यह जीवन भी एक यात्रा है

यह जीवन भी एक यात्रा है

रमेशचंद्र शाह से साहित्य जगत बरसों से परिचित है। वे एक विरल कवि, निबंधकार, नाटककार और आलोचक हैं। यहाँ उनकी कविताओं पर कुछ बात होनी है और वह भी उनके हाल में प्रकाशित काव्य-संग्रह–‘बंधु थे पड़ाव सभी’ पर। अब सबसे पहले बात इस कविता-संग्रह के शीर्षक पर, क्योंकि यहीं से कई सूत्र मिल सकते हैं इस संग्रह की कविताओं को समझने के लिए। जीवन में हर व्यक्ति कई-कई पड़ावों को पार करता है और हर पड़ाव नया और अलहदा होता है। जैसे कि जीवन जीने का कोई सूत्र नहीं होता क्योंकि कल आज नहीं होता, यहाँ हर चीज क्षण-क्षण बदलती है। इसलिए कवि जीवन के ये पड़ाव अलग-अलग रंग-रूप के हैं, अलग-अलग स्वाद के हैं और सबसे दीगर बात कि कई-कई पड़ावों को पार करने के बाद ही कोई कह सकता है कि बंधु थे पड़ाव सभी या अजनवी थे पड़ाव सभी। यह तो जीवन दृष्टि की बात हो गई कि अंततोगत्वा कोई भी पड़ाव हो, अनुभव ही झोली में डालता है, वह चाहे राग का हो या विराग का। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ने के बाद एक यात्रा पर पाठक को भी चलना होगा, बैठे-बैठे इन कविताओं से तादात्म्य बैठाना मुश्किल है। संग्रह की पहली कविता–माँ पर है और माँ पर शायद ही कोई कवि होगा जिसकी कोई कविता नहीं होगी! मेरा तो यह भी मानना है कि जिसने माँ पर, नदी पर, फूल पर कविता नहीं लिखी, वह कवि भी कैसे हो सकता है! यही तो कुछ नाम हैं जिन्होंने इस दुनिया को दुनिया बना कर रखा है, नहीं तो आप अंदाजा लगाएँ यह दुनिया किस चिड़िया का नाम होता। यह कविता माँ पर केंद्रित है और माँ तो माँ होती है जिसका अधिक समय अपने सिवा सबके लिए होता है, फिर चाहे बच्चे हों, घर-परिवार हो या रसोईघर। कविता में छत पर माँ और धूप को बतियाते देखना, माँ से मिलना है और उस माँ से जिसका जीवन छत के नीचे नहीं धूप में गुजरी हो। छतों पर काम करते माँ पता नहीं कब धूप से एकाकार हो जाती है और अपने?

यात्रा जिसे बेहतर है हम संसार-यात्रा कहें, कवि ने अपने अनुभवों को हमसे साझा किया है। कवि सब कुछ हो सकता है पर पर्यटक नहीं हो सकता क्योंकि बिना यात्रा आप एक जीवन में भला कितना जान सकते हैं! बरसों बरसों पहले की यात्राएँ कवि स्मृति में जीवंत हैं और यही उसकी कविता यात्रा की पाथेय है। वह पहाड़ों के साथ, नदियों के साथ, पेड़ों के साथ यात्राएँ करता रहा है और इस यायावरी में इस समय की पटकथा लिखता रहा है। यह अच्छा है कि कविता अपने समय की पटकथा लिखे पर सिर्फ यही उसका हासिल नहीं है। उसे अपने समय का अतिक्रमण भी करना पड़ता है। आप जब रमेशचंद्र शाह के इस संग्रह से गुजरेंगे तो महसूस करेंगे कि इन कविताओं में सिर्फ आज नहीं कल भी है, इनमें सिर्फ वर्तमान नहीं बोलता, भविष्य का अंकुर भी फूटता है, ये कविताएँ सिर्फ आज के कारण जिंदा नहीं हैं, इनके कोख में कल भी है, इसिलए ये न पुरानी पड़ेंगी न इनके प्रति सम्मोहन घटेगा। इस संग्रह की एक कविता (बहुत दिनों के बाद) की तरह–‘धीरे-धीरे फुरसत पाकर/मुझे घेर कर बैठ गया सब/कमरों का खालीपन/कितने वर्षों से हैं तेरे मन की तुझसे अनबन?/तेरी अनुपस्थिति में कितना/व्यस्त हो गया जीवन!’

अपने लंबे रचनाकाल में कवि सारतत्त्व को प्राप्त करने की तरफ बढ़ता है और उस कवि की कविताओं में परिलक्षित होता है। अपने पुरखे कवि के  कुछ शब्दों को पुनः कागज पर लिखते हुए वह कविताई के बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित करता है–‘कविताएँ हैं/लेकिन/काव्य नहीं।/लिखते-लिखते/कोई कुछ बन जाए/सहज/संभाव्य नहीं!’ दरअसल, कविता या कोई भी कला हो, वह अभ्यास की वस्तु नहीं हो सकती। अभ्यास मात्र से कोई भाषा पर अधिकार प्राप्त कर सकता है परंतु कविता पर नहीं। इसके लिए उस काव्य मेधा या कवित्व की आवश्यकता होती है जो या तो किसी में होता या नहीं होता। इस संग्रह में ज्यादातर कविताएँ स्मृतियों पर अवलंबित हैं। वहीं कई कविताएँ अपने समय की कहानियों, घटनाओं पर भी केंद्रित हैं। हाँ, यह अलग बात है कि उन कविताओं में वही आवाज है जिसे लंबे समय तक पदचाप बन कर रहना है। इस संग्रह में ‘रामकुमार की कहानियाँ पढ़कर’ ऐसी ही कविता है जो अपने समय के भयावह यथार्थ को दर्ज करती है–‘पिता भयभीत पुत्र से और पुत्र शंकित पिता से/पति-पत्नी द्वीप दो समुद्रों के।’ इन कविताओं में एक ठहराव है, जल्दी-जल्दी कुछ कह कर भौचक कर देने का जो चलन है ये ठीक उसके विलोम में हैं। बड़ी सादगी और संजीदगी से इन कविताओं की रचना हुई है। ये इशारे बहुत करती हैं, संकेत बहुत देती हैं और आम भाषा में कहें तो थोड़ा कहना–ज्यादा समझना इन कविताओं के केंद्र में है–‘जिए मैंने लाख बरस/मरे मेरे लाख बरस/था। हूँ। रहूँगा मैं।/सब कुछ/सहूँगा मैं।’

बहरहाल, बकौल शमशेर बात बोलेगी, हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही। सो, कविता पर कुछ कहने का विशेष मतलब नहीं है अगर आप उसके साथ चलते नहीं।


Image : After a Heavy Rain
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Artist :Fyodor Vasilyev
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