संवेदना की तलाश की कहानियाँ
- 1 June, 2024
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संवेदना की तलाश की कहानियाँ
रूबी भूषण चर्चित कवयित्री-कथालेखिका हैं। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं, आकाश- वाणी, दूरदर्शन, साहित्यिक मंचों में इनकी रचनाएँ प्रकाशित, प्रसारित होकर चर्चित रही हैं। ‘टेम्स नदी बहती रही’ लेखिका का पहला कहानी संग्रह है। लेखिका के जीवन के प्रति अनुभवों और दृष्टि की गहनता, वैचारिक प्रतिबद्धता, संवेदनाओं की तरलता के साथ कहानियों के विषय का वैविध्य इन्हें विशिष्ट बना देता है। कथा-उपन्यास में यथार्थ के साथ रचनाकार की सृजनात्मक कल्पना इन्हें अख़बार की रिपोर्ट से अलग रूप देती है। लेखिका की कल्पनाशील कहानियों को रोचक बनाने के साथ उनकी साहित्यिक दक्षता और गहराई का प्रमाण है।
‘सुरमा’ स्मृतियों, अपनत्व और बदलते वक्त के साथ बदलती रवायतों की मार्मिक कहानी है। स्मृतियाँ हमारे अंदर बसी मूल्यवान धरोहर होती हैं। विकास के साथ बहुत कुछ बदल गया है। इसके अंदर जाने क्या-क्या टूट गया है। इस टूटने की आवाज बाहर भले न सुनाई दे, लेकिन मन को कचोटती तो है ही। तथाकथित विकास के साथ रेल यात्रा में सुविधाएँ जरूर बढ़ी हैं। अब सफर के दौरान चमड़े सूटकेस, लोहे के संदूक, बिस्तरबंद (होल्डाल), पानी के लिए सुराही के चलन की जगह महँगी ट्रॉली वाली अटैचियाँ, रेल प्रबंधन द्वारा उपलब्ध बिस्तर, बोतलबंद पानी ने आराम तो दिया लेकिन पुराने समय में यात्रा के दौरान सहयात्रियों में बना अपनत्व अब खत्म हो चुका है। हर स्थान अपनी किसी-न-किसी वस्तु के लिए प्रसिद्ध रहा है। बरेली का सुरमा भी दुनिया में प्रसिद्ध था। कथा नायिका की दादी-सास उसके मायके जाने पर बरेली का सुरमा जरूर मँगाती हैं। इस बार दंगों के कारण बाजार बंद होने की वजह से वह हाशिम का सुरमा नहीं ला पाई है। एक दिन दादी कथा नरेटर से अपनी आँखों में सुरमा लगाने के लिए कहती हैं। लेकिन सुरमा लाने के दौरान उनकी आँखें सदा के लिए बंद हो चुकी हैं। सुरमा केवल आँख का अंजन नहीं, परिवार में बड़े-बूढ़ों के प्रति सम्मान, प्रेम और अपनत्व का प्रतीक है। स्मृतियाँ बीते हुए समय और आज के बीच एक ऐसा पुल हैं जिसके पार करने के बाद उस छोर जहाँ से आए हैं, मन की आँखों से केवल देख भर सकते हैं, वहाँ लौटना कभी नहीं होता।
भारतीय समाज में स्त्री को हमेशा उसके न किए अपराध की सज़ा मिलती है। बलात्कृत स्त्री का कोई अपराध नहीं होता लेकिन इसकी दंड उसके साथ उसकी संतान को भी भुगतना होता है–उपेक्षा और तिरस्कार के रूप में। ‘मैं नरेश शुक्ला की बेटी नहीं हो सकती’ इसी मार्मिक पीड़ा को व्यक्त करती है। नरेश शुक्ला-उषा आदर्श दंपति हैं। निस्संतान होने पर भी उनके बीच प्रेम प्रभावित नहीं होता। एक रात एक समारोह से लौट रहे दंपति को सुनसान रास्ते में रोक लूट-पाट और सुंदर उषा के साथ बदमाश दुष्कर्म करते हैं। लूटे-पिटे घर लौटने के बाद बदनामी के डर से पुलिस को भी नहीं सूचित करते। समय बीतने के साथ पत्नी उषा को गर्भ के लक्षण मालूम होते हैं। डॉक्टर से इसकी पुष्टि भी हो जाती है। पति नरेश ही नहीं उषा को भी गर्भ में पलने वाली संतान बलात्कार से प्रतीत होती है। पति-पत्नी दोनों के चाहने के बावजूद इतने समय के बाद गर्भपात संभव नहीं है। अंततः पपिया का जन्म होता है, लेकिन वह पूरे परिवार की उपेक्षा और तिरस्कार के लिए अभिशप्त है। माँ, दादी गुजर चुके हैं। बीमार पिता की तीमारदारी, सेवा पपिया ही करती है। पिता नरेश की किडनी ट्रांसप्लांट होनी है। कहानी का नाटकीय मोड़ आता है–बेटी पपिया की किडनी नरेश शुक्ला से मैच हो जाती है। यानी पपिया नरेश शुक्ला की ही पुत्री है। उस अपराध की सज़ा जीवन भर दिवंगत माँ और उनकी बेटी पपिया भुगतती रही, जिसमें उनका कोई दोष नहीं था। स्त्री के प्रति परंपरा-समाज द्वारा नजरिये पर सवाल उठाती कहानी स्त्री विमर्श के नए आयाम की कहानी है। इसी की अगली कड़ी स्त्री द्वारा अन्य के प्रतिरोध की ‘अघोरिया’ दूसरे आयाम की कहानी है। स्त्री के प्रतिरोध उत्सव बिना कुछ कहे एक संदेश कि स्त्री को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी।
‘उड़ान’ स्त्री की दुश्वारियों, संघर्ष और अंततः जिंदगी का मुकाम हासिल करने की कहानी है। तो ‘राजनीति कौवा और कौव्वी की’ पंचतंत्र की कहानी के माध्यम से बदलते समय में भावना रहित होते जाते मनुष्य की प्रवृत्तियों पर कटाक्ष है। ‘लक्ष्मी’ किन्नर जीवन की मार्मिक कहानी है। अदालत और सरकार द्वारा किन्नरों को मान्यता मिलने के बाद भी समाज में इनके प्रति उपेक्षा और उपहास का भाव रहता है। किन्नरों में भी सामान्य व्यक्ति की तरह और यदि कहा जाए तो इनसे अधिक संवेदना होती है तब यह गलत नहीं होगा। इसका प्रमाण है लक्ष्मी (किन्नर) द्वारा एक अनाथ बच्चे को भीख मँगवाने के लिए बच्चों को अपंग बनाने वाले गुंडों से बचाकर पालना। कहानी उन माँ-बाप को भी सवालों के घेरे में खड़ा करती है जो ऐसे बच्चों को अभिशाप समझते हैं। उन्हें उनकी वास्तविकता से परिचित नहीं कराते–‘यदि हमारे अंगों के बारे में आरंभ से हमें बताया जाता तो हमारी किस्मत ऐसी नहीं होती। क्यों छिपाया गया हमारे अंगों को? स्त्री पुरुष और हम किन्नर सभी तो माँ के गर्भ से पैदा हुए हैं न, फिर हमारे साथ भेद-भाव क्यों?’
‘साया’ धर्म के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा निहित स्वार्थों के लिए फैलाए गए अंधविश्वासों के बीच एक भूली-बिसरी प्रेमकथा की कहानी है। पति-पत्नी अपने अहम में एक दूसरे से लड़ते, झगड़ते रहते हैं। इसका दुष्परिणाम बच्चों को किस कदर अकेला और मानसिक रूप से रुग्ण बना रहता है उनके ख्याल में नहीं आता। बच्चों का विकास ही अवरुद्ध नहीं होता बड़े होने पर वह वैवाहिक जीवन को अभिशाप समझते हुए विवाह ही नहीं करना चाहते। इंग्लैंड में रहते लिंडा और डेविड पति-पत्नी जरूर हैं लेकिन एक बेटी के जन्म के बाद एक छत के नीचे दो अजनबी। दोनों अपने फ्रेंड सर्किल में मस्ती, नशे में रहना, सिगरेट, तेज गाड़ी चलाना दोनों की अलग-अलग जीवन शैली। दोनों अपने-अपने वृत्तों में कैद, जिनकी परिधि एक दूसरे को काटना तो दूर स्पर्श भी नहीं करती। ऐसे दंपति की सत्रह-अठारह साल की प्यारी सी लड़की लीज़ा दुनिया से कटते हुए आत्मकेंद्रित हो गई है। माँ-पिता अलग हो गए हैं। लीज़ा अपनी दादी के साथ रह रही है। उसका एक शौक है वायलिन। एक दिन टेम्स के किनारे वायलिन बजाने के दौरान उसकी भेंट जेन से होती है। जेन के अपने दु:ख और इच्छाएँ हैं। दोनों की एक दूसरे से मित्रता ही नहीं बढ़ती एक दूसरे की ओर दैहिक और उससे ज्यादा मानसिक-हार्दिक रूप से उनके बीच आकर्षण बढ़ता जाता है। मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि प्रत्येक स्त्री के अंदर एक पुरुष, और पुरुष के अंदर किसी गहरे तल में स्त्री छिपी होती है। किन्हीं समलैंगिक आकर्षण-संबंधों के पीछे अपने अंदर के खालीपन को भरने की अतृप्त आकांक्षा क्षिप्र रूप से मौजूद होती है। सीधी-सादी अंतर्मुखी लीज़ा और बोल्ड जेन एक दूसरे के अंदर की रिक्तता को भरने का उपक्रम बनते हैं। लीज़ा ने कभी आइडियल फैमिली देखी ही नहीं है, जहाँ पति-पत्नी एक दूसरे के बिना नीचा दिखाए प्रेम से रहते हों। जेन और लीज़ा टेम्स के किनारे बैठ हमेशा साथ रहने का निर्णय लेती हैं। जेन की बाँसुरी और लीज़ा की वायलिन की जुगलबंदी लोगों को मदमस्त कर देती है। ‘टेम्स नदी बहती रही’ एक साहसिक-बोल्ड विषय पर लिखी बहुत अच्छी कहानी है।
रूबी भूषण की कहानियों में छोटे-छोटे कथा प्रसंग वृहद परिपेक्ष्य से जुड़ते हैं। जीवन दुश्वारियों, अभाव, दु:ख-सुख के बीच चलता रहता है। रिश्तों की आत्मीय ऊष्मा और परस्पर परवाह इस सफर को सरल बना देती है। रूबी ने स्त्री विमर्श की रूढ़िगत छवि से अलग स्थान बनाया है। इनके पात्र, विशेष रूप से स्त्रियाँ, ‘उनकी’ बात कहते हैं जो अपनी बात कहने के लिए मंच पर उपस्थित नहीं हैं। इसी दुनिया के अदृश्य आयामों में प्रवेश कर पात्रों-परिवेश-विवरणों को रेशे-रेशे उधाड़ कर संवेदना के तल की तलाश करती हैं। कहानियाँ व्यक्ति और समाज के जीवन की उतार-चढ़ाव और समाज की सच्चाई और विशेषता का अनुभव कराती हैं। रूबी के लेखन की एक विशेषता यह है कि वह विभिन्न पात्रों के जीवन की सामाजिक और आत्मिक समस्याओं को बड़े संवेदनशीलता से प्रस्तुत करते हैं। कहानी के पात्र, परिवेश, जीवन में आए उतार-चढ़ाव, संघर्ष पाठकों को अपने और आस-पास के प्रतिबिंब प्रतीत होते हैं। कहानियाँ सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और मानवीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती हैं, जो उन्हें एक उत्कृष्ट कथाकार बनाती हैं। भाषा और किस्सागोई संग्रह को पठनीय बनाते हैं।