श्री शरत् चंद्र

श्री शरत् चंद्र

बंगला के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री शरत् चंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी पर यह नाटक आधारित है। बंगला से प्राप्त सामग्रियों का ही इसमें उपयोग किया गया है, कल्पना द्वारा उन बिखरे सूत्रों को जोड़ने का ही काम लिया गया है।
शरत् चंद्र के जीवन के प्रथम अंश को चित्रित करने वाले इस प्रथम अंक में शरत् की उस मानसिक स्थिति का चित्रण है जब वह आत्म प्रकाश की दिशा ढूँढ़ रहे थे। बहुमुखी प्रतिभा हर तरफ जोर आजमा कर अपना रास्ता बना रही थी। संगीत में शामिल होने वाले तीनों साज उनकी तीन प्रमुख प्रवृत्तियों के द्योतक हैं जो एक दूसरे से होड़-सी मचाए रहते हैं। उनके जीवन की ये तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ थीं–संगीत, चित्रकला और साहित्य! –संपादक

पहला अंक

[कमरे का दृश्य है और रात का समय।
मंच के बीचोबीच बाँस की एक टेबुल के चारों ओर कुछ कुर्सियाँ पड़ी हैं। टेबुल पर कई कॉपियाँ रखी हैं और पास की ही एक कुर्सी पर कई तैल चित्र! टेबुल पर लालटेन जल रही है और फर्श पर सिगरेट का छोटा टुकड़ा। मंच के एक कोने में छोटा-सा रैक है जिस पर कई किताबें पड़ी हैं, कुछ बेतरतीब, कुछ करीने से। पर्दा उठते समय मंच बिल्कुल खाली है और नेपथ्य से बागीश्वरी का आलाप बहुत धीमे-धीमे बज रहा है।]

नेपथ्य से एक आवाज–ओ शरत् बाबू! शरत् बाबू!! ओ शरत् बाबू!!!

नेपथ्य से दूसरी आवाज–कौन? (आवाज कुछ नजदीक आ जाती है) आता हूँ।

[मंच के एक ओर से श्री शरत् चंद्र चट्टोपाध्याय प्रवेश करते हैं और दूसरी ओर निकल जाते हैं। उम्र करीब 30 होगी। चेहरे पर असमय ही अनेक रेखाएँ, बाल कुछ बढ़े हुए और बेतरतीब-से, मूछ-दाढ़ी सफाचट, दुबला-पतला शरीर और धोती तथा बंगालीनुमा गंजी में लिपटे हुए! आँखें कुछ जलती-सी, परेशान! दो ही एक क्षण में एक दूसरे आदमी के साथ प्रवेश करते हैं जिसके चेहरे-मोहरे में कोई खास बात नहीं, साधारण बंगाली युवक है।]

शरत् चंद्र–वाह रे चटर्जी! किधर आए आज?

चटर्जी–कपड़े पहनो, जरा घूम आवें। आठ ही तो बजा है।

शरत्–कहाँ से?

चटर्जी–क्यों नादान बनते हो?

शरत्–तो शुरू हो गया है? क्यों? बैठो तो!

[दोनों कुर्सियों पर बैठते हैं। शरत् गंजी की जेब से सिगरेट निकाल कर चटर्जी को देते हैं और खुद लेते हैं। फिर बारी-बारी से दोनों जने सुलगाते हैं।]

चटर्जी–(एक कश खींच कर) यार कसम तो खाई थी लेकिन ऐसी तो सौ बार तौबा की है! (हँस देता है)

शरत्–होता ही है यह सब! इसमें पश्चाताप की क्या बात है।

चटर्जी–तो फिर उठो। तुम्हारे बिना रंग नहीं आता!

शरत्–ना भाई, मुझे छोड़ दो। मैंने तो नियम बना लिया है।

चटर्जी–क्या तुम भी आदमी हो! अरे यार उसे इसी बहाने मरना था।

शरत्–मरना था तो मर गया। उसमें कोई बात नहीं है। लेकिन तुम्हीं जरा सोचो, उतनी रात को हम लोगों का उस तरह उसे उठाना, उसके घर बैठ कर पीना और उसकी पत्नी की नजर बचा कर तुम्हारा उसको पिलाना, फिर उसकी मौत! कुछ ऐसा असर है मेरे दिमाग पर कि वह कभी भूलता ही नहीं।

चटर्जी–हाँ, हाँ, मैं जानता हूँ कि तुम बहुत…

शरत्–मजाक की बात नहीं। ईमानदारी से कहता हूँ। मुझे कुछ मजा नहीं आएगा। तुम्हारा मजा भी किरकिरा हो जाएगा!

चटर्जी–यार समझ लिया कि तुम कैसे पीने वाले थे। खैर चलो तो साथ!

शरत्–क्या फायदा? बहुत साथी मिल जाएँगे।

[चटर्जी उठकर हताश भाव से चला जाता है। शरत् उसकी ओर देखते भी नहीं। कुछ क्षण दर्शकों की ओर शून्य में देखते रहने के बाद सर पीछे और पैर आगे फेंक कर आँखें बंद किए पड़े रहते हैं कुर्सी पर। सिगरेट उँगलियों के बीच जलती रहती है! नेपथ्य से बागीश्वरी के आलाप में धीरे-धीरे दूसरा साज शामिल हो जाता है। अगर पहले ठोकरवाला तार का साज जैसे सितार या सरोद बज रहा हो, तो दूसरा साज फूँकवाला जैसे शहनाई या बाँसुरी होना चाहिए। कुछ क्षण तक बारी-बारी से दोनों साज बजते रहते हैं। फिर धीरे-धीरे तीसरा साज जैसे सारंगी या वायलिन भी उस संगीत में शामिल हो जाता है। कुछ क्षणों तक बारी-बारी से बजने के बाद तीनों एक साथ बजने लगते हैं और एक-ब-एक शरत् की तंद्रा टूटती है। जल्दी से हाथ की सिगरेट फर्श पर फेंक कर उँगली देखते हैं जो कुछ जल गई है। धीरे-धीरे उसे लालटेन पर सेंकते हैं और तंद्रिल-से होने लगते हैं कि लालटेन से उँगली छू जाती है और झटकें-से उँगली खींच कर मानो वह तंद्रा से दूर भागना चाहते हैं। दूसरे ही क्षण वह कुर्सी पर सम्हल कर बैठ जाते हैं और नौकर को आवाज देते हैं–एक कप चाय! फिर अपने विचारों में खोने की तैयारी में होते हैं कि नेपथ्य से आवाज आती है–शरत् दा! शरत् दा!!]

शरत् चंद्र–(बैठे ही बैठे) कौन, रथिन? चले आओ।

[25-26 वर्ष का एक वाचाल बंगाली युवक प्रवेश करता है। आते ही जैसे वह फट पड़ता है।]

रथिन–आहा-हा। आज आपने बंटाधार कर दिया दादा! कलकत्ते से कुछ लोग आए हुए हैं। पूरे रंगून शहर में उन लोगों के मुकाबले शतरंज या बीलियर्ड्स खेलने वाला कोई नहीं निकला। आप रहते तो हम लोगों की नाक रह जाती।

शरत् चंद्र–अच्छा! पहले बैठो तो! (रथिन कुर्सी पर बैठता है) चाय पीयोगे?

रथिन–नहीं, अभी तुरंत क्लब से पीकर आ रहा हूँ। हीरेन तो आपको गालियाँ दे रहा था कि खाली हमीं लोगों को हराने के लिए आप हैं, बाहर से कोई आता है तो गायब हो जाते हैं।

शरत् चंद्र–(ठठा कर हँसते हुए) हीरेन भी अजीब आदमी है।

रथिन–नहीं दादा। आपका धंधा सचमुच अजीब है। कभी मौके पर आपने हम लोगों की मदद की है? कभी कोई इंतजाम हम लोगों ने किया कि आपने दगा दिया!

शरत् चंद्र–लेकिन मैं आदमी उतना बुरा नहीं हूँ जितना कि तुम कह रहे हो।

रथिन–(झेंप कर) बुरा कौन कहता है दादा। यही जरा सनकी-से हो जाया करते हैं आप! इस तरह छिप-छिप कर रहने से क्या हो जाता है भला! हीरेन तो सीधा आदमी है–जो सोचता है बक देता है। लेकिन किस-किस का मुँह पकड़ा जा सकता है। लोग आपके बारे में तरह-तरह की बातें किया करते हैं।

शरत् चंद्र–(हँसकर) तो क्या करोगे? कहने दो! मैं जानता हूँ कि बात तुम्हें लगी है। लगनी चाहिए। उससे तो मुझे खुशी होती है। इतना तो पता चल गया कि तुम मेरे अपने हो। लेकिन मैं भी क्या करूँ? मेरी तरह जिसने गरीबी में ही अपने को अब तक पीसा उसकी जिंदगी में क्या रह सकता है?

रथिन–दादा, आपको मेरी बातों से दुख हुआ है, क्षमा कीजिए!

शरत् चंद्र–पगले! तुम मेरे छोटे भाई हो। तुम्हारी बात से दुख नहीं होता। हर किसी से इस तरह मैं बात करता हूँ?

[नौकर चाय दे जाता है। एक हाथ में चाय का प्याला लेकर जेब में सिगरेट का डब्बा टटोलते हैं। फिर टेबुल पर चाय का प्याला रख कर सिगरेट निकालते और सुलगाते हैं। एक कश खींच कर रथिन की ओर चित्र बढ़ा देते हैं! चाय का प्याला हाथ में लेते हुए–]

शरत् चंद्र–अच्छा, यह देखो तो। तस्वीरें तुम्हें पसंद हैं?

रथिन–(एक-एक तस्वीर को निर्वाक देखता है और अंत में हतबुद्धि-सा पूछ देता है) आपको तस्वीर जमा करने का भी शौक है?

[शरत् चंद्र अपने विचारों में खो जाते हैं। रथिन शरत् चंद्र और तस्वीरों को बारी-बारी से देखता है।]

रथिन–आपके जीवन की तरह इसकी भी कोई कहानी है क्या दादा?

शरत् चंद्र–(चौंक कर) तस्वीरें पसंद आईं?

रथिन–फर्स्ट क्लास! काफी पैसे खर्च हुए होंगे?

शरत् चंद्र–ये मेरी बनाई हुई हैं!

रथिन–(आश्चर्य और पुलक से भर कर) विद्या कसम?

शरत् चंद्र–(जरा मुस्कुराकर) हाँ!

रथिन–तो फिर नौकरी और दुकान के चक्कर में क्यों फँसे हैं? हे भगवान! हम लोगों से कहते, दुकान के बदले स्टूडियो खोलते और…

शरत् चंद्र–किंतु मैं ही जो इन तस्वीरों से संतुष्ट नहीं हूँ! मेरे दिल पर जो बोझ है उसे हल्का नहीं कर पा रहा हूँ। मैंने जो कुछ देखा और समझा है उसे दुनिया को वापस दे जाना चाहता हूँ, लेकिन वह हो नहीं पाता!

रथिन–आज तो आपकी कोई बात मेरे दिमाग में नहीं घुसती है दादा। लगता है कि हमारे चिरपरिचित शरत् दा के भीतर कोई दूसरा आदमी छिपा बैठा था जिसे हमलोग आज तक नहीं जान पाए थे। आज मानो अचानक उससे भेंट हो गई!

नौकर–(प्रवेश कर) बाबू, एक साधू आया था और वह आपसे मिलना चाहता था!

शरत् चंद्र–भीख दे दिया है न!

नौकर–उसे शायद कुछ खास बात करनी थी!

शरत्–किसी को मुझसे कोई खास बात नहीं करनी रहती है! खास बात तो सिर्फ एक आदमी करता था। भगवान जानें इस समय कहाँ होगा!

रथिन–कौन दादा?

शरत्–तुम उसको नहीं पहचानते हो। भागलपुर का राजेंद्रनाथ मुखोपाध्याय! मेरे जीवन में जिन दो-तीन व्यक्तियों ने युगांतर उपस्थित किया है उनमें सर्वप्रथम और सबसे अधिक प्रभावशाली! (फिर शून्य की ओर देखने लगते हैं।)

रथिन–उनका क्या हुआ?

शरत्–वही जो अत्यधिक प्रतिभावान व्यक्ति का होता है–Trajedy

रथिन–मर गए?

शरत्–नहीं, मौत भी कोई ट्रेजेडी है? वह तो एक तरह की समाप्ति है। ट्रेजेडी तो है निरुपाय, निराश्रित हो जाना–बेपनाह रह जाना! एक दिन वह निरुद्देश्य घर से निकल गए। कोई पता नहीं चला!

रथिन–दादा, कभी-कभी आप उलझे-उलझे-से हो जाते हैं। आखिर बात क्या है? (जरा सकुचाते हुए) अशिष्टता माफ कीजिए तो कोई प्रेम-व्रेम…

शरत्–(हँसकर) उतनी छोटी-सी बीमारी होती, तो उसका इलाज भी क्या कठिन था? पगले, बीमारी बहुत सख्त है और इलाज का कहीं पता नहीं! जिस दिन बीमारी का पता चल जाएगा उस दिन तो फिर भला चंगा ही नहीं हो जाऊँगा? अच्छा अपने दादा के कारण चिंतित होने की जरूरत नहीं है तुम्हें। समझे। तुम्हारी उम्र में चिंता करने को बहुत सारी बातें हैं।

रथिन–(बात को एकदम नहीं समझने के कारण ऊबते हुए) अच्छा तो इस समय आज्ञा दीजिए दादा। लेकिन कल जरूर क्लब आ जाइएगा!

शरत् चंद्र–कल की बात देखी जाएगी!

रथिन–(नमस्कार कर जाते-जाते) नहीं, वह नहीं चलेगा! कल जरूर आना होगा। (प्रस्थान)

[रथिन के जाते ही शरत् चंद्र उद्विग्न हो जाते हैं। पीठ पीछे हाथ बाँध कर दो-एक बार टहलने के पश्चात कुर्सी पर धम से बैठ जाते हैं। आँखें बंद किए हुए संगीत के लय पर पैर हिलाते रहते हैं। संगीत आलाप के दौर से निकल कर गत में पहुँच चुका है जिसमें कभी-कभी सपाटे के पेंचदार तान भी लग जाते हैं। तीनों ही साज अभी बज रहे हैं और कभी-कभी एक का स्वर प्रमुख हो जाता है। नौकर तंबाकू लाता है और वह आँख बंद किए ही तंबाकू का कश खींचते जाते हैं। सहसा उनकी तंद्रा टूटती है। नौकर को आवाज देते हैं।]

शरत् चंद्र–क्या समय हुआ है, देखो तो घड़ी में?

नौकर–साढ़े नौ!

शरत् चंद्र–(स्वगत) बेकार है जाना। (नौकर को पुकारते हुए) सुनो, मेरे कमरे में उस मुसलमान औरत के लिए सब सामान ठीक कर दो।

नौकर–केले के पत्ते और मिट्टी के ग्लास का भी इंतजाम करना होगा न?

शरत् चंद्र–हाँ, जैसा हमेशा करते हो!

नौकर–यह कौन औरत है मालिक? इसे और कहीं नहीं देखता हूँ।

शरत् चंद्र–मैं खुद नहीं जानता! (कुछ क्षण रुक कर) तुम्हें संदेह होता है क्या?

नौकर–(गिड़गिड़ाते हुए) सरकार, आपकी तरह के साधु पर शक करके मैं नरक जाऊँगा?

शरत् चंद्र–दुनिया तो करती है मित्र, तुम भी करोगे तो मैं बुरा थोड़े ही मानूँगा! मैं सिर्फ जानना चाहता हूँ कि तुमलोग क्या सोचते हो मेरे बारे में!

नौकर–(दाँत निपोड़ते हुए) कहते हुए बड़ा संकोच होता है सरकार।

शरत् चंद्र–नहीं, मैं बुरा नहीं मानूँगा। तुम बेखटके कहो।

नौकर–(उसी तरह दाँत निपोड़ता हुआ) मुझे तो लगता है कि कोई महात्मा संन्यासी आदमी का रूप रखकर…
शरत् चंद्र–(परिहास करते हुए) कुँआरे ही संन्यासी मत बनाओ!

नौकर–(अप्रतिभ होकर) मैंने तो कहा था कि आप बुरा मान जाएँगे। मैं हूँ तो मूरख बाबूजी, लेकिन आदमी पहचानता हूँ। भला उतने शराब के बाद भी जिसका होश-हवाश ठीक रहे वह मामूली आदमी हो सकता है? मैं नहीं समझता हूँ? मैं सब समझता हूँ, सब!

[धीरे-धीरे कुछ बुदबुदाता हुआ वह चला जाता है।]

शरत् चंद्र–कितना भोला है!

[शरत् चंद्र आकर फिर पांडुलिपियों और तस्वीरों की दुनिया में खो जाते हैं। एक-एक कर सभी तस्वीरें देख जाते हैं, फिर पांडुलिपियों की कॉपियाँ उलटने लगते हैं। बीच-बीच में दरवाजे की ओर भी देख लेते हैं। शायद किसी की प्रतीक्षा है। लेकिन धीरे-धीरे वह इतने तन्मय हो जाते हैं कि बुत बने बैठे रहते हैं। नेपथ्य का संगीत उभर आता है। बारी-बारी से तीनों साज बजते रहते हैं। नेपथ्य से किसी की आवाज आती है पर उनकी तंद्रा नहीं टूटती। नौकर एक ओर से आकर दूसरी ओर निकल जाता है और कुछ ही क्षणों बाद एक युवक के साथ प्रवेश करता है। युवक के चेहरे से पता चलता है कि वह लंबी यात्रा कर आ रहा है। नौकर के हाथ में उसका सामान है। युवक सीधा आता है और पैर छू कर प्रणाम करता है, शरत् चंद्र की तंद्रा टूटती है।]

शरत् चंद्र–आओ प्रमथ, बैठो। भाई तार तो तुम्हारा मिल गया था पर कुछ ऐसा उलझा-उलझा रहा कि गाड़ी के समय ही बात याद पड़ी। तुम्हें मकान ढूँढ़ने में कठिनाई तो नहीं हुई?

प्रमथ–जी नहीं।

शरत् चंद्र–अच्छा यह बताओ कि पहले चाय पीओगे या कपड़े-लत्ते बदलोगे?

[प्रमथ सकुचाता हुआ चुप रहता है]

शरत् चंद्र–(मीठी झिड़की देते हुए) यह क्या? अरे बोलो न! इसमें शरमाने की क्या बात है।

प्रमथ–चाय तो जरूर पीऊँगा!

शरत् चंद्र–Thats a good boy (पुकारकर) एक कप चाय दे जाना!

प्रमथ–आपका बर्मा-प्रवास किस तरह चल रहा है?

शरत् चंद्र–(मुस्काते हुए) किस दृष्टि से? आर्थिक, शारीरिक या मानसिक?

प्रमथ–(मुस्काकर ही उत्तर देता है) पहले मानसिक, फिर शारीरिक और अंत में आर्थिक!

शरत् चंद्र–अच्छा, तो संक्षिप्त समाचार सुन लो! तीन वर्ष पहले Heart trouble ने गला पकड़ा। पेट की गड़बड़ी तो पहले से चली आती थी। इन दिनों प्रकोप कम है पर पूर्णतया मुक्ति नहीं मिली है। अब तक जो कुछ लिखा था सब मकान के साथ जलकर खाक हो गया। चरित्रहीन, नारी का इतिहास वगैरह! मैं हूँ ही ऐसा निकम्मा कि उन लोगों ने मेरे साथ रहने में कोई सार्थकता नहीं समझी। Heart trouble के बाद पेंटिंग पर ध्यान दिया था। कुछ तो तुम्हारे सामने ही हैं, कुछ अग्नि देवता के चरणों पर समर्पित हो गईं। पढ़ने को बहुत कुछ पढ़ा। गरीबी के कारण कॉलेज की पढ़ाई नहीं चला सका था न, उसका अच्छी तरह बदला ले लिया–History, Psychology, Philosoply और Literature, लेकिन दिशा स्थिर नहीं कर पाया हूँ। इस समय चौराहे पर खड़ा हूँ, गाड़ी रुकी हुई है।

प्रमथ–अरे बाप रे, तो इसे ही आपने समझा है समय काटना? आपकी चिट्ठी से तो मालूम होता या कि मानो किसी जमींदार के भी कान काट रहे हो आप ऐयाशी में। यहाँ तो आपने कितना सारा काम कर डाला है। संगीत का क्या हाल है?

शरत् चंद्र–वह भी चल रहा है। बल्कि इधर उसी पर झोंक है!

[नौकर चाय की प्यालियाँ लाता है।]

शरत् चंद्र–अच्छा, मेरे लिए भी लाए हो! तो अमृत में अब तक या इतना-उतना क्या? जब मिले और जितना मिले! क्यों प्रमथ!

[दोनों मित्र चाय की प्यालियाँ सम्हाल कर सिगरेट सुलगाते हैं।]

शरत् चंद्र–तुम इस समय कलकत्ते से ही आ रहे हो न?

प्रमथ–जी मुजफ्फरपुर से कलकत्ते आया। कई दिनों तक नौकरी-नौकरी करता रहा और फिर उसी चक्कर में यहाँ चला आया!

शरत् चंद्र–महादेव साहा जी का क्या हाल है?

प्रमथ–अच्छी तरह हैं। आने के कुछ ही दिन पहले मुलाकात हुई थी। कह रहे थे कि जब से शरत् गया गाने-बजाने का अखाड़ा ही खतम हो गया?

शरत् चंद्र–हाँ, ठीक याद पड़ा! सुना कि राजू भागलपुर लौट आया है?

प्रमथ–कौन राजू? राजेंद्र मुखोपाध्याय?

शरत् चंद्र–हाँ, हाँ। तुम्हें कुछ खबर है क्या?

प्रमथ–न, मुझे तो कोई खबर नहीं। कलकत्ता में बनर्जी परिवार के लोगों से मुलाकात हुई थी। उन लोगों को मैंने कहा भी था कि आपके पास जा रहा हूँ। कोई ऐसी बात होती तो वे लोग जरूर बताते!

शरत् चंद्र–हाँ, राजू कभी नहीं लौटेगा। वह लौटने वाला आदमी ही नहीं था। जिस पथ पर चल दिया, चल दिया!

प्रमथ–आपकी चाय ठंडी हो रही है।

शरत् चंद्र–(चाय पीते हुए) कलकत्ते का क्या समाचार है?

प्रमथ–‘यमुना’ वालों ने चिट्ठी दी है! उन्हें आपने शायद कहानी भेजने का वादा किया था।

शरत् चंद्र–वादा तो जरूर किया था भाई। लेकिन अब बड़ी उलझन में फँस गया हूँ। क्या करूँ कुछ समझ नहीं पाता।

प्रमथ–शायद उन लोगों ने कई तार भी भेजे थे!

शरत् चंद्र–भेजे थे। अच्छा देखा जाएगा! तुम चलकर कपड़े-वपड़े बदल लो; अभी कुछ गाने बजाने का आयोजन है।

प्रमथ–कोई बाहर का आदमी आएगा क्या?

शरत् चंद्र–हाँ, एक वेश्या आएगी। शायद उसे कोई छूत की बीमारी है इसलिए अपना पेशा छोड़कर यहाँ रह रही है और गाना सुना कर पेट पालती है।

प्रमथ–दादा, आप इस तरह जानबूझ कर…

शरत् चंद्र–प्रमथ, ईश्वर की जो देन है उसे मैं किसी भी कीमत पर स्वीकार करने से नहीं हिचकता। उसने जो गला और जैसी तबियत पाई है कि उसे थाइसिस भी रहे, तो मैं उससे जरूर गाना सुनूँ! हाय, हाय! छोटी चीजें कहती है–गजल, ठुमरी। लेकिन संगीत की आत्मा उसमें बोल उठती है। गाकर पत्थर पिघलाने का काम ऐसे ही लोग करते रहे होंगे। अच्छा, तुम्हें वह वेश्या याद है जिसके घर हम लोग मुजफ्फरपुर में जाया करते थे! वह भी इसी जाति की गायिका थी। लेकिन जिसकी चर्चा मैं अभी कह रहा था वह उससे भी अच्छी पड़ती है। हजार नहीं लाख में एक आदमी के गले में वह बात होती है। वह जल्द ही आएगी। समय हो चला। मैं जरा साज मिला लूँ। तुम तब तक कपड़े-वपड़े बदल डालो और खाना खाओगे तो खा लो!

[शरत् चंद्र उठकर चलने को तैयार होते हैं।]

प्रमथ–साथ ही खाएँगे।

शरत् चंद्र–अच्छा। मैं नौकर को भेज देता हूँ। बाथरूम वगैरह बता देगा!

[शरत् चंद्र चले जाते हैं और प्रमथ उसी तरह बैठा हुआ विस्मय और उलझन भरी नजरों से देखता रह जाता है। दो ही एक क्षण बाद नौकर प्रेवश करता है। प्रमथ उसके साथ चलने के बदले कुर्सी पर पूर्ववत बैठा रहता है।]

प्रमथ–क्यों जी। यह गाने वाली औरत कौन है?

नौकर–(सरलता से हँसता हुआ) मैं क्या जानूँ बाबू! यहाँ आने वालों के बारे में जानना क्या मेरे बस की बात है।

प्रमथ–रोज आती है क्या?

नौकर–नहीं, हफ्ता में एक दिन, आज के ही दिन! आती है, बुरका ओढ़े हुए, उसी तरह बैठ कर अलग चटाई पर गाती है, उसी तरह सर झुकाए खाती है और चली जाती है।

प्रमथ–मुँह पर से कपड़ा नहीं हटाती है।

नौकर–उसे क्या जाने कैसी बीमारी हो गई है। इसीलिए वह चटाई पर बैठ कर गाती है और पत्ते पर खाती है। बाबू उसे रुपए दे देते हैं और चली जाती है!

प्रमथ–शरत् दा भी अजीब आदमी हैं।

नौकर–(मुस्काता हुआ) यहाँ आने-जाने वालों की खोज-खबर लेना क्या आसान बात है बाबू जी। साधू, फकीर, सँपेरा, नाचने वाला, गाने वाला, पंडित, शराबी, सभी तरह के लोग आते हैं। जाने बाबू में क्या है कि सभी को खुश रखते हैं और सभी उनसे पैसे ठग ले जाते हैं। शुरू में तो बड़ा परेशान रहता था। पर धीरे-धीरे यही समझ लिया कि बाबू जी की जिंदगी इसी तरह कटेगी। इनको बदलना आसान नहीं। अब देखिए न, तीन-चार दिन पहले एक शतरंज खेलने वाला आया था। तीन-चार घंटे तक दोनों आदमी खेलते रहे। जाने लगा तो बाबू का पैर पकड़ कर कहने लगा कि आपकी तरह का खिलाड़ी दूसरा नहीं देखा! और बाबू जी ने उसे 25 रुपए दिए। बहुत बढ़िया शतरंज खेलता था, बाबू जी को भी वैसा खिलाड़ी नहीं मिला था इसलिए 25 रुपए नगद दे दिए। हे भगवान मैं देखता रह गया। क्या बोलूँ।

प्रमथ–हाँ, वह तो ठीक ही है। इनको बदलना संभव नहीं। तुम क्या करोगे!

नौकर–करूँगा क्यों नहीं! जरूर कर सकता हूँ। नमक खाता हूँ, तो मालिक का हित जरूर देखूँगा। लेकिन जब मैं कड़ाई करने लगता हूँ तो बाबू मुझसे चुरा कर लोगों को रुपए देते हैं। यह मुझसे नहीं देखा जाता। वह अपने पैसे चुरा कर क्यों देंगे। इसलिए मैं देखकर भी नहीं देखता हूँ।

प्रमथ–लेकिन इस औरत को तो रोकना ही होगा! जाने कैसी छूत की बीमारी है। आती है, बैठती है, गाती है। दादा का स्वास्थय ऐसा है। उनको अपनी जिंदगी इस तरह…

नौकर–मैं तो हार चुका हूँ बाबू! आप आए हैं, देखिए शायद बाबू सुधर जाएँ!

शरत् चंद्र–(नेपथ्य से) अरे प्रमथ, किसी चीज की जरूरत हो, तो माँग लेना। शर्माना नहीं, साबुन वगैरह ले लेना!

नौकर–कोई महात्मा दुनिया में रहकर भी दुनिया के ऊपर जैसे रहता है, मालिक उसी तरह रहते हैं बाबू जी! जब इनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था, तो हमलोग बहुत घबरा गये थे। लेकिन इनके चेहरे पर शिकन तक नहीं!

प्रमथ–(हँसकर) बीमारी बहुत छोटी चीज है दादा के घबराने के लिए! मैं इनको बहुत पहले से जानता हूँ। दादा जिस चरित्र की उपासना करते थे, उसे तुम लोग देख पाते। दुनिया की हर ताकत उसके सामने हीन ही मालूम होती थी। चलो, मैं तैयार हो लूँ। दादा इंतजार करते होंगे।

[नौकर और प्रमथ का प्रस्थान! सहसा रथिन का अप्रत्याशित हर्षातिरेक में प्रवेश! आते ही वह जोर-जोर से चिल्लाने लगता है।]

रथिन–दादा, दादा!

शरत् चंद्र–(प्रवेश कर) क्या हुआ रथिन!

रथिन–दादा I have come to get your blessings.

शरत्–हुआ क्या! बोलो भी तो!!

रथिन–वह लोग जो कलकत्ते से आए हैं न, अभी नारी चरित की चर्चा कर रहे थे। बहस छिड़ गई। मैं कह रहा था कि मनुष्य में गुण-दोष ही सब कुछ नहीं, उसके ऊपर भी, उसके अलावा भी कुछ है जो उससे कहीं महान, कहीं प्रभावशाली है। और…(गर्व से) At last they had to surrender. आपके इस शिष्य ने आज जीवन में पहली बार विजय…

शरत्–वाह, Congratulations.

रथिन–(हतप्रभ होकर) यह क्या! आप मुबारकबाद दे रहे हैं। आपको आशीर्वाद देना चाहिए।

शरत् चंद्र–आशीर्वाद भी दूँगा। लेकिन वह अपने छोटे भाई रथिन को। अपने हमराही को तो उसकी सफलता पर मुबारकबाद ही देना होगा!

रथिन–आपके चरणों में बैठ कर हम लोगों ने जो कुछ सुना है, जो कुछ देखा है, आपकी आँखों जो देखा और समझा है वह दुनिया के लिए सर्वथा अभिनव है दादा। सहसा विश्वास करने को उसका जी नहीं चाहता लेकिन सत्य से वह भाग कर कहीं जा भी नहीं सकता! बीलियर्डस में हराकर बाबू लोग शेर बने हुए थे। अब पता चल गया कि किससे पाला पड़ा था।

शरत् चंद्र–रात काफी हो चुकी है, तुम घर जाओ और सोओ। समझे।

रथिन–लेकिन कल आपको आना ही पड़ेगा दादा। कल हम लोगों का ब्रिज है। कल उन लोगों को आँटे दाल का भाव मालूम होगा!

शरत् चंद्र–कल की बात कल देखी जाएगी रथिन। इतने उतावले न बनो। और सुनो, आज एक बात तुमसे और कह दूँ। दुनिया में जीत-हार ही सब कुछ नहीं है। उसकी अनुभूति का अपना स्वाद होता है पर खिलाड़ी के लिए उससे भी अधिक महत्त्व की चीज है खेलना, खेलते जाना, हार और जीत के बावजूद खेलते जाना!

रथिन–(भाव विभोर होकर) दादा!

शरत् चंद्र–हाँ रथिन। (सहसा जैसे चौंक कर) अच्छा, इस तरह की बातों के लिए काफी समय मिलेगा! तुम घर जाओ, मुझे कुछ और जरूरी काम हैं।

[शराब के नशे में चूर चटर्जी का प्रवेश। वह एक सस्ते गाने का धुन गुनगुना रहा है। उसके प्रवेश करते ही रथिन एक ओर हो जाता है। शरत् चंद्र एकटक उसे घूरते हैं।]

चटर्जी–उस तरह मत देखो। मैं कहता हूँ, उस तरह मुझको मत देखो!

[तलहथी में मुँह छिपाकर रोने लगता है।]

हाँ, मैंने ही उसकी पत्नी की नजर बचाकर उसे शराब पिलाई। वह सीधा-सादा बर्मी मेरे ही कारण मरा। मेरे ही कारण मरा! तो क्या इतने से ही मैं नीच हो गया? मुझे उस तरह क्यों देखते हो!

शरत् चंद्र–रथिन, एक काम करो! चटर्जी ने आज ज्यादा शराब पी ली है। इसे घर तक पहुँचा कर अपने घर जाना! क्यों, कोई असुविधा तो नहीं होगी?

रथिन–वाह, आप भी खूब कहते हैं। इसमें असुविधा की क्या बात है। चलिए जनाब! (चटर्जी का हाथ पकड़ कर ले चलना चाहता है)

चटर्जी–नहीं, मैं नहीं जाऊँगा। मैं इस तरह कभी नहीं जाऊँगा!

शरत् चंद्र–(बड़ी रोबीली आवाज में) चटर्जी, घर जाओ! इस तरह नशे में चूर इधर-उधर घूमते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? जाओ! रथिन पहुँचा देगा वरना कहीं नाले में पड़े रातभर कुत्तों से प्रेमालिंगन करते रहोगे!

चटर्जी–(रोनी-सी आवाज में) कुत्तों से प्रेमालिंगन, तुमने मुझे गाली दी है, गाली! मैं…मैं…मैं इतना गया गुजरा हूँ। तुम उस वेश्या के साथ बैठ कर जशन मनाओ और मैं कुत्तों को साथ…

शरत् चंद्र–(कड़क कर) चटर्जी! गेट आउट!! गेट आउट!!!

[घबराया हुआ रथिन एक तरफ चटर्जी को घसीटता हुआ ले जाता है। नेपथ्य की दूसरी तरफ से प्रमथ और नौकर जल्दी-जल्दी आते हैं। प्रमथ धोती और गंजी पहने हैं, बाल उजड़े हैं और हाथ में कंघी है। आकर वे देखते हैं कि सिवा शरत् चंद्र के कमरे में कोई नहीं।]

प्रमथ–कौन था दादा? क्या हुआ?

शरत् चंद्र–कुछ नहीं, एक परिचित शराब पीकर चला आया था और ऊलजलूल बक रहा था!

नौकर–चटर्जी मोशाय थे क्या?

शरत् चंद्र–हाँ, अब वह बेचारा शराब नहीं पीता है, शराब ही उसे पीती जाती है!

नौकर–(शरत् चंद्र से) आप भी अभी खाना खाएँगे या…

शरत् चंद्र–प्रमथ को खिला दो, मैं पीछे खाऊँगा!

प्रमथ–हम लोग साथ ही खाएँगे।

शरत् चंद्र–मुफ्त में शहीद मत बनो! दूर से आए हो! चलो।

[सभी कोई जाना चाहते हैं कि रथिन प्रवेश करता है, वह कुछ परेशान है।]

रथिन–दादा आपके यहाँ कोई मुसलमान औरत बुरका ओढ़े हुए आ रही थी। रास्ते में ही उसे देखकर चटर्जी चिल्लाने लगा कि इसी से शरत् प्रेम करता है, इसी के साथ मौज करता है (जरा हँसकर) उस स्त्री ने चट्टी खोलकर दो चट्टी चटर्जी को जड़ दिया और लौट गई। जाते समय मुझसे कहती गई कि आपके पास यह संदेशा पहुँचा दूँ कि अब वह कभी आपके यहाँ नहीं आएगी क्योंकि इससे आपकी बदनामी होती है।

प्रमथ–चटर्जी कहाँ है?

रथिन–रास्ते में बैठ कर गाल पर हाथ रखे रो रहा है।

[शरत् चंद्र, जो उस गायिका के चले जाने के संवाद से गंभीर हो जाते हैं चटर्जी के रोने की बात सुन कर हँस देते हैं और सभी उस हँसी में शामिल हो जाते हैं।]

शरत् चंद्र–मुझे इसी की आशंका थी इसीलिए चटर्जी को जल्दी-जल्दी विदा भी किया। लेकिन जो होना था वह होकर रहा! चलो यह अध्याय भी खतम हुआ।

प्रमथ–वह गायिका थी कौन दादा?

शरत् चंद्र–कभी बता दूँगा! उस औरत से यही उम्मीद थी।

(पर्दा गिरता है)

[क्रमश:]


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Artist: Ito Jakuchu
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