विदेशी कवियों के हिंदी अनुवाद–(स्थिति और चुनौतियाँ)

विदेशी कवियों के हिंदी अनुवाद–(स्थिति और चुनौतियाँ)

एक अनुमान के अनुसार विश्व में लगभग 10 हजार भाषाएँ हैं। स्वाभाविक है कि किसी के लिए भी इन सभी भाषाओं को जानना, समझना लगभग असंभव है लेकिन फिर भी एक-दूसरे से संपर्क करना या संवाद स्थापित करना मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है। अतः कोई ऐसा माध्यम जो आपस में संवाद स्थापित करा सके, तो सबसे पहले अनुवाद का महत्त्व स्वीकार करना पड़ता है। अनुवाद दो भाषाओं को जोड़ने वाला पुल है। अनुवाद के द्वारा ही हम किसी दूसरे देश, प्रांत के साहित्य, कला, संस्कृति व विज्ञान से परस्पर परिचित हो सकते हैं। अनुवाद दो भाषाओं के बीच संवाद करने का केवल माध्यम भर नहीं है बल्कि एक ऐसी भाषिक गतिविधि है जिसने विश्व के विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच भाषा के व्यवधान को हटाकर अर्थ और संप्रेषण के प्रभाव को सुगम बनाने में बेहद सफल और सार्थक भूमिका निभाई है। अनुवाद आज विश्वस्तर पर भाषिक संवाद का महत्त्वपूर्ण आधार बन चुका है। विविध भाषिक समुदायों में आपसी मेलजोल को सहज बनाने में अनुवाद का महत्त्व लगातार बढ़ रहा है।

वस्तुतः अनुवाद केवल साहित्यकार के क्षेत्रीय, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिवेश से ही परिचित नहीं कराता बल्कि मानव मन की समग्र भावनाओं से भी गहराई से जोड़ता है। अनुवाद का दायरा बहुत विस्तृत है। लेकिन साहित्य के अनुवाद को देश-विदेश में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है क्योंकि साहित्य में सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता का जो तत्व मिलता है, वह दुनिया के किसी भी ज्ञान विचार और दर्शन-जैसी विधाओं में नहीं। सुपरिचित आलोचक डॉ. नंदकिशोर नवल का कहना है कि ‘यदि साहित्य की एक भाषा से दूसरी भाषा में आवाजाही बंद हो जाए, तो मानव संस्कृति की परिधि सिकुड़कर बहुत छोटी हो जाएगी। लेकिन गद्य और कविता के अनुवाद में फर्क है। सर्जनात्मक गद्य का अनुवाद भी कर लिया जा सकता है, लेकिन कविता का अनुवाद प्रायः असंभव प्रतीत होता है। कहना चाहिए, अनुवाद के क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौती कविता की तरफ से आती है। अकारण नहीं कि काव्यानुवाद को ध्यान में रखकर की गई अनुवाद संबंधी कई कटूक्तियाँ देखने में आती हैं। लोगों का कहना है कि कविता का अनुवाद कुछ वैसा ही होता है, जैसा अपनी प्रेमिका से दुभाषिये के माध्यम से प्रेमालाप करना। यह आम धारणा है कि जब इत्र एक शीशी से दूसरी शीशी में उड़ेला जाएगा, तो उसकी कुछ न कुछ खुशबू उसमें से निकलकर हवा में जरूर मिल जाएगी। कहते हैं, यह खुशबू ही कविता का सारतत्व या प्राणतत्व है।’ वरिष्ठ कवि कुँवर नारायण के लिए ‘अनुवाद का मतलब कविता की भाषाई पोशाक को बदलना भर नहीं है, बल्कि उसके उस अंतरंग तक पहुँचना है, जो उसे कविता बनाता है। उनकी शुरू से ही यह शिकायत रही है कि दुनिया का अच्छे से अच्छा अनुवाद भी मूल कविता के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाता। इसके बावजूद अनुवाद का काम कभी किसी भी प्रौढ़ भाषा में रुका नहीं और आज शायद ही दुनिया की कोई भाषा हो, जिसमें उसके अपने साहित्य के साथ-साथ अनूदित साहित्य का भी एक बड़ा भंडार न हो। अनुवादों का इतिहास भी लगभग उतना ही पुराना है, जितना भाषाओं का।

डॉ. नंदकिशोर नवल लिखते हैं–‘कविता के मुख्यतः तीन प्रकार के अनुवाद प्रसिद्ध हैं–अक्षरानुवाद, भावानुवाद और छायानुवाद। कविता का अक्षरानुवाद संभव नहीं है क्योंकि भाषाओं के अपने अलग मुहावरे होते हैं। इस कारण लाख कोशिश करने पर भी उन्हें हू-ब-हू एक से दूसरी भाषा में नहीं लाया जा सकता। लिहाजा कविता का भावानुवाद ही वांछनीय है, यानी कविता के शब्दों को ठीक-ठीक दूसरी भाषा में लाने का लोभ छोड़ दिया जाए और उसके भाव को यथासंभव दूसरी भाषा में रूपातंरित किया जाए। छायानुवाद में अनुवादक को इससे भी अधिक छूट रहती है। वह मूल कविता के भाव के विपरीत तो नहीं जाता, लेकिन उसकी छायाभर से सरोकार रखता है। ये सारे अनुवाद छंदोबद्ध रूप में ही प्रस्तुत किए गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कार्य संसार के बड़े से बड़े कवियों ने किया है, जिससे उसमें पर्याप्त सफलता भी मिली है।’

संभवतः सबसे पहले चिली में जन्मे स्पैनिश भाषा के कवि पाब्लो नेरूदा (1904-1973) की अनूदित हिंदी कविताओं के माध्यम से हमें उनकी कविताएँ पढ़ने को मिलीं। हालाँकि उनकी शुरुआती कविताओं के अनुवाद वरिष्ठ कवि केदारनाथ अग्रवाल ने किए। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘माच्चुपिच्चु के शिखर’ का अनुवाद पहले सोमदत्त ने और बाद में नीलाभ ने किया। दिनेश कुमार शुक्ल ने भी 1989 में ‘पाब्लो नेरूदाः चुनी हुई कविताएँ’ का चयन और अनुवाद किया। लेकिन विधिवत ढंग से पाब्लो नेरूदा को हिंदी पाठकों को उपलब्ध कराने का श्रेय चंद्रबली सिंह को ही जाता है। उन्होंने 2004 में ‘पाब्लो नेरूदा-कविता संचयन’ का हिंदी अनुवाद किया। जिसकी भूमिका ‘पृथ्वी का कवि पाब्लो नेरूदा’ शीर्षक से सुप्रतिष्ठित आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने लिखी। लिखते हैं–‘शब्द खून में पैदा होता है’ जैसा कि नेरूदा ने किसी कविता में कहा है और ‘शब्द ही खून को खून और जिंदगी को जिंदगी देते हैं। नेरूदा का काव्य संसार दक्षिणी चीले के जंगलों, पहाड़ों और समुद्र के हरे-भरे वातावरण के साथ-साथ मछुआरों, लकड़हारों तथा दूसरे मेहनतकश लोगों से गुंजार है। इस दृष्टि में नेरूदा ठेठ आंचलिक कवि हैं। यह आंचलिकता ही उनकी कविता की जान है। नेरूदा की कविताओं में ‘पृथ्वी’ का जिक्र अकसर आता है। उनके एक कविता-संग्रह का नाम ही है–‘पृथ्वी पर आवास’। एक कविता है, ‘ठहरो, ओ पृथ्वी’ फिर एक और कविता है ‘तुम में पृथ्वी’ शीर्षक से, जिसके अंत की ये दो पंक्तियाँ मन को गहराई तक छू लेती हैं–‘नापती हैं बमुश्किल मेरी आँखें आकाश के और अधिक विस्तार को और मैं झुकाता हूँ अपने आपको तुम्हारे होंठों पर पृथ्वी को चूमने।’

कहा जा सकता है कि नेरूदा स्पैनिश के हिंदी में सबसे लोकप्रिय कवि ही नहीं हैं बल्कि अनेक हिंदी लेखकों के प्रिय कवि भी हैं।

विश्व के दूसरे बड़े कवि, जो भारत की धरती पर नेरूदा के आसपास उतरे, वे थे तुर्की के महान क्रांतिकारी कवि नाजिम हिकमत। अनुमानत: 1960 के आसपास नाजिम हिकमत से हिंदी पाठकों का परिचय भी चंद्रबली सिंह ने करवाया था ‘हाथ’ शीर्षक से उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद करके। बाद में यह परिचय प्रगाढ़ होता चला गया और हिकमत हमारी संवेदना और चेतना का अभिन्न हिस्सा बनते चले गए। 1981 में सोमदत्त द्वारा अनूदित ‘नाजिम हिकमत की कविताएँ’ प्रकाशित हुई। उसके बाद ‘पहल’ पुस्तिका का जनवरी-फरवरी 1994 का अंक वीरेन डंगवाल द्वारा अनूदित ‘नाजिम हिकमत की कविताएँ’ पर केंद्रित था। सुरेश सलिल ने बहुत सारी विदेशी कविताओं का अनुवाद करके हिंदी पाठकों को उपकृत किया है। उन्होंने भी ‘देखेंगे उजले दिन’ शीर्षक से नाजिम हिकमत की कविताओं का अनुवाद किया है। नाजिम हिकमत का 1901 में तुर्की में जन्म हुआ और 1963 में सोवियत रूस में उनकी मृत्यु हुई। क्रांतिकारी कर्म से संबद्ध रहने के कारण उनके खिलाफ फौजी मुकदमा दायर किया गया। उन्हें यातनाएँ दी गईं। कठोर कारावास की सजा दी गई और तुर्की से उन्हें निष्कासित किया गया और वे मास्को में रहने लगे। नाजिम की कविताओं का विश्वव्यापी भाषांतर हुआ लेकिन उनकी जन्मभूमि तुर्की में उनकी कविता प्रतिबंधित रही। नाजिम देश की आजादी, साहित्य की स्वतंत्रता और भाषा की मुक्ति के लिए कार्य करते रहे। उनकी कविताओं में–‘चिट्ठियाँ तारंता बाबू के नाम’, ‘भूख की आँखें’, ‘पुश्किन चौराहा’ और ‘मेरा जनाजा’ बहुत प्रसिद्ध हैं। ‘मेरा जनाजा’ एक बेहद मार्मिक कविता है जिसको यहाँ मैं पूरा उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ–‘मेरा जनाजा क्या हमारे आँगन से उठेगा?/तीसरी मंजिल से कैसे उतारोगे मुझे?/ताबूत अटेगा नहीं लिफ्ट में/और सीढ़ियाँ निहायत संकरी हैं।/शायद अहाते में घुटनों भर धूप होगी और कबूतर/शायद बर्फ बच्चों के कलरव से भरी हुई/शायद बारिश अपने भीगे तारकोल के साथ/और कूड़ेदान डटे ही होंगे आँगन में हमेशा की तरह/अगर, जैसा कि यहाँ का दस्तूर है, मुझे रखा गया ट्रक में खुले चेहरे/हो सकता है कोई कबूतर बीट कर दे मेरे माथे/ पर यह शुभ संकेत है/बैंड हो या न हो, बच्चे आयेंगे मेरे करीब/उनमें उत्सुकता होती ही है मृतकों के बारे में/हमारी रसोई की खिड़की मुझे जाता हुआ देखेगी/हमारी बालकनी मुझे विदा देगी तार पर सूखते कपड़ों से/इस अहाते में मैं उससे ज्यादा खुश था जितना तुम कभी समझ पाओगे/पड़ोसियो, मैं तुम सबके लिए दीर्घायु की कामना करता हूँ!’

मैं खुद को कुछ विदेशी कवियों के अनुवाद तक ही सीमित करना चाहूँगी नहीं तो भटकने और बिखराव की संभावना हो सकती है। संभवतः 1957 में दिनकर जी ने कुछ विदेशी कवियों के अनुवाद किए थे, जो उनकी पुस्तक ‘सीपी और शंख’ और ‘आत्मा की आँखें’ में संकलित हैं। जो बाद में संयुक्त रूप से ‘समानांतर’ नाम से प्रकाशित हुई, जिसमें पुर्तगीजी, स्पैनिश, अँग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, अमरीकी, चीनी, पोलिश कवियों की कविताएँ अनूदित हैं। ये कविताएँ अनूदित होते हुए भी नितांत मौलिक प्रतीत होती हैं। कविता के अनुवाद की स्थिति और चुनौतियों पर बात करते हुए यहाँ मैं महान जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के की एक कविता का उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहती हूँ। रिल्के की एक ही कविता का अनुवाद तीन लेखकों–दिनकर, अज्ञेय और राजी सेठ ने किया है और उन अनुवाद को पढ़ते आप खुद विचार कीजिए कि कौन लेखक रिल्के के समकक्ष पहुँच जाता है। जो इस प्रकार है–

दिनकर द्वारा किया गया अनुवाद–‘काढ़ लो दोनों नयन मेरे’ काढ़ लो दोनों नयन मेरे/तुम्हारी ओर अपलक देखना तब भी न छोड़ूँगा/तुम्हारे पाँव की आहट इसी सुख से सुनूँगा/श्रवण के द्वार चाहे बंद कर दो/चरण भी छीन लो यदि/तुम्हारी ओर यों ही रात-दिन चलता रहूँगा/कथा अपनी तुम्हारे सामने कहना न छोड़ूँगा/भले ही काट लो तुम जीभ, मुझको मूक कर दो/भुजाएँ तोड़ कर मेरी भले निर्भुज बना दो/तुम्हें आलिंगनों के पाश में बाँधे रहूँगा/हृदय यदि छीन लोगे/उठेंगी धड़कने कुछ और होकर तीव्र मानस में/जला कर आग यदि मस्तिष्क को भी क्षार कर दोगे/रुधिर की वीथियों पर मैं तुम्हें ढोता फिरूँगा।’

अज्ञेय द्वारा किया गया अनुवाद–‘लो निकाल मेरी आँखें, पर तुम्हें देख सकूँगा/मूँद दो कान मेरे, फिर भी मैं तुम्हें सुनूँगा/बिना पैरों के भी तुम तक पहुँचूँगा/और बिना मुँह के तुम्हारा नाम गुनूँगा/तोड़ दो भुज मेरे, गहे तुम्हें रहूँगा फिर भी/अपने हृदय में, मानो कड़ी मुट्ठी में/रोक दो हृदयगति, धड़कन मस्तिष्क में बहेगी/और मस्तिष्क को फूँक दोगे यदि भट्ठी में/स्पंदन तुम्हारा मेरी रक्त-धार धारे रहेगी।’

राजी सेठ द्वारा किया गया अनुवाद–‘लो निकाल लो मेरी आँखें/मैं तब भी तुम्हें देख सकूँगा/बंद कर दो मेरे कान/तुम्हें सुन सकूँगा/न भी हों पैर/तुम तक पहुँच लूँगा/न रहे जुबान इच्छाशक्ति निवेदन करेगी/तोड़ दो मेरी भुजाएँ/जकड़ लूँगा हृदय से/जैसे जकड़ते हैं हाथ/अवरुद्ध कर दो हृदय/धड़कन मस्तिष्क में धपकेगी/ फूँक दोगे मस्तिष्क/रक्तधारा तुम्हें धारण कर लेगी।’

वरिष्ठ कहानीकार और आलोचक विजयमोहन सिंह का मानना था कि रिल्के अत्यंत जटिल, दुरूह और निविड़ एकांत का कवि है जिसे पढ़ना आत्मा की अतल और अथाह गहराइयों में उतरना है, या वह ‘नित्य’ का नहीं ‘अनित्य’ का कवि है जहाँ पहुँचने में बड़ों-बड़ों की साँसें उखड़ जाती हैं।

सन् 1960 में जब धर्मवीर भारती द्वारा अनूदित यूरोपीय व अमेरिकी कविताओं का संकलन ‘देशांतर’ प्रकाशित हुआ था, तब शायद पहली बार हिंदी साहित्य की दिलचस्पी की एक बड़ी खिड़की बाहर की तरफ खुली थी। इस संकलन में विश्व के 21 देशों के 161 आधुनिक कवियों की कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया था, जो भारतीय ज्ञानपीठ से छपा था, जिसमें अमेरिका के एजरा पाउंड, अर्जेंटाइना के जार्ज लुइस बोरजे, इंग्लैंड के रूपर्ट ब्रुक और टी.एस. ईलियट, चिली के पाब्लो नेरूदा, जर्मनी के राइनेर मारिया रिल्के एवं बर्तोल्त ब्रेख्त, तुर्की के नाजिम हिकमत, मैक्सिको के आक्टावियो पाज, स्पेन के फेडेरिको गार्सिया लोर्का, रूस के व्लादीमीर मायकोवस्की और बोरिस पास्तरनाक आदि प्रमुख हैं। जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त भी क्रांतिकारी कवि थे। मोहन थपलियाल ने मूल जर्मन से 71 कविताओं और 30 छोटी कहानियों का ब्रेख्त की जन्मशताब्दी पर हिंदी में अनुवाद किया। इस संकलन में ‘जलता हुआ पेड़’, ‘मेरी माँ’, ‘जनरल तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है’, ‘बुरे वक्त का प्रेमगीत’, ‘विदाई’ जैसी कविताएँ हैं।

प्रो. नामवर सिंह के संपादन में उनकी लंबी भूमिका के साथ ‘आधुनिक रूसी कविताएँ’ 1978 में प्रकाशित हुईं, जिसमें अलेक्सांद्र ब्लोक, बोरीस पस्तेरनाक, मारीना त्स्वेतायेवा, व्लदीमिर मायकोव्स्की आदि कवि शामिल हैं। स्वतंत्र रूप से मारीना त्स्वेतायेवा की कविताओं का अनुवाद वरयाम सिंह ने किया है ‘इस बेसहारा वक्त में’ शीर्षक से। कहा जा सकता है कि हिंदी में विदेशी कवियों के अनुवाद की जो स्थिति है उसमें कई चुनौतियाँ हमारे सामने हैं, लेकिन उन चुनौतियों का सामना हमें करना ही होगा और विश्व के कोने अंतरे में झाँक कर हमें उन बेशुमार खजाने को तलाश कर पाठकों के सामने लाना होगा।


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Artist: Gustave Courbet
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