प्रतिरोध की सीधी-सादी कविता का जन्म

प्रतिरोध की सीधी-सादी कविता का जन्म

‘दिल्ली में गाँव’ सुधी, दृष्टिसंपन्न और निर्भीक कवि शिवनारायण की कविताओं का तीसरा संग्रह है। इस संग्रह में सीधी-सादी कविता का जन्म हुआ है। ऐसा कहने का अभिप्राय यह नहीं कि यह जन्म नया या पहला है। वस्तुतः किसी भी कविता में नया और पुराना या पहला और अगलापन नहीं होता। हर कविता अपनी प्रकृति से ही अपने जन्म की कथा है। अगर इस कथा में निर्भीकता से अनुभव किए गए प्रतिरोध का स्वर है तो यहीं ऐसी कविता अलग से एक स्थापना की माँग करती है। पेश है सबसे पहले शिवनारायण के प्रतिरोध की सीधी-सादी कविता के लिए एक तात्कालिक स्थापक प्रस्तावना।

तात्कालिक प्रतिक्रिया से कविता नहीं होती क्योंकि कविता में चित्र और चित्र में कविता होती है जिसमें अपना राग और रंग होता है। शब्द का विकल्प होता है, रंग-राग का नहीं। कविता में रंग-राग मानवीय त्रासदी के संस्पर्श से आता है। ऐसी त्रासदी कवि के भीतर पकती रहती है। ऐसी कविता ही ‘शेयर’ करती है। यह ‘शेयरिंग’ तभी होती है जब कवि त्रासदी का साक्षात्कार करता है, उपसर अपना फैसला नहीं थोपता। यही कविता की राजनीति है। कुछ भी आरोपित नहीं किया जाए–भावक पर छोड़ दिया जाए कि वह स्वयं कविता की संवेदना का हिस्सा बने। ऐसा तभी होता है जब भाषा बहुत सादी-सीधी हो। पाठक उसका पार्टनर हो जाए। यही कविता का छनना (फिल्टरेशन) है। ऐसे फिल्टरेशन से ही कविता की आत्मा का साझा होता है। कविता की आत्मा बाहर प्रतिबिंबित होने लगती है तभी। आखिर जो बाहर होता है उसी का फिल्टरेशन कविता करता है। बाहर से भीतर के लगाव का ही नाम कविता है। यह लगाव हमेशा वस्तुपरक हो–यही शर्त है। जीवन, मनुष्यता, समझ को बचाने के लिए कवि का यही प्रयोग या एप्रोच है। मानवीय त्रासदी के सेड्सों का बोध बचेगा तभी जीवन और तभी कविता बचेगी। कविता यथार्थ जीवन की उदासी और खुशी की प्रतिक्रिया नहीं, प्रतिरोध है इसी अर्थ में एक गतिशील रूपांतरण। इसीलिए कविता कभी सतह सरफेस पर नहीं होती। कविता में जीवन-दृष्टि के आंदोलन की सफाई होनी चाहिए। यह सफाई सीधी-साफ हो तभी कविता कविता है। कविता कभी समझौता नहीं कर, प्रतिरोध को अर्थपूर्ण तरीके से रचती है। यही समय के साथ कविता के साकारात्मक लगाव को व्यक्त करता है। यही अंततः यथास्थिति के खिलाफ कवि की गवाही भी है। कविता में सरोकारों का पसीना चूना चाहिए–कविता टेबुल पर नहीं घटित होती। मानवीय संस्कृति का अनवरत विकास लोकतांत्रिक रहे–यही कविता की समझ है। इसे ही समकालीनता कहते हैं…।

यह पूरी की पूरी प्रस्तावना ‘दिल्ली से गाँव’ संग्रह की हर कविता पर लागू होती है। कवि को दिल्ली में अपना गाँव मिल गया है–त्रासदी के बीच ऐसे ही उल्लास में इस संग्रह की कविताओं का जन्म हुआ है। कवि के भीतर का गाँव, गाँव छोड़कर भी एक उपार्जन की तरह उसका उपजीव्य है। इस संग्रह की हर कविता में इसी उपजीव्य की करुणा है। किस कविता का नाम लें। एक कविता है–‘टीशन वाली स्त्री’। कवि की व्यथा कॉसमिक हो जाती है–‘सृष्टि में भरी हुई है स्त्री/पर उसमें वह टीशन वाली स्त्री कहाँ है’ जिसमें वास्तविक माँ है। टीशन वाली माँ सारे काम करती जाती है और काम के पूरा होते ही इस असार संसार से विदा हो जाती है–किसी लोकल ट्रेन को पकड़कर।

इसी तरह शिवनारायण के इस संग्रह की हर कविता एक घटना पर केंद्रित है जिसमें कोई लफ्फाजी या दिखावटीपन नहीं है। जहाँ भी खिलवाड़ हो रहा है कवि वहाँ मौजूद है–एक जरूरी उपस्थिति की तरह। वह मात्र अपनी उपस्थिति की कथा कहकर फिर भी चुप नहीं है। नहीं दिख रहे को दिखा देता है। उन पात्रों को सामने ला देता है जो जड़ों में हैं। ध्वनि है कि सर्वत्र मौन है–सूबे की सरकार मौन है।

कथा जैसी लंबी कविता कहने का शिल्प कोई शिवनारायण से सीखे। इसे ही मैं चित्र में कविता कहता हूँ। निर्भीकता, साहस ऐसा कि स्वांगी पुलिस अधिकारी के साहित्य प्रेम और सुशासन की सरकार को भी कवि नहीं बख्शता। ‘बड़ा राइटर-1 और 2’ भी साहित्यकारों के रस-रंजन सुख का पोल खोलती है। तो इसे कोई क्या कहेगा–प्रतिरोध की कविता ही तो। कहाँ दिखती हैं ऐसी निर्द्वंद्व साहसी कविताएँ। जैसे कवियों ने बाजार से समझौता कर लिया हो–यही परिदृश्य है कोई ‘जीवन-रस’ का पता करने की तरफ नहीं जा रहा।

शिवनारायण के पास कुछ आत्मवादी कचोट की भी कविताएँ हैं। एकदम झलकती हुई कविताएँ। तो इन्हें झलकता हुआ कवि-कर्म कहने में हर्ज क्या है? अपने कवि कर्म से ये पास रहकर अपने समय के लोगों की तरह दूर नहीं हैं। उसकी तैयारी एक प्रचंड प्रतिरोध के लिए है। मानुष्य से प्यार के लिए है। कुछ व्यंग्य के लिए भी–‘आओ-खेलें-खेल सुशासन’ संकेत पर्याप्त हैं। सामान्यता का बोध जैसा है–शिवनारायण ने ज्यों-का-त्यों उसे रख दिया  है।

आज एक पूरी-की-पूरी कविता-पीढ़ी रचना की जमीन पर सक्रिय और आसीन है। पर यह काव्य पीढ़ी केवल अपने लिए और कवियों के लिए ही मात्र कविताएँ कह लिख रही है। साधारण पाठक के लिए कविता लिखना यहीं एक असाधरण कवि-कर्म है। यही शिवनारायण ने जनबोधी और जन समर्थक स्वरों की अपनी स्वतंत्र पहचान की है। प्रतिरोध की कविता राजनीति का फॉर्म नहीं बने इससे ये बच गए हैं। किसी तरह की यांत्रिकता से भी। कविता से प्रतिबद्धता का यही परिप्रेक्ष्य एक स्वीकार की तरह शिवनारायण की कविताओं का सौंदर्य है। प्रश्नाकुलता का सौंदर्य जो वर्तमान में कविता का चरित्र है।


Image: Kalbundipore
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