कबीराना अंदाज़ के दोहे

कबीराना अंदाज़ के दोहे

कविता, कहानी, निबंध, आलोचना, भाषा-विज्ञान आदि विधाओं में कई दर्जन कृतियों के प्रणेता शिवनारायण ने शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता और समाजसेवा के क्षेत्र में लंबे अरसे से अपनी उल्लेखनीय सेवाएँ दी हैं। काव्य के हलके में समकालीन कविता, गीत, ग़ज़ल के उनके महत्त्वपूर्ण संग्रह हैं–‘काला गुलाब’ (1989), ‘सफ़ेद जनतंत्र’ (1998), ‘दिल्ली में गाँव’ (2004), ‘नदी नदी रौद’ (2012), ‘प्रतिरोध का महाशंख’ (2023), ‘झील में चाँद’ (2018), ‘कल सुनना मुझको’ (2021), ‘चलेंगे दूर तक’ (2024) आदि। नवीनतम कृति ‘धार के आर-पार’ दोहों का अनूठा एकल संग्रह है, जिसमें जनसामान्य की संघर्षशीलता के स्वर प्रतिध्वनित हुए हैं और दोहाकार को सामाजिक चेतना जगाने की दिशा में काफ़ी हद तक कामयाबी मिली है।

मौजूदा दौर में ग़ज़ल के बाद दोहा एक अत्यंत लोकप्रिय छंद है। वैसे तो यह प्राचीन छंद है जिसकी भक्ति एवं रीतिकालीन दौर में स्वर्णकालिक उपलब्धियाँ रही हैं। ‘दूह’ शब्द से ही दोहा बना है जिसका अर्थ है दोहन। यानी, विचारों और भावों के सारगर्भित काव्यात्मक दोहन को ही दोहा कहा गया। 13-11, 13-11 मात्राओं के दो दलों और चार चरणों में निबद्ध दोहे के दोनों दलों के तुकांत दीर्घ-लघु हुआ करते हैं तथा यगण के साथ ही लयात्मकता व प्रवाह का भी पूरा ध्यान रखा जाता है। दो पंक्ति का छोटा-सा छंद अपनी उद्धरणीयता व सूक्तिपरकता की बदौलत पाठकों-श्रोताओं के दिलों पर राज करता आ रहा है। यही वजह है कि समय-संदर्भ और कठमुल्लापन पर चोट करने वाले कबीर के दोहे आज भी पूर्ववत प्रासंगिक हैं।

‘धार के आर-पार’ के दोहे भी कबीराना अंदाज़ में रचे गए हैं। यों तो हर दोहे का स्वतंत्र अस्तित्व होता है, पर शिवनारायण ने प्रत्येक पृष्ठ पर एक विषय से जुड़कर छह दोहे रचे हैं, इस प्रकार कुल 96 शीर्षकों से 576 दोहे संग्रह में संग्रहीत हैं।

संग्रह के दोहों में वैविध्य है। कहीं प्रतिरोध के स्वर बुलंद किए गए हैं, तो कहीं सत्ता-व्यवस्था पर करारी चोट की गई है। कुछ दोहे नीतिपरक हैं, तो कुछेक राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से जुड़े हुए हैं। कहीं-कहीं आदिम राग की तरलता भी विद्यमान है। सच को परेशान करने, पीड़ा पहुँचाने की परिपाटी आदिकाल में अहर्निश जारी है, पर अंततः विजय उसी की होती है। संग्रह का पहला ही दोहा है : ‘साँच चला जब राह पे, लगे ठोकने कील।/परेशान कर तुम उसे, चले मील पर मील॥’

प्रजातांत्रिक देश में भी लोकतंत्र के साथ मज़ाक़ किया जाता है। कभी बोलती बंद करने की कोशिश की जाती है, तो कभी जायज़ आंदोलन को भी कुचलने की साजिश रची जाती है। कवि ने साहसिकता का परिचय देते हुए कहा है कि लाख हथकंडे अपनाने के बावजूद विरोध का ख़ात्मा न कभी हुआ है, न ही होगा। दोहाकार की पंक्तियाँ गौरतलब हैं :

‘लोकतंत्र के मार्ग पे, खड़े किए अवरोध।
लाख जतन के बाद भी, मरा न एक विरोध॥’

कवि ने सत्ता-व्यवस्था की करतूतों को ‘डरी हुई सकार के कारनामे’ माना है और दहशतज़दा जन की ज़िंदगी को बदरंग बताते हुए कहा है :

‘डर की खेती कर रही, डरी हुई सरकार।
जन-जन में दहशत भरे, राम-राम सरकार॥

तोता मैना के कहे, पल-पल बदले रंग।
डरी हुई सरकार में, होता सब बदरंग॥’

संग्रह में प्रणयानुभूति के भी दोहे हैं, जो अंतर्मन को तरलता में गोते लगाने को विवश कर देते हैं। फागुन के दिन का एक चित्र देखें :

‘गोरी रंग नहा गई, कामदेव के संग।
फागुन के दिन आ गए, ख़ूब उड़ाओ रंग॥’

जीवन-दर्शन से ओत-प्रोत दोहे भी प्रभावी बन पड़े हैं। कवि ख़ुद के भीतर झाँकने और परपीड़ा को समझने का आह्वान करते हुए कहता है :

‘ख़ुद को बदलो रे मना, बदल जाय संसार।
देखो अंदर झाँक के, फेंक झार-झंखार॥

भोग करे जो त्याग से, वह नित आगे जाय।
परपीड़ा जाए समझे, सबको न्याय दिलाय॥’

मगर कवि कतई निराश नहीं हैं। अन्याय के अंत के साथ ही सबको इनसाफ़ मिलने का उन्हें भरपूर भरोसा है। तभी तो कवि ने आशान्वित हो कहा है :

‘समय-समय की बात है, होगा सबका न्याय।
सब दिन ना दुर्दिन रहे, मिट जाए अन्याय॥’

दोहाकार ने आख़िर में ‘शिव है मेरा नाम’ शीर्षक से आत्मपरिचयात्मक दोहे भी रचे हैं। उन्होंने सोशल मीडिया की विडंबना के चित्र उकेरे हैं जिसमें कोई मित्र नहीं होता। इससे उलट, जिगरी दोस्त से दिल की बात कहने में उनका विश्वास है। शिव की आराधना कर शिवत्व का भाव जाग्रत करने में शिवनारायण की आस्था है :

‘शिव मेरा भगवान है, शिव ही मेरा यार।
शिव शिव शिव करते हुए, हो भवसागर पार॥’

दोहों पर सृजन-तिथि भी अंकित है, जिससे पता चलता है कि मार्च-जुलाई, 2024 के दरम्यान महज़ पाँच माह में इनका सृजन किया गया है। दोहों की भाषा अत्यंत सहज और संप्रेषणीय है। कुल मिलाकर, ‘धार के आर-पार’ में वर्तमान उत्तर आधुनिक समाज का बहुकोणीय सच उद्‌घाटित हुआ है। इसकी सामाजिक चेतना में ही पुस्तक की पठनीयता सन्निहित है।