संध्या की छाया में
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- 1 September, 1950
संध्या की छाया में
मदन–हिंदी का एक लेखक, अथवा हिंदी के लेखकों की साकार परिभाषा। आयु लगभग 35 वर्ष, परंतु चेहरा कहता है कि आयु इससे दस वर्ष अधिक है।
करुणा–मदन की पत्नी। माता और पत्नी की संज्ञा लिए भारतीय नारीत्व की ज्वाला पर बुझी-सी। आयु लगभग 30 वर्ष।
लाल–मदन का आठ वर्षीय पुत्र! शैशव की प्रतिमा।
मोहन–मदन का मित्र। हर वस्तु में सुख खोजने का अभिलाषी, आज की यथार्थता पर विश्वास रखने वाला एक साहसी! आयु लगभग 35 वर्ष!
[समय–संध्या! मदन का कमरा। भद्दी दीवारें जो शायद कई वर्षों से सफेदी के लिए तरस रही हैं। दीवारों पर उस भद्दे सफेद रंग के बीच चूने की पपड़ियाँ निकल जाने से कत्थई रंग के निशान पड़े हैं। एक ओर पुराना अखबार दीवार पर कीलों के आसरे लगा है और कीलों पर दो मोटे कुर्ते और तीन पैजामें झूल रहे हैं, रंग सबका दीवारों से मिलता-जुलता है। एक कोने में एक टूटी-सी अलमारी में ठूँसठाँस कर पुस्तकें भरी हैं और अलमारी के आसपास समाचार पत्र, मासिक पत्रिकाएँ गँजी हैं। उनसे कुछ हटकर टीन के दो चिपके संदूक, लेखक के किन्हीं रहस्यों को ढाँके पड़े हैं। संदूकों से लगी एक पुरानी टेबिल है जिसपर पुस्तकें कम, मिट्टी ज्यादा जमा है। फर्श गोबर से लीपा हुआ है, दरवाजे के पास के कोने कुछ साफ हैं। एक ओर दरवाजे के पास दरी बिछी है जिसपर स्याही से रंगी एक चौखट पड़ी है। चौखट पर आधा बोझ रखे मदन दरी पर बैठा कुछ लिख रहा है। कागज़ यहाँ-वहाँ फैले हैं–कुछ चौखट पर, कुछ नीचे। मदन कभी सिर उठाकर ऊपर लगे दो तीन पुराने ढंग के चित्रों को देख लेता है, कभी खिड़की से आकर दीवार पर क्षण-क्षण लुटती सूर्य की छाया को!]
मदन–(धीरे धीरे पढ़ते हुए) मानव की क्षणभंगुरता पर जब मन काँप उठे, पार्थिवता की उसाँसों पर जब मानस कराह उठे, जब जीवन असमताओं की संध्या में बंधकर असफलताओं की रजनी में डूब जाए, तब उत्साह की ज्योत्स्ना बन तुम प्रकाश का दान देना। (रुककर, सूखी हँसी हँसकर) प्रकाश का दान बाद में, पहले इस कमरे में तो प्रकाश हो जाए तो कलम को रास्ता दिखे। (पुकार कर) मैंने कहा, सुनती हो!
करुणा–(नेपथ्य से) क्या है? तुम्हारी शेरवानी सुधार रही हूँ!
मदन–वह काम तो फिर भी हो सकता है। पहले इस कमरे में रोशनी जला दो तो अच्छा हो, यह लेख अभी पूरा करना है।
[करुणा का प्रवेश। साधारण वेशभूषा। हाथ में पुरानी शेरवानी और सुई-डोरा]
करुणा–मैं सिलाई कर रही हूँ, मुझे दिख रहा है और आपकी कलम के लिए अँधेरा हो गया! कमरे में जो घुसे बैठे हो। आँगन में निकल चलो न!
मदन–(मुस्कुराकर) तुम्हारी सुई से मेरी कलम का काम अधिक बारीक है। मैं यहीं अच्छा। तुम लालटेन जला लाओ।
करुणा–सूरज अभी डूबा नहीं और आपको अभी से लालटेन चाहिए। तेल दो ही बोतल तो मिलता है महीने में, और फिर इस बार तो आप एक ही बोतल खरीद पाए थे! अब तो बिलकुल नहीं बचा है; इसीलिए रात का खाना भी सबेरे ही बना लिया था।
मदन–कल थोड़ा पड़ा था न लालटेन में! अभी लालटेन जला लो, खाना अँधेरे में खा लेंगे। और फिर सड़क के लैंप की रोशनी खिड़की से आ ही जाती है। (गंभीर होकर) भोजन रास्ता नहीं भूलता, पर अँधेरे में लेखनी भटक जाती है।
करुणा–पर तेल हो भी! कल रात जब लाल सीढ़ी से गिर पड़ा था, मैंने तेल में कपड़ा भिंगाकर बाँध दिया था और तभी कुछ देर लालटेन भी जलानी पड़ी थी। जो थोड़ा बहुत बचा था तभी खतम हो गया (रुककर) बाहर चले आइए न!
मदन–(कागज पर आँख गड़ाते हुए)…तो रहने दो। डूबते सूर्य की किरणें जितनी देर जीवित हैं उतनी ही देर लिखूँगा। आशा है तब तक इसे पूरा भी कर लूँगा। तुम जाकर अपना काम करो। (शेरवानी की ओर संकेत कर) अच्छा बना देना इसे। टाँके जरा मजबूत हों; कपड़ा चाहे फट जाय पर वे न टूटें। (गंभीर होकर भावुकता से) जीवन चाहे मिट जाए, उन्हें मिलाने वाला प्रेम तो अमिट हो।
करुणा–पर टाँकों की मजबूती से शेरवानी नहीं चलेगी। उसके लिए तो कपड़ा अच्छा रहना चाहिए।
[कहते हुए प्रस्थान। मदन एकटक करुणा को निहारता है। करुणा करुणा से भरी चली जाती है। मदन कुछ क्षणों तक द्वार की ओर देखता रहता है जैसे नेत्रों से उसका साथ दे रहा हो। फिर दृष्टि समेट कर उसे चौखट के कागजों पर गड़ा देता है।]
मदन–(साँस लेकर) जब मैं असमताओं की संध्या में बँधकर असमताओं की रजनी में डूब जाऊँ तब तुम उत्साह की ज्योत्स्ना बन प्रकाश का दान देना।
[नेपथ्य से एक बच्चे के रोने का स्वर सुनाई देता है]
मदन–(चौंककर) अरे! उस बेचारे को क्यों रुला रही हो। (भाव बदलकर) उसका रोना सुनकर मेरी लेखनी थम जाती है!
[करुणा का प्रवेश। शेरवानी अभी भी उसके हाथ में है। साथ में रोता हुआ लाल। एक पुराना नेकर तथा कमीज़ पहने। एक पैर के अंगूठे में एक मैला-सा कपड़ा बंधा है। लाल कमीज़ से आँसू पोंछता सिसकता जा रहा है।]
करुणा–परेशान कर डाला है आपके लाल ने। इसे चोट क्या लग गई है, मेरी मुसीबत आ गई है।
मदन–तो बिगड़ने से क्या होगा। बच्चा है, मना लो! दर्द होता होगा।
करुणा–दर्द होता होगा तो अस्पताल क्यों नहीं ले जाते!
मदन–(उठते हुए, करुण स्वर में) अस्पताल? सरकारी अस्पताल तो बंद हो चुके होंगे, और दूसरे डॉक्टरों के पास जाने की शक्ति नहीं। (रुक कर) हाँ, ऐसा करो न! ज़रा प्याज से सेंक दो।
करुणा–(करुण होकर) प्याज से सेंक दूँ! (लाल को पुचकारते हुए) चल बेटा, मैं सेंक देती हूँ, अच्छा हो जाएगा।
मदन–बस इसी तरह। [खिड़की से डूबे सूर्य की स्मृति में सिसकती किरणों को देखते हुए] तुम नाराज़ होती हो, तो मेरी कल्पना कुंठित हो जाती है। लाल रोता है, तो लेखनी थम जाती है। इसके आँसुओं पर, तुम्हारी सिसकियों पर मेरा…मेरा गान बिक जाता है। (घूम कर) बेटे, रोते नहीं! अच्छा हो जाएगा, अम्मा सेंक देंगी।
लाल–(रोते हुए) और बाबू जी मेरी स्लेट फूट गई है। मास्टर साहब नाराज होते हैं।
मदन–(अपने पास खींचते हुए) तो दूसरी ला देंगे। मास्टर साहब से कहना अभी…नहीं, न…हीं, मास्टर साहब से मैं ही कह दूँगा। तुम जाओ खेलो।
लाल–(हिचकियाँ लेते हुए) बाबू जी, हम भी शेरवानी पहनेंगे, जैसी आपकी है वैसी ही। अम्मा आपके लिए बना रही हैं, हमारे लिए नहीं बनाती।
मदन–बेटा, वह तो पुरानी है। तुमसे बड़ी है उमर में। तुम्हें दूसरी बनवा दूँगा!
करुणा–(दबे स्वर में) कब बनवा पाओगे? क्यों झूठा आश्वासन देते हो बच्चे को?
मदन–(आत्मग्लानि से भरे स्वर में) बेटा, मैं इसे ही तेरे लिए छोटी करवा दूँगा। अच्छा अब जाओ, खेलो। तुम्हें नन्हें बुला रहा था न?
लाल–नन्हें तो हाकी खेलता है। हमारे पास कहाँ है हाकी। बाबू जी, जब वह खेलता है न, तब पैंट में किसमिस भरे रहता है, खेलता जाता है और खाता जाता है।
मदन–खेलते-खेलते खाना अच्छा नहीं होता बेटा। जाओ पहले खालो फिर खेलना। हाँ देखो, हाकी खेलने से चोट लग जाती है, कबड्डी खेला करो।
लाल–अम्मा कहती है कि सबेरे की रोटी खाओ। बाबू जी, हम मिठाई खाएँगे!
करुणा–मिठाई नहीं खाते, बेटा! पेट में कीड़े हो जाते हैं। अच्छा, आओ, तुम्हें अच्छी चीज़ खिलाऊँ। अब बाबू जी को काम करने दो!
[करुणा और लाल का प्रस्थान। शेरवानी एक ओर छूट जाती है। मदन गंभीर होकर कुछ देर कमरे में टहलता है फिर अपने स्थान पर आ बैठता है। कुछ लिखकर उसे दोहराता है।]
मदन–(पढ़ते हुए) वेदना के स्पर्श पर जब मेरा व्यक्तित्व बिक जाए, पराजय को डोर में गुँथा अश्रुओं की मौक्तिक माला पहन जब मेरा अहम् बेसुध हो जाए, संसार की उपेक्षा के भार से भर मेरी तरी जब निराशा में डूबने उतराने लगे, तब पुलक-स्पर्श के प्रतनु से उसे संभाल लेना।
[मदन विचारमग्न हो जाता है। नेपथ्य से सीटी की आवाज़ आती है जो धीरे-धीरे पास आती जाती हैं और दूसरे द्वार से मोहन प्रवेश करता है]
मोहन–अच्छा जी! आप यहाँ तशरीफ रखते हैं। तभी मेरी चिल्लाहट का आप पर कोई असर नहीं हुआ। भई, हद है। शाम को भी घर में घुसे बैठे हो और वह भी इस अँधेरे कमरे में।
मदन–चौंककर मोहन! आओ, आओ! काम में लगा हूँ। कल तक ये लेख दे ही देने हैं; नहीं तो–
मोहन–(बीच में) नहीं तो संपादक मार डालेगा। लेखक होकर संपादक से डरते हो।
मदन–(गंभीर होकर) नहीं मोहन! यह बात नहीं। मेरा लेखक किसी से नहीं डरता, किसी की चिंता नहीं करता। पर मैं मनुष्य भी तो हूँ। जब अपने आसपास एक पत्नी का अधिकार, पुत्र का प्यार और यह निष्ठुर संसार देखता हूँ, तो मैं काँप उठता हूँ। मेरे उस लेखक पर मेरा यह सांसारिकता में पिसा मानव विजय पा जाता है और लेखनी से चाँदी और सोने की आभा पर व्यंग्य करने वाला हृदय थोड़े से चाँदी के टुकड़ों के लिए झुक जाता है।
मोहन–बस-बस समझ गया। हमेशा यही कहा करते हो। मैं कहता हूँ–भूल तुम्हारी है और तुम जैसे अन्य लेखकों की। यदि चाहो, तो तुम सब मिलकर संपादकों को नाकों चने चबवा सकते हो। लेखक विदेशों में भी होते हैं, पर उन्हें इस तरह बिकते नहीं सुना। तुम बिकते हो, साहित्य का व्यापार करते हो; और यही कारण है कि उनका साहित्य तुमसे आगे है।
मदन–भारत को विदेशों से मत मिलाओ। विदेशों में लेखक एक सम्मानित मनुष्य बनकर जीता है और मरकर अमरत्व पाता है। भारत में लेखक उपेक्षा में जीता है, मरकर लेखक बनता है और अमरत्व उसके भाग्य में नहीं। मोहन, भारत का लेखक निर्धन है और इसीलिए वह पुस्तकों के प्रकाशन के लिए पूँजीपतियों के द्वार झाँकता है। और जानते हो, उन द्वारों पर, एक ओर आत्माभिमान का दम घुटता है और दूसरी ओर चौखट से ही धोखे के चिह्न दिखाई देने लगते हैं। (साँस लेकर) आदर्श का नाम नहीं।
मोहन–बस भी करो। दुनिया तुमने अभी देखी नहीं। दुनिया बहुत बड़ी है और तुमने उसके एक बहुत छोटे भाग को देखा है। रही आदर्श की बात। मेरे भाई मैं उसपर विश्वास नहीं करता। आदर्श एक ओर जितना बड़ा गुण है, मेरे ख्याल से दूसरी ओर उतनी ही बड़ी कायरता। आदर्शवादी (रुककर) यानी Moralist मैं उसे कहता हूँ जिसका हाथ कभी किसी के सामने नहीं फैलता और न सिर किसी के आगे झुकता है।
मदन–समाज में मनुष्य की ऐसी आन असंभव हो जाती है मोहन! संधि के बिना मनुष्य का काम चल ही नहीं सकता। और संधि में दोनों पक्षों को झुकना होता है।
मोहन–झुके सिर के सामने सिर झुकना मैं सबसे बड़ी जीत समझता हूँ; पर घृणा से घूमे चेहरे पर चाँटा मारना भी मैं अपनी शान समझता हूँ। खैर, ये तो अपने-अपने विचार हैं।
मदन–जहाँ तक विचारों का संबंध है, एक लेखक को अधिक सतर्क रहना है। तुम्हारे विचार तुम तक सीमित होते हैं, लेखक को अपने विचार दूसरों के सामने रखना होता है। यही कारण है कि लेखक को अपने विचार सँवारकर ही दूसरों के सामने रखना होता है।
मोहन–और यही तो दुख की बात है कि हमारे लेखकों ने अभी तक अपने विचारों को नहीं सँवारा और सारा दोष संपादकों और प्रकाशकों के सिर मढ़ दिया। अपनी जीविका के लिए दूसरों के सामने हाथ फैलाने वाला लेखक आत्माभिमान के पाठ क्या पढ़ाएगा? अपनी आवश्यकताओं की माँग से घबड़ाकर आत्महत्या करने को तत्पर साहित्यिक बढ़ते रहने का संदेश क्या देगा? यही नहीं…रचनाओं के प्रकाशन के लिए संपादकों और प्रकाशकों के सामने गिड़गिड़ाने वाला कलाकार कला के महत्त्व को क्या समझा सकेगा?
मदन–(व्याकुल होकर) बस करो, बस करो मोहन। मैं अधिक नहीं सुन सकता।
मोहन–क्यों नहीं सुन सकते! (भाव बदल कर) क्या इसलिए कि जो मैं कह रहा हूँ वह मीठा नहीं। पर वह सच है, यह तुम्हें मानना होगा।
मदन–(धीमे स्वर में) परिणाम देखकर हमेशा कारण का अनुमान नहीं लगाया जा सकता मोहन! जो तुम देखते हो वह सच है, पर जिसका तुम अनुमान कर रहे हो वह भी सच होगा, यह मैं नहीं मानता।
मोहन–जरा सी सावधानी से काम लिया जाए तो फल के आधार पर किया अनुमान गलती नहीं हो सकता! (बात बदलते हुए) मेरा तो इतना कहना है कि मरने के लिए जीना और जीने के लिए मरना सीखो! आन से जियो, शान से मरो!
मदन–(उसी मुद्रा में) पर मोहन, एक लाश को देखकर तुम यह अनुमान नहीं कर सकते कि ज़हर उसने स्वयं लिया है या उसे धोखे में दिया गया है। (साँस लेकर) अनुमान कभी-कभी भटका देते हैं। (रुक कर) छोड़ो इसे, मैं अब बहस नहीं करना चाहता।
मोहन–(टालते हुए) जरूर छोड़ो इसे। मैं भी कहाँ उलझ गया। आया था कुछ और मूड में और तुम मुझे न जाने कहाँ ले उड़े। (हँस कर) मदन बुरा न मानना, जो कभी सीरियस नहीं होता, उसका सीरियसनेस जरा अनोखा होता है। [टेबुल झाड़ कर उस पर बैठते हुए] खत्म करो इस पचड़े को। (मच्छर मारते हुए) यार, बड़े मच्छर पाल रखे हैं। क्या इस एकांत में इन्हें ही रचनाएँ सुनाया करते हो?
मदन–(मुग्ध भाव से) मोहन लेखक तो सहानुभूति चाहता है, फिर कहीं से भी मिले, उसे इससे कोई तात्पर्य नहीं।
मोहन–(टेबुल से उछल कर) वाह मेरे लेखक! (मुँह से गुनगुनाकर) जब इस स्वर में गाता हुआ मच्छर दल तुम्हारे समीप आता होगा तो तुम्हें बगीचे में…नहीं जी उद्यान में गुनगुनाते… ते…भ्र…भ्रमर का आभास मिलता होगा। है न?
मदन–(कुछ गंभीर होकर) जब मानव को चेतना में भी मुझे जड़ के दर्शन होते हैं तब मच्छर में भ्रमर हो सकता है–दोनों चेतन तो हैं!
मोहन–अच्छा भैया, बस करो। यह बताओ, कहीं चलने का इरादा है या नहीं। एक शानदार पिक्चर आई है! नाम बताऊँ?
मदन–नहीं मैं सिनेमा नहीं जाऊँगा!
मोहन–अमाँ, लौटकर लिख डालना!
मदन–सिनेमा देखकर मुझे दुख होता है, क्योंकि…
मोहन–(बीच में) क्योंकि सिनेमा के अभिनेताओं से आपको द्वेष है। सोचते होंगे, वे एक बार रोकर हमेशा रोते दिखाई देते हैं, यहाँ तुम हमेशा रोते हो पर देखने वाला कोई नहीं। यही न? (रुककर–बदले स्वर में) मदन, देखो, यह हमेशा का लेखक बना रहना मुझे पसंद नहीं। कभी-कभी तो आदमी बन जाया करो! (मदन को मौन रखकर) कौन उलझे तुमसे! यह बताओ, भाभी कहाँ हैं?
मदन–अंदर हैं। लाल मचल गया था, उसे समझा रही होगी।
मोहन–क्या बात हो गई! जब आता हूँ तभी पता लगता है कि बच्चे को रुलाया जा रहा है! धमकाया होगा और क़सूर बच्चे पर, कि मचल गया है। (गंभीर होकर) तुम केवल कहानियों में पिता का चित्रण कर सकते हो, पर जब जीवन के वास्तविक रूप का प्रश्न आता है तो पिता का कर्तव्य भूल जाते हो।
मदन–यह बात नहीं। कर्तव्य की पूर्णता के लिए अधिकार और साधन भी तो चाहिए। जब मैं केवल लेखक बनकर बैठता हूँ तो मेरे पास वह सब कुछ होता है जो एक कहानी का पिता चाहता है। पर जब मैं एक पिता का हृदय लेकर जीवन के द्वार पर बैठता हूँ तो मेरे पास कुछ नहीं होता। (रुककर–करुण स्वर में) ममता होती है जो असमर्थता पर रोती है, स्नेह होता है जो विवशता पर सिर पटकता है–बस और कुछ नहीं।
मोहन–हमेशा बहकी-बहकी बातें करते हो। (मुद्रा बदल कर) जीवन में लड़ना सीख लो, सब आसान हो जाएगा। और (रुककर) भाभी को समझा लिया करो, सब ठीक चलता रहेगा।
मदन–मोहन! नासमझ को समझाना सरल है, पर समझदार को नासमझ बनाकर नहीं समझाया जा सकता। और फिर एक स्त्री को…? एक ऐसी स्त्री को जिसकी इच्छाओं पर, भावनाओं पर वेदना की पर्त जम गई हो! (भरे गले से) मोहन, मैं उसे कभी सुख न दे पाया!
मोहन–(गंभीर स्वर में) सुख? तुम लेखक होकर भी शायद सुख की परिभाषा नहीं जानते। (रुककर) खैर, अब मैं भाभी से ही बातें करूँगा। [ज़ोर से पुकारते हुए] भाभी, ओ भाभी! अरे भई, कहाँ हो! क्या आरती का समय होते ही मंदिर में मूर्ति बन कर बैठ गईं। (मच्छर मारते हुए) और यह देखिए श्री भनभन जी भक्त जुटने लगे।
[करुणा सिर पर की धोती सम्हालती हुई अंदर के द्वार से प्रवेश करती है]
करुणा–नमस्ते लाला जी! अंदर लाल को खाना खिला रही थी। (मदन को एक क्षण देख कर) कई दिन पर आप आज आए। (सोचकर) सोमवार को आए थे न और आज…
मोहन–(बीच में) शुक्रवार है। ठीक है। पर करूँ क्या आकर? आप काम में लगी रहती हैं और इन जनाब को अपनी कलम से फुर्सत नहीं? (व्यंग्य के भाव से) भाभी, सच कहता हूँ, जब ये मेरे सामने लिखने लगते हैं, तब उस कलम की नोंक मेरे दिल में गड़ने लगती है।
मदन–(मुग्ध भाव से) वह लेखक ही क्या जिसकी कलम दिल में न गड़े!
मोहन–(बनावटी क्रोध से) फिर वही लेखकपन!
मदन–नहीं जी। (हँस कर कलम उठाते हुए) अब कलम पुरानी हो गई है, कम गड़ेगी। देखो न, घिसते-घिसते यह रेड इंक निब एक छोटी-सी स्क्रू डाइवर बन गई है। (हास्य)
मोहन–(ताली बजा कर) भई वाह! यह कही कुछ बात! क्या उड़ान है। ऐसी चीजें हमें पसंद हैं। वह कागजों पर रोना जिसे देख कर पढ़ने वाले हँस पड़ें, हमें पसंद नहीं।
मदन–जिस रोने को देखकर देखने वाला रो न पड़े, वह रोना नहीं मोहन, लेखक की कला की असफलता है, उसकी कला का रुदन है।
मोहन–(टालते हुए) होगा। (करुणा को मौन खड़ी देखकर–पास पड़ी शेरवानी उठाते हुए) हाँ भाभी, आज यह हमउम्र शेरवानी यहाँ कैसे पड़ी है। (मदन से) क्यों, अपनी शादी में सिलवाई थी न?
मदन–(मोहन का रुख देख कर) है तो शादी की ही? पर सिलवाई किसने थी, यह न पूछो!
करुणा–(हँसकर) क्यों, ससुराल वालों का नाम लेने में इतनी झेंप क्यों आ रही है!
मोहन–(हँसकर) ओ! तो यह बात है। वाह गुरू, तभी टाल गए। (करुणा की हँसी देखकर, बात बदलते हुए) भाभी, यह बताइए–क्या आप हमेशा इसी तरह खुश रहती हैं।
करुणा–(कुछ गंभीर हो कर) कोशिश तो यही करती हूँ। पर इनकी आज्ञा है, न जोर से हँस सकती हूँ न बात कर सकती हूँ। (कुछ व्यंग के भाव से) इनका मूड बिगड़ जाता है।
मोहन–अच्छा जी! मैं देखूँगा आपका मूड। कल से सिर पर ढोल पीटूँगा।
मदन–(हँसकर) तो मैं कलम दावात हाथ में लेकर नाचने लगूँगा।
मोहन–तब तो मजा आ जाएगा। और भाभी, आपको तो ज्यादा खुशी होगी। क्योंकि आजकल की हर पत्नी अपने सामने अपने पति को नाचता देखना चाहती है!
[तीनों हँसते हैं! अंदर के दरवाजे से कमीज़ में मुँह पोंछता लाल प्रवेश करता है]
लाल–चाचा जी, नमस्ते!
मोहन–(लाल की ओर बढ़ते हुए) अरे बेटे, तुम कहाँ थे!
लाल–खाना खा रहा था।
मोहन–खाना! (सोचते हुए) अरे भाभी! यह तो मैं भूला ही जा रहा हूँ, अच्छी याद आई! उन्होंने आज, अभी तुम दोनों को घर बुलाया है खाना खाने!
करुणा–क्यों आज क्या है?
मोहन–आज शायद उनके पिता का जन्मदिन है!…याने हमारे ससुर जी आज पूरे पचास के हो गए!
करुणा–हफ्ते में चार-पाँच दिन आपके यहाँ कुछ-न कुछ होता ही रहता है, और विमला बहन हमें खाना खाने बुलाती ही रहती हैं! (विचारमग्न होकर आत्मग्लानि के स्वर में) मैं समझती हूँ…!
मोहन–आप कुछ नहीं समझतीं! मैं कहता हूँ–जो आप समझती हैं ग़लत समझती हैं (हाथ की शेरवानी रखते हुए) देर हो रही है! मुझे बाज़ार होकर घर जल्दी पहुँचना है, वर्ना आपकी वह विमला बहन कुछ घंटों की दलेल दे देंगी। (मौन वातावरण देखकर) अच्छा मैं चला, हाँ, और लाल को मैं साथ लिए जाता हूँ, आप लोग आ जाइएगा। (लाल से) बेटे, चलो हम चलें।
लाल–चाची के पास चलेंगे?
मदन–मोहन, क्यों हमेशा की ये झझटें मोल लिया करते हो। तुम…
मोहन–(बीच में बनावटी क्रोध से) मैं बेवकूफ हूँ। झँझटें मोल लिया करता हूँ। आप मेरे दुश्मन हैं, मैंने आपको खाना खाने बुलाया है। मैं बेवकूफ नहीं तो और क्या हूँ?
मदन–(करुण स्वर में) अरे, अरे! यह क्या मोहन! क्या-क्या बके जा रहे हो!
मोहन–ठीक ही तो कह रहा हूँ। मेरा आप पर क्या अधिकार! (करुणा की ओर देखकर हँसी रोकते हुए) जब आपको बुलाना मेरे लिए झंझटें मोल लेना है तो फिर बस…
मदन–(घबराकर) मैं तो यों ही…याने कि…
मोहन–याने कि आप मेरी परीक्षा ले रहे थे। (हँसकर) यह बात और है कि ज्यादा नहीं पढ़ सके, पर अपने राम कभी फेल नहीं हुए। खैर अब हम चल दिए। बेटे चलो, झट से जूते तो पहन आओ।
लाल–वे तो बाबूजी के हैं, बहुत बड़े होते हैं।
मोहन–अच्छा यों ही भाग आओ! मेरी साइकिल पर तो चलना है। अच्छा भाभी, अब अपने राम चल दिए (दरवाजे की ओर घूमता हुआ) अब हम उत्तर की राह न देखेंगे, घर पर आपकी राह देखेंगे!
[लाल की उँगली पकड़कर दूसरे दरवाजे से मोहन का प्रस्थान]
करुणा–(सोचते हुए) गरीबी से अधिक मुझे अहसानों का बोझ खलता है–और तुम…
मदन–हाँ, और मैं गरीबी के बोझ से लदे जीवन पर अहसानों को लदाता जाता हूँ।…यही न? (रुककर) करुणा, आज भी तुम मेरा और मोहन का संबंध नहीं समझी। वह इसे कर्तव्य समझता है और मित्रता मेरे मुँह पर पट्टी बाँध देती है।
करुणा–पर मुँह पर बँधी पट्टी से इज्जत तो नहीं ढँकी जा सकती!…(सोच कर) आप किसी तरह टाल तो सकते थे।
मदन–वह मुझे समझता है–मेरी परिस्थिति उससे छिपी नहीं–फिर तुम ही बताओ उससे किस तरह जीतूँ। मैं झूठ, उससे कभी नहीं बोलता, यह भी तुम जानती हो। (दबे स्वर में) तुम हँसी में कह सकती थीं।
करुणा–कई बार तो कोशिश कर चुकी, पर हँसी की बात वे हँसी में टाल देते हैं।
मदन–और तुम जानती हो, मोहन की बात मुझसे टाली भी तो नहीं जाती। (भावुक हो कर) करुणा, वह मेरी कला का आदर्श है। न जाने क्यों मेरा यथार्थ उसके आवरण में किसी अपमान का, किसी आभार का आभास नहीं पाता।
करुणा–वे नहीं तो उनके घर के लोग तो कुछ सोचते ही होंगे!
मदन–इसकी चिंता मुझसे अधिक मोहन को होगी! (दृढ़ स्वर में) फिर भी यह विश्वास रखो, मुझ में आत्माभिमान अभी जीवित है, और जिस दिन वह मरेगा मैं भी समाप्त हो जाऊँगा (शेरवानी देख कर) यह तो ठोक हो गई न! कल दोपहर की गाड़ी से जाना ही है।
करुणा–किराए का प्रबंध कर लिया है आपने?
मदन–वह कल सबेरे हो जाएगा। इस लेख के देने पर पुराना पैसा मिल जाएगा।
करुणा–पर उन रुपयों को घर के काम में लगाते तो अच्छा था। कुछ दिन के लिए बनिये का मुँह तो बंद हो जाता।
मदन–फिर जा कैसे पाऊँगा। लोगों ने बड़े सम्मान से बुलाया है। और फिर वहाँ सभी बड़े-बड़े साहित्यिक आएँगे।। इस बहाने उनसे भी मिल लूँगा!
करुणा–उस सम्मान और साहित्यिकों के दर्शन से घर नहीं चल सकता (सोचकर) कई बार आप धोखा खा चुके हैं। किराया तक तो कोई देता नहीं और आप हैं कि इन बातों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते।
मदन–(शब्दों को घसीटते हुए) ध्यान क्यों नहीं देता पर…
करुणा–(कुछ क्रुद्ध होकर) पर आपको उस सम्मान का ध्यान है, साहित्यिकों के दर्शन का ध्यान है। (करुण होकर) लाल के पास एक भी अच्छा पैंट नहीं, कमीजें आपकी काट कर बनाई हैं, इसका आपको ध्यान नहीं। मुझे अपनी बात नहीं कहनी है, पर लाल की यह हालत मुझसे देखी नहीं जाती!
मदन–(करुण स्वर में) जानता हूँ! उसके फटे कपड़े मेरा दिल फाड़ते हैं, उसकी भोली इच्छाएँ मेरे अधिकार को, मेरे कर्तव्य को धिक्कारती हैं, पर क्या करूँ! अपनी विवशता को लेखनी के सहयोग में भूलने का ध्यान कर (आत्मग्लानि से भरे स्वर में) अपने आपको धोखा देने लगता हूँ।
करुणा–(विचारते हुए) पर अपने आप को धोखा देने से न उसका दुख दूर होगा, न मुझे तृप्ति होगी और न आपका कर्तव्य पूरा होगा। (रुककर) उस दिन मोहन भैया कह रहे थे कि आपको उनके ऑफिस में नौकरी मिल सकती है।
मदन–मैं भी जानता हूँ, पर मनुष्य एक साथ दो का दास नहीं हो सकता है।
करुणा–आप ही ने तो एक कहानी में लिखा था कि आज के हिंदुस्तान में एक लेखक केवल लेखक बनकर अपना जीवन नहीं बिता सकता।
मदन–वहाँ मैंने एक असंतोषी लेखक के मनोविज्ञान को लिया था। मुझे संतोष है।
करुणा–पर आपका संतोष लाल की इच्छाओं का संतोष नहीं हो सकता। आपकी भावुकता उसकी अबोली अभिलाषाएँ नहीं पूरा कर सकती। आपकी कल्पना, उसका, मेरा, आपका पेट नहीं भर सकती!
मदन–(व्याकुल होकर), बस करुणा, बस! बहुत कह चुकी, अब कुछ न कहो! (भावुक होकर) यदि तुमने अपनी मादक छाँह में मुझे संतोष दिया तो तुम देखोगी कि जगत मेरी ओर दौड़ेगा, और जगत अकेला…यानी खाली हाथ…नहीं दौड़ता।
करुणा–आपने एक बार कहा था कि मनुष्य प्रतीक्षा कर सकता है, उसकी इच्छाएँ नहीं।
मदन–और यह भी कहता हूँ कि जब इच्छाएँ प्रतीक्षा करने लगती हैं तो पुरुष, महापुरुष बन जाता है…बस अब मुझे अकेला छोड़ दो! विश्वास रखो, यह संध्या की छाया बहुत देर नहीं रहेगी। चाँद निकलेगा (रुककर) उसे निकलना होगा। (बिखरे कागज समेटता हुआ) चलो मैं आँगन में ही बैठ कर इसे पूरा करूँगा। फिर मोहन के घर तो चलना ही होगा।
करुणा–मैं दरी बिछाती हूँ, आप अपने कागज ले आइए। [प्रस्थान]
मदन–(कागज समेटते हुए अपनी धुन में) जब संसार की उपेक्षा के भार से भरी मेरी तरी निराशा में डूबने लगे, तब पुलक स्पर्श के प्रतनु से उसे संभाल लेना।…
[धीरे-धीरे रंगमंच का प्रकाश कम होता जाता है और यवनिका नीचे आती जाती है]