पहाड़ों के बीच
- 1 August, 2016
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- 1 August, 2016
पहाड़ों के बीच
रविवार की सुबह पाँच बजे हमारी यात्रा शुरू हो चुकी थी। यूकेलिप्टिस के पेड़ों से घिरी सड़क अभी नींद में डूबी हुई थी। पेड़ों से गुडमॉर्निंग की तो वे भी अपनी अलसायी आँखें खोल झूम उठे। मैं मुस्कुरा उठी। चिड़ियों ने भी चहचहाकर अभिवादन स्वीकार किया और सुबह की ताजगी अपने पंखों में समेटकर उड़ चलीं अछोर आसमान की ओर…। हवाओं की उँगलियों ने न जाने कौन-सा सितार छेड़ दिया था कि सुबह गुनगुना उठी थी। पेड़ों के पत्तों से बूँदें टपक रही थीं…टप-टप…टप-टप। तारों पर चिड़ियाँ झूल रही थीं और पेड़ों की डालियों पर बंदर। याद आ गया बचपन…पेड़ों पर पड़े झूले…समवेत स्वरों से फूटता गीत…‘कच्चे नीम की निबोरी, बाबा जल्दी अइयों रे।’ कितना उत्साह होता था तब झूलों के लिए। हथेलियों से फूटती मेंहदी की खुशबुएँ…मेंहदी रचे हाथ और गीतों की बहार।
टैक्सी आगे दोड़ती जा रही थी और मन पीछे…। किसी तरह मन को समेट-सहेज कर फिर से इस यात्रा में खुद को शामिल किया। वर्तमान को खूबसूरत बनाने से अतीत खुद-ब खुद खूबसूरत हो जाता है। बारिश में भीगते पहाड़ी रास्तों पर गुनगुनाती ठंडी हवाओं की छुअन से मन खिल उठा। अमलतास के फूलों से छेड़छाड़ करती हवा अचानक मेरे कानों में फुसफुसा उठी, कौन होगा ऐसा जिसका मन इस खूबसूरत मौसम में खिलता न होगा। मैं उसकी हाँ में हाँ मिलाने जा ही रही थी कि मेरी दृष्टि सड़क के किनारे भीख माँगते भिखारियों पर पड़ी जिनके सिर छिपाने की जगह नहीं मिल पाई थी शायद। आँखों में पसरे सन्नाटे की जगह कभी किसी मौसम का रंग क्या इनकी आँखों में घुलता होगा?
‘अकील भाई! कुछ गाने-वाने लगा दीजिए।’ शेखर कह रहे थे। सफर में शेखर चुप रहते हैं। पहले-पहले बड़ी बोरियत होती थी, अब तो मन इस चुप्पी का अभ्यस्त हो गया है। मैं तो प्रकृति से संवाद करती चलती हूँ, इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता। सिद्धबली जी का मंदिर आ चुका था। अकील भाई ने गाड़ी पार्किंग में लगा दी थी। मंदिर जाने वाले रास्ते में स्कवैश की दुकान पर शेखर रुक कर कुछ पूछ रहे थे। ‘यह बुरंश का स्कवैश है। हमारे पहाड़ पर खूब होता है बुरंश।’ स्कवैश बेचने वालों की आँखें में अपने पहाड़ और पहाड़ पर खिलने वाले बुरंश के प्रति गर्व का भाव साफ झलक रहा था। ‘कौन-सा फूल?’ मैंने चारों ओर लगे पेड़ों को और उन पर खिले फूलों को देखते हुए पूछा।
‘इस मौसम में नहीं खिलता।’ उसका उत्तर सुनकर मन कुछ उदास हो गया था। न जाने क्यों मेरे प्रकृति-प्रेमी मन को अदेखे-अनजाने बुरंश के फूल अपनी ओर खींचन लगे थे।
सिद्धबली जी के दर्शन करते समय आँखें नम हो उठी थीं। हाथ मन ही मन सबके लिए प्रार्थना में जुड़ चुके थे। सुबह का समय होने से भीड़ कम थी। दर्शन के बाद वहाँ खड़े फोटोग्राफर को कैमरा देकर शेखर ने फोटो खींचने का अनुरोध किया। फोटोग्राफर ने हमलोग के कई फोटोग्राफ लिए। मैंने भी यात्रा के खूबसूरत पड़ावों को कैमरे में कैद कर लिया। इस यात्रा में बच्चे हमारे साथ नहीं होते हुए भी बराबर हमारे साथ थे। नटखट अपूर्वा की तरह नटखट मौसम की छेड़छाड़ जारी थी। थोड़ी-थोड़ी भूख भी लगने लगी थी। मैंने बैग में से केले निकाल कर शेखर को दिए तो बड़े ही चिंतातुर स्वर में बोल उठे, ‘तुम तो सारे केले ले आई, अब हमारी बेटी क्या खाएगी घर पर?’
मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘बिजनौर में तो केले मिलते ही नहीं शायद।’
स्नेह और वात्सल्य की खुशबुओं में लिपटे शेखर के मन को बिना चश्में के भी साफ-साफ पढ़ रही थी। मेरे उत्तर की परवाह किए बिना शेखर अपनी ही धुन में बोले जा रहे थे–‘आधे केले घर पर भी छोड़ आती।’
इस बार मैं चुप रही थी पर बादलों से नहीं रुका गया। शेखर की बात सुनकर जोर से खिलखिला कर बरस पड़ा था बादल। बारिश और तेज हो चुकी थी। ‘शाश्वत को फोन कर लो। सोकर उठ गया होगा। कल एग्जाम भी है उसका।’ अब शेखर का मन शाश्वत के लिए छटपटा उठा था।
पेड़ों के पीछे लुका-छिपी खेलता सूरज बहुत देर तक हमारे साथ-साथ चलता रहा। कितनी शामों का साथी रहा है यह सूरज। इसी तरह लुका-छिपी खेलता हुआ। हर मौसम में आकाश को अपने रंगों से रंगता हुआ, मेरे मन को भी रंगता रहा है। सफेद बदलियों की आँखों में चमकीले, सुनहरे रंग घोल देता था और फिर पेड़ की फुनगी पर बैठ कर शरारती अंदाज में बदलियों को लजाते, सकुचाते देखता था। इसी सूरज से तो घंटो गपशप की है मन ने। फिरोजाबाद छूटा था तो चाँदपुर में दिनभर खेलने के बाद शाम को छत पर जाकर इससे ही तो पूछती थी कि कैसा है माधवगंज, कैसी है वहाँ की गलियाँ, कैसी हैं मेरी सखियाँ? सबके हालचाल सुनाता था। मेरी स्मृतियों को सहलाता था। मेरठ, शाहजहाँपुर, शिकोहाबाद, कितने-कितने शहर छूटते गए। कितनी-कितनी स्मृतियाँ मन को हँसाती, रूलाती, गुदगुदाती, छेड़ती रहीं…सबमें शामिल रहा सूरज। मेरे साथ हँसा भी है, उदासी में भी डूबा है, हास-परिहास भी किया है और अपनी गीली आँखों के साथ चुपचाप न जाने कहाँ छिपकर रातभर रोया भी है और फिर सुबह हँसता हुआ मेरे सामने आ खड़ा हुआ है।
चाँदपुर छूटा तो कितनी शामों में सूरज ने मुझे वो सब बता दिया था जो पापा आज तक नहीं कह पाये हैं। माँ-पापा ने जब-जब मुझे याद किया, जब-जब उनकी आँखें छलछलाई…जब-जब उन्होंने मेरी खुशियों को घर के कोने-कोने तक से कहा…वो सब सूरज ने ही तो बताया है मुझे। आज भी तो सूरज आकाश के साथ-साथ नदी के मन को रंग रहा है।
चट्टानों से सिर पटकती, चूर-चूर होती लहरों के दर्द को देखकर छटपटा उठता है सूरज और लहरों के मन को रंगना शुरू कर देता है। चूर-चूर होती लहरों की आँखों में न जाने कब नीलकमल खिला देता है, न जाने कब उनके मान को इंद्रधनुषी रंगों से रंग जाता है, न जाने चट्टान के कानों में चुपके से कौन-सा मंत्र सुना देता है कि उनका मन भी दरक उठता है। घास का गठ्ठर लिए आती औरतें इसी के साथ अपने सुख-दुःख बाँटते हुए जंगलों से लौटती हैं।
समाधिस्थ योगी की तरह शांत और निर्विकार पहाड़ों की तलहटी में किलकारियाँ भरती जलधाराओं को हम दोनों देर तक मुग्ध भाव से देखते रहे थे। बारिश की रिमझिम फुहारों का संगीत भी पहाड़ों के मौन को भेद नहीं पा रहा था। सोंधी-सोंधी खुशबुओं से अनछुआ पहाड़ न जाने कौन से दंभ में डूबा हुआ था। यहाँ तक कि खुद आकाश भी पहाड़ों पर झुक आया था पर पहाड़ की समाधि भंग नहीं हुई थी। सलेटी से कुहासे में डूबे पहाड़ों का यह गांभीर्य मुझसे बहुत देर तक सहा नहीं गया।
‘सुनो। इतनी दूर से तुम्हारे पास आए हैं हम…तुमसे मिलने…। क्या ऐसे ही रहोगे चुपचुप? रह लो जितना चुप रहना है तुम्हें। लौट जाएँगे तो तुम खुद को ही माफ नहीं कर पाओगे कभी।’ मैं उलाहने पर उलाहना दिये जा रही थी। शेखर मेरे निःशब्द उलाहने को सुन रहे थे। उनसे रहा नहीं गया तो मुस्कुराते हुए बोल उठे, ‘सुनो! जीत नहीं पाओगे तुम। जो ठान लेती हैं, करके ही मानती हैं।’
टैक्सी तब तक और पास पहुँच चुकी थी। मैंने देखा, शेखर की बात सुनकर मुस्कुरा उठे थे पहाड़…और मुस्कुराते ही और भी खूबसूरत हो उठे थे। धुँध अब दिखाई नहीं दे रही थी। एकदम हरे हो गए थे पहाड़। मन में छलछलाते प्यार ने पहाड़ों को भी पल भर में हरा कर दिया था। प्यार होता ही है ऐसा। पल भर में सारी तपिश मिटा देने वाला, सारे धुँधलके को चीर देने वाला, जिंदगी में खूबसूरत रंग घोल देने वाला। मैंने पहाड़ की आँखों में झाँका और पहाड़ ने मेरी आँखों में। मेरा सारा आवेश तिरोहित हो चुका था और मैं मुस्कुरा उठी थी। मुझे याद आ रहे थे कवि बलदेव वंशी के शब्द–‘जो प्रकृति से जुड़ गया, वह कभी रुकेगा नहीं। हमें पहाड़ अपनी ओर खींचते हैं। क्यों? क्योंकि पहाड़ हमारे भीतर सोये हुए हैं। चेतना की सारी सीढ़ियाँ लाँघ कर समुद्र हमें अपनी ओर खींचता है बाबा-दादी की तरह।’
‘अगली बार बच्चों को लेकर आएँगे।’ शेखर कह रहे थे। शाम ढलने लगी थी। हम दोनों को ही चाय की तलब होने लगी थी। चाय पीते वक्त अचानक मेरी दृष्टि सामने पहाड़ की पगडंडी पर बैठी उन दो पहाड़ी बालाओं पर पड़ी जिन्हें हमने यहाँ आते समय भी देखा था। बिल्कुल खामोश थीं दोनों। उनके चेहरे पर अजीब-सा सन्नाटा पसरा था। तब भी वे खामोश थीं और अब भी…। क्या दुःख है उन्हें जिसने उन्हें इस तरह निःशब्द कर दिया है। उनकी खामोशी से मेरी छटपटाहट भरने लगी थी पर मैं कर क्या सकती थी? एक ओर पत्थरों से फूटती जलधाराओं का कोलाहल और दूसरी ओर उनकी खामोशी…।
‘सामने देखो’ शेखर ने टायरों पर तैरते हुए बच्चों की ओर इशारा किया। मस्ती का आलम छाया था। जिंदगी के सारे तनावों और गुणा-भाग से मुक्त होकर लोग जिंदगी के इन पलों को जी लेना चाहते थे।
‘नीचे बाजार है…घूम आइए आपलोग।’ अकील भाई ने सुझाव दिया था। बाजार में वही सब चीजें थीं जो हर जगह मिलती हैं लेकिन स्थान विशेष से जुड़कर उनका महत्त्व बढ़ जाता है और चीजों में शामिल हो जाती हैं स्मृतियाँ…मन और भावनाएँ। अभी कुछ दिन पहले ही तो अंजलि ने मेरे जन्मदिन पर नारंगी और सफेद फूल दिए थे। हल्के हरे रंग और सुनहरे रंग की पत्तियों के बीच झाँकते, मुस्कुराते, खिड़की से आती हवा के झोंकों से सिहरते इन फूलों के बीच दिन में न जाने कितनी बार झाँक उठती है अंजलि। न जाने कितनी बार इन फूलों से फूटने लगती हैं खुशबुएँ। ये खुशबुएँ अंजलि का सुवासित मन ही तो है। मुझे याद आने लगती हैं उसकी कविता की पंक्तियाँ…‘आज आपके जन्मदिवस पर/मैं चली आई हूँ/आवारा मौसम की बावरी हवा बनकर/अपने आँचल में शुभकामनाएँ बटोरे/और आपके नारंगी फूलों की चिड़िया बनकर/फुदकना चाहता है मेरा मन।’
अंजलि जानती है कि घर में लगे नारंगी फूल और उन पर दिनभर शोर मचाती चिड़ियों से मुझे बहुत प्यार है। ये फूल अप्रैल से जुलाई तक खिलते हैं, खूब खिलते हैं जी भर कर। झरते हैं घर के अंदर और घर के बाहर धरती पर बिछ जाते हैं पूरे समर्पण के साथ…सबके लिए…लेकिन अंजलि के ये फूल सिर्फ मेरे लिए हैं अपने संपूर्ण सौंदर्य और खुशबुओं के वैभव के साथ।
अपने अतीतगामी मन को फिर मैंने वर्तमान में ठेल दिया। अब हमलोग वापस लौट रहे थे। पहाड़ों के मन में भी सन्नाटा पसरने लगा था। विदा के वक्त मन खामोश हो उठता है और आँखें बोलने लगती हैं ‘जल्दी मिलेंगे’ कहकर मैंने हँसने की कोशिश की तो आँखें नम हो उठी हैं। टैक्सी फिर उन्हीं घुमावदार रास्तों पर दौड़ रही थी। वही पीछे छूटते हुए मील के पत्थर, वही अमलतास के झूलते फूल गहरी साँसें भरते हुए…।
ओह यह उदासी में डूबा शाम का झुटपुटा…‘लौटो मन, फिर उन्हीं खूबसूरत पलों की ओर!’ और मन लौटने लगा फिर उसी तरफ…। शाम के झुटपुटे में पहाड़ ने धरती को अपनी बाँहों में समेट रखा था और धरती का रोम-रोम खिलखिला रहा था।
अचानक सड़क के किनारे दिल दहला देने वाला दृश्य…। फुटपाथ पर एक या दो परिवार। पति ने ईंट का बड़ा-सा टुकड़ा उठाकर अपनी पत्नी को दे मारा था। सिर से फूटती खून की धार ने पूरे चेहरे को रक्तरंजित कर दिया था। अल्मोनियम की थाली सड़क पर पड़ी थी, जिसमें से रोटी, चावल, दाल फैल रही थी। वह स्त्री सड़क पर लोट रही थी। आदमी का आवेश शांत नहीं हुआ था। उसने हाथ में दुबारा ईंट उठा ली थी। धरती माँ की गोदी में एक माँ बिलख रही थी। पेड़-पौधे, पहाड़, सूरज, हम सब और भी न जाने कितन लोग साक्षी थे।
‘कुछ नहीं, परेशान मत होइये आप। एक आध घंटे में सब कुछ नॉर्मल हो जाएगा साब।’ अकील भाई कह रहे थे।
गाड़ी फिर उन्हीं सड़कों पर भाग रही थी। अमलतास के फूल गहरे सन्नाटे में डूबे हुए थे। उनकी पत्तियों से रह-रहकर फूट रहा था दर्द…।
आज आखिरी छुट्टी थी। कल से वही दिनचर्या…वही व्यस्तताएँ…वही यांत्रिकता…इसीलिए सोचा था कि एक यात्रा यों ही…पहाड़ों के बीच…पहाड़ों के साथ…।
Image : An Italian Landscape with Mountains and a River
Image Source : WikiArt
Artist : Joseph Wright
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