रोना

रोना

रोना मानव-जीवन की सामान्य क्रिया है। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में कभी-न-कभी अवश्य रोता है। जैसे पवन उनचास प्रकारों की होती है, वैसे रोना भी अनेक प्रकारों का होता है, जैसे–दहाड़ें मारकर रोना, छाती पीटकर रोना, बुक्का फाड़कर रोना, सिसकियाँ लेकर रोना, मन-ही-मन रोना इत्यादि। कलेजे में हूक उठना, आँखें बरसना, आँखें नम होना, हाय-हाय करना इत्यादि मुहावरों में रोना क्रिया ही क्रियाशील रहती है।

पहले हमारे देश के प्रेमियों के कलेजे में हूक उठा करती थी। पश्चिमी देशों के प्रेमियों के कलेजे में हूक नहीं उठती थी, कारण वहाँ के प्रेमिजन प्रेम को आत्मा में प्रवेश करने नहीं देते थे, सिर्फ वस्त्र की तरह धारण करते थे। यह परंपरा वहाँ आज भी कायम है। हमारे देश में आजकल के प्रेमियों ने भी उनकी यह अदा सीख ली है। शायद इसीलिए हिंदी की एक आधुनिक कवयित्री को लिखना पड़ा–

‘प्यार शब्द घिसते-घिसते चपटा हो चुका है
अब हमारी समझ में
सहवास आता है।’

सारे भारतीय साहित्य, विशेषकर हिंदी के विप्रलंभ काव्य एवं उर्दू शायरी में कलेजे की हूक कोयल की दर्दिली कूक के रूप में विद्यमान है। उर्दू का मरसिया तो रुदन का गीत है। महाकवि कालिदास के ‘मेघदूतम्’ काव्य में यक्ष का विलाप अद्वितीय है। विद्यापति, सूरदास, घनानंद के काव्य की नायिका का रुदन भी अद्वितीय है। सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण के वियोग में रात-दिन आँसू बहाती रहती हैं–

‘निसि दिन बरसत नैन हमारे
सदा रहति पावस रितु हम पै, जब तें स्याम सिधारे।’

महादेवी वर्मा तो दुखवाद की ही कवयित्री मानी जाती हैं। उनका सारा काव्य अज्ञात प्रियतम के प्रति रुदन का काव्य है। जयशंकर प्रसाद ने अपने ‘आँसू’ काव्य में आँसू को मूर्त रूप ही दे दिया है। उनकी निम्नलिखित पंक्तियों में सूर के गोपियों की पीड़ा मानो साकार हो उठी है–

‘जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आई।’

प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में नम आँखों का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है–

‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
बैठ शिला की शीतल छाँह।

एक पुरुष भीगे नयनों से
देख रहा था प्रबल प्रवाह।’

विश्व की पहली कविता आँसू से ही निकली थी। पंत जी के शब्दों में–

‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
उमड़कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।’
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने तो ‘रुदन के हँसने को ही गान’ माना है।

कबीरदास ने मानव-जाति को दो ही वर्गों में बाँटा है–ज्ञानी मनुष्य और अज्ञानी (मूर्ख) मनुष्य। उनका मानना है कि रोते तो ज्ञानीजन भी हैं, पर वे अपने ज्ञान से अपनी पीड़ा को कम कर लेते हैं, लेकिन अज्ञानी (मूर्ख) लोग जीवन भर हाय-हाय करते रहते हैं। इस संदर्भ में उनका एक दोहा है–

‘देह धरे का दंड है, सब काहू को होय
ज्ञानी भुगते ज्ञान करि, मूरख भुगते रोय।’

परंतु आजकल तथाकथित ज्ञानीजन (बुद्धिजीवी), सत्ता से दूर नेता, पुरस्कार-सम्मान से वंचित कवि-लेखक ही ज्यादा हाय-तौबा मचा रहे हैं।

रोना जीवन और समाज दोनों के लिए नितांत जरूरी है। रो लेने से हृदय की वेदना का विरेचन हो जाता है और मन हलका हो जाता है। घर-समाज में किसी व्यक्ति की मृत्यु पर कोई न रोये या घर-समाज से किसी की बेटी, बहन की विदाई पर कोई आँसू न बहाये, तो वह निष्ठुर मान लिया जाता है।

ईश्वर ने नारी को अबला बनाया, लेकिन रुदनास्त्र नामक एक शस्त्र भी उसे प्रदान किया। नारियों ने इस शस्त्र का दो प्रकारों से उपयोग किया। भोली-भाली, सीधी-सादी नारियों ने इसका उपयोग चुपके-चुपके अपनी पीड़ाओं के विरेचन के लिए किया, जबकि चतुर नारियों ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए। स्वस्थ जीवन के लिए हँसना-रोना दोनों जरूरी है, परंतु पता नहीं क्यों योग के महागुरुओं ने ‘रुदनयोग’ नामक किसी योग को योग-चर्चा में शामिल नहीं किया। उन्होंने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ‘हास्य योग’ बनाया और बताया कि हँसना कई मर्जों की दवा है।

समस्त विश्व ने इस योग को मान्यता दी इसीलिए प्रतिवर्ष मई माह के प्रथम रविवार को ‘विश्व हास्य दिवस’ (वर्ल्ड लाफ्टर डे) मनाया जाता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हँसने एवं रोने को भाव या मनोविकार के अंतर्गत नहीं रखा है, बल्कि इन्हें सुख-दुख का लक्षण मात्र माना है।

मैंने एक विचारवान व्यक्ति से पूछा, ‘जब ‘विश्व हास्य दिवस’ मनाया जाता है, तो ‘विश्व रुदन दिवस’ (वर्ल्ड क्राइंग डे) क्यों नहीं मनाया जाता है?’

उन्होंने कहा, ‘रोना तो मनुष्यों का चिर-साथी है, उसके लिए अलग से दिवस मनाने की क्या आवश्यकता है।’

मैंने कहा, ‘माँ भी तो सदा माँ होती है, उनके लिए अलग से ‘मातृ दिवस’ क्यों मनाया जाता है?’

विचारवान व्यक्ति आँखें बंदकर विचारों में खो गए।


Image : The Repentant Peter
Image Source : WikiArt
Artist : El Greco
Image in Public Domain

पंकज साहा द्वारा भी