स्त्री सृजन की आवाँ है

स्त्री सृजन की आवाँ है

दिल्ली की बात जब भी आती है, जेहन में सवाल उतरता है, आखिर यह दिल्ली किसकी है? इस सवाल का जवाब तुरंत तो नहीं मिल पाता; किंतु इतना जरूर ख्याल आता है कि यह लाखों करोड़ों लोगों की दिल्ली है; जिसमें अमीर भी हैं और गरीब भी। यह दिल्ली देश की राजधानी है, इसलिए यह पूरे देश की है। मेरे गाँव की भी है, मेरी भी है और आपकी भी। गाँव का सुंदर और उसका भतीजा अब दिल्ली में रहते हैं। गाँव जवार के कई बेरोजगार लड़के दिल्ली में आकर बस गए। सताए-दबाए गए लोगों ने भी गाँव छोड़कर दिल्ली में पनाह ली। अब दिल्ली में गाँव बन गया है। वहाँ रात में चैता-बिरहा सब सुनाई देगा। गाँव से ही जाकर बसे लोग अब गाँव लौटना नहीं चाहते हैं, क्योंकि उनका कहना है–

‘वहाँ पहले से भी अधिक
बड़े-बड़े राक्षस उग आए हैं
झक-झक सफेद राक्षस।’

समकालीन प्रगतिशील कवि शिवनारायण का कविता-सग्रह ‘दिल्ली में गाँव’ एक ऐसी व्यंजना शक्ति को धारण किए हुए है, जहाँ दिल्ली गाँवों की स्थिति एवं उसका मूल्यांकन कर रही है। यह कम अद्भुत एवं आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं कि गाँव का हाल कवि गाँव जाकर नहीं, दिल्ली जाकर बयाँ करता है और कहता है–

‘गाँव में बुधन की कनिया
देह में आग लगाकर मर गई
क्योंकि एक रात दिशा मैदान के लिए
वह गाँव से बाहर निकली ही थी
कि एक सफेद राक्षस उस पर सवार हो गया
कुछ दिनों बाद नक्सलियों ने
गाँव पर धावा बोल मुखिया की हत्या कर दी।’

सफेद राक्षस से अब तो गाँव पट-से गए हैं। इतना ही नहीं दिल्ली में साहित्य के बाजार का दारोगा भी नियुक्त हुआ है, जो सुंदरियों के प्रेमपत्र लिए घूम रहा होता है। वह किसी को कहीं से फेलोशिप दिलवाने का विश्वास दिलाता है, तो कभी किसी को पुरस्कार समिति में रखवाने का भरोसा देता है और स्वयं को हिंदी समालोचक बताता है। इस तरह ‘दिल्ली की सड़कों पर’ कविता वहाँ के साहित्यिक माहौल की हकीकत से दर्शन कराती है–जहाँ सेटिंग-गेटिंग के आगे साहित्य भी बाजार की वस्तु बनकर रह गई है। उसी दिल्ली के दरियागंज से एक साहित्यिक-पत्र निकलता है–‘हंस, जिसके कभी संपादक थे–राजेंद्र यादव। उन्होंने दलितों को एक नया जीवन दिया था, दलित-विमर्श पर आधारित साहित्यिक विशेषांक निकालकर। यह अच्छी बात थी। किंतु कई जगह, वे हाइजेक भी कर लिए गए, ऐसा कुछ लोग आरोप लगाते हैं। राजनीति में ब्राह्मण और चमारों की साँठ-गाँठ का जीता-जागता प्रमाण उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार रही है। ‘भीड़ की चुप्पी’ कविता में कवि कहता है–

‘अपने अपमान का
प्रतिरोध ही तो किया था मैंने
कि काँटों के झोल में उलझ गया।

एक दलित से मेरे खिलाफ
भाला फेंकवाया गया कि मैंने
उसे जातिगत संबोधन से गालियाँ दी हैं।’

और इधर बिहार में सुशासन का इतना शोर है कि उस शोर में मीना माँझी की आवाज दब गई। जब वह डॉक्टरों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज करने और पैंतालिस गरीबों की मौत के जिम्मेवार लोगों पर प्रश्न खड़ा करती है तो उसके प्रश्न को अनसुना कर दिया जाता है और उसका इलाज कराने वाले विधायक पर डॉक्टरों को प्रताड़ित करने का आरोप लगाया जाता है। ‘मीना माँझी’ और ‘सुशासन की सरकार’ कविताएँ पूरी तरह बिहार में सुशासन की सच की पोल खोल रही हैं। वहीं कवि ने ‘लैलख ममलखाँ’ में एक शानदार प्रेम कहानी को बहुत ही सहज भाषा में, कहानी शैली में चलचित्र की तरह कथा की पूरी व्यथा को संघर्ष के साथ ऐसा उतारा है कि लैलख और ममलखाँ की प्रेम कथा कविता विधा में हमेशा-हमेशा के लिए एक त्रासदी के रूप में अमर बन जा रही है। साथ में लाल पगड़ी धारी अँग्रेज सैनिकों से उसका वीरतापूर्वक लड़ना उसके साहस और नायकत्व की ओर इशारा करता है, जिसके पीछे पहाड़ी बस्तियों का क्रोध भी साथ है। ममलखाँ की प्रेमिका का दिल उसकी नीली पहाड़ी में अटक गया था। आज वे दोनों नहीं हैं। लैलख की आवाज अभी जिंदा है, जिसने कहा था–

‘आगे बढ़ो
बुजदिल फिरंगियों को खदेड़ भगाओ
अंगदेश के वीर पुत्रो आगे बढ़ो।’

सूर्यपुत्र कर्ण सहज ही ध्यानस्थ हो जाता है, जब वह कहती है–अंगदेश के मेरे पुत्रो।

‘प्रकृति के साथ’ मनुष्य ने बहुत छेड़छाड़ किया। प्रकृति गुस्सा में आग उगल रही है। पृथ्वी काँप रही है। जंगलों को साफ किया जा रहा है। शहरीकरण की अंधी दौड़ शुरू है। उत्तराखंड में पिछले समय प्रकृति ने अपना भयानक रौद्र रूप दिखाया। फिर भी मनुष्य मान नहीं रहा। प्रकृति के साथ मनमानी कर रहा है। लगता है प्रकृति भी पितपिता गई है–

‘बादल फटता रहता है
धरतीवासियों को पता भी नहीं चलता
कि क्या कुछ लीलकर शांत हो गया वह।’

पिछले दिनों कुछ मुस्लिम महिलाओं के साथ बातचीत का मौका मिला। वे पढ़ी-लिखी थीं। नौकरी करती थी। मगर ख्यालात उनके प्रोग्रेसिव नहीं लगे। जितना कि हमें आशा थी। वे भी धार्मिक कट्टरता की शिकार थीं। मुझे ताज्जुब हुआ जब उन्होंने कहा औरत को आखिर नौकरी करने की जरूरत ही क्या है? उसका शौहर चाहे उसे जैसे रखे। शेष लोगों को इस पर बोलने का अधिकार नहीं, क्योंकि वे मुस्लिम नहीं। वाह! एक ओर आप और दूसरी तरफ मलाला की आवाज, जो ब्रिटेन के एक अस्पताल में नौ महीने जीवन और मौत के बीच जीवन का जंग लड़ती रही और कट्टर तालिबानियों के आगे हाथ नहीं खड़े किए। वे अभी तक कह रही हैं–

‘आज मैं अपने लिए नहीं बोल रही
उन सबके लिए बोल रही हूँ
जिनके हक की आवाज नहीं सुनी गई
मैं वही मलाला हूँ
मेरी महत्वाकांक्षाएँ वही हैं
उम्मीदें वही हैं
और मेरे सपने भी वही हैं
मैं तालिबानियों से बदला नहीं चाहती
बस, इतना चाहती हूँ
कि हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार मिले
तालिबान के बेटे-बेटियों को भी शिक्षा मिले।’

 हमारी ‘निर्भया’ अपने जीवन की जंग तो हार गई; किंतु मर कर भी अमर है। उसने दिल्ली ही नहीं दुनिया भर की औरतों को एक संदेश भेजा है कि मर्दों का समाज कितना गंदा है, जहाँ एक लड़की इक्कीसवीं सदी में भी सुरक्षित नहीं है। कवि शिवनारायण उस निर्भया की ओर से ललकारते हुए यह कहते हैं कि–

‘तुम्हें गलत साबित करना है
उन सबको जो कहते हैं कि
धीमी-धीमी आँच में ही लड़कियाँ सीझ जाती हैं
तेज आँच की गंध उन्हें पसंद नहीं।’

सरकार की सेज नीति ने किसानों को क्या दिया? मौत या अनाज? माघ के फूल या बरखा की बहार? कुछ नहीं। ‘फूलों का साज’ कविता यही बताती है। ‘खेल सुशासन’ और ‘रामे वाम’ भगवा भालुओं पर व्यंग्य की कविताएँ हैं। जहाँ स्पष्ट कुछ भी नहीं है। है तो सिर्फ भाषण, नारेबाजी और मोदी का चकमा।

इस तरह शिवनारायण ने आम भाषा में आम जन को आकार दिया है अपनी कविता में। ‘दिल्ली में गाँव’ आमजन के स्पेस का कविता संग्रह है, जहाँ जनपक्षधरता साफ है और जन के पक्ष में खड़ा कवि हर जगह सीधे टकरा रहा है। टकराते वक्त उसमें कहीं भी माया-मोह और समझौता नजर नहीं आता है। कवि कभी-कभी ‘टीशन वाली स्त्री’ और ‘अपेंडिक्स का ऑपरेशन’ कविता के माध्यम से दर्द और सम्मोहन का सच रच डालता है; जहाँ एटोमेटिक आशा, स्नेह और संवेदना पैदा हो जाती है। ‘बाला मुस्कुरा रही है’ न्याय की टकटकी लगाए उस बाला की दर्द भरी कहानी को अंगीकार करती कविता है, जिसके आगे पूरी व्यवस्था कठघरे में खड़ी हो आई है और पूरा समाज भी, जहाँ मानसिक रूप से कमजोर व विकलांग बाला के गर्भ में वीर्यारोपण कर समाज, भाग खड़ा होना चाहता है। किंतु कोर्ट उसके साथ खड़ा है–

‘कि मानसिक रूप से
कमजोर होने मात्र से ही
किसी को माँ बनने से नहीं रोका जा सकता है।’

इनके अलावा भी शिवनारायण जी ने कई ऐसी कविताएँ लिखी हैं, जो अपने कथ्य, तथ्य, संवाद और भाषा से अपनी ओर विशेष रूप से ध्यान खींचती हैं। उनमें से ‘पास की दूरियाँ’, प्रतिरोध’, ‘झुके जहाँ-तहाँ’, ‘मानुष से प्यार’, ‘शमशान’, ‘नदी’, ‘खेल यह निराला’ महत्त्वपूर्ण है। शिवनारायण की कविता की सबसे बड़ी ताकत है–कथ्य एवं साफगोई। वे बिना किसी डर-भय के, बिना लाग-लपेट के, बिना कोई बड़ी भूमिका बाँधे अपनी बात कविता के द्वारा कह डालते हैं। उनकी कविता करने की यह ताकत व कहने के तरीके मन-मिजाज को बाँध लेते हैं। यही स्टाइल उन्हें बड़ा कवि बनाता है। निःसंदेह ‘दिल्ली में गाँव’ पढ़ने और सहेजने योग्य कविता संग्रह है।


Image :  A Meeting of the School Trustees
Image Source : WikiArt
Artist : Robert Harris
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