समकालीन कहानियों में किन्नर विद्रोह

समकालीन कहानियों में किन्नर विद्रोह

साहित्य के क्षेत्र में दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श, किसान विमर्श, बाल विमर्श, वृद्ध विमर्श, वेश्या विमर्श, मुस्लिम विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, किन्नर विमर्श आदि परिस्थिति के अनुरूप निर्माण हुए। इनमें से किन्नर विमर्श पर तत्कालीन समय बहुत चर्चा हुई, वर्तमान में भी हो रही है। किन्नर समुदाय का प्राचीन काल से शोषण होता आया है, आज भी जारी है। वे वर्तमान में अधिकार से वंचित हैं, प्रावधान होने के बावजूद! सिर्फ़ उन पर साहित्य लिखकर कोई मतलब नहीं, उनके भाव को समझना पड़ेगा। समाज में उन्हें सम्मान देना होगा, तब विमर्श की चर्चा सफल होगी।

हिंदी साहित्य में किन्नर समाज पर अनेक विधा में लिखान हुआ है, वर्तमान में भी लिखान जारी है। परंतु कहानी के माध्यम से किन्नर समुदाय की समस्या पर बेहतरीन चर्चा हुई। कहानी में किन्नर अत्याचार सहता नहीं, विद्रोह करता है। अनेक कहानियाँ किन्नर की त्रासदी पर लिखी गईं। जिनमें प्रमुख कहानियाँ हैं–‘संझा’–किरण सिंह, ‘कुकुज नैस्ट’–कमल कुमार, ‘कबीरन’–सूरज बड़त्या, ‘मन मरीचिका’–विमलेश शर्मा, ‘खलीक अहमद बुआ’–राही मासूम रज़ा, ‘बीच के लोग’–सलाम बिन रज़ाक, ‘त्रासदी’–महेन्द्र भीष्म, ‘लेग’–लवलेश दत्त, ‘बिन्दा महराज’–शिवप्रसाद सिंह, ‘ई मुर्दन के गाँव’–कुसुम अंसल, ‘हिजड़ा’–कादंबरी मेहरा, ‘इज्जत के रहबर’–पद्मा शर्मा, ‘कौन तार से बिनी चदरिया’–अंजना वर्मा, ‘रतियावन की चेली’–ललित शर्मा, ‘संकल्प’–विजेन्द्र प्रताप सिंह, ‘खुश रहो क्लिनिक’–चाँद दीपिका आदि। कहानियों के माध्यम से रचनाकारों ने किन्नर समाज की त्रासदी समाज के सम्मुख रखी। सिर्फ़ त्रासदी बताने से कुछ नहीं होगा, उनके साथ प्रेम भाव से बर्ताव करने की आवश्यकता है। उन्हें समझना जरूरी है। सिर्फ़ किन्नर समाज पर लिखा साहित्य पढ़कर कुछ नहीं होने वाला, वे विचार आचरण में लाने की नितांत आवश्यकता है। आज भी किन्नर समुदाय पर अत्याचार होता है। उन्हें न्याय नहीं मिलता। यह परिस्थिति बदलनी चाहिए।

समकालीन कहानियों में किन्नर समुदाय का संघर्ष चित्रित हैं, साथ ही विद्रोह! कहानियों के किन्नर पात्र अन्याय सहते नहीं, विद्रोह करते हैं समाज से। उन विद्रोह को हम निम्न कहानियों से समझने की कोशिश करते हैं।

मनुष्य की हीन मानसिकता प्रति विद्रोह : किन्नर समुदाय के प्रति समाज को देखने का दृष्टिकोण कल भी हीन था, आज भी हीन है। किन्नर को बहुत से लोग मनुष्य नहीं, जानवर समझते हैं। संघर्ष जन्म से जुड़ा है उनके साथ। उनका अपमानित होना तय है समाज से। उन्हें ज्यादा वेदना हीन-मानसिकता से होती है समाज से। वर्तमान में पढ़े-लिखे किन्नर अन्याय सह नहीं रहे, विद्रोह कर रहे हैं। यह समय की माँग भी है।

हीन मानसिकता पर किरण सिंह ‘संझा’ कहानी से प्रहार करती है। ‘संझा’ नामक पात्र से किन्नर समुदाय का विद्रोह दिखाया। कहानी में पिता वैद्य जी ‘संझा’ को बहुत पढ़ाना चाहते हैं, पढ़ाते भी हैं। किंतु ‘संझा’ की माँ उसके भविष्य को लेकर चिंतित रहती है। कुछ वर्ष पश्चात माँ का देहांत होता है। कालांतर से समाज के कई मनुष्य को ‘संझा’ किन्नर है, समझ आता है। वे उसके तरफ हीन नज़र से देखते हैं। एक दिन उसे नग्न करने की कोशिश की जाती है समाज के मनुष्य से। तब ‘संझा’ मनुष्य की हीन मानसिकता के प्रति विद्रोह करती है, ‘न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ, न मैं तुम्हारी जैसी औरत हूँ। मैं वो हूँ, मुझमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन। तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते। 

वर्तमान में ‘संझा’ की तरह किन्नर हीन मानसिकता का विरोध कर रहे हैं। होना भी चाहिए। किन्नर समुदाय के प्रति मनुष्य को मानसिकता बदलनी होगी, तभी किन्नर सुकून से जिएगा।

सरकार प्रति विद्रोह : किन्नर समुदाय प्राचीन काल से अधिकार से वंचित रहा। खुद की पहचान समाज में नहीं थी, वर्तमान में भी नहीं। आज संविधान होने के बावजूद उनके अधिकार का हनन होता है, समाज से। वर्ष 2014 तक उनका लिंग निश्चित नहीं था, प्रगति तो बहुत दूर! उन्हें वोट का अधिकार नहीं था, लोकतंत्र के देश में। किन्नर समुदाय के लिए सरकार की ओर से योजना न के बराबर। योजना की घोषणा वर्तमान में होती है, किंतु योजना सिर्फ़ कागज़ पर। ऐसी कई समस्या कमल कुमार ने ‘कुकुज नैस्ट’ कहानी में प्रस्तुत की है। कहानी में किन्नर सरकार के प्रति विद्रोह करता है, ‘सरकार हमें पहचान पत्र देती है क्या? वोट देने देती है क्या? पर हम इस देश में रहते हैं न! इसी देश के नागरिक हुए न!’

इक्कीसवीं सदी में किन्नर समुदाय संघर्ष कर रहा है, अधिकार के लिए। किन्नर समुदाय के लिए संविधान में प्रावधान होने के पश्चात सरकार कुछ नहीं करती। समाज नहीं स्वीकारता। किन्नर समुदाय शिक्षित हो, यह न समाज को लगता है, न सरकार को। किन्नर समाज की समस्या पर चिंतन करने की आवश्यकता है, तभी उनमें बदलाव संभव है, अन्यथा नहीं!

अत्याचार प्रति विद्रोह : किन्नर से जन्मत: जुड़ी समस्या है अत्याचार अत्याचार। मूलतः परिवार से शुरू होता है, समाज से नहीं। वर्तमान परिस्थिति में किन्नर अत्याचार में जल रहा है, कानून होने के बावजूद! यह देश के लिए शर्म की बात है। देश स्वतंत्र हुआ, किंतु किन्नर समाज नहीं। उन्हें संविधान में बहाल किए मूलभूत अधिकार नहीं मिले। समाज आज भी किन्नर का शोषण कर रहा है, शारीरिक एवं मानसिक। तब भी वे किसी को बता नहीं पाते।

किन्नर समुदाय के संघर्ष पर अनेक रचनाकार ने लिखा। वर्तमान में लिखना शुरू है। किन्नर समुदाय पर लिखित सूरज बड़त्या की ‘कबीरन’ कहानी बहुत चर्चित रही। उन्होंने ‘कबीरन’ कहानी से किन्नर की त्रासदी बयाँ की है। ‘कबीरन’ को परिवार के सदस्य आश्रम में भेजते हैं, समाज के कारण। वहाँ वह सुरक्षित नहीं रहती। उस पर बलात्कार होता है। वह अत्याचार नहीं सहती, समाज से विद्रोह करती है, ‘पर मैं किसे बताती कि मेरे साथ…कौन विश्वास करता कि हिजड़े के साथ बलात्कार हुआ। कहीं किसी कानून में लिखा है कि हिजड़े के साथ बलात्कार की क्या सज़ा है। समाज न तो हमें स्त्री मानता है, और न ही पुरुष।’ 

किन्नर वर्तमान में सुरक्षित नहीं है। खुलेआम उन पर बलात्कार हो रहे हैं। मानसिक शोषण जारी है। दोषी व्यक्ति के खिलाफ तकरार दाखिल की, तो भी न्याय नहीं मिलता। उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है। समाज को किन्नर के साथ इनसान के रूप में पेश आना चाहिए, तभी समाज में सही समानता स्थापित होगी।

परिवार प्रति विद्रोह : किन्नर का साथ न परिवार देता है, न समाज। वह जिंदगी बेवारीस बनकर गुजारता है। जिंदगी का सबसे बड़ा दुख है परिवार से दूर रहना। वह भी कायम का। यह दुरभाग्य किन्नर के जीवन में आता है। सब रिश्ते होने के बावजूद उनसे कोई रिश्ता नहीं रखता। वह सबके लिए मरा है।

किन्नर समुदाय के पारिवारिक समस्या पर लिखित महत्वपूर्ण कहानी है ‘बिन्दा महराज’। शिवप्रसाद सिंह की यह प्रसिद्ध कहानी रही। कहानी में ‘बिन्दा महराज’ के माता-पिता का देहांत जल्द हो जाता है। ‘बिन्दा महराज’ अकेली जीती है, संघर्ष करके। वह चचेरे भाई की बेटी ‘करीमा’ से बहुत प्रेम करती है। किंतु उन्हें प्रेम के बदले चचेरे भाई से अपमान मिलता है। चचेरे भाई उसे घर से निकाल देते हैं। ‘बिन्दा महराज’ रोती नहीं, हार भी नहीं मानती। चचेरे भाई से विद्रोह करते हुए कहती है, ‘था ही कौन अपना, जो पैरों में रेशमी बेड़ियाँ डालकर रोक रखता। माँ-बाप एक प्राणहीन शरीर उपजा कर चले गए। मर्द होता तो बीवी-बच्चे होते, पुरुषत्व का शासन होता, स्त्री भी होता तो किसी पुरुष का सहारा मिलता।’

वर्तमान में किन्नर को परिवार में रखा नहीं जाता, अपमान की वजह से। एक तो उसे मार दिया जाता है, या किन्नर समुदाय में छोड़ा जाता है। दोनों जगह उसका शोषण ही। समाज में किन्नर की जिंदगी नरक बना रहता है। किन्नर मनुष्य ही तो है। उसके शरीर में जो शारीरिक बदलाव होते हैं, वह नैसर्गिक। आज के युग में परिवार, समाज को मानसिकता बदलने की जरूरत है, तभी किन्नर का जीवन बर्बाद होने से बचेगा…!

रूढ़ि-परंपरा प्रति विद्रोह : शोषण का दूसरा नाम है किन्नर समाज। जन्म से लेकर मृत्यु तक किन्नर का शोषण होता है परिवार एवं समाज से। परिवार, समाज की त्रासदी से मुक्ति पाने हेतु वे किन्नर समुदाय में शामिल होते हैं, इच्छा न होने के बावजूद। वहाँ भी उनका शोषण रूढ़ि-परंपरा के नाम जारी रहता है। वे वहाँ भी रहना नहीं चाहते, किंतु मजबूरी में रहना पड़ता है। कई बार भागने की कोशिश करते हैं, किंतु सफल नहीं होते। परिणाम अत्याचार ज्यादा बढ़ता है। दुख भूलने हेतु नशा करने लगते हैं। वे आज भी जी रहे हैं, किंतु मृत्यु की अवस्था में।

किन्नर समुदाय के रूढ़ि-परंपरा पर प्रहार करने वाली महत्वपूर्ण कहानी है ‘कुकुज नैस्ट’। कमल कुमार कहानी के माध्यम से रूढ़ि-परंपरा के प्रति विद्रोह करते हैं। मनुष्य के जान से बढ़कर कोई परंपरा महत्वपूर्ण नहीं। किन्नर समुदाय में लिंग काटने की परंपरा प्राचीन है। वर्तमान में भी दिखाई देती है। किन्नर का लिंग काटते समय अनेक की जान जाती है। लिंग काटने की परंपरा पर कमल कुमार भाष्य करते हैं, ‘बिना किसी डॉक्टरी सुविधा के, तेज चाकू से एक ही वार से काट दिया जाता है। चार लोग उसके हाथ-पैर को पकड़े रहते हैं। दर्द से कई बच्चों की मौत भी हो जाती है। लिंग काटकर उन्हें कई दिनों सीधा लिटा दिया जाता है। उस पर कई किलो तेल लगाकर डाल दिया जाता है।’

आज भी यह परंपरा प्रचलित है। कुछ स्वार्थी लोग किन्नर समुदाय से बिजनेस करना चाहते हैं। इसलिए वे डर दिखाकर कई किन्नर का लिंग काटते हैं, घर पर। परिणाम अनेक की मृत्यु हो रही है। परंपरा, बिजनेस के नाम लिंग काटा जाता है, वह बंद होना चाहिए। इसके साथ ही किन्नर समुदाय की दूसरी प्रथा प्रचलित है वह भी बंद हो।

निष्कर्ष : वर्तमान में परिवार और समाज से किन्नर लड़ रहा है, हक के लिए। समाज में वह पुरुष एवं स्त्री के मध्य बिंदु पर खड़ा है। अपूर्णता के कारणवश समाज उन्हें स्वीकारता नहीं। किंतु शोषण निरंतर करता है। किन्नर समुदाय में परिवर्तन लाना है, तो सरकार को ध्यान देने की जरूरत है। इसके साथ ही गैर-सरकारी संगठन सहकार्य की आवश्यकता है।

किन्नर समुदाय के प्रति समाज की मानसिकता बदलनी जरूरी है, साथ ही उन्हें हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व मिले। तब वे इनसान के रूप में खड़े होंगे समाज में। जिंदगी में संघर्ष कम होगा। वे मुक्त रूप में जिएँगे, समाज में…।


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