समय की आवाज का प्रतिबिंब

समय की आवाज का प्रतिबिंब

विकास 21वीं सदी के उन रचनाशील युवा शायरों में शुमार हैं जिन्होंने न सिर्फ गजलें कही हैं बल्कि पूरी शिद्दत से गजल को जिया है। उनके सद्यः प्रकाशित गजल संग्रह ‘अभी दीवार गिरने दो’ है में वर्तमान में जो कुछ लिखा या कहा जा रहा है, उसे महसूस किया जा सकता है। रोमांस के साथ जिंदगी की तड़प और बेबसी को जिस खूबसूरती के साथ उन्होंने अपनी गजल का विषय बनाया है, यह प्रशंसनीय है। बदलते जमाने की पेचीदा परिस्थितियों और राजनीतिक चुनौतियों से उत्पन्न कुंठा को उन्होंने अपनी गजल का शक्ल दिया है जिसे गजल के इन शेरों में देखा जा सकता है–‘खुद तो तड़पा था मगर सबको हँसाया हमने/और दिल अपना सलीके से सजाया हमने/प्यार मिलता है नहीं आज जमाना कैसा/जबकि दुश्मन को भी सीने से लगाया हमने।’

आज जो गजलें कही जा रही हैं, वे यथार्थ के सहज, सरल, आँसू की वेदना तक ही सीमित नहीं है बल्कि परिस्थितियों से मुकाबला करने की भी ताकत रखती है। विकास की गजलें इन सबके बीच इनसानियत की हसीन मुस्कुराहटों को बचाने का प्रयास करती हैं। देखें–‘वक्त यह खुद में जब सँवरता है/आदमी आदमी निखरता है।’

यह भी एक विडंबना है कि तमाम तरह की आधुनिकता का लिबास ओढ़ने के बावजूद हमारे समाज की कुछ रूढ़ियाँ आज भी बदली नहीं हैं। दहेज इसी प्रकार का एक ऐसा कोढ़ है जिसने अमीरों को हलकान किया है और गरीबों को पल-पल अपमान का घूँट पीने को विवश किया। विकास की चिंता इन पंक्तियों में जाहिर है–‘इस गरीबी ने उसे फिर माँग भरने दी नहीं/लौट कर जाती हुई बारात को समझा करें’ प्रेम और सौंदर्य की सूक्ष्मताओं को विकास ने अपनी गजलों में जिस सजीलेपन से व्यक्त किया है ऐसा कम शायरों में नजर आता है। परंतु प्रेम के भीतर के भीतरघात की स्थिति शायर को झकझोरता है तब ये शेर फूटता है–‘कली खिलने से पहले बाँकपन को नोच डालेंगे/चमन वाले ही लगता है चमन को नोच डालेंगे।’

वर्तमान समय की उलझनों के बीच आत्मविश्वास से लबरेज विकास की गजलें अपनी अभिव्यक्ति से चुस्त और धारदार है। उन्होंने कहा है–‘बहुत मुश्किल है थोड़ा वक्त लेगा/किसी पत्थर को शीशा कर रहा हूँ।’

हिंदी गजल के चरम आशावाद के संदर्भ में गहरी पड़ताल करती हुई विकास की गजलें संवेदना को स्पर्श करती हैं। इन गजलों से जीवन के प्रति समग्र बोध, मानवीय प्रेम, कल्पना, सुनहरे सपने की सुखद अनुभूति का एहसास होता है तभी तो उन्होंने कहा है–‘सच का दामन थामिएगा आप भी/पहले अपनी जिंदगी से पूछिए।’ विकास की गजलें ग्राम्य जीवन एवं आम आदमी के जीवन संघर्ष को बड़ी बेबाकी से चित्रित करता है एवं आम जीवन के हर पहलू का निरीक्षण करता है–‘कई होंगे अचानक दर बदर अब/किसी फुटपाथ का सौदा हुआ है’ वे आगे कहते हैं–‘हल्ला है गलियारे में आरक्षण का/अपनी अपनी जात समझ कर आते हैं।’ शायद यही वजह है कि आज उनकी शायरी और शख्सियत यादगार बनकर किताब के पन्नों में आ गई है जिसे पढ़ कर पाठक गजल की रोशनी एवं जज्बात से भर जाएँगे–‘जिंदगी की है कहानी न कोई मंजर है/इस तरफ कुछ भी निशानी न कोई मंजर है/किसको अपना मैं कहूँ किसको बेगाना कह दूँ/बस मुझे चोट है खानी ना कोई मंजर है।’

विकास की गजलें इनसानियत की हसीन मुस्कुराहटों को बचाने का प्रयास करती हैं। हिंदी गजल ने समकालीनता के सवालों से मुठभेड़ करते हुए जो सफर तय किया है, वही त्वरा उसे उर्दू गजल से अलग पहचान देती है। प्रेम को गरीबी, भूख, संघर्ष के बहुरंगी अहसासों से जोड़ते हुए उसे नया अर्थ दिया गया है। विकास ने हिंदी गजल की इस ताकत को न केवल पहचाना बल्कि अपने पाठकों को भी उससे जोड़ने की कोशिश की। तभी तो उनकी शायरी मानवीयता के पक्ष एवं अमानवीयता के विपक्ष में खड़ी होती है। जीवन की हकीकत से रू-ब-रू होती विकास की गजलों को पढ़ना अच्छा लगता है। पुस्तक की गजलों में आप इन हकीकत से दो-चार होंगे ऐसा विश्वास है। रदीफ, काफिया, बह्र, वज्न, जैसे गजल के अनुशासन का पालन विकास ने पूरी ईमानदारी से किया है। बहरहाल! बेहद कम समय में गजल के अनुभवों की जो थाती विकास ने हमें ‘अभी दीवार गिरने दो’ के रूप में सौंपा है, इसे महत्त्वपूर्ण संग्रह के रूप में सहेजा जा सकता है।


Image : Man Seated by a Stream
Image Source : WikiArt
Artist :John Singer Sargent
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पंकज कर्ण द्वारा भी