लखनऊ का ऐतिहासिक रेखाचित्र

लखनऊ का ऐतिहासिक रेखाचित्र

शती विशेष

अमृतलाल नागर का उपन्यास ‘करवट’ अपने भीतर पूरी एक शताब्दी को खपाकर चलता है। वास्तव में इसका अर्थ है उन्नीसवीं शताब्दी की करवट, नये संपर्कों, प्रभावों, सुधारों एवं संस्कारों के बीच नव-जागरण की करवट। इतने लंबे समय की पृष्ठभूमि बनाने के कारण यह स्वाभाविक है कि उपन्यास घटना-प्रधान हो किंतु कथाकार के शिल्प की यह विशेषता है कि घटना के भीतर से विचारों की शृंखलाएँ फूटती चलती हैं। सबसे प्रबल विचार-बिंदु आरंभ में ही उभर आता है अँग्रेजों के प्राचीन भारतीय साहित्य के प्रति अनुराग वाले संदर्भ में। भारतीय तंत्र, योग, दर्शन, कामसूत्र और वैद्यक आदि के प्रति उनका जो तीव्र आकर्षण है तथा इनके अंतरंग में प्रवेश की जैसी भूख उनके भीतर है, लेखक इस पर भरपूर रूप में रचनात्मक प्रकाश डालता है। प्रश्न उठता है कि अँग्रेज इतना अत्याचारी, शोषक और मक्कार है, दूसरा इतना विद्या-व्यसनी है, भारतीय ज्ञान का भक्त है, तो इन दोनों अँग्रेजों में कौन सत्य है? किंतु यह प्रश्न अत्यंत तेजी से बदलते राजनीतिक इतिहास और सामाजिक परिवेश के बीच खो जाता है। वास्तव में राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों के तूफान में इस प्रकार के अगणित प्रश्न पाठकों के मन में उत्पन्न होते हैं। लेखक सिर्फ मुख्य पात्र बंशी के ऊपर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों के ग्राफ को अंकित करता है। निष्कर्षों और उत्तरा तक पाठकों को स्वयं पहुँचना होता है।

उपन्यास का यह प्रमुख पात्र अर्थात बंशीधर टंडन समय का एक यथार्थ है। उसमें अँग्रेजी के सहारे जीविका और रोजी-रोटी के आधार के अन्वेषण की महत्वाकांक्षा प्रथम नंबर पर है। दूसरे नंबर पर इस भाषा के माध्यम से अपने लोगों में नई चेतना उत्पन्न करना और देश-प्रेम है। वास्तव में अँग्रेजी की पढ़ाई का संदर्भ तत्कालीन समाज में एक भूचाल की भाँति उठता हुआ चित्रांकित हुआ है। इसने भारतीय समाज में अद्भुत अंतरंग खलबली पैदा कर दी। अँग्रेजों के संपर्क, उनकी भाषा, पोशाक, कृपा, नौकरी और उनके खान-पान, सबमें जो एक गौरव-शिखर की झलक मिलने लगी, उसकी ललक की पकड़ नागर जी में बहुत गहरी और प्रामाणिक है। पूरी शताब्दी की जो करवट है उसमें प्रमुख भूमिका इसी अँग्रेजी और अँग्रेज संपर्क की है। इस संपर्क में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और मानसिक सभी क्षेत्रों की गहराई के साथ झकझोरा है।

करवट के नए दबाव से जो चीज सबसे अधिक चरमराती चित्रांकित हुई है, वह है बिरादरीवाद। इसके साथ ही अँग्रेजी दवा, धर्म-अधर्म और शिक्षा-दीक्षा आदि में लिपटे नए-पुराने विचारों के द्वंद्वात्मक घात-प्रतिघात समाज को झकझोरते प्रतीत होते हैं। नए प्रभावों और सुधारों के केंद्र में कथाकार ने बंशी को रखा है। उसकी कहानी सुधारवादी आंदोलनों की कहानी बन जाती है, जो इस प्रकार की और सतेज नई पीढ़ी के तैयार हो जाने से गतिमान दीखती है। बंशी का पुत्र डॉ. टंडन अपनी पत्नी कौशल्या से कहता है कि अंधविश्वासों और पाखंडों से लड़ना ही सत्यवादियों का सच्चा पुरुषार्थ होता है। उपन्यास में यह पुरुषार्थ-संघर्ष इतने वेग और विधिपूर्वक चलता है कि ‘प्रोहित’, ‘पाधा’ लोगों की दकियानूसी-भरी धर्म-गुहार पूर्णतः नाकाम हो जाती है। उपन्यासकार नागर जी के पास इस प्रकार के संदर्भों को रचनात्मक रूप देने के लिए सजीव घटनाओं का विशाल कोष है। पहले चक्र में अँग्रेजियत के नए तेवर, नए सुधारवादी नक्शे सामने आए हैं परंतु नई पीढ़ी के उदय के साथ जो दूसरा आर्यसमाजी सुधारों का चक्र चला है, उसके नीचे पहले को दब जाना पड़ा है। यह आर्यसमाजी दृष्टि तत्कालीन राष्ट्रीय दृष्टि के रूप में प्रस्तुत की गई है। इसके सूत्रधार हैं बंशी के पुत्र डॉ. देशदीपक टंडन और उनके घर का जो आत्मालोचन चित्रांकित है, उसमें राष्ट्रीयता का पक्ष बहुत ही स्पष्ट है। बंशी सोचते हैं कि अँग्रेज सुंदरी नैन्सी की सीढ़ी से अँग्रेजी अध्ययन और ऊँचे पद की मंजिल पर जो वह पहुँचा, उसमें कुल मिलाकर सुविधाओं की ही खोज रही। उसने आर्य-समाज और ब्रह्म-समाज को सद्-प्रेरणा के रूप में नहीं, उन्हें फैशनेबुल औचित्य के रूप में ही अंगीकार किया। अंत में वह बहुत सच्चाई से स्वयं के खोखले होने की आत्म-स्वीकृति पर मुहर लगाता है। इससे उसके अंतस्तल में जगे राष्ट्रीय भावों का आभास मिल जाता है। उसे कहीं-न-कहीं से लगता है, उन्हीं के अभाव में वह खोखला है। आगे चलकर स्पष्टता से वह अपनी अँग्रेज-परस्ती पर अफसोस करता है। साथ ही उसे इस बात पर संतोष होता है कि उसके अभाव को उसका पुत्र पूर्ण कर रहा है। उसमें राष्ट्रीयता का तेज है। यह देखकर बंशीधर अपने मन-दर्पण पर चढ़ी पर्त को साफ करने के लिए आतुर दीखता है। बंशी की मृत्यु होने पर शव-यात्रा में एक रहस्यमय घटना का सृजन कर कथाकार ने जो हिंदू-मुस्लिम एकता को संकेतित किया है, वह भी काफी विचारोत्तेजक है।

भारतीय समाज की दुर्लभ प्राचीन पांडुलिपियों का संदर्भ ‘करवट’ में बहुत विचारोत्तेजक कोण से प्रस्तुत किया गया है। जिस समय बंशी एक वर्ग-चरित्र के रूप में इन पांडुलिपियों का व्यवसाय कर रहा है, उस समय वह ‘अपने को बंशीधर महसूस करता था। उसकी राष्ट्रीय भावनाओं पर नैन्सी की कौम का ऐसा मुलम्मा चढ़ चुका था कि उसके अंदर हिंदुस्तान और उसकी हर वस्तु के लिए हीनता-ही-हीनता अनुभव होती थी।’ वह प्राचीन पांडुलिपियों को बेचते-बेचते लखनऊ की रेजीडेंसी से कलकत्ते की प्रेसीडेंसी तक पहुँच बना लेता है। तत्कालीन गवर्नर की भैंस-टाइप पत्नी के प्रेमी, लाट साहब के सह-सचिव, विद्या-व्यसनी और भारतीय साहित्य के भक्त पिकांट से बंशीधर का परिचय इन्हीं पांडुलिपियों के सूत्र से होता है। कलकत्ते के कालीपद वांडुज्ये के यहाँ से तिकड़मपूर्वक कौड़ियों के मोल पांडुलिपियाँ प्राप्त करने वाला संदर्भ मनोरंजक अधिक है अथवा अपनी मनीषा के दुर्भाग्य के प्रति क्लेश से ओत-प्रोत कर देने वाला प्रसंग, यह कहना कठिन है। एक ओर यह विचार उठता है कि ज्ञान का खजाना लुटाना कौम को गरीब बनाना है, तो दूसरी ओर इस विरोधी विचार से यह पहला विचार दब जाता है कि उस ज्ञान के खजाने के नष्ट हो जाने से अच्छा है कि पश्चिम वालों की कद्र को प्रोत्साहित किया जाए, लेकिन कद्र को प्रोत्साहित करना और चीज है और चापलूसी करना और स्वार्थ के लिए आत्मसात करना और चीज है। स्वयं बंशी इस संबंध में स्वाभिमान बेचकर स्वार्थ खरीदने की बात स्वीकार करता है।

आलोच्य उपन्यास के शिल्प की एक विशेषता यह है कि एक व्यक्ति की करवट के माध्यम से एक पूरी शताब्दी की करवट अभिव्यक्त हो जाती है। पात्रों की अत्यंत भीड़-भाड़ भरे इस उपन्यास को ढीला-ढाला होने से बचाने वाला एक ही मुख्य पात्र है बंशीधर टंडन उर्फ तनकुन जिसकी सड़क पर के एक बेकार आदमी से लेकर शिक्षा-विभाग के असिस्टेंट डायरेक्टर पद से रिटायर्ड और लखनऊ के परम प्रतिष्ठित नागरिक के रूप में विकसित जीवन की कहानी पूरे समय तक न केवल कृति के कथा-प्रवाह को बल्कि पाठकों के अवधान को बाँधे रखती है। एक अत्यंत मनोरंजक और आकस्मिक घटना में बंशी की मुलाकात पार्किंसन से जो होती है, तो अँग्रेजी के माध्यम से वह सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ता पद और प्रतिष्ठा की चोटी तक पहुँच गया है। इस सीढ़ी को पार्किंसन-नैन्सी-पिकांट-लाट-लाटिनी के रूप में देखना बहुत ही कुतूहल-वर्धक है। नैतिकता और देह-सुख के द्वंद्व में बंशी की पहली पराजय नैन्सी को कलकत्ते पहुँचाने जाते समय चिरैयाताल के पहले पड़ाव पर होती है, फिर भी अपनी पत्नी के प्रति आंतरिक प्रेम को सुरक्षित रखने में वह सफल होता है। वह भुल्ली लाला के प्रचंड विरोधी बिरादरीवाद और उसके तूफान को धैर्य और राजनीतिक बुद्धिमत्तापूर्वक झेलकर उसे न केवल पराजित करता है बल्कि तोड़ देता है। वह अपनी लगन से बी.ए. पास कर राय साहब के खिताब तक पहुँचता है। जीवन के अंतिम पहर में वह ह्यूमवाली काँग्रेस के बंबई अधिवेशन में सम्मिलित होता है, दूसरी ओर उसका लायक बेटा देशदीपक आर्य-वीर बनकर उसके द्वारा बोये समाज-सुधार के बिरवे को राष्ट्रीय स्तर पर पल्लवित करता है। इस प्रकार अँग्रेजी, अँग्रेज और अँग्रेजी राज की छाया में उत्तरोत्तर विकास से एक जीवंत व्यक्ति के इर्द-गिर्द समाज, संस्कृति और इतिहास के परिवर्तनों की जो बनावट नागर जी ने प्रस्तुत की है, वह बहुत ही मार्मिक बन गई है।

‘करवट’ में नवाबी शहर लखनऊ का रेखा-चित्र अपने आपमें एक दिलचस्प उपन्यास है। यह रेखा-चित्र खान-पान, पोशाक, रीति-रिवाज, भाषा, विशेष प्रकार की चर्चाओं, नखरों-फिकरों से लेकर गली-कूचों, सड़कों, मकबरों और महलों आदि की तफसीलों में बहुत मनोरंजक ढंग से उभरता है। लक्खीसराय की रसूल बाँदी और अस्तबल के हैदरी खाँ के सूत्र से विकसित नवाबी जमाने का जिंदा कथा-पट अनुरंजन के साथ अनेक सार्थक प्रश्नों को भी उठाता चलता है। जैसे नवाब अमीनुद्दौला को बाँके (गुंडे) लोग ने सरेआम सड़क पर कटार की नोक पर लूट लिया, तो सवाल उठने लगा कि अच्छे-भले खानदान के लड़के भला गुडें क्यों होने लगे? फिर हवा में जवाब तैरने लगे कि घोर बेकारी है, नौकरी में धांधली है, गुंडों का शासन है, शासन लुंज-पुंज है, गली-गली पढ़े-लिखे बेकार युवकों के सामने कोई मार्ग नहीं है और चारों ओर लूट-पाट मची है, तो नई पीढ़ी और क्या करे? निश्चित रूप से कथाकार ने हमारी आज की एक ज्वलंत समस्या को इस घटना के माध्यम से पाठकों के सामने प्रस्तुत कर दिया है। तत्कालीन कलकत्ते और लखनऊ की राजनीतिक उठा-पटक के बीच ऐसे युग-बोध के चित्र अनेक स्थलों पर प्रस्तुत हुए हैं। नील कोठी वाले साहबों के अत्याचार, गदर और नवाब वाजिद अली शाह की गिरफ्तारी आदि के चित्रों को कथाकार उठाता जरूर है परंतु वह उन्हें उसी अंश तक प्रकाशित करता है, जितनी ‘करवट’ की कहानी के लिए अपेक्षित होता है। विशेष कर गदर की कहानी को रचनात्मकता के केंद्र में वह आने ही नहीं देता है। वह उसे संक्षिप्त सांकेतिक वर्णनात्मकता की परिधि पर ही सँभाल कर मुख्य कहानी को आगे बढ़ा देता है। इतने पर भी पूरे युग का और संपूर्ण जनता की समग्र मानसिकता का जो द्वंद्व उभरता है, वह बहुत ही कलात्मक प्रौढ़ता लिए हुए होता है। नागर जी ताजा हवा में तैरते युगीन निष्कर्षों को पकड़कर पाठकों को चमत्कृत कर देते हैं। वे नवाबी के चले जाने की घटना को सत्य-परक और तथ्य-परक बनाने में भावुकता पर पूरा नियंत्रण रखते हैं। उस समय के बुद्धिजीवियों की ऐसी मानसिकता कि अँग्रेज बुरे हैं परंतु उनका राज अच्छा है, सार्थक लगती है। ऐसा लगता है कि जनता के भीतर नवाबी के प्रति प्रेम तो है पर वह पूरा-पूरा नहीं है। वह अपनी ही सड़ी चीज के प्रति टूटते मोह वाला अधूरा प्रेम है।

आर्य-समाज और ब्रह्म-समाज के प्रभाव-विस्तार के साथ अँग्रेजी शिक्षा आदि से हुई सामाजिक तब्दीलियों के अध्ययन के लिए ऐसा लगता है कि समाज-शास्त्र के विद्यार्थियों और अध्येताओं तथा अनुसंधानकर्ताओं को ‘करवट’ अवश्य पढ़नी चाहिए। स्वामी दयानंद की लखनऊ में पहली सभा, उनकी मृत्यु के बाद आयोजित ‘सर्व-धर्म-महायोग’ और इसी प्रकार वृंदावन के भारत-धर्म-महासम्मेलन का चित्रण भी नागर जी ने पुस्तक में किया है। ऐसी सांस्कृतिक संक्रांतियों के मूल उत्स की पकड़ भी चलती है। अवध के तालुकेदार जो नए बदलावों से चौंकते हैं तथा उनमें जो धर्म-अधर्म को लेकर तरह-तरह की अफवाहें उड़ा करती हैं, वे किस प्रकार गदर की पृष्ठ-भूमि बन जाती है, इस विचार-सूत्र को बहुत सहजता से नागर जी पाठकों के हाथ में थमा देते हैं। ऐसा लगता है कि उन्नीसवीं शताब्दी यदि भारतीय इतिहास, राजनीति, संस्कृति, समाज, धर्म, शिक्षा और भाषा आदि के क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तनों की शताब्दी है, तो इसकी संपूर्ण रचनात्मक पकड़ नागर जी की कृति ‘करवट’ में चित्र बिंबित हो गई है।

नागर जी के शिल्प में समय की आहट है और अतीत के मौसम की रस-गंध बहुत स्पष्टता से उभरती है। उनकी भाषा में लोक-जीवन को सम्मान मिला है। लखनऊ की वह खास अवधी जुबान, जो धीरे-धीरे घिसकर अपनी मौलिकता छोड़ती जा रही है, कृति में बहुत सफाई से प्रयुक्त हुई है। विभिन्न वर्ग के लोगों में उसका जो विभिन्न रूप है, उसकी भी सूक्ष्म पकड़ दृष्टि-गोचर होती है। ख्यालों के दंगल वाला अध्याय भाषा की दृष्टि से विशेष रूप से पठनीय है। कृति की लोक-भाषायी मोड़ कभी-कभी पठन-प्रवाह में रोड़ा जरूर बन जाती है परंतु भाषा की मिठास और आकर्षण-शक्ति में खिंचा पाठक उनको सहज रूप में आत्म-सात् कर लेता है। लखनऊ के ठेठ मुहावरों से भी यह अवधी जब खड़ी बोली में रच-पच कर तथा नवाबी शहर की आत्मा जैसी बन कढ़ती है, तो वह अन्य प्रदेश के पाठकों से माँग करती है कि जरा जल्दीबाजी में न पड़ें तथा पूरी फुर्सत से, भरपूर स्वाद ले-लेकर आगे बढ़ें। यह स्वाद वास्तव में हिंदी के अप्रतिम किस्सागो नागर जी के शिल्प का स्वाद होता है। इस स्वाद में उतरना मौलिक उपन्यास-रस में उतरना होता है।


Image : The Relief of Lucknow, 1857
mage Source : WikiArt
Artist : Thomas Jones Barker
Image in Public Domain

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