झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई, मध्यभारत में कंपनी के राजनीतिक एजेंट सर रॉबर्ट हैमिल्टन के अनुसार सुसंस्कृत, विनम्र और चतुर युवती थीं। वह सुदर्शना, यद्यपि ज्यादा नाटी नहीं, गठीली महिला थीं। उनसे परिचित एक अन्य अँग्रेज लेफ्टिनेंट आर्थर मोफाट (Arthur Moffat) लिखता है : ‘कमसिनी में रानी सचमुच बहुत सुंदर रही होगी। अलबत्ता उसमें लावण्य अभी भी है। उसकी भाव-भंगिमा भी बुद्धिमत्तापूर्ण है। उसकी आँखें पानीदार हैं और नाक कोमल और नुकीली। उसका रंग बहुत गोरा भले ही नहीं था, लेकिन वह कालेपन से कोसों दूर था। उसका परिधान सादा श्वेत मलमल था, इतना उम्दा बारीक और इस तरह धारण किया हुआ कि उसकी देहयष्टि वर्णनीय थी। उसकी काया सचमुच सुंदर थी। अगर कुछ गड़बड़ थी, तो वह थी उसकी आवाज।’ कंपनी सरकार के अनेक अफसरों के मन में लक्ष्मीबाई के प्रति, उनके शौर्य और चातुर्य के प्रति गहरी प्रशंसा का भाव था। यहाँ तक कि सर ह्यूरोज तक उसकी इज़्ज़त करता था। इसमें शक नहीं कि लक्ष्मीबाई कंपनी के छल-बल की शिकार हुई। लार्ड डलहौजी ने जब झाँसी हड़पा तो उन्होंने कंपनी सरकार की शर्तों को ठुकराते हुए लंदन में कंपनी के डायरेक्टरों तक अर्जी भेजी, जिसे निर्ममतापूर्वक ठुकरा दिया गया। कंपनी की नजर झाँसी पर थी और रानी की टेक थी : ‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।’ मर्माहत रानी, जो चौदह वर्ष की वय में झाँसी के राजा गंगाधर राव को ब्याही गई थीं और असमय ही विधवा हो गई थीं, तब शेरनी-सी बिफर उठी, जब उनसे कंपनी ने कहा कि रानी को स्वर्गीय राजा के ऋण को अपनी पेंशन की राशि से अदा करना चाहिए।

सन् 1894 में प्रकाशित एक पुस्तक में एक ऐसा पत्र उद्धृत है, जो अब अप्राप्य है। इस पत्र को इंग्लैंड से मार्टिन नामक एक अँग्रेज ने सन् 1889 में रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को भेजा था। पत्र में मार्टिन लिखता है : Your poor mother was very nujustly and cruelly dealt with and no one knows hertrue case, as I do? The poor thing took no part whatever in the massacre of the European residents of Jhansi in June 1857. On the contrary she supplied them with food for two days after they had gone into the fort.

बहरहाल, रानी ने कंपनी द्वारा राज्य अधिग्रहण के बाद तीन वर्षों में अपने कार्यों और विशेषताओं से पॉलीटिकल एजेंट कैप्टेन अलेक्जेंडर स्कीन (Skene) को अत्यंत प्रभावित किया। इसमें शक नहीं कि रानी अत्यंत दूरदर्शी, कर्मठ और साहसी महिला थीं। वह अँग्रेजों की नीति और नीयत से वाकिफ थीं, लेकिन नियति उनके प्रतिकूल थी। उनकी दूरदर्शिता का आभास इससे मिलता है कि वह एकदम हटात खाण्डा उठाकर रणक्षेत्र में अँग्रेजों के खिलाफ नहीं कूद पड़ीं, वरन उन्होंने मध्यभारत के अनेक रियासतों के साथ पत्राचार किया, अपने विश्वसनीय दूतों को रियासतों में भेजा और समवेत संघर्ष अर्थात सामूहिक क्रांति की रूपरेखा बनाई।

क्रांति की पूर्ववेला में और क्रांति के दरम्यान झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने समकालीन राजे-रजवाड़ों से खूब पत्राचार किया। रानी के पत्रों में भारत की दुर्दशा, कंपनी के अन्याय और अत्याचार का वर्णन तो है ही, साथ ही उनमें क्रांति के लिए एकजुटता और तैयारियों की जरूरत को बार-बार रेखांकित किया गया है। बानपुर के राजा मर्दनसिंह से रानी का लगभग नियमित पत्राचार था। एक पत्र में रानी लिखती है : ‘अपुन ने लिखी कै फौज की तैयारी में लगे हैं, सो मन को खुशी भई। हमारी राय है कै विदेशियों का शासन भारत पर नओ चाहिजे। और हमको अपुन कौ बड़ौ भरोसो है और हम फौज की तैयारी कर रहे हैं, सो अंगरेजन से लड़बो बहुत जरूरी है।’ यह खत रानी ने चैतसुदी 2 भौम संवत् 1914 को झाँसी से भेजा। सावन सुदी 14 सोमे संवत् 1914 को मुकाम कालपी से लिखे एक अन्य पत्र में रानी ने मर्दन सिंह को लिखा–‘…अपुन की पाती आई, सो हाल मालूम भओ और अपुन ने महाराज शाहगढ़ की पाती को हवालों दओ सो मालूम भओ…आप इहाँ से लिखी कै…आप सागर को कूच करें, ऊहाँ दो कंपनी बीच में साहबन की हैं। उनको मारत बखेड़त साहगढ़ (शाहगढ़) वारे राजा को लिवाउत फौज के सीधे कालपी कूच करें। हम व तात्या टोपे व नाना साहब फौज की तैयारी में लगे। सो आप सीधे नोटघाट पर सर हियूरोज की फौज को मारत बखेड़त कालपी कूच करें। इहा से हम आप सब जने मिले ग्वालियर में अंगरेजन पर धावा करें। अब देर न भओ चाहिजे। देखत पाती के समाचार देवै में आवे।’

रानी के पत्रों से विदित होता है कि रानी को बानपुर के राजा मर्दनसिंह पर बड़ा भरोसा था। बुरे वक्त में रानी को राजा का संबल था। एक अन्य पत्र में रानी ने तालबैठ के किले में उन्हें आपसी बातचीत का हवाला देते हुए लिखा कि हमारी अपुन की बातचीत तालबैठ के किले में भई थी, सो आपको ही भरोसो है।… सो हमको अपुन से बुरे वक्त सलाह लेने है।’

8 जून को जब क्रांतिकारियों ने झाँसी पर धावा बोलकर समस्त अँग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया तो रानी ने, हालाँकि अँग्रेजों की कोई मदद नहीं की, लेकिन उन्होंने घटना की रिपोर्ट सागर के कमिश्नर मेजर डब्ल्यू सी अस्काईन को भेज दी थी। अस्काईन ने उन्हें यह अनुमति भी दे दी थी कि वह अँग्रेज एजेंट के आने तक झाँसी का राजकाज देखें। मगर अस्काईन के इस निर्देश को कलकत्ता में बैठे गवर्नर जनरल ने रद्द कर दिया और अंततः अपमानजनक सलूक ने रानी को युद्ध भूमि में अँग्रेजों के खिलाफ खड़ा कर दिया।

मेजर जनरल ह्यूरोज, जो कई कूटनीतिक दायित्व निभा चुका था और क्रीमिया युद्ध के समय फ्रांसीसी मुख्यालय में ब्रितानी लियाजाँ अफसर था, 6 जनवरी 1858 को सीहोर की ओर बढ़ा। राहतगढ़ में बानपुर के राजा की फौजों से उसकी जंग हुई। क्रांतिकारियों को बड़ोदिया से खदेड़कर वह 3 फरवरी को सागर पहुँचा। वहाँ से वह गढ़ाकोटा दुर्ग पर कब्जे के लिए बढ़ा और फिर लौटकर लगभग पूरे माह सागर में पड़ा रहा। गर्मियों में चिलचिलाती धूप में वह इस कदर त्रस्त रहा कि डॉ. रेंच (Wrench) के अनुसार उसे राहत दिलाने के लिए एक भिश्ती मशक से उस पर पानी उड़ेलता रहता था। सागर में गैरिसन ने उसे दगा दी। अंततः वह बानपुर के राजा मर्दनसिंह की नरहुत में तैनात सेना से बचने के लिए मदनपुर के रास्ते बढ़ा, जहाँ क्रांतिकारियों ने दोनों तरफ ऊँचाइयों से गोलियाँ दागकर रोज को खूब छकाया, कई फौजी ढेर हो गए और रोज का घोड़ा मारा गया।

रोज ने कड़े प्रतिरोध और क्षति के बावजूद 21 मार्च को झाँसी पहुँच वहाँ घेरा डाल दिया। 30 मार्च तक कंपनी फौज की तोपें आग उगलती रही। उन्हें किले की दीवार के टूटने से सफलता की आस बंधी ही थी कि तात्या टोपे 20000 सिपाहियों के साथ आ धमका। बेतवा के किनारे जबर्दस्त जंग हुई और इस लड़ाई में रोज की जीत ने क्रांतिकारियों और कंपनी फौजों के मध्य युद्ध का नक्शा ही बदल दिया। 2 अप्रैल को रोज पुनः झाँसी के द्वार पर जा पहुँचा।

इसके बाद की कहानी झाँसी के इतिहास की सबसे त्रासद, लोमहर्षक और रक्तरंजित गाथा है। अँग्रेजों की गोलाबारी से पूरा नगर धू-धूकर जल उठा। बारूद के भंडार में आग से भीषण विस्फोट हुआ। सैकड़ों सिपाहियों के परखच्चे उड़ गए। अस्तबल के समीप चालीस सवार आग में भुन गए। झाँसी के अगले कुछ दिन झड़पों, लुटमार, तबाही, आगजनी, कत्लेआम में बीते। कोम्ब (Combe), लो (Lowe) और सिल्वेस्टर (Sylvester) जैसे प्रत्यक्षदर्शी लिखते हैं : ‘The British soldiers eagerly execeding their orders to spare nobody over sixteen year, except women of course’, (दृष्टव्य : कोम्ब, लो और सिल्वेस्टर की कृतियों के अतिरिक्त क्रिस्टोफर हिबर्ट कृत ‘द ग्रेट म्यूटिनी इंडिया 1857’, पृष्ठ-382)

डॉ. सिल्वेस्टर के अनुसार, जो विद्रोही भाग नहीं सके, उन्होंने अपनी पत्नियों और बच्चों को कुओं में फेंक दिया और फिर स्वयं छलाँग लगा दी। झाँसी में कुल जमा लगभग पाँच हजार लोगों का कत्ल हुआ। एक अन्य अँग्रेज लेखक लिखता है : ‘चौराहों-चौराहों पर लाशों के ढेर जलाये जाने से पूरा शहर एक बड़े ‘श्मशान’ सा दिखता है। जलते इन शवों की चिरांयध और सड़ते हुए जानवरों की दुर्गंध के कारण शहर की हवा में साँस लेना दूभर है। झाँसी का यह वर्णन प्रसंगवश इसलिए उल्लेखनीय है कि इस महान क्रांति में भारतीयों पर अत्याचार, उनकी दुर्दशा और ब्रिटिश राज़ के चरित्र को उजागर करता है। और यह बर्बादी अकेले झाँसी के भाग्य में नहीं लिखी थी। क्रांति में सहभागी सभी रियासतों, जागीरों व जगहों ने आँसुओं, कराह और क्रंदन के बीच ऐसी तबाही, कत्लेआम व दमन झेला, बहरहाल, 22 मई का कालपी की लड़ाई में लक्ष्मीबाई, रामसाहब और तात्या टोपे की फौजों की सम्मिलित सेना की पराजय ने क्रांतिकारियों के अरमानों की कमर तोड़ दी। तीनों सेनानायक ग्वालियर के समीप गोपालपुर पहुँचे। फतह-दर-फतह हासिल करती कंपनी फौजों के खिलाफ प्रत्याक्रमण के लिए उनकी आशाओं का इकलौता और अंतिम केंद्र था सिंधिया राजवंश।

उधर, सिंधिया के मन में यह धारणा गहरे बैठी हुई थी कि अँग्रेजों को परास्त नहीं किया जा सकता। दुचिते सिंधिया ने मुरार में क्रांतिकारी सिपाहियों से मोर्चा तो लिया, मगर ढंग से लड़ाई नहीं लड़ी। उसकी तोपों ने बस एक चक्र गोला दागा था कि उन पर क्रांतिकारियों ने कब्जा कर लिया। सिंधिया के सिपाही क्रांतिकारियों से जा मिले और सिंधिया ने अपने निजी अंगरक्षक के साथ आगरे की राह ली। खबर मिलते ही ह्यूरोज ने अवकाश पर पुणे जाने का विचार त्याग दिया और फौजी टुकड़ी के साथ रात-दिन कूचकर मोरार पहुँचा और अगले दिन कोटा की सराय नामक स्थान पर उसकी व रानी की सेना से मुठभेड़ हुई। मर्दाना भेष में रानी ने सिंहासन के नन्हे उत्तराधिकारी को पीठ में बाँधकर दोनों हाथों में तलवार थाम अद्भुत शौर्य का परिचय दिया। मगर आठवें हसार के एक टूपर की पीठ पीछे से दागी गोली घातक सिद्ध हुई। रानी ने आखरी पलों में मुड़कर हत्यारे टूपर पर गोली दागी, लेकिन पीठ की गोली काम कर चुकी थी। जीवन का अंत सन्निकट था। लार्ड कैनिंग लिखते हैं : She used to dress like a man (with a turban) and rode like one…not pretty and marked with smallpos, but beautiful eyes and figure. She used to wear gold anklets and scindia pearl neclace, plundered from Gwalior (Scindia sayas its value is utold) There when dying she distributed among the soldierr, when taken to die under the mango clump…the infantry attacked the cavalry for allowing her to be killed? The cavalry said she would ride too for in frond. Her tent was very inquettish cheval glass (Books and pictures and Swing). Two maids of honour rode with her. One was killed and to her agony stripped of her clothes. Said to heve been most beautifull.’

रानी की मृत्यु से विश्व इतिहास में एक वीरतापूर्ण अध्याय का अंत हुआ। लेकिन यह उनकी कीर्ति का नहीं, देह का अंत था। रानी मरकर भी मरी नहीं; वह लोकगायकों के कंठों में जी उठीं। बुंदेले हरबोलों ने उन्हें विस्मृति का ग्रास नहीं बनने दिया। हरबोलों ने कहा–खूब लड़ी मरदानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी। कालांतर में सुभद्राकुमारी चौहान ने खंडकाव्य लिखकर रानी के चरित का बखान किया और वीरांगना को अपना काव्यमय अर्ध्य अर्पित किया। सन् 1857 के विभिन्न रणबांकुरों में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ऐसी नायिका हैं, जिन्होंने अभिलेखों, इतिहास-ग्रंथों और पोथियों के साथ-साथ लोकगायकी और लोकथाओं में भी अप्रतिम स्थान पाया। उनके शौर्य और उनकी शहादत ने उन्हें अमर कर दिया। बुंदेले हरबोलों ने मरकर भी अमर रानी को कुछ इस तरह याद किया–

खुबई लरी मरदानी
अरे भई झाँसी वाली रानी।
सिगरे सिपइयन को पेरा जलेबी
अपन खाई गुरघानी (अरे.)
बुरजन-बुरजन तोपें लगै दई
गोला चलाए आसमानी (अरे.)


Image: Rani of jhansi
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