ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया (रेडियो रूपक)
- 1 October, 1950
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- 1 October, 1950
ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया (रेडियो रूपक)
[तानपूरे पर दूर से आती हुई ध्वनि जो क्रमश: धीरे-धीरे पास आती है।]
झीनी झीनी बीनी चदरिया।
काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया।
इंगला पिंगला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया।
आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।
साँई-को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया।
सो चादर सुर नर मुनि ओढी,
ओढी कै मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढी,
ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया।
[धीरे-धीरे ध्वनि दूर होती जाती है]
कथाकार–“दास कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया।” ये कबीरदास जी हैं। हिंदी साहित्य के अमर संत और महाकवि। इनकी वाणी इतनी सरल और प्रभावशाली है कि वह प्रत्येक मुख की निवासिनी बनी हुई है। धर्म के अंधविश्वासों को दूर कर उन्होंने पाखंड का विनाश किया और एक ईश्वर को सारे संसार का कर्ता समझा। इसलिए हिंदू-मुसलमान और ब्राह्मण शूद्र में इन्होंने कोई भेद नहीं रखा। इनका यह नया धर्म कबीर-पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसपर हिंदू और मुसलमान समान रूप से चले। कबीर साहब ने अपना शरीर इंद्रियों के विषय भोग से बचाया और जैसे शिशु का शरीर निरीह और निष्काम रहता है वैसे ही जीवन के अंत में अपना शरीर निरीह और निष्काम बना कर उन्होंने उसे ईश्वर को सौंप दिया। “ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया!”
ये हैं महाभक्त कबीरदास जी। जन्म सं. 1455, माता-पिता नीमा और नीरू, जाति के जुलाहे। उनके जन्म के संबंध में अनेक बातें कही जाती हैं। आइए, उनके आधार पर आप शिशु कबीर के दर्शन कीजिए।
[घंटा और शंख-ध्वनि। साथ ही साथ बातचीत का हल्का शोर]
भक्त ब्राह्मण–हरि ओम, हरि ओम, क्यों भाई, महात्मा रामानंद जी अपनी पूजा कर चुके?
[कोई उत्तर नहीं मिलता, बातचीत का शोर हो रहा है, भक्त ब्राह्मण फिर पूछता है।]
भक्त ब्राह्मण–महात्माजी अपनी सबेरे की पूजा कर चुके? [शोर होता है और भक्त ब्राह्मण फिर पूछता है] भाई सुनो, महात्मा जी की पूजा हो चुकी है?
एक सेवक–क्या नाम शो, तुम कौन हो जी?
भक्त ब्राह्माण–अरे भाई, मैं नारायण दास ब्राह्माण हूँ। महात्मा जी के दर्शन चाहता हूँ!
वही सेवक–अरे चिल्लाते काहे हो, क्या नाम शो। महात्मा जी के दर्शन यों ही थोड़े हो जावने हैं (व्यंग से) हाँ!
भक्त ब्राह्मण–मैं चिल्ला नहीं रहा हूँ भाई! बड़ी दूर से आया हूँ। साथ में मेरी बेटी भी है। दुखिया बेटी गौरी!
वही सेवक–और सारे कुनबे को समेट कर ले आओ। क्या यहाँ खैरात बाँटी जाती है, क्या नाम शो।
दूसरा सेवक–ए क्या नाम शो वाले। ब्राह्माण देवता को तंग क्यों कर रहा है? जानता नहीं ये महात्मा जी के प्रियभक्त नारायण दास जी हैं, महात्मा जी इन्हें कई बार दर्शन दे चुके हैं। आइए नारायण दास जी!
पहला सेवक–नारायणदास जी! ओम, हरि ओम, महात्मा जी के भक्त जी! हँ, हँ, हँ। (बनावटी लज्जा से) छिमा कीजिए। मैंने पहचाना नहीं। क्या नाम शो; मैं नया ही नया आया हूँ। क्या नाम शो। आप जैसे सज्जनों को जानता नहीं हूँ। आप शो जाना, क्या नाम शो।
नारायणदास–कोई बात नहीं पंडित जी! (गौरी से) आओ बेटी।
पहला सेवक–बेटी? बेटी है क्या नाम शो? अहाँ, बड़ी अच्छी बेटी है। प्यास तो नहीं लगी बेटी? जल लाऊँ, क्या नाम शो।
गौरी–नहीं महाराज! बैठने की जगह भर चाहिए। जल के लिए कष्ट न कीजिए।
पहला सेवक–बात जे कै बेटी, स्वामी जी का समय नष्ट करने के लिए देश-विदेश शे शैकड़ों अशज्जन लोग घेरे रहते हैं, क्या नाम शो। अगर उनको दूर न किया जाए, आप जैशे सज्जनों का दर्शन दुर्लभ हो जाए। क्या नाम शो।
(नेपथ्य में शंख-घंटा की ध्वनि। एक पंडित का कथन)
महात्मा जी की पूजा समाप्त हो चुकी। अब दर्शन होंगे। झाँकी खुलती है।
समवेत स्वर में–महात्मा रामानंद की जय!
अलग स्वर–महात्मा रामानंद की जय (सब शांति हो जाती है)
रामानंद जी–स्वस्ति, स्वस्ति, स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु, चिरायुरस्तु…
दूसरा सेवक–महाराज, कलारपुर से आपके परम भक्त नारायणदास जी अपनी पुत्री सहित अपके दर्शन के लिए पधारे हुए हैं।
नारायणदास–महाराज, मैं नारायण दास आपको प्रणाम करता हूँ। मैं ही नहीं, मेरे परिवार के लोग भी आपके दर्शनों के लिए व्याकुल हैं। आप जैसे महात्मा का नाम जीवन के सभी संतापों का विनाश करता है। यह मेरी पुत्री गौरी–दुखिया गौरी, आज प्रात:काल से ही आपके दर्शन के लिए लालायित थी। अभी हम लोग पैदल ही कल्यानपुर से आपके दर्शनों के लिए चले आ रहे हैं। (गोरी से) गौरी! महात्मा जी को प्रणाम करो।
गौरी–महात्मा जी के चरणों में दासी प्रणाम करती है।
रामानंद–(गंभीर स्वर में) पुत्रवती भव।
गौरी–[चीख मार कर] महाराज।
नारायण दास–महाराज [व्यथित स्वरों से] गौरी विधवा है। [वाद्य यंत्र की तीन ध्वनि] महाराज! यह कैसा आशीर्वाद। आपके श्रीमुख से। [वाद्य की तीन ध्वनि उसपर नारायण दास की करुण ध्वनि तैरती हुई धीमी होती है] महाराज गौरी विधवा है।…विधवा है।…अब क्या होगा…गौरी! गौरी!! गौरी!!!
कथाकार–लेकिन काल पाकर महात्मा रामानंद जी का आशीर्वाद सफल ही हुआ। और गौरी पुत्रवती हुई। यह पुष्प-पुत्र भले ही महात्मा जी के आशीर्वाद मात्र से उत्पन्न हुआ हो, किंतु समाज का भय तन-मन को कँपा देने वाला है। विधवा पुत्रवती कैसे हो सकती है। समाज के सामने उसे सूखी बेल बनकर दिन प्रतिदिन नष्ट होना चाहिए। बेचारी गौरी ने भी समाज के भय से अपने नवजात सुंदर शिशु को काशी के लहरतारा तालाब के किनारे छोड़ दिया।
गौरी–[सिसकियाँ लेती हुई] मेरे लाल! तुम्हें यहाँ छोड़ दूँ…छोड़कर चली जाऊँ। पर कैसे जाऊँ मेरे लाल। कहाँ तुम इतने सलोने और धरती इतनी कठोर, कैसे सुलाऊँ तुम्हें इन काँटों पर। [सिसकियाँ] पालने में तुम्हें न झुला सकी तो हाथों में ही झूलो।…पर कब तक झुला सकूँगी, मेरे लाल! दुनिया के सामने दुलार भी नहीं सकी, रोने पर तुझे चुपा लेने का सुख भी न पा सकी। हाय! इस अभागिनी की गोद में खिलने में तुझे क्या सुख मिला? [सिसकियाँ] क्या मिला? मैं अभागिन हूँ, हत्यारिन हूँ। हाय! महात्मा जी ने ऐसा आशीर्वाद ही क्यों दिया? (जोर से सिसकी लेकर) क्यों दिया मेरे लाल!
[सिसकियाँ] समाज के लिए…पिता की लाज के लिए तुम्हें छोड़ दूँ। यहाँ किसके सहारे छोड़ूँ। तुम यहाँ कैसे रहोगे, लाल। जिसे रातभर अपने आँचल में छिपाकर रखा उसे सबेरे झाड़ियों में सुला रही हूँ। ईश्वर मेरे लाल को अच्छे हाथों पहुँचाना। वह बड़ा हो, बहुत दिनों तक के लिए जिए, बहू लाए। हाय, मैं यह सब सुख नहीं देख सकूँगी! नहीं देख सकूँगी!!…(रुक कर) यह कैसी आहट हो रही है। सुबह ही कोई आ रहा है। [बच्चे को सुलाती हुई] अब जा रही हूँ। मेरे मेरे लाल।…बहुत दिनों तक जियो…एक बार तुम्हें फिर देख लूँ। मेरे लाल! मेरे लाल! [सिसकियाँ धीरे-धीरे मंद हो जाती हैं]
कथाकार–लेकिन इस अभागिनी माँ का यह लाल अकेला नहीं रहा। थोड़ी ही देर में उसी स्थान से होकर नीरू जुलाहा अपनी युवती पत्नी नीमा का द्विरागमन कराकर घर लौट रहा था।
नीरू–मुँह खोलो नीमा। [मीठी हँसी हँसकर] शर्मीली लड़की, धीरे-धीरे सब लोग, हमें यहाँ तक पहुँचा कर, घर लौट गए। कितने अच्छे हैं तुम्हारे घर के लोग। तुम्हारे भाई, तुम्हारे चाचा, तुम्हारे ताऊ [गहरी साँस लेकर] सब लौट गए। अब कोई नहीं है! कोई भी नहीं है। लाज-शरम को दूर करो। जरा मुँह खोलो। तुम्हे जी भरके देखूँगा। नी…मा…हाँ…नीमा, यही तो तुम्हारा नाम है। बड़ा प्यारा नाम है नीमा। नाम में ही थोड़ा इजाफा कर दिया, नीमा हो गया! खुदा के नाम की तरह बढ़ा हुआ नाम नीमा [नीमा दबी हुई हँसी हँस देती है] अच्छा यह हँसी? जरा मुँह तो खोलो; देखूँ, तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा कैसा लगता है। देखूँगा, निकलती हुई सूरज की किरन में और तुम्हारे चेहरे में कितना मेल है।
नीमा–[कुछ नहीं बोलती]
नीरू–शर्मा गई। देखो, यह खामोशी अच्छी नहीं। अरे, अब हमारी तुम्हारी बातें सुनने के लिए यहाँ है ही कौन? यह लहराता तालाब? ये पेड़? ये फूल? लेकिन नीमा, यह तालाब सिर्फ लहराना जानता है, पेड़ बढ़ना जानते हैं और फूल सिर्फ खिलना जानते हैं! सुनना कोई नहीं जानता; सिर्फ मैं जानता हूँ…नीरू…अच्छा नीमा, यह बात मुझे आज मालूम हुई कि हमारा तुम्हारा नाम एक ही हरूफ से शुरू होता है! नीरू…नीमा…नीमा…नीरू। कहो कैसी कही।
(नीमा कुछ नहीं बोलती)
नीरू–अब भी खामोश? अब तुम्हें है बाबा गोरखनाथ की कसम। अरे, कुछ कहोगी, या सिर्फ कली की तरह मुस्कराती ही रहोगी। और नीमा, एक बात तो और मजे की है। दुनिया के हर कारबार में एक और एक मिलकर दो होते हैं, लेकिन शादी के मामले में एक और एक मिलकर एक ही रहते हैं। हैं न? एक और एक मिलकर एक।
[यकायक चौंककर आश्चर्य और कौतूहल से] अरे, यह किसका बच्चा पड़ा हुआ है? इस वक्त…किस बेदर्द ने इस बच्चे पर इतना जुल्म किया है?
नीमा–(अटकते शब्दों में) बच्चा? कैसा बच्चा?
नीरू–(आगे बढ़ते हुए) बच्चा ही तो है, देखो इस झाड़ी में। अरे जिंदा है। मैं उठाऊँ? ठहरो, उठाता हूँ! (बच्चा हाथ में उठाता है।)
नीमा–(कौतूहल से) यह किसका बच्चा है, मेरे मालिक।
नीरू–न जाने किसका है। इतनी सुबह कौन यहाँ रख गया? कोई तो नहीं दीख पड़ रहा है। ओहो, कितना अच्छा बच्चा है (नीमा से) नीमा! देखो, कितना सरूप है इसमें। इसे कोई छोड़ गया है। हाय, बच्चे! किसका कलेजा पत्थर का था कि तुम जैसे फूल को झाड़ियों में उलझा गया है। यहाँ कोई है भी तो नहीं, जिससे पूछूँ कि यह किसका बच्चा है? (कुछ क्षण बाद फिर जोर से) अरे यह बच्चा कौन छोड़ गया है।…कोई नहीं बोलता! अब क्या करूँ। इसे इस झाड़ी में पड़ा रहने दूँ।…लेकिन एक दिन भी तो यह नहीं रहेगा। कोई भी जानवर हमला कर सकता है। हाय, मेरे भोले बच्चे। तुम्हें यहाँ कौन छोड़ गया है? (नीमा से) नीमा! देखो यह तुम्हारी तरफ देख रहा है।
नीमा–(उलझन से) तो मैं क्या करूँ?
नीरू–अरे, तुम औरत होकर इसकी मासूमियत पर तरस नहीं खाती? देखो न कितनी प्यारी आँखें हैं!
नीमा–आँखें तो सभी बच्चों की ही प्यारी होती हैं।
नीरू–लेकिन इस बच्चे की आँखें कितनी भोली और मन को खींचने वाली हैं।
नीमा–हूँ! (मौन रहती है)
नीरू–तुम्हारा मन…तुम्हारे मन में कुछ नहीं होता। इसे देखकर…
नीमा–तुम क्या चाहते हो?
नीरू–मैं? मैं तो नीमा, यह चाहता हूँ…कहूँ?
नीमा–हाँ कहो।
नीरू–मैं तो यह चाहता हूँ, नीमा…अब कैसे कहूँ!
नीमा–क्यों कहने में क्या हर्ज है।
नीरू–तो कहूँ? मैं चाहता हूँ…यानी यह चहता हूँ कि…तुम इसे ले लो।
नीमा–(चौंक कर) मैं ले लूँ? क्यों, किसलिए? किसी दूसरे का बच्चा मैं क्यों ले लूँ?
नीरू–(सम्हलते हुए) अरे, दूसरे का बच्चा होता तो आज इस तरह हमारे हाथ में होता? मालूम होता है बाबा गोरखनाथ चाहते हैं कि यह बच्चा हमारा हो।
नीमा–यह कैसे मालूम?
नीरू–कैसे मालूम? तुमको मैंने कैसे पाया? उस रोज मैंने तुम्हें पहली बार देखा और तुम मेरी हो गई। बाबा गोरखनाथ के काम ऐसे ही होते हैं। जो चीज देते हैं, देना चाहते हैं, बिना पहले जतलाए, आँखों के सामने ला देते हैं। इस बच्चे को कभी देखा था? आज हमारे हाथ में है।
नीमा–लेकिन, मैं इसे कैसे लूँ?
नीरू–चाहो और ले लो? मोल-भाव तो करना नहीं। अरे यह भी कोई कपड़े का थान है! (हँसी) दुकानों पर फेरी लगाओ। अरे बाबा गोरखनथ की तो एक ही दुकान है। देखो और बिना मोल ले लो।
नीमा–लेकिन मैं इसे ले कैसे सकती हूँ?
नीरू–क्यों, मैं समझा नहीं।
नीमा–(शरमा कर) अब कैसे समझाऊँ। तुम्हारे साथ पहली बार तो तुम्हारे घर चल रही हूँ।
नीरू–तो ठीक है, बुरा क्या है?
नीमा–पहली बार चल रही हूँ और साथ में लोग यह बच्चा देखेंगे तो, तो…
नीरू–(जोर से हँसकर) ओहो, बड़े पते की बात कही है। अरे मैं तो सब बातें जानता हूँ। लोग क्या कहेंगे! शर्मिंदा तो मुझे होना चाहिए। जब मैं शर्मिंदा नहीं हो रहा हूँ तो तुम्हारे शर्मिंदा होने की बात कैसे उठती है?
नीमा–मर्दों को शर्म ही क्या। शर्म तो उनके तन तक ही रहती है। लेकिन औरतों की शर्म तो उनके मन की भीतरी तह तक छिपी रहती है। मर्द तो बस शर्म से सिर झुका लेता है, औरत तो जमीन में गड़ जाती है।
नीरू–हाँ, सच तो कहती हो तुम। लेकिन नीमा, जाने क्यों इस लड़के को लेने की बात मेरे मन में आ रही है। मान जाओ न! (बच्चे से) इसे मना ले न!
नीमा–लेकिन सोचो न। मैं घर जाऊँगी इसके साथ तो लाजों मर जाऊँगी।
नीरू–मेरी अच्छी-अच्छी नीमा। मैं कहता हूँ जिंदगी दुगनी हो जाएगी, दुगनी! मुझसे रूठोगी तो मन बहलाने का बहाना हो जाएगा। और फिर मैं गाँव वालों से सब बातें बता ही दूँगा। रास्ते में पड़ा पाया इस बच्चे को। इंसान का धरम है–रहम करना। मैंने रहम किया, उठा लिया इसे। छोड़ देता तो लोग कोसते और गालियाँ देते और फिर जिसको प्यार हो इसे ले लो। अपना बच्चा इस आसानी से थोड़े ही दिया जा सकता है। बस लोगों को इतमीनान हो जाएगा।
नीमा–और इतमीनान नहीं हुआ तो?
नीरू–तो…तो…अपने गाँव की किसी झाड़ी में डाल आना।
नीमा–मुझसे तो झाड़ी में डालते न बनेगा।
नीरू–अरे, तो मैं डाल आऊँगा। (बच्चे से) सुना बच्चे। ये तेरी माँ जो बनने वाली हैं न? कहती है तेरे साथ लाजों मर जाऊँगी। मैं कहता हूँ कि जी जाएगी तेरे साथ। लोग बात पर यकीन न करेंगे तो यह तुझे झाड़ी में फेंक आएगी या मैं फेंक आऊँगा। तू झाड़ी में फिर सोएगा? एँ? अरे, तू तो हँसता है। ऊ- (नीमा से) नीमा देखो, यह कैसा अच्छा हँसता है। हाय तुझे कुछ भी दया-मया नहीं।
नीमा–बच्चा तो बड़ा भागमान दीखता है।
नीरु–तभी तो मैं कह रहा हूँ तुझ से। इसके साथ हमारा भाग भी चमकेगा। रात दिन कपड़ा बुनते-बुनते थक जाता हूँ। आगे मदद हो जाएगी! बन जाओ न इसकी माँ।
नीमा–सुबह-सुबह यही होने को था।
नीरू–सुबह-सुबह न बनो, शाम से बनो इसकी माँ। शाम तक हमलोग घर पहुँच जाएँगे। कपड़े में लपेट लेंगे इसे। लोग समझेंगे गौने की सौगात है।
नीमा–गौने की सौगात कहेंगे तो मैं गंगाजी में डूब मरूँगी।
नीरू–अच्छा तो दान-धरम की सौगात सही। (बच्चे से) वाह रे बच्चे! तू भी बड़े अच्छे मौके से सौगात बनकर आया है। बड़ा होशियार मालूम देता है। खूब मौका देखा इसने।
नीमा–हाँ मौका तो खूब देखा!
नीरू–वाह रे बाबा गोरखनाथ! जाग मछंदर गोरख आया। नीमा ले सँभाल इसे। इसने तेरी खामोशी तो तोड़ी, नहीं तो तू तो बोलती ही नहीं थी!
नीमा–(शिथिल स्वर में) मुझसे तो इसे ले के चला न जाएगा! थक गई हूँ!
नीरू–अच्छा तो तू इसे अपने सिर पर रख और मैं तुझे अपने सिर पर रखूँ। तब तो चला जाएगा तुझ से!
(सम्मिलित हँसी)
नीमा–(शरमाते हुए) लाओ इसे, तुम तो अभी से हँसी करने लगे।
[दोनों की आवाज]
कथाकार–इस प्रकार यह शिशु नीमा और नीरू से पोषित हुआ। इसी भाग्यवान शिशु का नाम रखा गया–कबीर, जिसने गाया [तानपूरे की ध्वनि में झीनी झीनी बीनी चदरिया]
कथाकार–कबीर बचपन से ही प्रतिभाशाली थे। इनकी रुचि धर्म पर विशेष थी। ये घूम-फिर कर लोगों को उपदेश दिया करते थे, लेकिन लोग इनके उपदेशों पर ध्यान नहीं देते थे, क्योंकि निगुरे थे। इनका कोई गुरु नहीं था। उस समय काशी में स्वामी रामानंद की धूम थी ही, कबीर ने उन्हीं को अपना गुरु बनाना निश्चित किया। किंतु स्वामी रामानंद किसी शूद्र या विधर्मी को अपना शिष्य नहीं बनाना चाहते थे। कबीर ने उनके शिष्य बनने की एक युक्ति सोची। ब्राह्ममुहूर्त में ही, जब काफी अँधेरा रहता था, पंच गंगा घाट की सीढ़ियों पर कबीर लेट रहे। जब स्वामी रामानंद जी स्नान कर लौट रहे थे, वे राम मंत्र पढ़ते चले आ रहे थे।
[धीरे-धीरे मंत्र पढ़ते हुए स्वामी रामानंद की ध्वनि]
राम राम राम राम, राम राम तारक
राम कृष्ण वासुदेव, भक्ति मुक्ति दायक।
राम राम राम राम;
[उनके पैर की ठोकर कबीर के सिर में लगती है। स्वामी रामानंद चीख कर] राम, राम, राम!
कबीर–(यकायक उठकर) ‘राम राम राम’ यही गुरुमंत्र है। महाराज मैं हूँ कबीर! न जाने कितनी बार मैंने आपके शिष्य होने की बात सोची पर यह सुनकर कि आप शूद्र या विधर्मी को मंत्र नहीं देंगे, मैं बहुत दुखी होता था। आज आपने अपने पैर से सिर को छू कर ‘राम राम’ कह कर मुझे मंत्र दिया। आज से ‘राम’ शब्द ही मेरा मंत्र है और आप मेरे गुरु। कान में फूँक कर नहीं, सिर को पैर से छूकर आपने ब्राह्म मुहूर्त में जो मंत्र दिया है उससे मैं पवित्र होकर आपका शिष्य हो गया।
[स्वर से]
राम का नाम संसार में सार है,
राम का नाम अमृत बानी।
राम के नाम से कोटि पातक टरैं,
राम का नाम विश्वास मानी॥
रामानंद–तथास्तु!
कथाकार–इस प्रकार कबीर स्वामी रामानंद के शिष्य बने। अब वे गुरु-मुख होकर अधिकार पूर्वक लोगों को सच्चे धर्म का उपदेश देने लगे। वे कर्मकांड को संसार में उलझा देने वाला आडंबर समझते थे। उन्होंने स्थान-स्थान पर इस संकीर्ण और संप्रदाय में बँटे हुए धर्म की निंदा की है। उनका धर्म तो विश्वव्यापी धर्म था–जिसमें न हिंदू हैं, न मुसलमान; न ब्राह्मण हैं, न शूद्र। सब एक ईश्वर की संतान हैं। और यह कर्मकांड? यह तो धर्म के नाम पर किया गया व्यापार है। देखिए–
एक–अरे ओ मसुरिया दीन हो। अब कासी जी माँ आय कै कौनौ पाप हमका जरकौ नाहीं सकत। जनतै हौ कि ई कासी जी तीन तिरलोक से न्यारी कही जात है। ई दुनियाँ के भीतर तो है हइए नहिं न। जानत हौ, ई सिवजी कै तिरसूल पर अस बिराजमान है जैसे तुम्हार मुंडी पै ई चोटी बिच्छू के कर डंक अस ठाढ़िं है, समझयो न?
मसुरिया–कासी जी केर महिमा तो न्यारी है बैजनाथ गुरु। इहाँ तौ सगर दुनिया भरभराई कै आवत है! पूछौ का बात? तौ गुरु बात अस आय कै इहाँ गंगा जल माँ बूटी छानै तै तौ अस सवाद आवत है कि जिमिया केर जल्मैं धन्य होई जात है। मुदा, ई आपन सवाँग कस बनाए हौ? और एक बात पूछी? जो तू आपन बार बढ़ाए की बात सोचत रहै, ओहिका का भवा?
बैजनाथ–अरे मसुरिया, कासी मा आय कै जौन बार न बढ़ायै जाने ओही केर जलमैं अकारथ। हमहूँ बढ़ाये जात रहे, मुदा काब कही, ऊ हमारे जो चचा रहेन, अरे कानाँव है भला, भाई ऊ बुलाखी लाल। उनका अबहिन मरेका जल्दी परी है। ऊ खिसकेन और हमार बारौ आपन साथ सरपेट लिहिन। मुदा जाय दो, बार तो आपन बढ़िन जात है।
मसुरिया–ऊ तो ठीक है मुदा ई सवाँग?
बैजनाथ–अरे मसुरिया तू कासी जो माँ आय कै लंठै रहे। अरे ई जो बैठी है न? यदि माँ सगर बरमहांड गुरियन कऽ रूप घट कै हमार गरे माँ बिराजमान होई रहे हन। ई जौन रामनामी डुपट्टा कांधे पै परा है यहि माँ तौ जानौ राम सीता के भाँवरिन पड़ रहे हैं। औ का? और जो पूछौ कि झर्राटे क ई छर्रा चंदन काहे लगाए हौ तो मसुरिया ई तौ जैसे सरग निसैनिन हमार भाग माँ आय कै उलटी अहै। जब चाहै तब यहि कै ठाढ़ी कै लेव, औ आपन सरगमाँ धँस जाओ। हाँ?
मसुरिया–वाह वा। गुरु बैजनाथ, औ ई गुदरिया।
बैजनाथ–ई गुदरिया। अरे यहि माँ अरथ धरम काम मोच्छ सब्बै सिमिटयान है। यहि के लेय के बरे चैला लोगन हमारा गाँजाक चिलम न भरि है? कौन राम, औ कौन बिसनाथ! हमार सरूप देखकै तो हम ही बाबा बिसनाथ कै सरूप जान पड़ी। फिर मसुरिया! कंचन और कामिनी तौ अस अरराइ कै बरसि है कि दूनों हाथन से लूटौ तब्बौ न खतम होई। ई…बात…हाँ
मसुरिया–गुरु तुम्हार सतसंग माँ तौ जान पड़त है मजै मजा है। आपन जय संकर मुँह से जपे जाव…चाहे मन मा जौन होय…
[कबीर साहब का प्रवेश]
कबीर–कौन? ये ब्राह्मण भाई! यह सब स्वाँग रखकर संसार को ठगने का रास्ता तुम लोगों ने क्यों निकाला है? तुम लोगों के मन में राम का नाम का भाव कितना है, यह जानने की कोशिश तुमने कभी की है? सीधे रास्ते पर आओ, सुनो–
जाके नाम न आवत हिये।
काह भये नर कासि बसे से का गंगाजल पिये।
काह भये नर जटा बढ़ाए का गुदरी के लिए।
काह भयो कंठी के बाँधे काह तिलक के दिए।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, नाहक ऐसे जिये।
बैजनाथ–धन्न धन्न महाराज। अहह! मसुरिया हो। कबीर साहब का बाऽत गंगाजल अस पबितर है। इनकर चेला होई कै चाही। चलो।
मसुरिया–चलो बैजनाथ भैया।
दोनों–कबीर साहब की जै…जै…
कथाकार–और इस प्रकार अनेक हिंदू इनके शिष्य हुए। मुसलमानों में भी जो आडंबर था वह भी उनकी वाणी से दूर हुआ। देखिए–
काजी–क्यों बे बकरीदी! दस बार तुझसे मैंने कहा कि जब किसी मेले में जाया कर तो मुझसे पूछ कर जाया कर। पर तू पत्थर है पत्थर। तेरे ख्याल में कोई बात आती ही नहीं। कल तू मेले गया था?
बकरीदी–मैं…मैं क्या कहूँ काजी साहब, मैं जाना तो नहीं चाहता था लेकिन काजी साहब, मेरी बीवी ने जबरदस्ती…
काजी–काजी से ज्यादा बीवी की इज्जत है, क्यों बे? और अगर गया था तो मुझसे तो पूछ लेता। काजी साहब को मेले से कुछ मँगवाना तो नहीं है! या तू ही कुछ सोच समझकर अपने काजी साहब के लिए कुछ…
बकरीदी–काजी साहब पैसे…नहीं थे!
काजी–अबे अपने लिए पैसे और काजी साहब के लिए पैसे नहीं। झूठा कहीं का। पीरू तो कहता था कि बकरीदी अपने लिए बहुत बढ़िया बकरी लाया है।
बकरीदी–काजी साहब! बीवी नहीं मानती थी, कहती थी कि मियाँ तुम्हारे नाम में तो बकरी है मगर तुम्हारे घर नहीं है। मैंने कहा कि बीवी ये तो माँ-बाप का काम था कि अगर उन्होंने मेरा नाम बकरीदी रखा था तो साथ एक बकरी भी दे देते। दिया तो कुछ नहीं लेकिन कहते हैं बकरी दी।
काजी–[हँसकर] हँसाकर गुस्सा दूर करना चाहता है। और ये सब बहाने चलने के नहीं। बकरी अच्छी ले आया। कल बकरीद है। उसकी कुर्बानी होगी।
बकरीदी–(घबराकर) अरे, अरे! काजी साहब! आप यह क्या कहते हैं? मैं मर जाऊँगा।
काजी–मर जाएगा?
बकरीदी–हाँ काजी साहब, मर जाऊँगा। आप चाहें तो मेरी कुर्बानी कर दीजिए लेकिन बकरी की कुर्बानी न करें।
काजी–(हँसकर) तेरी कुर्बानी? पागल हुआ है। तेरी कुर्बानी क्यों करूँगा, बकरी की करूँगा।
बकरीदी–अरे, काजी साहब! मुझ पर क्यों सितम ढा रहे हैं। आप काजी साहब होकर ऐसी बातें क्यों करते हैं?
काजी–अरे खुदा के नाम पर कुर्बानी होगी। तुझे सवाब मिलेगा।
बकरीदी–काजी साहब! मुझे सवाब नहीं चाहिए। मैं मरकर सवाब नहीं चाहता।
काजी–(दोहराकर) मैं मरकर सवाब नहीं चाहता? यह क्या बात? मैं समझा नहीं।
बकरीदी–अरे उसमें समझने की क्या बात है काजी साहब। आप उसकी कुर्बानी करेंगे तो बीवी मेरी कुर्बानी कर डालेगी। काजी साहब! बचाइए, बचाइए! खुदा के वास्ते बकरी को छोड़कर कोई दूसरी चीज पसंद कर लीजिए।
काजी–(हँसकर) अच्छा, इस बार छोड़ता हूँ। लेकिन बकरीद है। मैं तो चाहता था गाय, लेकिन तू बकरी पर ही उलझ गया।
बकरीदी–हुजूर, बकरी की जिंदगी से बकरीदी है, खुदा के लिए मुर्गी ले लीजिए।
काजी–तू इतना गिड़गिड़ाता है तो मुर्गी ही सही। लेकिन अगले साल तुझे एक बकरी देनी ही पड़ेगी। रोजे के बाद तो गोश्त का मजा है। अगले साल मुहल्ले भर में बकरीद में कुर्बानी होनी चाहिए।
(कबीर का प्रवेश)
कबीर–कैसी कुर्बानी?
बकरीदी–[अत्यंत प्रसन्नता से कबीर के पैरों पर गिरकर] कबीर साहब, कबीर साहब! देखिए, ये काजी साहब कुर्बानी के लिए मेरी बकरी लेना चाहते हैं।
कबीर–उठो बकरीदी। (काजी साहब से) काजी साहब इस कुर्बानी का हुक्म तुम्हें किसने दिया?
मैं तोहि पूँछौ मुसलमाना।
लाल जरद का ताना बाना।
काजी काज कौ तुम कैसा।
घर घर जबह कराओ वैसा।
बकरी मुरगी किन फुरमाया।
किसके हुकुम तुम छुरी चलाया।
दरद न जानै पीर कहावै।
वैता पढ़ि पढ़ि जग समझावै।
एक कबीर एक सयद कहाव।
आप सरीखा जग कबुलावै।
दिन भर रोजा भरत हो,
रात हनत हो गाय।
यह तो खून वह बंदगी,
क्यों कर खुसी खुदाय।
काजी–वाह वाह कबीर साहब, क्या बात कही है आपने! आज से हम सब आपके मुरीद हुए।
बकरीदी–वाह कबीर साहब; वाह काजी साहब! मेरी बकरी बची, और मैं क्या बचा।
कथाकार–इस प्रकार कबीर साहब ने अपने सच्चे धर्म के प्रचार से हिंदू और मुसलमान, दोनों को सीधा रास्ता दिखलाया।
[तानपूरे के स्वर में कबीर गाते हैं]
संतो राह दोऊ हम दीठा,
हिंदू तुरक हटा नहि मानै
स्वाद सवन को मीठा।
हिंदू बरत एकादसि साधै,
दूध सिंघाड़ा सेती।
अन को त्यागै मन नहिं,
हटकै पारन करै सगोती।
रोज तुरुक निमाज गुजारै
बिसमिल बाँग पुकारै।
उनको भिसत कहाँ से होइ है
साँझै मुरगी मारे।
हिंदू तुरक की एक राह है
सतगुरु यहै बताई।
कहहि कबीर सुनो भाई संतो
राम न कह्यो खुदाई।
[ध्वनि धीरे-धीरे क्षीण होती है]
कथाकार–इस प्रकार जीवन भर कबीर अपने धर्म का उपदेश करते रहे। बहुत बड़ी संख्या में हिंदू और मुसलमान उनके शिष्य हुए! सांप्रदायिक भेद-भाव को दूर करते हुए उन्होंने सच्चे धर्म का सीधा रास्ता दिखलाया। जब इनका अंत समय आया तो ये मगहर की तरफ रवाना हुए।
एक शिष्य–गुरुदेव आप कहाँ जा रहे हैं?
कबीर–कौन रामदेव! मैं जा रहा हूँ मगहर, अब मेरा अंतिम समय है!
मुसलमान शिष्य–लेकिन मगहर में जाके आप क्या करेंगे।
कबीर–मगहर में जाके मुझे मरना है, रहीम खाँ!
रहीम–अभी आपकी बहुत उमर है साहब। बहुत बरसों तक सलामत रहेंगे आप।
रामदेव–सच कहते हो भाई रहीम! अभी गुरुदेव हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे।
कबीर–नहीं रामदेव अब दूर देश को जाना है। रहीम खाँ! गम न करो। यह तो सब के साथ होना है। बहुत बरस तो जिया। अब अपना काम पूरा करके चले जाना ही है।
रामदेव–लेकिन गुरुदेव जब जीवन भर तो काशी में रहे तब इस वक्त जा रहे हैं मगहर?
कबीर–तो उससे क्या हुआ। ईश्वर की छत्रछाया में सभी जगहें एक-सी हैं।
रामदेव–पर गुरुदेव आप जानते ही होंगे कि काशी में शरीर छोड़ने से मुक्ति मिलती है। और मगहर में शरीर छोड़ने से
[बीच ही में]
कबीर–(बहुत जोर से हँसने के बाद) गदहे की योनि में जाना पड़ता है? अरे, अगर राम हृदय में हैं तो मगहर में मरने पर भी मुक्ति मिलेगी।
[गाते हुए]
मगहर मरै मरन नहिं पावै
संत मरै तौ राम समावै।
मगहर मरै तो गदहा होई
मत प्रतीत राखो कोई।
क्या कासी क्या ऊसर मगहर,
राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा,
रामै कौन निहोरा॥
कथाकार–इस प्रकार कबीर ने जीवन भर विवेक से काम लिया और धर्म की रूढ़ियों को छोड़कर सच्चे और स्वाभाविक धर्म का प्रचार उन्होंने जनता के बीच में किया और हिंदू-मुसलमान तथा ब्राह्मण-शूद्र का भेद दूर किया। संवत् 1551 में उन्होंने अपनी जीवन लीला समाप्त की और अपनी वाणी को ऐसी अमरता प्रदान की कि आज भी वह संसार के कोने-कोने में गूँज रही है।
[तान पूरे की ध्वनि में कबीर का गीत]
झीनी झीनी बीनी चदरिया।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढ़ि कै मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन ते ओढ़ी,
ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया॥
[अंत में ध्वनि धीरे-धीरे वायु में लीन हो जाती है]
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