लोक संस्कृति के विस्तार की कहानियाँ

लोक संस्कृति के विस्तार की कहानियाँ

उत्तर आधुनिकता और बाजारवाद के इस अधम दौर में ऋता शुक्ल की कहानियाँ ग्रामगंधी संस्कृति के अजेय शिलाखंडों से अठखेलियाँ करती किसी पहाड़ी नदी की स्वाभाविक तरंगों को साकार करती हैं। ग्रामभित्तिक जमीन पर सांस्कृतिक वैभव के साथ नारी विमर्श की अंतरंग छवियाँ उकेरने वाली ऐसी कहानियों की प्रजाति इधर अनुपलब्ध होती जा रही हैं। चित्रा मुद्गल, ऋता शुक्ल, नासिरा शर्मा, सूर्यबाला जैसी कुछ महिला कहानीकारों के यहाँ यह वैभव अभी भी सुरक्षित है, तभी उनकी कहानियाँ जैसे एक लुप्तप्राय लोक की यात्रा कराती हैं। ऋता शुक्ल की इन प्रतिनिधि कहानियों का संकलन अक्षत और सिंदूर, सोहर और विवाह गीतों के सांस्कृतिक संसार में ले जाता है। इस संकलन की कहानियाँ एक ओर ग्राम्य संस्कृति के अनुभवों की चित्रशाला है, तो दूसरी ओर स्त्री विमर्श के नए-पुराने संदर्भों को अश्रुविगलित विस्तार भी देती हैं। इसीलिए ऋता शुक्ल के पाठकों को यह शिकायत भी हो सकती है कि इन कहानियों की नायिकाओं की पलकों के नीचे अश्रुधार लगातार उमड़ती है। ऐसा लगभग हर कहानी में है। चाहे उसकी उम्र तेरह-चौदह साल की हो अथवा कोई वयोवृद्धा हो। चाहे वह तिवारीपुर, बड़का राजपुर, बाजिदपुर में रहती हो अथवा वाराणसी, राँची, कोलकाता में। ऋता शुक्ल की कथा नायिकाएँ अधिकतर रूलाई की धारदार लहर से संपन्न हैं अथवा प्रतीक्षा की दहलीज पर खड़ी हैं।

पहली कहानी ‘प्रतीक्षा’ की सोनहुला काकी अपने राम के अवधपुर लौटने का इंतजार करती हैं, जबकि उनके सुपुत्र पढ़-लिखकर मनपसंद लड़की से विवाह कर अपनी माँ के सारे सपनों को प्रतीक्षारत आँसुओं में बदल चुके हैं। ‘देस बिराना’ की सुरूपा कम पढ़ी-लिखी होने का दंश भोगती है। उससे असंतुष्ट डॉ. पद्मसंभव अपूर्वा व्यास में पूर्णता तलाशते हैं। ‘विकल्प’ कहानी की सतिया तमाम अत्याचारों के बावजूद प्रतिरोध की कोई दिशा नहीं खोज सकी है। ‘जीवितोस्मि’ की श्रेण्या और ‘निष्कृति’ की सावित्री की गाथा भी भिन्न नहीं है। ‘रामो गति देहु सुमति’ की मुख्य पात्र चंपावती का जीवन सबसे अधिक करुणामय है, जो तिवारीपुर गाँव से राँची के मनोरोग चिकित्सालय तक अपनी व्यथाओं के साथ पहुँची है। ‘उबिठा बनाम अभयनिष्ठा’ की नायिका बचपन से वार्धक्य तक अदम्य जीवन का परिचय देती है। उम्र के अंतिम पड़ाव तक उबिठा आजी का स्वाभिमान बरगद के तने जैसा सीधा अडिग ही रहा। वृद्धा उबिठा ऋता शुक्ल की कथा नायिकाओं की तरह आँचल में दूध और आँखों में पानी लेकर खड़ी है। उसमें स्वाभिमान का गौरव है। ‘छुटकारा’ कहानी की कमली में भी कथालेखिका ने नारी जागरण के सूत्रों का उपयोग किया है, तभी विद्रोही कमली बसंतू मिसिर पर घास काटने वाली दरांती से वार कर डालती है। कमली के बहाने कथाकार ने दलित विमर्श की ओर भी संकेत किया है। दस प्रतिनिधि कहानियों का कथासंसार हमारे समय के विभिन्न विमर्शों का साक्षी है। नारी विमर्श, दलित विमर्श, वृद्ध विमर्श जैसे कई आयामों से जूझती इन कहानियों का मुख्य स्वर लोक संस्कृति का विस्तार है।

लोक जीवन को अनुकूलता देने के लिए ही ऋता शुक्ल ने भोजपुरी के संवादों का अनवरत उपयोग किया है। धनखर, बनिहार, दयाद, बतबनवनी, हबकवनी, लोकनी, ओड़ा, ढेंकी, खपतान, गड़ही, नान्ह, कउआहँकनी जैसे अनगिनत ठेठ भोजपुरी शब्द लेखिका की कथाभाषा को लोकसंस्कार से संपन्न करते हैं। लेकिन उनकी कथाभाषा कहीं-कहीं काव्यभाषा से प्रतिद्वंद्विता करती हुई भी नजर आती है। सादृश्य विधान और विशेषणों से लैस उनकी ऐसी भाषिक अभिव्यक्तियाँ भी प्रभावित करती हैं। जैसे–(क) ‘मैं तुम्हारी आस्था के नीलव्योम का सांध्य नक्षत्र बनी रहूँगी।’ (ख) ‘रंगबिरंगे देशी फूलों से महमहाती ठाकुरबाड़ी, मोजराह हुए आमों से लदी बगीची, झुके हुए कचनार पत्तों की सलामी देती, हरे बाँस की कोंपलदार हथेलियाँ जोड़े दूर से ही स्वागत का मर्मर संगीत सुनाती घनी बँसवारी, नए बीजों की धरोहर बनी सूरज की किरणों वाली गोटेदार पियरी पहनकर उमगती हुई भूदेवी…, कौन सहेगा इन्हें?’

ठीक इसी तरह ऋता शुक्ल ने सूक्तियों का रोचक संसार भी बसाया है। उनकी कहानियों में अवसर मिलते ही जीवनानुभव के चमकदार मोती सूक्तियों की शक्ल में सामने आते गए हैं। जैसे–(क) प्राप्य की आशा हो, तभी तक संबंधों का कुम्भस्नान सार्थक होता है। (ख) चुप्पी का अर्थ सहनशीलता नहीं, दुर्बलता भी तो हो ही सकता है। (ग) वक्त की साजिश भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है। सूरज को सलीब पर चढ़ा दे, ऐसी कोई अदालत आज तक नहीं बनी।

ऋता शुक्ल की इन कहानियों में लोक संस्कृति के सारे उपकरण हैं, नारी जीवन की सारी व्यथाएँ हैं और अपने पाठकों के लिए एक सुखद संतोष है। संतोष इस बात का कि इन कहानियों के पाठक कहानीपन से संतुष्ट होंगे। इन कहानियों के अंत में भले ही ‘पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञान भक्तिप्रदं’ जैसा सुभाषित नहीं है, लेकिन कहानियों का प्रभाव और परिणाम वही है।


Image :An Indian Gharry
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Artist :Edwin Lord Weeks
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