘हिमालय’ का प्रकाशन बंद हो चुका था। शिवपूजन जी को बिहार में एक विशुद्ध पत्रिका की कमी खल रही थी। वे अकसर उदय बाबू से एक मासिक पत्रिका निकालने की योजना बनाते और उसे कार्यान्वित करने पर जोर देते। उदय बाबू का उनसे इस पत्रिका के संपादन का अनुरोध होता। उदय बाबू ने लिखा है–‘मेरा यह बराबर अनुरोध रहता कि वे इस पत्रिका का संपादन करें। उन्होंने मेरी विनती मान ली और यह तय हुआ कि राजेंद्र कॉलेज, छपरा से ही वे संपादन का काम करेंगे। किंतु तभी बिहार सरकार ने उन्हें बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का संचालक बना दिया। इससे शिवपूजन बाबू हतोत्साहित नहीं हुए। उन्होंने दिनकर जी एवं बेनीपुरी जी को आमंत्रित किया। पिता जी (राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह) के समक्ष तय हुआ कि बेनीपुरी जी ‘अशोक प्रेस’ की पत्रिका का संपादन करेंगे और तब बेनीपुरी जी के कुशल संपादकत्व में ‘नई धारा निकल पड़ी।’

सन् 1950 में अशोक प्रेस से ‘नई धारा’ का प्रकाशन आरंभ हुआ। बेनीपुरी जी मृत्युपर्यंत (सन् 1968 ई.) इसके साथ जुड़े रहे। ‘नई धारा’ अप्रैल-मई 2000 के अंक में उदय बाबू ने लिखा–‘नई धारा’ को अपने संपादन द्वारा उन्होंने हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के शीर्ष पर ला दिया। उसके निधन से ‘नई धारा’ परिवार में जो रिक्तता आ गई, उसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकी, हो भी नहीं सकेगी।’ पिछले पचपन वर्ष से ‘नई धारा’ अनवरत साहित्य सेवा कर रही है। ‘नई धारा’ के संस्थापक, संचालक और प्रकाशक उदय राज सिंह 20 जून, 2004 को हमारे बीच नहीं रहे। इस समाचार से साहित्य जगत में गहरा शोक व्याप्त गया। ‘नई धारा’ को लेकर भी सबके मन में चिंता हुई। ‘नई धारा’ का जन्मोत्सव तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू के सभापतित्व में मनाया गया था। उस जन्मोत्सव में आयोजित सभा को संबोधित करते हुए उसके संचालक राजा साहब ने कहा था कि ‘नई धारा’ किसी गुट विशेष की पत्रिका न रहकर हर साहित्यिक गुट, संप्रदाय एवं विचारों की पत्रिका होगी। इसमें गाँधीवादी लेखकों की रचनाएँ छपेंगी तो जनवादी लेखकों की भी और स्वतंत्र विचार के साहित्यकार भी उसी प्रमुखता से उसमें स्थान पाने के हकदार होंगे।’ इससे ‘नई धारा’ के लक्ष्य, उसकी साहित्यिक प्रतिबद्धता, और गुट निरपेक्ष स्वरूप का पता चलता है। उदय बाबू के जाते ही जो सुगबुगाहट और शंकाएँ उठने लगीं, तो ‘नई धारा’ के स्वरूप के प्रति निष्ठावान लेखकों को यह चिंता होने लगी कि कहीं ‘नई धारा’ किसी गुट के हाथों में जाकर संकुचित, सीमित विचारधारा की अनुगामिनी न बन जाए। उदय राज बाबू को इसकी चिंता थी, उन्होंने ‘नई धारा’ फरवरी-मार्च, 2003 के अंक में लिखा था–‘जाने कितने उतार-चढ़ाव इस पत्रिका ने देखे, लेकिन इसके पाठक जानते हैं कि राज साहब की उसी भावना के अनुरूप अब तक मैं इस पत्रिका को निकालता रहा हूँ। ‘नई धारा’ के प्रेरक स्तंभों में राजा साहब, शिवपूजन सहाय जी तथा बेनीपुरी जी ने साहित्य में समन्वय का जो रास्ता ‘नई धारा’ से होकर निकाला, मैं आज भी उसी रास्ते पर चल रहा हूँ।’ उन्होंने पिछले बारह वर्षों से संपादन में उन्हें सहयोग कर रहे डॉ. शिवनारायण को संपादन का उत्तराधिकारी घोषित करते हुए लिखा, ‘जिन उद्देश्यों को लेकर ‘नई धारा’ का प्रकाशन शुरू हुआ और अब तक यह पत्रिका निर्बाध छप रही है उन्हें डॉ. शिवनारायण ने आत्मसात किया है।’

‘नई धारा’ बिहार के पत्रकारिता-इतिहास में मील का पत्थर है। हिंदी साहित्य की मुख्य धारा को अपने में समेटती हुई यह अपनी सादगी में निरंतर प्रकाशित हो रही है। इसके बाद की पत्रकारिता में या समकालीन पत्रिका में अनेक नाम जुड़े, शिवचंद्र शर्मा ने ‘स्थापना’, ‘दृष्टिकोण’ निकाली तो सुधांशु जी ने ‘अवंतिका’। सन् 1948 में ‘ज्योतस्ना’ निकली, राष्ट्रभाषा परिषद की ‘परिषद पत्रिका’ निकली। आज बिहार में एक दर्जन से कम पत्रिकाएँ नहीं होगी, जिनमें ‘नई धारा’ के साथ कुछ प्रमुख दूसरी पत्रिकाएँ भी हैं, पर जो प्रतिष्ठा, मूल्यगत उच्चता और समन्वय साधना ‘नई धारा’ के साथ जुड़ी है, वह अन्य किसी पत्रिका के साथ नहीं।

साहित्यकार, संपादक के रूप में उदय बाबू एक सजग, बौद्धिक, दूरदर्शी, स्वार्थहीन, सौम्य और भव्य गरिमासंपन्न व्यक्ति थे। परिवार से उन्हें जो ऐश्वर्य, गरिमा और आभिजात्य मिला था, वह उनके चिंतन एवं लेखन में भी रहा। उनका दृष्टिकोण सकारात्मक, संयमित तथा रचनात्मक रहा। इस पत्रिका के लिए 90 के दशक से मैंने लिखना प्रारंभ किया। अपनी सामाजिक, शैक्षणिक गतिविधियों के कारण इस परिवार के सदस्यों से मेरी घनिष्टता बढ़ती गयी और यह सच्चाई मुझे बाद में पता चला कि यह परिवार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह एवं ‘नई धारा’ का है। यह सुखद अनुभव था कि साहित्य, कला और समाजसेवा के विविध रूपों से जुड़ा यह परिवार अपनी आंतरिक सादगी के साथ अपने आभिजात्य संस्कारों में संतुलन बनाए हुए था। सहज, आत्मीय और संवेदनशील होना एक प्रबुद्ध व्यक्ति के कद को और भी बड़ा करता है। उदय बाबू ने ‘नई धारा’ में जो संपादकीय लिखे, ‘हमें यह कहना है’ शीर्षक से अपने विचार प्रकट किए, उनमें उनकी रचना प्रतिभा, संवेदना और जीवन-दृष्टि को सहज-ही आकलित किया जा सकता है। मिट्टी की गंध से जुड़ी उनकी रचनाधर्मिता अपने युग की समस्याओं से जूझती रही है। उदय बाबू मानवीय गुणों के कायल थे। उनके संस्मरणों में इस मानव गंध को बिखेरने वाले अनेक महापुरुषों के चित्र है। महादेवी वर्मा से पहली बार मिलने के लिए वे सूर्यपुरा स्कूल के अँग्रेजी के शिक्षक जानकी बाबू के साथ प्रयाग महिला विद्यापीठ गए तो जानकी बाबू को पहले बड़ी निराशा हुई जब विद्यापीठ के प्रांगण में उनका स्वागत एक काली दाई और काली बिल्ली ने किया, पर महादेवी जी से मिलने के बाद उनकी दशा का चित्रण उदय बाबू ने यो किया है ‘शायद जानकी बाबू को एक महान कालाकार की सौंदर्यानुभूति की झीनी झलक मिलने में देर न लगी और उस अतल तल की गहराई नापना उनके बूते की बात न थी।’ भारतीय संस्कृति और संस्कारों की सजीव प्रतिमा महादेवी जी के ममत्व और अपनत्व के प्रसंग का उल्लेख करते हुए उदय बाबू निसंदेह मानवगंध को अनुभव करते जो हमारे दिलों को बाँधती है और स्मृतियों में चिर नवीन बनी रहती है। आत्मीय भाव के ऐसे क्षण ही अभिनव निकटता के सजीव संबंध बन जाते हैं, फिर व्यक्ति रूप में चाहे दिनकर जैसा महान कवि हो या बिछुड़ते अग्रजों, मित्रों का, उदय बाबू अत्यंत संवेदनशीलता से मर्मस्पर्शी प्रसंगों का उल्लेख करते हैं।

अपने यात्रा वर्णनों में–विशेष रूप से विदेश भ्रमण के वर्णन में–उनका ध्यान जहाँ विकसित होते विज्ञान का जन सामान्य के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव पर नजर जाती है। इक्कीसवीं सदी के आरंभ में वे लंदन-अमेरिका की यात्रा पर गए, उन्होंने वहाँ के सामाजिक-आर्थिक जीवन पर टिप्पणियाँ करते हुए ‘नई धारा’ के अक्टूबर-नवंबर, 2000 के अंक में लिखा–‘समृद्धि की आधुनिकता ने उस देश को कंप्यूटरीकृत कर दिया है…सूचना क्रांति का समस्त वैभव वहाँ सिमट गया है।’ इसके साथ ही धनी देश की आंतरिक बेचैनी को भी वे लक्ष्य कर सके–‘समृद्धि के शिखर पर अवस्थित उस देश के लिए धर्म एवं अध्यात्मक आज एक अनिवार्य जरूरत हो गयी है।’ विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण विभिन्न विषयों पर लिखे अपने लेखों में वे आँकड़ों के माध्यम से पूरी सूचना देने में विश्वास रखते हैं। गुजरात में आए भूकंप पर लिखते हुए एक ओर तो वे भूकंप की तीव्रता की माप पर विचार करते हैं, वहाँ की आर्थिक स्थिति और उत्पाद के राष्ट्रीय योगदान का प्रतिशत बताते हैं, नुकसान और राहत के लिए प्राप्त राशि के आँकड़ों का विस्तार से वर्णन करते हैं, वहीं यह भी लिखते हैं–‘भुज का जेल धराशायी हो गया तो सारे कैदी भागने लगे। उनमें एक दुर्दांत अपराधी था रघु। वह भागने के बजाए सीधी वहाँ के एक पुलिस थाने में चला गया। वहाँ के थानेदार बहुत खुश हुए कि बैठे-बिठाये मुँह-माँगी मुराद मिल गई…मगर उस अपराधी ने कहा कि मैं भाग नहीं रहा हूँ। यहाँ की हालत देखकर द्रवित हो गया हूँ। मैं भूकंप पीड़ित इलाके में लोगों की सहायता के लिए दिन-रात काम करूँगा और जब थक जाऊँगा तो इसी थाने में आकर सो रहूँगा, मनुष्य के दिल में सोई मनुष्यता या प्रस्फुटन कितना करिश्मा दिखा सकता है, रघु के उद्गार से स्पष्ट होता है। ‘कारगिल का युद्ध’ और ‘वर्ल्ड ट्रेड सेंटर’ के ध्वस्त होने पर उन्होंने लिखा…इन निर्दोष नागरिकों के साथ-साथ वहाँ के शरणार्थियों के प्रति ‘मानवीय’ दृष्टिकोण अख्तियार करते हुए उसके हित में प्रभावी कार्रवाई तुरंत होनी चाहिए। उनके जीवन में सुकून के क्षण तो शायद हम न दे पाएँ, लेकिन उनके जीने की कठिनाइयों को कम करते हुए उन्हें मानवीय सहानुभूति तो दे ही सकते हैं।’ (अक्टूबर-नवंबर, 2001) कारगिल युद्ध के बाद छपे उनके लेखों में वस्तुस्थिति और मानवीय सरोकार से जुड़ी चिंताएँ वयक्त होती रही। वे सोचते हैं ‘यदि कोई सवाल करे कि इस बीच हिंदुस्तान ने किन-किन क्षेत्रों में क्या-क्या तरक्कियाँ की हैं, तो जवाब में कोई भी हिंदुस्तानी बेशुमार उपलब्धियों को गिनाते हुए चाहे तो उन उपलब्धियों पर गर्व भी कर सकता है; किंतु सांप्रदायिक दंगे, जातीय हिंसा, स्त्री-शोषण, दलित-दलन, क्षेत्रीय उग्रवाद, धार्मिक उन्माद, प्रांतीय विद्वेष, नक्सली अतिवाद जैसी समस्याओं से जूझने में हमारी ऐसी-ऐसी कमजोरियाँ उजागर होंगी कि अपनी सफलताओं पर होनेवाले हमारे सारे गर्व ठंडे पड़ जायेंगे।’ (‘नई धारा’ जून-जुलाई, 2002 अंक) ऐसे में साहित्यकार के दायित्व पर बल देते हुए उन्होंने लिखा–‘यह देश आज एक बार फिर शब्द एवं भाव की साधना करने वाले साहित्य एवं सत्य के साधक पत्रकारों की ओर निर्निमेष दृष्टि से देख रहा है। …कौन जाने ज्ञान और साधना का मधुमय देश भारत अपने अमृत पुत्रों के सहयोग से न केवल अपना पुनर्निर्माण करेगा अपितु आनेवाले दिनों में एक बार फिर से संपूर्ण विश्व का भी मार्ग-दर्शन कर पाने में सफल हो सकेगा।’ प्रधानमंत्री के नाम लिखे उनके पत्रों में अप्रवासी भारतीय लेखक की व्यथा-कथा का वर्णन भी है, देश की कला-संस्कृति तथा साहित्य को सुरक्षित रखने की चिंता भी है और रेलवे के चौथे दर्जे की नौकरी पाने की आकांक्षा से प्रतियोगिता परीक्षा देने गए बिहारी छात्रों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएँ और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हुए उपद्रवों पर चिंता के प्रसंग भी हैं। कहना न होगा ‘नई धारा’ के माध्यम से उदय बाबू ने अपने युग-समाज से एक ऐसा संवाद स्थापित किया था जिसमें समसामयिक समस्याओं पर बेबाक टिप्पणियाँ करते हुए वे एक प्रबुद्धजीवी बने रहे और साहित्यकार की सामाजिक प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए युगधर्मी रचनाकार के दायित्व को निभाते रहे। पत्रकारिता और साहित्य उनके लिए विलास नहीं मानव का युगधर्म था। मनुष्यमात्र की यातना और पीड़ा-दंश का वे अनुभव कर उसके कल्याण के लिए चिंतित रहे। सामाजिक संकट में 2003 के ‘नई धारा’ अंक में उन्होंने लिखा ‘साहित्यकार जब तक जन सामान्य की समस्याओं एवं कतिपय विषमताओं के कारण जन्म लेनेवाली नृशंस आपराधिक घटनाओं की पड़ताल करते हुए उसे अपने लेखन के केंद्र में नहीं लायेंगे, समाज में उसके प्रति यथोचित सम्मान का भाव नहीं जगेगा। इसे समझते हुए ही साहित्यकारों को रचनाकर्म में सक्रिय होना पड़ेगा, अन्यथा उनके साथ-साथ साहित्य भी हाशिए पर चला जाएगा।’

‘नई धारा’ उदय बाबू की साँसों में धड़कती थी। वह उनका सपना, लक्ष्य, सामाजिक प्रतिबद्धता, रचनात्मक ऊर्जा थी, वे उसके लिए जिए और मुझे विश्वास है ‘नई धारा’ उनके लिए जीवित रहेगी। उनके योग्य और होनहार सुपुत्र प्रमथ राज सिन्हा ने उनके लक्ष्य का संधान किया है, ‘में एक लेखक और साहित्यकार न बन सका तो क्या, बाबूजी के आदर्शों ने मुझे भी हिंदी साहित्य की सेवा के लिए प्रेरित किया है। उन्होंने मुझे इतना काबिल तो बनाया ही है कि मैं ‘नई धारा’ को और अधिक ऊँचाई तक ले जाऊँ ताकि हिंदी साहित्य में इसकी श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा बरकरार रहे।’ ‘नई धारा’ के माध्यम से हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता की मूल्य-चेतना ही जीवित नहीं रहेगी बल्कि उदय बाबू के उदात्त व्यक्तित्व की बहुआयामी स्मृतियाँ भी अगरबत्ती की भाँति अपनी चंदन सुगंध बिखेरती रहेगी।


Image Source : Nayi Dhara Archives