अपने समय की साक्षी गजलें

अपने समय की साक्षी गजलें

यह सुखद है कि कोरोना काल के विषम समय में रचनाकारों की लेखनी और अधिक सृजनरत रही है। उसी के फलस्वरूप नई पुस्तकों के प्रकाशन में बढ़ोत्तरी देखी जा रही है। कविता के क्षेत्र में भी गजल की पुस्तकों का आधिक्य यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हिंदी के रचनाकार गजल को लेकर कितने गंभीर हैं। शिवनारायण एक ऊर्जावान रचनाकार हैं। कविता, कथेतर गद्य, आलोचना, भाषाविज्ञान, पत्रकारिता आदि विधाओं में अब तक आपकी 56 पुस्तकें आ चुकी हैं। इनका दूसरा गजल संग्रह ‘कल सुनना मुझको’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। सुखद है कि वर्तमान में प्रतिष्ठित प्रकाशक भी गजल की बढ़ती लोकप्रियता को ध्यान में रखकर गजल संग्रहों को वरीयता प्रदान कर रहे हैं, अन्यथा वह समय भी था जब गजल के प्रति सौतेला व्यवहार सामान्य बात थी।

शिवनारायण के इस संग्रह की गजलों में गजल के परंपरागत ठाट से लेकर वर्तमान गजल के कुछ नए रंगों के दर्शन होते हैं। गजल में अभिव्यक्ति संकेतात्मक होती है और पाठक संकेत को आधार बनाकर उसके अर्थों तक पहुँचने के अपने-अपने रास्ते ढूँढ़ते हैं। यह उद्यम भी उनकी संतुष्टि का कारण बनता है। गजल में संकेतात्मकता प्रतीकों के माध्यम से सुलभ होती आई है। रूढ़ प्रतीकों से परिचित होने के कारण पाठक तुरंत ही संकेत को समझकर शे’र के मर्म तक अपनी पहुँच बना लेते हैं। नए प्रतीकों के साथ यह सुविधा नहीं होती है। शिवनारायण की गजलों में नए प्रतीकों के साथ साथ रूढ़ प्रतीक भी उपस्थित हैं। इन्हीं प्रतीकों से उन्होंने अपने अशआर में अपने समय के विषय और मत को अभिव्यंजित किया है। उनकी कुशलता इसी तथ्य में है। संग्रह के निम्न अशआर पर गौर कीजिए–

‘जल न जाएँ खेत की फसलें सभी
रोज गिरती बिजलियों का क्या करें

अँधेरा क्या डरायेगा हमें अब
खयालों में हमारे रोशनी है

एक मिट्टी की बनी दीवार सा
चुपके-चुपके ही ढहूँ अच्छा नहीं।’

पहले शे’र में जनजीवन की वर्तमान त्रासद स्थिति की ओर संकेत है।  बिजलियाँ नकारात्मकता को जन्म देने वाली शक्तियों का प्रतीक है वहीं खेत की फसलें सकारात्मक संघर्ष में विश्वास रखने वाली शक्तियों का प्रतीक है। ‘क्या करें’ में आह्वान है। शे’र की शक्ति इसी वाक्यांश में है। दूसरे शे’र में शाइर अँधेरे की चुनौती को स्वीकार कर उससे सतत संघर्ष के लिए प्रस्तुत है। तीसरे शे’र में दुर्निवार संकट की स्थिति में भी अपनी आवाज उठाने की आत्मिक शक्ति का उद्घोष है।

उपरोक्त सभी अशआर में मनुष्य, समाज और जीवन के प्रति आस्था का तत्त्व उपस्थित है। तीनों अशआर से पाठक अपने-अपने अनुभव और अनुभूति की क्षमता के अनुसार विभिन्न अर्थ ग्रहण कर सकता है।

शिवनारायण ने गजलों में कल्पना की जगह यथार्थ को आधार बनाया है। उनकी गजलें अनुभव के ठोस धरातल से जन्म लेती हैं। स्वानुभूत सत्य के बोध से कवित्व का निबाह कर सकना कठिन होता है। यहाँ कोरी भावनाओं के लिए जगह नहीं है। इन गजलों में गाँव, खेत, किसान, मजदूर, शोषित के प्रति जो सहानुभूति है वह बनावटी नहीं है। शेर देखें–

‘न बादल घटाओं की कोई निशानी
हुआ गाँव कैसे भला पानी-पानी

बाढ़ आई फसल हुई चौपट
सेठ को तो लगान की जिद है

कैसी होती है खुद्दारी तुम क्या जानो
अलगू-जुम्मन की लाचारी तुम क्या जानो

गाँव को कुछ नहीं चाहिए दोस्तो
गाँव को एक बहती नदी चाहिए।’

उपरोक्त अशआर में हुआ गाँव कैसे भला पानी-पानी, लगान की जिद, अलगू-जुम्मन की लाचारी, एक बहती नदी, ये सभी वाक्यांश ग्रामीण जन जीवन की त्रासद स्थिति से उपजे हैं। आज का गजलकार मानवता के पक्ष में खड़ा होकर जीवन से जुड़े प्रत्येक साधन की चिंता को व्यक्त करता है और उसके समुचित समाधान के रास्ते खोजता है। अलगू जुम्मन की लाचारी में अपना ईमान बचाए रखने की चुनौती शामिल है। एक बहती नदी स्वतः स्फूर्त खुशहाल जनजीवन की आकांक्षा का प्रतीक है। ये सभी अशआर कोरे बयान नहीं है, इनमें भावपूर्ण कविता के तत्त्व हैं जो पाठक को झकझोरते हैं। इनकी शक्ति इनका खरापन है।

गला काट प्रतियोगिता के इस दौर में मनुष्य का मनुष्य से अंतर्संबंध बुरी तरह प्रभावित हुआ है। आज परिवार और समाज का ताना बाना टूटा-बिखरा हुआ है। ऐसे में संवेदनशील व्यक्ति को सभी दबावों के बीच संतुलन बनाकर जीना पड़ रहा है। गजल में आशिक और माशूक के बीच की वास्तविक चुहल, अनबन, राग द्वेष का स्थान अब जानी-अनजानी शक्तियों से आम आदमी के संघर्ष ने ले लिया है। मनुष्य का आंतरिक और बाह्य संघर्ष इतना तीव्र है कि उसके प्रभाव से कोई भी मुक्त नहीं है। वर्तमान की माँग और भविष्य के भ्रामक आतंक के सामने आम आदमी निरुपाय नजर आता है। कभी वह स्वयं को आँकता है तो कभी जमाने को। कभी वह स्वयं को समझाता है तो कभी जमाने को। आंतरिक और बाह्य हाहाकार में शाइर की आवाज भी अपने सुर बदलती प्रतीत होती है। शिवनारायण की गजलों में भी वही द्वंद्व जगह-जगह दिखाई पड़ता है।

‘लोग बँटे अपने खानों में
द्वेष-घृणा है दालानों में

समय की नब्ज आएगी पकड़ में
अभी इस दौर का अखबार हूँ मैं

रोने की थी बात नहीं, पर रोते हैं
क्या समझाएँ अब लोगों को राम कसम

भले ही ‘शिव’ हमारा नाम साहब
मगर विष का कहाँ तक मोल दें हम

सदी के लोग ऐसे हो गए क्यों
कहाँ से अब कहाँ जाने लगे हैं।’

इन अशआरों से स्पष्ट है कि अपने समय की नब्ज पकड़ में न आने के कारण इसके रोग की पहचान और निदान आसान नहीं है। शिवनारायण ने अपनी चिंता, चिंतन और आत्म मंथन को सृजन कारी तत्त्वों से जोड़कर गजलें कही हैं।

शिवनारायण की गजलों की विशेषता सरल शब्दावली और सहज बोधगम्यता है। वे भारी भरकम शब्दों से परहेज करते दिखते हैं। उनका वाक्यविन्यास भी सीधा सटीक है जिससे अर्थ ग्रहण में कठिनाई नहीं आती। सरल शब्दों में लिखना वास्तव में कठिन होता है। यह विरल गुण शिवनारायण में है। कुछ अशआर देखिए जिनमें मासूमियत है–

‘एक मुसाफिर आकर कोई बस्ती में फिर
सुंदर सा किस्सा कह जाता, अच्छा लगता।’

‘जीवन को पढ़ने की खातिर अक्सर ही मैं
हर मेले में आना-जाना सीख रहा हूँ।’

‘खुल रहे हैं परिंदों के पर दोस्तो
खूबसूरत लगेंगे शजर दोस्तो।’

‘अगर तुम सच कहोगे तो यकीनन
तुम्हारी बात भी हम मान लेंगे।’

संग्रह के फ्लैप पर सुविख्यात गजलकार और आलोचक अनिरुद्ध सिन्हा की टिप्पणी देखिए–‘संग्रह की गजलें अनुभव और भोगे-देखे क्षणों के प्रामाणिक अभिलेखोद्गार हैं। आधुनिक समय की जमीन पर चलते हुए इन्होंने जो कुछ बटोरा, उन्हें गजलों में उतार दिया है। अनुभूति में ईमानदारी, अभिव्यक्ति में यथार्थ, विचार में विवेक और लेखन में निर्धारित शिल्प का सौंदर्य है। संग्रह की लगभग सभी गजलें आज की हिंदी गजलों में हस्तक्षेप करती हुई प्रतीत होती हैं, जो शिवनारायण की गजल-लेखन शक्ति को पूर्ण रूप से प्रदर्शित करती है।’

नई सदी की गजल अपना रूप रंग बदल रही है इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन गजल एक नाजुक विधा है। इस पर कोई भी बोध बोझ की तरह नहीं लादा जा सकता है। शे’र के पास दो पंक्तियों की सीमित जगह है लेकिन इन दो पंक्तियों तथा उसके शब्दों के बीच एक बड़ा स्पेस होता है, यह स्पेस जितना भरा पूरा और समृद्ध होगा, शे’र उतना बड़ा होगा। शिवनारायण के अशआर भी समृद्ध हैं। यकीनन यह गजल संग्रह महत्त्वपूर्ण है और अपने समय का साक्षी है।


Image: Portrait of the writer Émile Hinzelin
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Émile Friant
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