सींग पैने हैं

सींग पैने हैं

जकल इतने सारे व्यंग्य-संग्रह दसों दिशाओं में प्रकाशित और विमोचित हो रहे हैं कि यह तय कर पाना कठिन हो जाता है कि किसको पढ़ें और किनसे बचा जाए! राहत की बात यही है कि ऐसी दुविधा प्रेम जनमेजय की एकदम नई किताब ‘सींग वाले गधे’ में कतई नहीं आई। मुझे क्योंकि प्रेम जनमेजय हिंदी व्यंग्य में एक ऐसा महत्वपूर्ण नाम है जिसकी हर नई रचना और वक्तव्य का इंतजार हिंदी व्यंग्यकारों की जमात में बड़ी ही उत्सुकता से किया जाता है। वर्तमान संग्रह इसीलिए भी खास बन पड़ा है कि इसकी बहुत सी रचनाएँ कोरोना महामारी के समय के समाज, राजनीति और बौद्धिक जगत में उजागर हुई विसंगतियों की बड़ी गहरी पड़ताल की कोशिश करती है, जो मैंने अन्य व्यंग्यकारों की रचनाओं में एक साथ इस तरह नहीं देखा। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कोरोना काल की मानवीय त्रासदी को लेकर एक ही जगह इतने सारे सार्थक व्यंग्य एक साथ पढ़े हों। निराशा के उस दौर में एक सजग व्यंग्यकार ही दुनिया को इस निगाह से देख सकता था। पूरे कोरोना काल का एक विहंगम आकलन है इस किताब में।

पर ये केवल कोरोना काल की रचनाएँ ही नहीं है।

लेखक अपनी फाइल से भारती के आग्रह पर लिखी वह रचना भी ले आया है जिसमें परसाई को 1985 में पद्मश्री मिलने के बाद की होली पर एक अदद पत्नी श्री भी ले आने का आग्रह नामवर सिंह, श्रीकांत वर्मा और गोपाल प्रसाद व्यास जी मिलकर कर रहे हैं। प्रेम विशुद्ध कल्पना करते हुए इस ऐतिहासिक महत्त्व की रचना में इन तीन रचनाकारों की शैली में इनकी ओर से परसाई से विवाह कर लेने का आग्रह कर रहे हैं। विषय जरूर होलियाना है परंतु प्रेम का दिलचस्प शैलीगत प्रयोग आज भी रचना को पठनीय बनाए रखे हैं। शैली की बात आई है तो इसी संग्रह की ‘प्रभु बोर हो रहे हैं’ रचना याद आ रही है। लेखक ने कल्पना की है कि कोरोना का प्रोटोकॉल क्षीरसागर तक पहुँच गया है और देवता भी चार फीट की दूरी रखकर ब्रह्मा के आदेशों का पालन करते हुए क्वारनटाइन और आइसोलेशन में रहकर परेशान हैं। पौराणिक संदर्भों से फैंटेसी रचकर मानव मन की दुविधाओं पर अपनी ही तरह की नजर है प्रेम की। ‘बूढ़ा ठग’ रचना तो कई तरह से एक बेहद उल्लेखनीय रचना बन गई है। 

चार अलमारियाँ हैं, एक राधेलाल है और चार अलग अलग स्थितियाँ हैं जो कमोबेश एक बिंदु पर जाकर राधेलाल के अपने समाज और कदाचित खुद के दोगले चरित्र से आत्मसाक्षात्कार करा देती हैं। आम आदमी में निहित राधेलाल को यह रचना डरा देती हैं। और प्रेम तो अपनी बिरादरी को भी नहीं बख्शते। ‘लेखक का लॉक डाउन, लॉक डाउन में लेखन, मेरा…लाइनर, दो वैष्णवन की वार्ता’ में वे अपने चिंतन की दिशा मानो अपनी तरफ ही कर लेते हैं। आत्मव्यंग्य सबसे कठिन होता है और बहुत तटस्थता माँगता है; तनिक चूके कि आप पटरी से उतरकर व्यक्तिगत हिसाब चुकाने बैठ जाते हैं या बारीक तरीके से स्वयं का महिमा मंडन करने लग जाते हैं। प्रेम इससे खुद को बचा ले जाते हैं।

प्रेम जनमेजय का समस्त व्यंग्य लेखन गहरे में वैचारिक विमर्श की कोशिश है। 

वे हर रचना की एक-एक पंक्ति में विचार का साथ नहीं छोड़ते। सच भी है, विचार ही विसंगतियों की समझ पैदा करते हैं। परंतु विचार को जब एक सजग रचनाकार व्यंग्य में तब्दील करने की कोशिश करता है तो हमेशा ही रचना का कलात्मक पक्ष उसकी पकड़ से छूटने का डर होता है; रचना अक्सर तेजी से बस एक बयान में बदल जाती है, सपाट बयानी के जंजाल में फँसती चली जाती है। यही प्रेम जनमेजय की खासियत है और उनके व्यंग्य की ताकत भी कि वो अपनी व्यंग्य रचनाओं को सपाट नहीं बनने देते, जैसा कि उनके स्कूल के बहुत से स्वनामधन्य व्यंग्यकार करते हैं (मैंने सालों पहले इस बात को रेखांकित किया था कि प्रेम जनमेजय अपनी ही तरह का व्यंग्यकार है, और उसने हिंदी व्यंग्य में वास्तव में एक ‘प्रेम जनमेजय स्कूल’ तैयार कर दिया है–मेरी इस बात को उसी संदर्भ में देखा जाए।) वे वैचारिकता के आग्रह के साथ व्यंग्य रचते हैं और सीधे कहते हुए भी, हास्य और विट से सायास या अनायास दूरी बनाते हुए भी रचना की रोचकता बरकरार रखते हैं और अंतर्निहित व्यंग्य के पैनेपन को कायम रखते हैं। 

एक बेहद कठिन व्यंग्य यात्रा रही है जो प्रेम ने अपने पहले संग्रह ‘राजधानी में गँवार’ से शुरू करके इस व्यंग्य संग्रह ‘सींग वाले गधे’ तक की है। वे विट और ह्यूमर की जगह निरंतर आप्त वाक्य रचकर व्यंग्य पैदा करते हैं और यह काम वर्तमान में केवल प्रेम जनमेजय ही कर रहे हैं। 

वर्तमान व्यंग्य संग्रह में वो सारी विशेषताएँ हैं जिसके लिए प्रेम जनमेजय को हिंदी व्यंग्य संसार में ईर्ष्या और आदर से देखा जाता है।