विष्णुचन्द्र शर्मा आदमी के सपनों के कवि
- 1 June, 2022
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विष्णुचन्द्र शर्मा आदमी के सपनों के कवि
कवि का काम रस्सी पर चलते हुए तमाशा दिखलाने के जैसा कभी नहीं होता है बल्कि एक कवि का काम यह मालूम करना होता है कि जो आदमी रस्सी पर चलकर जोखिम से भरा तमाशा दिखला रहा है, उसने अपने निजी जीवन में कितना जोखिम उठाकर रस्सी पर चलते हुए तमाशा दिखलाने की यह कला या यह विधि सीखी है। यानी कवि बस तमाशा देखता भर नहीं है, वह तमाशा दिखलाने और तमाशा देखने वाले से ज्यादा की भूमिका को निभाता भी है। यह बात हर सच्चे कवि के लिए लागू होती है। विष्णुचन्द्र शर्मा का कवि अपने कवि-जीवन में यही सब करता रहा। विष्णुचन्द्र शर्मा यह बात अच्छे से जानते थे कि यह दुनिया मेला-तमाशा ही तो है। यहाँ कोई तमाशा दिखलाने वाला होता है और कोई तमाशा देखने वाला। यह बात दीगर है कि विष्णुचन्द्र शर्मा तमाशा दिखलाने और तमाशा देखने वाले के बीच खड़े रहकर इस बात की ताकीद करते दिखाई देते हैं कि जो रस्सी पर चलने का खेल दिखला रहा है, अगर वह खेल दिखलाते हुए मजमे की तरफ देखेगा, तो नीचे की ओर आ गिरेगा और अगर मजमे में खड़े लोग रस्सी पर चलने का खेल दिखला रहे आदमी की कला को न देखकर बस रस्सी को देखते रहेंगे, तो तमाशा दिखलाने वाले के साथ नाइंसाफी करेंगे।
विष्णुचन्द्र शर्मा की कविता ने विष्णुचन्द्र शर्मा को यही ताकीद की है कि तुम्हारे जैसे कवि का जीवन ‘सपनों का आख्यान भर नहीं’ है। यानी तुमको, जो सच्चाई का सीधा रास्ता है, उसी पर चलते जाना है। सच्चाई का यह रास्ता हमेशा से उस रस्सी की तरह रहा है, जिस रस्सी पर सावधानीपूर्वक चलकर कोई कलाकार हमको विस्मित, चकित, अचंभित कर देता है। विष्णुचन्द्र शर्मा तभी पेड़ को नदी के साथ दौड़ाने वाले कवि रहे। यह विष्णुचन्द्र शर्मा की ऐसी भूमिका है, जिसमें हम पेड़ और पानी के रिश्ते को समझ सकते हैं। यह सच है, पेड़ हैं, तभी पानी है। पानी है, तभी पेड़ हैं। प्रकृति ने भी हमारे लिए पेड़ और पानी, दोनों को संरक्षणीय कहा है। विष्णुचन्द्र शर्मा इन बातों को बहुत अच्छी तरह से समझते थे। यही बात उन्होंने अपनी कविता ‘अव्वल तो मैं’ के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया है,
‘पेड़ का तना हुआ चेहरा
ढीला हुआ
मैंने धूल को झाड़ दिया
पत्तियाँ हँसी बेवजह
कहा पेड़ ने
‘अव्वल तो हूँ
सनद मैं…’
ढीला चेहरा कौंधा उसका
और थामे मुझे
हँसा बेसाख्ता।’
विष्णुचन्द्र शर्मा जीवन की जो व्यापक अवधारणाएँ हैं, उनको बचाने वाले कवि अपने कवि-जीवन में दिखाई देते हैं। हिंदी में ऐसे कवि कम हुए हैं, विरल हुए हैं। ऐसे कवि हुए भी हैं, तो अंतराल के बाद हुए हैं। विष्णुचन्द्र शर्मा की कविता के जैसी कविता ऐसा नहीं है कि हिंदी में लिखी नहीं गई है। लिखी गई है, मगर इसकी मात्रा ज्यादा दिखाई नहीं देती है। उनकी कविता में जीवन की जो विसंगतियाँ आई हैं, दुर्लभ तरीके से आई हैं। उनकी कविता ‘अव्वल तो मैं’ का जो पेड़ है, उस पेड़ को आदमी का जीवन मान लिया जाए, तो आदमी के बदन पर बस धूल दिखाई देती है। इस धूल को झाड़ कौन रहा है, कवि ही झाड़ रहा है। और वह कवि कौन है, विष्णुचन्द्र शर्मा…, नहीं, विष्णुचन्द्र शर्मा की शक्ल में अपने कबीर साहब हैं, अपने मीर साहब हैं। अपने विष्णुचन्द्र शर्मा इन्हीं जैसे महान कवियों से ताकत लेते रहे और अपने पेड़ को नदी के साथ दौड़ाते रहे। विष्णुचन्द्र शर्मा की एक खूबी यह भी है कि उन्होंने जितनी कविताएँ लिखी हैं, पतंग की डोर से बँधकर नहीं लिखीं, जो डोर पतंग को उतनी ही दूर तक उड़ने देती है, जितनी लंबी वह डोर है। उनकी कविता आपको किसी उड़ रही पतंग से ज्यादा ऊँचाई की दुनिया को दिखाती है।
विष्णुचन्द्र शर्मा की जबान की बात करें, तो उनकी जबान ऐसी है, जो आपके मुँह को मीठा कर देती है। विष्णुचन्द्र शर्मा की भाषा आपका मुँह मीठा इसलिए कर पाती है, क्योंकि यह भाषा किसी कारखाने में बनाई गई भाषा नहीं है, बल्कि मनुष्य के जीवन से ली हुई भाषा है। सच कहिए, तो विष्णुचन्द्र शर्मा की यह भाषा शमशेर बहादुर सिंह की कविता वाले घर में दिखाई देती है या जाबिर हुसैन के यहाँ या आलोकधन्वा के यहाँ दिखाई देती है। सुदीप बनर्जी के यहाँ भी यह मीठी भाषा थी। कविता-लेखन से जुड़ी हुई यह बात भी है कि जब तक आपके पास अच्छी जबान न होगी, तब तक आप अच्छी कविता कहाँ से लिख पाएँगे। आज के बहुत सारे कवियों के पास अच्छी जबान नहीं होने के बिना पर उनकी कविताएँ आपके मुँह को बदमजा कर देती हैं। वजह बस इतनी सी है कि ऐसे कवि कविता लिखते तो हैं, मगर कविता की असल भाषा तक पहुँच नहीं पाते। भाषा के इस अभाव से बाहर निकलना अब के कवियों के लिए जरूरी है। यह तभी संभव है, जब आज के कवि शमशेर बहादुर सिंह, विष्णुचन्द्र शर्मा, जाबिर हुसैन, आलोकधन्वा अथवा सुदीप बनर्जी की भाषा के घर आया-जाया करेंगे। क्योंकि इस घर की जबान हिंदुस्तानी है। यह जबान सबकी समझ में आती है। यह जबान सबका स्वागत करती है। भाषा की ऐसी आवाजाही सब कवियों के यहाँ जरूरी है। विष्णुचन्द्र शर्मा की मीठी जबान की वजह से उनकी कविता पढ़कर मुझे हमेशा इत्मीनान-सा महसूस होता है। इस इत्मीनान की वजह यही है कि उनकी कविता की चाशनी अपने पढ़ने वालों के भीतर तक भरी हुई बेइत्मीनानी को दूर करती है। कविता की यह चाशनी उनकी ‘अनुभव की बात कबीर कहैं’ (सर्वनाम, दिल्ली, वर्ष : 2000) और ‘अव्वल तो मैं सनद हूँ’ (सर्वनाम, दिल्ली, वर्ष : 2002), इन दोनों कविता-पुस्तक की कविताओं में किसी मीठी नदी के पानी की तरह बहती हुई मिठास दिखाई देती है। विष्णुचन्द्र शर्मा इसी मीठे पानी वाली नदी से अपनी प्यास को बुझाते थे और नदी किनारे के पेड़ से लगकर कविता लिखा करते थे। उनकी ‘संभवा’ शीर्षक कविता पढ़िए, तो आप भी मेरी लिखी इस इबारत को गहराई से समझ पाएँगे,
‘एक रोशनी है
जो कलम में स्याही की तरह
मुझमें
बल्ब की तरह
तुममें
सितार की तरह
आकर
लिख जाती है
या उजास से भर जाती है
या झंकार में उतरती रहती है
एक रोशनी है
मेरी सदी में
खोजो आलोचक
वह तुम्हारे चुकते विश्वास के
बावजूद है इसी
बीत रही सदी में।’
(‘अनुभव की बात कबीर कहैं’, पृष्ठ-9)।
कोई कविता कैसी तेज धूप में और कैसी तेज सर्दी में और कैसी तेज हवा में लिखी गई है, इस बात से किसी आलोचक का कोई लेना-देना नहीं होता। आलोचक को तो अपना गुण-दोषान्वेषक का धर्म निभाना होता है। त्रुटि निकालने वाली आलोचक बिरादरी का यही कर्तव्य रहा है। विष्णुचन्द्र शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘अनुभव की बात कबीर कहैं’ अपने आलोचक मित्र नामवर सिंह को समर्पित की थी। हालाँकि उन्होंने नामवर जी को ‘आलोचक मित्र’ न कहकर ‘कवि मित्र’ संबोधित किया है। तब भी, यह कविता उस आलोचक के लिए है, जो खूबियाँ कम खामियाँ ज्यादा निकालते रहे हैं। बावजूद इसके, कविता अब भी सबसे ज्यादा लिखी जा रही है। विष्णुचन्द्र शर्मा के लिए भी यह बात सुख देने वाली थी। अब मेरे लिए भी यह बात सुखकर है कि किसी आलोचक की नजरे इनायत की फिक्र छोड़कर सच्ची कविता की फिक्र में दिन गुजारता रहा हूँ, अपने विष्णुचन्द्र शर्मा की तरह।
हिंदी कविता जिन कवियों के कारण बीत चुकी सदी से लेकर इस नई चल रही सदी में जानी जा रही है, उसमें विष्णुचन्द्र शर्मा की कविता का खासा योगदान है। मेरा मानना है, ऐसे कवियों के पीछे हमको उसी तरह भागना चाहिए, जिस तरह हम बचपन में पतंग के पीछे भागा करते थे। यानी जिस तरह विष्णुचन्द्र शर्मा कबीर के पीछे अथवा मीर के पीछे भागा करते थे, वैसे ही विष्णुचन्द्र शर्मा के पीछे हमको भागते रहना होगा। तभी उनकी कविता में छिपे रहस्यों को हम समझ सकेंगे। उनकी कविताओं में जो बात छिपी हुई है, वह समझना सबके बूते का है भी नहीं। यहाँ ऐसा लिखने का कारण यह है कि उनकी कविताओं के रहस्यों को समझना उन कवियों के लिए संभव नहीं है, जो बस कविता लिख भर लेने के लिए कविता लिखते रहे हैं। ऐसी कविता को समझने के लिए कविता के आंदोलन को समझना जरूरी है। कबीर और मीर जिस तरह कविता के आंदोलन थे, विष्णुचन्द्र शर्मा भी कविता के लिए आंदोलन रहे। यूँ कहिए कि जिसको हम जन आंदोलन कहते हैं न, उसी अभियान का हिस्सा उनकी कविताएँ रही हैं,
‘कबीरदास
उठे और घूम आए
चमरौटी तक
जहाँ पीट रहा था आदमी
अपनी ‘कुलच्छनी’ पत्नी को।’
(‘अनुभव की बात कबीर कहैं’, पृष्ठ-10)।
अब गौर कीजिए, तो ‘बाजार से कबीर चले गए’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ पढ़कर आप कह सकते हैं कि इन पंक्तियों में रहस्य जैसा क्या है? आपका ऐसा सोचना वाजिब नहीं है। दरअसल कबीर का चमरौटी घूम आना बहुअर्थी है। कबीर बस किसी की पत्नी को पीटते हुए देखने के लिए चमरौटी नहीं जा सकते। मेरे ख्याल से इस कविता में जो पति कुलच्छनी पत्नी को पीट रहा है, वह क्रूर शासक है और मार खा रही कुलच्छनी पत्नी अपने देश की जनता है। विष्णुचन्द्र शर्मा की लिखी यह बात अब साबित भी हो रही है। अपने देश की जनता को आज का शासक किस हरबे-हथियार से लहूलुहान नहीं कर रहा है। लेकिन विष्णुचन्द्र शर्मा ऐसे जालिम हुक्मराँ से छुटकारा दिलाने का रास्ता भी देश की जनता को बताते हैं,
‘कबीरदास ने
आदमी को दी
पत्थर की नाव और
कहा : ‘नदी पार कर लौटना
तब तक
कुलटा या कुलच्छनी
आँगन बुहार लेगी
कपड़े फीच लेगी
रोटी पो लेगी
और तुम्हारा इंतजार करती रहेगी…’
आदमी ने
पत्थर की नाव
पानी में उतारी
पर नाव जलसमाधि लेने लगी
उसके साथ।’
विष्णुचन्द्र शर्मा ने तो हमेशा रास्ता दिखाया है, अब यह देश की जनता पर है कि वह हाकिमे वक्त से खुद को पिटवाती रहती है या उसे पीटने का साहस अपने अंदर पैदा करती है। एक कवि अपना हर जरूरी काम छोड़कर आपको सच्चाई का रास्ता बार-बार दिखाता है। अब यह आप पर है कि एक कवि के बताए हुए रास्ते पर चलकर हाकिमे वक्त से जंग जीतते हैं या हाकिमे वक्त के द्वारा रोज दिखाए जा रहे झूठे सपने के आगे हमेशा की तरह हार जाते हैं।
विष्णुचन्द्र शर्मा बाकी कवियों से जुदा कवि रहे हैं। उनके जैसा जीवन से तथा जीवन के संघर्ष से इश्क करने वाला कवि अपने पाठकों को इस बात के लिए हैरान कर देता है कि एक आम आदमी का जीवन-संघर्ष आसान न पहले था और न अब है। यह सही ही तो है। बाजार जब जाओ, खाने-पीने की कीमतें बढ़ जाती हैं। रसोई गैस के दाम बढ़ जाते हैं। पेट्रोल-डीजल के लिए हर दूसरे-तीसरे दिन अधिक जेब ढीली करनी होती है। संसद में वित्त मंत्री ढोल पीट रहा होता है कि आम आदमी के लिए जितना उनकी सरकार के बजट ने किया, सालों-सालों से दूसरे की सरकारों ने कहाँ किया है। यह कुछ ज्यादा झूठ बोले जाने का, यह कुछ ज्यादा जुमलेबाजी करने का, यह कुछ ज्यादा सपने बेचे जाने का समय है। तभी अब न संविधान की गरिमा बची दिखाई देती है, न अदालत की, न विधायिका की। जो जब चाहता है, जहाँ चाहता है, वहीं झूठ की खेती करने लगता है। यह सब सोच-सोचकर अब तो डर लगने लगा है। देश में रोज बढ़ रही महँगाई और समाज में रोज बढ़ रही सांप्रदायिकता से डरे हुए आम आदमी के डर को लेकर सत्ता में बैठे किसी सत्ताधीश को कुछ भी लेना-देना नहीं है। उसको तो बस इस बात से लेना-देना है कि आम आदमी जितना खुद से परेशान होगा, सत्ताधीश का जीवन उतना ही खुशहाल होगा। सत्ताधीश की खुशहाली के विरुद्ध विष्णुचन्द्र शर्मा हमेशा खड़े रहे। मैं उनकी कविताओं को जनता के पक्ष की कविताएँ मानता हूँ। कबीर की और मीर की मुरीदी में रहे विष्णुचन्द्र शर्मा से हम यही उम्मीद कर सकते हैं और वे हमारी उम्मीद पर खरा उतरते हैं,
‘मीर!
जानते हो
मेरी निजता में
कविता की एक टूटन है
और उसकी चीख
में है
मेरी बदहाली का कथानक।’
(‘अव्वल तो मैं सनद हूँ’, पृष्ठ-23)।