डिजिटल दुनिया में हिंदी साहित्य
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- 1 April, 2025
डिजिटल दुनिया में हिंदी साहित्य
डिजिटल ने पाठकों, श्रोताओं, प्रकाशकों, लेखकों–सबके जीवन को थोड़ा सा सुलभ बनाया है। पर सुलभ बनाने के साथ-साथ कुछ चुनौतियाँ भी लेकर ये हमारे सामने आया है। तो इन्हीं सहूलियतों को और चुनौतियों को किस तरह हमारे आज के अतिथि समझते हैं इस पर हम चर्चा करेंगे। ‘डिजिटल दुनिया में हिंदी साहित्य’ विषयक इस परिचर्चा में हमारे साथ शामिल हैं–कवयित्री अनुशक्ति सिंह, संपादक सत्यानंद निरूपम, गीतकार राज शेखर और फ़िल्मी इतिहासकार रविकान्त।
रविकान्त : मुझे लगता है कि उसमें शब्द अगर आप रिप्लेस करते चले जाएँ, तो पहले हम गूगल के ग़ुलाम थे, अब एल्गोरिज्म के ग़ुलाम हो गए हैं, है न; कल फिर ए.आइ. के ग़ुलाम होने ही जा रहे हैं। तो इस तरह की चीज़ें कही जाती रही हैं हमेशा से, और ऐसा करके एक conspiracy theory बना दिया जाता है, जो कि हमको comfort देता है, लेकिन ज़ाहिर है कि कुछ समस्याएँ तो पैदा हुई हैं डिजिटल ज़माने में; सहूलियतें भी पैदा हुई हैं। मैं उस ज़माने से देख रहा हूँ साहित्य की मौजूदगी, इंटरनेट पर जबकि नेट आया ही चाहता था, जब यूनिकोड भी नहीं आया था; तो ‘अनुभूति’ और ‘अभिव्यक्ति’ जैसे वेबसाइट हुआ करते थे, जिसने transition किया–‘शुशा’ से लेकर के ‘यूनिकोड’ तक! ठीक है। आज तो ये दुनिया काफ़ी मह-मह कर रही है, और बड़े-बड़े transitions हो गए हैं, जैसे कि, साहित्य पहले वो चीज़ थी जो लिखने वाली थी, या छपी थी, प्रकाशित थी; अब दृश्य और शब्द भी हो गई, साहित्य हो गया है, है न; अब साहित्य वापस एक तरह से बोलियों की ओर जा रहा है! अब हो सकता है, इस साहित्य की गेयता बढ़ेगी, चूँकि अब हम web 2.0 के युग में आ गए हैं, तो ज़ाहिर है इसका आग़ाज़ तो कई लोगों ने कर ही दिया था–फेसबुकिया लेखन करने…। मैं ‘नई धारा वेबसाइट’ देखकर बहुत ख़ुश हूँ, क्योंकि बहुत पहले प्रमथ जी से बात हो रही थी, उनसे एकमात्र मेरी मीटिंग हुई थी, तो मैं चूँकि राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह का बहुत बड़ा भक्त हूँ, इसलिए कि वो हिंदुस्तानी में लिखते थे, वो संस्कृतनिष्ठ हिंदी और फ़ारसीनिष्ठ उर्दू–दोनों मिला करके एक अजीब खिलंदर भाषा गढ़ते थे, और बिहार के लेखक आमतौर पर बहुत बड़े शैलीकार हुए हैं और इसलिए हुए हैं क्योंकि उनकी जड़ें दरअसल उस गाँव में है, उन बोलियों में है, इसीलिए आँचलिकता पर इतनी बड़ी छाप बिहार के लोगों के भी हैं तो मैं कहना ये चाह रहा हूँ कि टेकनोलॉजी तो है। इसके हिसाब से चीज़ें बदलती रहेंगी, एल्गोरिज्म ज़ाहिर है हमें प्रभावित करेगा, लेकिन उससे बड़ी बात मैं ये कहना चाहता हूँ, वो एल्गोरिज्म भी इसी से तय होगा कि हम सर्चेज कैसे कर रहे हैं। AI के लिए हम डेटाबेस क्या रख रहे हैं सामने; तभी तो AI सर्च करेगा। तो वो हम पर भी उतना ही मुनहसर है, ये एल्गोरिज्म एक एब्स्ट्रैक्ट चीज़ बन के सिर्फ़ चेतावनी के रूप में हमारे सामने नहीं आना चाहिए।
ये आपने एक फाउंडेशन रख दी, जिसके ऊपर अब हम चर्चा कर सकते हैं। अनुशक्ति, आपने डिजिटल से ही अपना लेखन और अपनी प्रोफ़ेशनल लाइफ़ दोनों शुरू की, तो आपका क्या कहना है, किस तरह डिजिटल ने आपकी रचनात्मकता को अफ़ेक्ट किया है?
अनुशक्ति : देखिए, हम मनुष्य हैं। मनुष्य की दो प्रकृति होती है–एक तो हम किसी परिवेश में पैदा हुए, बने, पले, बढ़े; आगे बढ़े तो हमारे पास न इम्यूनिटी ख़ुद-ब-ख़ुद तैयार हो जाती है और एक होती है कि इम्यूनिटी ग्रहण करनी पड़ती है। तो हमारे जो जेनरेशन के लोग हैं…। मैंने 2008 में अपना करियर शुरू किया और मेरा करियर प्रिंट-डिजिटल, इलेक्ट्रॉनिक-प्रिंट में…उस समय डिजिटल बर्ड बहुत वायरल नहीं था, बहुत ट्रेंडिंग नहीं था आज कल की ज़ुबान के अनुसार–तो मैंने अपना करियर प्योर डिजिटल या इलेक्ट्रॉनिक प्रिंट में शुरू किया। तो उस वक्त जो फेसबुकिया लेखन भी था वो भले ही कालजयी हो ना हो, स्तरीय ज़रूर था, पर 2.0 के साथ मैं आपको यहाँ पर क्यों और कैसे है! एक…कुछ प्वाइंटर्स बोलना चाहूँगी। आपको पता है ‘ब्रेन रॉट’ शब्द, आपलोग सब जानते होंगे, बड़ा ट्रेंडिंग है; कितने लोग जानते हैं ‘ब्रेन रॉट’ शब्द को। हालाँकि बहुत लोग नहीं जानते हैं, फिर भी लोग जानते हैं। ‘ब्रेन रॉट’ इस बार ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का वर्ड ऑफ़ द इयर है। इस ‘ब्रेन रॉट’ शब्द के साथ पाँच-छह और शब्द थे उस कॉम्पिटिशन में, कि किसको वर्ड ऑफ़ द इयर माना जाए; 37 हज़ार लोगों ने लाइव वोटिंग की थी। इसमें वर्ड था–‘डेम्यूर’, ‘रोमैटिसी’, ‘डाइनामिक प्राइसिंग’, ‘लोर’ और ‘स्लॉप’; स्लॉप क्या होता है, ब्रेन रॉट तो आपने समझ गया कि हम कुछ ऐसे काम में लगे रहें, ऑनलाइन लगे रहें जिसमें हमारे दिमाग़ की प्रक्रिया जो है, वो हमारे दिमाग़ को ऐसे जकड़ लेता है कि हमारे सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है। अब ‘स्लॉप’ क्या है, स्लॉप जो है वो होता है–अन्वांटेड ए.आई. राइटिंग को…ए.आई. डिजिटल राइटिंग को ‘स्लॉप’ कहते हैं। आप में से सब लोग फेसबुक पर ज़रूर होंगे, या इंस्टाग्राम पर ही होंगे। उसमें एक तरह की आजकल बड़ी स्टोरी टेलिंग सी होती है कि अरे, सुरैया की तीन…सुरैया की ऐसी प्रॉपर्टी…उसमें ऐसी कहानियाँ जो हैं कैसी भी होती हैं, उस कहानी का कोई न ओर होता है, न छोर होता है, बस उसमें तस्वीर होती है, ए.आई. से लिखी हुई कहानियाँ होती हैं, और 5000-6000 उसके शेयर्स होते हैं, लाखों लाइक्स होते हैं। ये डिजिटल काउ डंग, जो गोबर था, वो आपके सामने डिजिटल तौर पर उपलब्ध है। 2.0 में जो शेयरिंग और लाइकिंग और वो जो वायरिलिटी है वो काऊ डंग की है। गाय का गोबर तो आप जानते ही हैं कितना ट्रेंडिंग है, अमृत है आजकल तो! हमलोग पाठक नहीं हैं, विक्टिम हैं। हमारे पास ग़लत जानकारी आ रही है, हमारे सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो रही है।
निरूपम जी, बहुत अच्छी तरह इन्होंने समझाया! अब आप बताएँ कि आज सहित्य में संपादक का जो एक रोब, एक रुतबा या ये कह लूँ एक धौंस भी होती थी, वो अब है या हर कोई लेखक बन जाता है और उसको पाठक मिल जाते हैं, और पाठक मिले तो लेखक बन गए। तो वो जो छन्नी जिसकी बात अनुशक्ति जी कर रही हैं वो कहाँ तक सफल है और क्या उसकी ज़रूरत है?
निरूपम : जब तक रविकान्त जी जैसे विद्वान निरूपम को अनुपम कहते रहेंगे, तब तक भाषा में संपादक की ज़रूरत बनी रहेगी। मैं उस पीढ़ी का व्यक्ति हूँ–हाँ, अब 45 साल के आसपास होने को आ गया तो व्यक्ति ही हूँ। जो भैंस की पीठ पर बैठकर शाम को चवर में और नहर में उन छोकरों को चराते हुए देखा–जो कबीर भी गाते थे, गीत भी गाते थे, गवनई भी करते थे। गीत और गवनई में फ़र्क़ था, जो लोग गाँव-देहात को जानते हैं वो समझते होंगे। और जो तुकबंदी भी करते थे, आशु कविता कही जाती थी और आशु कवियों की बड़ी गाँव-देहातों में इज्ज़त थी। उस ज़माने में…अभी हमारे यहाँ शादी-ब्याह में और ऐसे भी नई फ़सल जब तैयार होकर आती थी तो भाट आते थे। भाट-चारण एक जाति है, पेशेवर जाति होती है जो आ करके विरुदावली गाते हैं। तो हमने उन्हें भी सुना है जिसको लोक-कवि कहते हैं और हमने वो भी देखा है…आख़री पीढ़ी थी जब शादी-ब्याह में दो दिनों की शादी…बारातें जाती थीं और दोपहर के समय में बाक़ायदा शास्त्रार्थ होता था बारात में, कविता का भी शास्त्रार्थ होता था। हम वो लोग हैं जिन्होंने राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह का जितना साहित्य था वो ढूँढ़-ढूँढ़ के पढ़ते थे, क्योंकि हमें ये बताया गया कि हिंदी साहित्य के सबसे बड़े तीन स्टाइलिस्ट गद्यकार जो हैं वो बिहार के हैं–राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह हैं, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हैं। इनसे बड़ा स्टाइलिस्ट हिंदी साहित्य में कोई गद्यकार नहीं है। फिर हमारे सामने एक सवाल खड़ा हुआ, जब हम….जैसे-जैसे आगे पढ़ते हुए गए कि सारे स्टाइलिस्ट अगर बिहार के हैं तो हिंदी साहित्य के इतिहास में उत्तर प्रदेश क्यों छाया हुआ रहता है! तो फिर सवाल, सवाल, सवाल खड़े होते चले गए कि अनु की ये बात ठीक है कि एक फिल्टरेशन की ज़रूरत है जो पहले से उपलब्ध है लिखित रूप में या मौखिक रूप में वही डिजिटल पर भी सबसे ज्यादा पढ़ा जा रहा है या वायरल हो रहा है। जो डिजिटल में ही रचा जा रहा है और डिजिटल में ही वायरल हो रहा है उसकी कितनी लंबी उम्र है यह आपलोग हमसे ज्यादा बेहतर जानते हैं। अगर वह लिखे हुए में नहीं आ गया और लिखे हुए की स्वीकार्यता सामाजिक रूप से नहीं बन पाई तो उसकी उम्र कोई लंबी नहीं है। रविकान्त जी ने कहा कि अब
जो है वो गाया भी जाने लगा है और सुना भी जा रहा है, मतलब कि ऑडियो बुक भी है, ये भी है, वो भी है–ये अब नहीं है, ये पहले भी था। तुलसीदास को भी एल्गोरिज्म की ज़रूरत पड़ती थी। वो बैठ करके रोज़ जो दिनभर लिखते थे सुबह से रामचरितमानस वो शाम को बैठ करके सुनाया करते थे और लोग जुटते थे सुनने के लिए और जो तालियाँ बजती थीं उससे उनको समझ में आता था कि ठीक चल रही है कथा या नहीं चल रही है। तो मार्केटिंग हमेशा रही है, अपना-अपना तरीक़ा रहा है; और उस…। महादेवी वर्मा ने क्यों जाना बंद कर दिया कवि सम्मेलनों में, हूटिंग के कारण, क्योंकि वो मंचीय कविता में फिट नहीं बैठ पा रही थीं, दिनकर और बच्चन की तूती बोल रही थी। तो सवाल ये है कि हर समय समाज अपना एल्गोरिज्म अपने ढंग से सेट करता रहा है और उसके हिसाब से चीज़ें चलती हैं या थम जाती हैं या उनकी एक रफ्तार सेट हो जाती है। लेकिन समाज में किसी भी रचना की उम्र पाठक तय करते हैं कि वह कितने समय तक रहेगा।
सत्यानंद जी, तो फिर क्या प्रकाशक या संपादक के रूप में…!
निरूपम : अब संपादक की धाक और रोब वाली जो बात है न ये धाक और रोब जैसी चीज़ कोई होती नहीं है–ये सब भंगिमाएँ हैं और हिंदी समाज स्वप्नजीवी समाज है। सपनों के पीछे भागता है और डे-ड्रीमर बहुत हैं हमारे यहाँ, और हर किसी को लगता है कि वो तो वहाँ है। वास्तविकता पर हमलोग कम भरोसा करते हैं, वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए हम जल्दी तैयार नहीं होते हैं। अब ऐसे में कोई भी जो वास्तविकता के इर्द-गिर्द बात करना शुरू करता है तो कहा जाता है कि ये जो है वो डिस्टर्बिंग एलिमेंट है, ये संपादक जो है वो थोड़ा रोब दिखा रहा है, खड़ूस है। ऐसा कुछ होता नहीं है, संपादक का काम एक मेकप मैन का काम है, वो एक चेहरा…आपका…समझता है कि ये जो चेहरा है अगर हम इसको थोड़ा सा इस तरह का टचअप दें तो ये जब जिस तरह के मंच पर प्रकाश व्यवस्था है उसमें ये जाएगा तो किस तरह से दिखेगा या इसका reflection क्या आएगा तो उस हिसाब से वो उस पर काम करता है। दूसरा काम जो संपादक का है वो संभावनाओं की तलाश का काम है जो ज्यादा challenging है तो डिजिटल मीडियम इस तरह से तो संपादकों की सहूलियत बढ़ा रहा है कि जब पत्रिकाओं के संपादक आलसी हो रहे हैं, माफ़ कीजिएगा…हिंदी में, तो वैसे में प्रकाशनों के संपादकों को डिजिटल मीडियम इस मामले में सहायता पहुँचा रहा है कि वो संभावनाओं को जो पहले पत्रिकाओं से ढूँढ़ते थे अब वो वहीं से सीधे देख ले रहे हैं कि ये संभावनाशील है, इसको हम काम करा सकते हैं।
तो क्या जब कोई लेखक आपके पास आता है, तो आप उसकी सोशल मीडिया नब्ज़ भी थोड़ी सी टटोल के देख लेते हैं कि इसको लोग स्वीकार कर रहे हैं, इस तरह का लेखन!
निरूपम : मेरे जैसा आदमी लाइक्स पे नहीं जाता है, फॉलोवर्स पे नहीं जाता है, क्योंकि वो बहुत बड़ा धोखा है। मतलब आप ये समझ लीजिए कि अगर लाइक्स और फॉलोवर्स के आधार पर किताबें बिकतीं तो हमारे बीच बहुत सारे ऐसे सेलिब्रिटिज हैं अँग्रेज़ी में, जो अँग्रेज़ी में किताबें सुनते हैं कि बहुत ज्यादा बिकती हैं तो अँग्रेज़ी का हर लेखक है वो बड़ा लेखक है और बहुत अमीर होना चाहिए! फिर टेक्स्ट बुक के लेखक ज्यादा उनसे पैसे वाले नहीं होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा है नहीं, वो तो एक मिथ है। तो वैसे में अँग्रेज़ी में उन सारे सेलेब्रिटिज की किताबें…90 फ़ीसदी जो है वो उनकी मातृभाषाओं में नहीं अँग्रेज़ी में छपती हैं पहले तो वो मिलियन्स में किताबें बिकनी चाहिए…मिलियन्स, मिलियन्स में किताबें बिकनी चाहिए, लेकिन वो तो हज़ारों में दम तोड़ देती हैं। तो फॉलोवर्स और लाइक्स और फैन…इससे किताबों की बिक्री से कोई संबंध नहीं है। हिंदी कविता सोशल मीडिया पर जितनी पढ़ी जाती है…ख़ुद ‘नई धारा’ के डिजिटल मीडिया पर आप देख सकती होंगी, जितनी मुफ्त में पढ़ने वाले लोग हैं, क्या वो किताब ख़रीदने वाले लोग हैं? यहाँ जितने नौजवान बैठे हैं उसमें से कुछ लोग तो ऐसे ज़रूर होंगे जो इस दुर्घटना के शिकार हो चुके होंगे…ध्यान रखिएगा दुर्घटना के शिकार…ये आप डायरी में लिख सकते हैं। जब तक आपकी किताब नहीं छपी है और आपकी कविता पढ़के, आपकी फेसबुक राइटिंग पढ़के लोग एकदम परेशान किए रहते हैं आपको कि किताब कब आ रही है, किताब कब आ रही है…! जितने लोग ये सवाल आपसे पूछते हैं, लिखते हैं, अगर उसके आधे भी आपकी किताब ख़रीद लें तो पहले ही महीने में वे बेस्ट सेलर बन जाएँ।
रचनाकार के दृष्टिकोण से मैं ये सवाल पूछना चाहती हूँ राजशेखर जी से, जब हमारी पहले चर्चा हो रही थी…आपने कहा, जब आप कोई गीत लिखते हैं, तो आपको उसका पूरा सूक्ष्म डेटा आपके पास आ जाता है कि कितने लोगों ने सुना, किस जेंडर के लोगों ने सुना, कहाँ सुना, किस प्रदेश में ही नहीं किस गाँव में, किस ज़िले में आपका गाना सुना गया! तो रचनाकार होते हुए इसका आपके लेखन पे क्या असर पड़ता है, क्या ऐसा कुछ लगता है कि कोई पीठ पीछे खड़ा देख रहा है जब आप लिख रहे हैं, जब कुछ रच रहे हैं, क्या फ़रक़ पड़ता है उससे?
राज शेखर : शुक्रिया ‘नई धारा’, एक गीतकार को साहित्य के मंच पर बुलाने के लिए! मैं हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखता हूँ। मेरी जो शुरुआत हुई 2011 की फ़िल्म ‘तनु-वेड्स-मन्नु’ से हुई, और मेरी सीडी और कैसेट्स आने से पहले 1-2 फ़रवरी को गाना रिलीज होना था, पर मुझे अचानक से पता चला कि 1 फ़रवरी को ही songs.pk एक साइट हुआ करता था। आपलोग…कुछ लोग को याद होगा–पाकिस्तान का। songs.pk पर मुझे एक दोस्त ने बताया कि आपका गाना रिलीज हो चुका है! और हम हाय-तौबा मचा रहे हैं कि अरे ये क्या हो गया, मतलब अब तो…मैंने डायरेक्टर को फ़ोन किया कि हमारा गाना लीक हो गया है। उन्होंने कहा, ‘कोई बात नहीं है।’ मैंने कहा, ‘अरे! ऐसा ठंडा जवाब।’ मुझे तो लगा था कि कहेंगे कि अरे हम तुम्हारे साथ हैं अभी कोर्ट चलते हैं। फिर मुझे बाद में पता चला वही लोग लीक कराते हैं, वो इसलिए लीक कराते हैं क्योंकि लीक में लोगों की दिलचस्पी ज्यादा है। क्योंकि आपको…जो लग रहा है, सबको लग रहा है कि वक्त से पहले मेरे पास इसकी पहुँच है। ‘तनु-वेड्स-मन्नु’ तक या उसके बाद 2018-19 तक मुझे ये नहीं पता चलता था कि मेरा कौन सा गाना कितना चल रहा है। जब लिट फेस्ट से ज्यादा बुलावा आता था तो मुझे लगता था कि ये गाना चल गया है, जब नहीं आता था तो मुझे लगता था कि ये एलबम उतना नहीं चला है या इंटरव्यू के लिए फ़िल्मफ़ेयर या बाक़ी मैगज़ीन से जब कॉल कम आते थे तो लगता था ये एलबम उतना नहीं चला, जब कॉल आने लगते थे तो लगता था कि चल गया। अभी बीच में मुझे इस तरह के किसी मीडियेटर की ज़रूरत नहीं है। मेरे फ़ोन पे…मैं अभी देख के बता सकता हूँ कि ‘एनिमल’ फ़िल्म का ये गाना मेरा गाज़ियाबाद में कितने लोग सुन रहे हैं। डिफनेटली मुझे ये इनेबल कर रहा है–एक तरीक़े से मेरे हाथ में, एक मेरे और मेरी ऑडियन्स के बीच का जो फ़ासला है वो कम हो रहा है। बट, क्या ये मेरे गाने लिखने के वक्त ये कोई मुझे फ़ायदा पहुँचाता है, मुझे लगता है कि दरअसल ये नुकसान करता है। जब गणित आप…आपको लगता है कि गणित आप जान गए हैं, पर गणित आपसे बाहर की चीज़ है दरअसल। आप एक बार उसको…वो फार्मूला फिट बिठाने लगेंगे, दूसरे गाने में, दूसरे एलबम में वो आपके हाथ से चीज़ें फिसल जाती हैं। तो अब मुझे जो समझ में आई है बात, कि जब अपने राइटिंग टेबल पर होता हूँ तो, कैरेक्टर, सिचुएशन, ज़बान, चेक आया कि नहीं आया, फ़िल्म हिट होगी कि नहीं होगी, इस सबसे ज्यादा डेडलाइन, इस सबसे ज्यादा जो मेरी कोशिश होती है, जो मशक्क़त है, वो इस चीज़ में है कि मैं अपने आपको उस एक घंटे के लिए, आधे घंटे के लिए, उस दो दिन के लिए, उस अंक गणित से अलग कैसे कर पाऊँ। जहाँ पे मेरे ज़हन में ये बात नहीं आए कि अच्छा मैंने ये गाना ज्यादा अच्छा…मेरे दिमाग़ में ज्यादा अच्छा…लिखा था, पर ये चला नहीं। पर एक गाना में, जो कि मैंने ऐसे ही क़लम चला दी थी वो ज्यादा चल गया है। क्योंकि हर बार की ये सच्चाई नहीं हो सकती है। तो एलगो जो है, वो एक लेवल पर इमपावर कर रहा है मुझे, उसके दूसरे पार्ट को लेके, जो कि उसका मॉनिटरी पार्ट है। हाँ, एल्गोरिज्म एक लेवल पर मुझे ज़रूर…एक ये जो डेटा है, ये अलग तरीक़े से मुझे इनेबल ये कर रहा है कि मैं बारगेन कर सकता हूँ, सिर्फ़ पैसे के लिए नहीं। अगर मैं किसी अच्छी, मुझे मेरे हिसाब से…अगर मुझे लग रहा है कि ये लाइन अच्छी है…मैं हमेशा कहता हूँ कि हर गाने में एक पंक्ति मैं अपने लिए लिखता हूँ, कोशिश करता हूँ कि अपने लिए लिख लूँ। और ये एक खेल होता है कि क्या है वो पंक्ति इस बार मैं बचा पाऊँगा, या ये इस पे नज़र चली जाएगी किसी लेवल वाले की, या प्रोड्यूसर की, और कहेगा ये हटाओ। तो वो पंक्ति बचाने की जो कोशिश होती है…अब मैं खुले में आता हूँ, कहता हूँ कि मेरा लास्ट गाना हिंदुस्तान का सबसे ज्यादा चलने वाला गाना है–2024 का; इसीलिए आप ये बहस की बात अलग रखिए, और जो मुझे लिखना है वो मुझे लिखने दीजिए।
धन्यवाद, तो इसी से जुड़ा मैं रविकान्त जी से पूछूँगी कि जो लेखक, कवि, गीतकार–जिसको डिजिटल की, सोशल मीडिया की समझ नहीं है, जिसके पास साधन नहीं है, जिसके पास समय नहीं है अपनी डिजिटल फॉलोइंग बढ़ाने का, उसके लिए क्या विकल्प रह जाता है, क्या वो लिखे, और फिर कहाँ जाए?
रविकान्त : मुझे नहीं लगता है कि जो पारंपरिक मीडिया है वो ख़त्म हो गया है। लिखें, जिनको लिखना है…असंख्य लघु पत्रिकाएँ आज भी निकल रही हैं, हर लेखक संपादक है, हर कवि संपादक है! अब तो बल्कि और आसान हो गया है कि आप बोल दीजिए बस, और रेकॉर्ड करके कहीं भी डाल दीजिए, या किसी से करवा लीजिए, ये तो बहुत आसान है। मैं एक-दो चीज़ें…थोड़ा सा, पीछे के डिस्कशन में जा करके कहना चाहता हूँ, जोड़ना चाहता हूँ…अगर हम तुलसीदास से तुलना करेंगे एल्गोरिज्म की, तो मामला अनैतिहासिक हो जाएगा, ठीक है! क्योंकि, ज़ाहिर है ‘मानस पीयूष’ लिखा गया, जिसके ज़रिये आप एक एल्गोरिज्म बना सकते हैं, इंडेक्स बना सकते हैं–तुलसीदास का, लेकिन वो प्रिंट के आने के बाद हुआ। जब ओरल कल्चर था, तो ओरल में आपने बात कह दी और बात ग़ायब हो गई, जब तक वो किसी मीडियम में…उसका अंकन नहीं हुआ। यानी जब तक वो लिखा नहीं गया, या किसी ने और तरह से दर्ज नहीं किया। इसलिए एल्गोरिज्म जो वर्क करता है, वो…!
निरूपम : थोड़ा तो प्रभावित करता ही था, वैसे जैसे राज शेखर ने कहा, कि वो एक दिमाग़ पर दबाव बनाता है कि ये चीज़ पसंद की जा रही है।
अनुशक्ति : आरती जी, लेखकों में, रचनाकारों में एक रोग होता है, हालाँकि जो भी कर रहा होता है उस हर व्यक्ति में एक रोग होता है। बड़ी…दृश्यमानता की बात की…दृश्यमानता सिर्फ़ विरासत की नहीं है, दृश्यमानता वर्तमान की भी है। हर लेखक जाना जाना चाहता है, पहचाना जाना चाहता है, वह चाहता है या चाहती है…जेंडर को आप पीछे रखते हैं, उसको आप न्यूट्रल में ही सुनिएगा। उस हर साहित्यकार की, रचनाकार की एक इच्छा होती है कि उसे अधिक-से-अधिक लोग जानें। अभी सर कह रहे थे कि जो व्यक्ति डिजिटल नहीं चाहता है वो छोटी पत्रिकाओं में छप सकता है, पर उन छोटी पत्रिकाओं की रीच कितनी है। जो रीच…बहुत अच्छा उदाहरण अभी निरूपम जी ने दिया था–तुलसीदास का। तुलसीदास की मान्यता या मानकता क्यों है, क्योंकि उनकी चौपाइयों को सुना गया, कहा गया; लोगों ने उसकी तारीफ़ की, इसीलिए उन पर सबसे ज्यादा क्रिटिकल एप्रिसिएशन भी हुए और उसके बाद…मतलब कहिए न कि कितने तरह के रामायण लिखे गए पर रामचरितमानस की मान्यता इसलिए है, क्योंकि वो लोक में हो गया। ‘Everybody wants to be in public’…हर कोई लोक में होना चाहता है, और इस सोशल मीडिया ने लोक में होने को बहुत आसान कर दिया है। तकनीक ने इस लोक में होने को बड़ा सहज कर दिया है। बता रहे थे न अभी राज शेखर की उनके पास टूल है कि गाज़ियाबाद में कितने लोग ‘एनिमल’ के गाने सुन रहे हैं या फिर क़रीब-क़रीब सिंगर के गाने कोई सुन रहे हैं।
राज शेखर से जब मैं पहली बार मिली थी, 2015 में हम दोनों की मुलाक़ात हुई थी तो हमने सबसे पहले यही कहा था कि आपका वो ‘तनु-वेड्स-मनु’ का गाना मेरा प्रिय गाना है। तो उनके पास पहले वो टूल नहीं था, उन्हें लोगों से…हम जैसे लोगों से मिलते थे तो पता चलता था। Now सोशल मीडिया ने वो टूल दे दिया है कि आप तुरंत पब्लिक में पहुँच जाएँ। मैं नाम नहीं लेना उचित समझती हूँ, पर दक्षिण पंथ के एक लेखक हैं, उनकी किताबें सिर्फ़ इसलिए छप जाती हैं…कुछ प्रकाशनों ने सिर्फ़ इसलिए छाप दी है, क्योंकि उनके पोस्ट को छह सौ, हज़ार लाइक करते हैं, भले ही वो नॉनसेंस क्यों न लिखें, वो गाय…वो माँसाहार पर नॉनसेंस…माँसाहार-शाकाहार को लेकर नॉनसेंस लिखते हैं, गाँधी पर नॉनसेंस लिखते हैं, he writes absolutely nonsense, but She’s people is liking in, people are putting, clicking his likes post, उसके पोस्ट को लाइक कर रहे हैं, शेयर कर रहे हैं। तो उस व्यक्ति को यह लगता है कि उसका लोक में एक फैलाव है, उसके एक लोक में मतलब he is there. अब दिक्कत ये क्या हो गई है कि जब तकनीक बहुत आ जाता है न तो हमारी स्मृतियों पर भी थोड़ा असर पड़ने लग जाता है तकनीक का। आपलोग मोबाइल फ़ोन वाली बात तो जानते ही होंगे कि मोबाइल फ़ोन के बाद से हम नंबर याद रखना भूल गए हैं। वो सब तो small गेम है, पर सबसे बड़ी बात ये हो गई है कि सोशल मीडिया ने वो विजिबिलिटी दे दी है कि आप तुरंत छप सकते हैं, तुरंत पब्लिक में जा सकते हैं, आपको कोई मतलब नहीं है कि आप कितना सुधार करना चाहते हैं, you are being controlled.
पर अगर, कोई बकवास नहीं करना चाहता है और अच्छा लिखना चाहता है और थम के लिखना चाहता है तो क्या सोशल डिजिटल उसके लिए वो जगह है?
अनुशक्ति : बिल्कुल, जगह है! मैंने जब लिखा था तो मैंने सोच…मैंने करीना कपूर को लेकर, age को लेकर लिखा था कि age सेमिंग, करीना कपूर किस तरह से अपने आप को, अपनी उम्र को स्वीकार कर रही हैं। तो मैंने पॉज़िटिव होकर के स्टोरी टेलिंग की थी। और स्टोरी टेलिंग is the key, write now. आप कुछ भी करें और स्टोरी टेलिंग करें, और यह आपकी अपनी ईमानदारी पर नीयत है कि आप क्या स्टोरी टेलिंग करना चाहते हैं, आप बकवास लिखना चाहते हैं, अच्छा लिखना चाहते हैं। देखिए स्कोप दोनों का होता है…मेन व्यक्ति आप हैं, मूलत: पाठक भी आप हैं, क्रिएटर भी आप हैं, आपकी अपनी ईमानदारी कहाँ है यह आप तय करेंगे, कोई और नहीं!
पर आप कितने दिन ईमानदार रहेंगे अगर…!
अनुशक्ति : यही चीज़, कितने दिन ईमानदार…इसका उदाहरण राज शेखर ने दिया अभी कि वह जब अपनी राइटिंग टेबल पर होते हैं तो कितना हिट, कितना लाइक और कितना रीच है उसको नहीं सोचते हैं। वो सोचते हैं कि इस पंक्ति को जो पंक्ति मैंने अपने लिए लिखी है वो मैं बचा पाऊँगा कि नहीं!
तो राज शेखर जी से मेरा अगला सवाल है। थोड़ा सा मैं डिजिटल से पीछे जाती हूँ, आपके जो सुपर सिनियर रहे–शैलेंद्र थे, साहिर लुधियानवी थे, गोपालदास नीरज थे। इन्होंने फ़िल्मों के लिए गीत लिखे, लेकिन इनका दख़ल साहित्य में हमेशा रहा। गीत लिखे लेकिन कवि सम्मेलनों में, मुशायरों में इनकी शिरकत रही। तो एक तरह से इनका एक समाज अपना था, जिसमें ये अपनी कविताएँ, अपनी रचनाएँ बाँटते थे–अपने, एक तरह से सहकर्मियों के साथ…उनके कॉमेन्ट्स। और उतनी ही सिद्दत से सुनने वाले भी थे। तो वो एक अलग तरह का समाज बन गया। क्या ऐसा कुछ है अब बम्बई में या हम सब अपने-अपने कमरे में बैठे हैं और एनालिटिक्स देख कर लिख रहे हैं और किसी तरह एक पंक्ति बचाने की कोशिश कर रहे हैं? वो जद्दोजहद बन गई बजाय क्रिएटिव प्रोसेस होने के!
राज शेखर : सुपर सिनियर नहीं हैं, वो गुरु हैं। बहुत हल्के में नाम भी नहीं लेता हूँ मैं, आपने जो…मतलब कहा तो। मुझे लगता है अभी के मेरे जो समकालीन गीतकार हैं या कुछ जो थोड़े सीनियर हैं वो सब फ़िल्मों से इतर भी लिखते हैं। इरशाद कामिल लगातार लिख रहे हैं, स्वानंद किरकिरे लिख रहे हैं, पीयूष मिश्रा लिख रहे हैं, वरुण ग्रोवर लिख रहे हैं, हुसैन हैदरी, कौसर भी लिख रही हैं…तो, मतलब और भी मुझे अभी ज़हन में…निलेश मिश्रा, वो लगातार लिखते हैं और मेरे ख्याल से रेडियो पर भी काफ़ी उनका…तो सब, हर कोई लिख…मैं भी गाहे-बगाहे कभी कुछ अनुवाद, बच्चों की किताबों का और उनके लिए कुछ किताबें लिखता रहता हूँ। और मैं इस बार इस सवाल से बचना चाह रहा था, क्योंकि यहाँ बैठे हुए हैं सत्यानंद, ह्ह्ह् और इनकी एक छड़ी रहती है हमेशा, हर साल ये एक बार खड़काते हैं कि कब दे रहे हो मैनुस्क्रिप्ट…तो लिख रहे हैं। मैं एक बार मुशायरे में गया था, मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, बिल्कुल भी नहीं…बाहयात लोग थे एकदम! मैं क्यों बोलूँ ‘यार मेरे लिए तालियाँ बजाओ।’ अगर अच्छी लगी है तो बजा दो न, मैं आपसे…मैं अभी के लिए नहीं कह रहा था।
तो हमारे पास बहुत ज्यादा समय नहीं बचा। मैं रविकान्त जी से, हमने शुरुआत की आप ही से, इस चर्चा को बंद करते हैं। तो डिजिटल का पहिया या टेक्नोनॉली का पहिया है, एक ही दिशा में चलता है। तो मैं ये कह रही थी डिजिटल का पहिया तो आगे ही चलेगा, वो रिवर्स गेयर उस गाड़ी में है ही नहीं। तो हम कहाँ जा रहे हैं, किस तरफ़ जा रहे हैं और उसके दोनों आयाम क्या हैं?
रविकान्त : दोनों, मुझे लगता है कि हम पीछे भी जा रहे हैं, दिलचस्प ये है। उस तरह से नहीं जा रहे हैं जैसे कि हम उम्मीद करते हैं कि हम जा रहे हैं। तो ज़ाहिर है कि संपादक का रौब-दाब सत्यानंद निरूपम जी जैसे लोगों का…वो प्रिंट की ख़ासियत है! संपादक की भूमिका सिनेमा में बदल जाती है। एक खिलाड़ी है, बहुत सारे लोगों में से एक हैं। उसी तरह से डिजिटल मीडिया, जिस हद तक ये एक संगम माध्यम है, convergence मीडिया है कि यहाँ पर आकर सारे मीडिया की धाराएँ, सारे स्वरूप मिल जाते हैं। उस हद तक इसमें अनन्त संभावनाएँ हैं कि आप इसमें लिपि और भाषा के बीच में जो एक रिश्ता था वो ख़त्म हो गया है। अब निरक्षर लोग भी, जो गवनई की बात कर रहे थे। आप एक बड़ा…वायरल हुआ था एक ‘बिरहा’, एक भैंस पे बैठ कर के बंदा यू.पी. का, टेर रहा है…बिरहा टेर रहा है। और अगर आप ग़ौर से उसको सुनें तो दरअसल वो सूरदास के भ्रमर गीत का भोजपुरी में अनुवाद है। तो एक तो अगर ये सब कुछ आपको एक साथ दिखने लगे इंटरनेट पर तब आपको लगेगा कि ये फ्लो जबरदस्त है, और फ्लो तरह-तरह का है–ये जनवादी भी है, डेमोक्रेटिक, तरह-तरह का फ्लो है, एक तरह का फ्लो नहीं है।
निरूपम : अभी इस साल का सबसे वायरल जो गीत रहे, उनमें एक आपलोगों ने सुना हो या न सुना हो। हीराडोम की 1901 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में छपी हुई भोजपुरी कविता ‘अछूत का जीवन’, और वो एक तालाब के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ कर के एक आदमी गा रहा है। और ये इस साल की सबसे वायरल गीतों में से एक है, और ये गीत सोचिए कि 1901 में लिखी गई और ये सिर्फ़ शोध और अकादमिक गतिविधियों में इसकी चर्चा होती रही है और इंटरनेट ने, डिजिटल दुनिया ने उसको एक नया जीवन दे दिया।
अनुशक्ति : इंटरनेट तो, मतलब ये…इसको आप डबल एज सॉर्ड कह सकते हैं। एक तलवार, कट्टपा की तलवार थी न दोनों तरफ़ से उसमें धार था। तो ये डबल एज सॉड है, लेकिन इसकी ख़ासियत ये है कि एक तरफ़ से इस एक धार से आपको फ़ायदा होता है, उससे आप बढ़िया…वो पुराने झाड़-झंखाड़ को ख़त्म कर सकते हैं और दूसरी धार आपके गर्दन पर गिरती है। बिल्कुल आख़री बात भी आप ही के ऊपर लागू होती है कि आपके ऊपर है कि आप ब्रेन रॉट का शिकार होना चाहते हैं, स्लॉप पढ़ना चाहते हैं या फिर गुड कॉन्टेंट को फिलटर करना चाहते हैं। एक संपादक आप में भी होना चाहिए, एक निरूपम जी आपलोग में भी होना चाहिए।
निरूपम : नहीं-नहीं, सब बात मेरे पास नहीं आनी चाहिए, आप सबको…आपके भीतर भी संपादक है। मैं तो कहता हूँ कि हम जिनके पास बाल कटाने जाते हैं और जिनके पास कपड़े सिलाने जाते हैं उनके भीतर भी अगर एक संपादक नहीं है तो वो बहुत बेकार दर्ज़ी और हजाम है। इसका अहसास मुझे बारहवीं क्लास के बाद, जब पहली बार मैं ग्रेजुएशन के लिए पढ़ने गया इलाहाबाद और वहाँ पहली बार ख़ुद कपड़ा सिलवाने गया तो वहाँ के शहर के जो लोकल साथी थे उन्होंने बताया कि ये सिविल लाइन्स के दर्ज़ी जो हैं सबसे बढ़िया हैं और चिप एंड बेस्ट…एकदम चलो यहाँ। गए, उनसे मैंने कहा कि ऐसे-ऐसे चाहिए। तो उन्होंने मुझे देखा और कहा कि आपकी पर्सनालिटी पर ये सूट नहीं करेगा, आपको सोबर कपड़े पहनना चाहिए। और ये मेरी पहली दीक्षा थी, मैंने ये जाना कि जिसको ये तमीज़ नहीं है कि वो आपको बता सके कि आप पर क्या अच्छा लगेगा, वह मेरा दर्ज़ी नहीं हो सकता, वह मेरा हजाम नहीं हो सकता। तो जब आप लिखते हैं, अगर बताने वाला वहाँ नहीं है तो वहाँ आपको नहीं छपना चाहिए। छपने के लिए छप जाना, और इस तरह छपना कि उस छपे को देखकर लोग कहें कि वाह कुछ छपा है। दोनों में फ़र्क़ होता है, इसको समझिए! आप लिखते हैं, इसका मतलब ये नहीं है कि आप लेखक हैं–लेखक होना एक चीज़ है। गाते सब हैं, लेकिन गायक कोई-कोई निकलता है। खाना तो सब लोग बनाते हैं, हर घर की स्त्रियाँ खाना बनाती हैं, हर नौजवान कुछ बनाते हैं, ऐसा थोड़े है कि आप खाना नहीं बनाते हैं, लेकिन बनाने वाले कुछ हाथ होते हैं। तो आपको ये समझना होगा कि हमको क्या सार्वजनिक करना है और क्या सार्वजनिक नहीं करना है।
प्रस्तुति : अभिरंजन प्रियदर्शी