श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ दलन मुक्ति के लेखक

श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ दलन मुक्ति के लेखक

शब्द साक्षी है

तमाम संघर्ष और कठिनाई के बावजूद दलित के जीवन में प्रेम और खुशियाँ आई हैं। इसका श्रेय दलित समाज के उन महान सद्गुरुओं को जाता है, जिनके चिंतन और कुरबानी से दलित चिंतन को एक ठोस जमीन मिली है। इस जमीन के ऊपर ही दलित लेखक अपने स्वतंत्र चिंतन और धर्म की खोज की ओर अग्रसर हैं। इन महान सद्गुरुओं का चिंतन दलित जीवन की कसौटी बना हुआ है। मैं इस कड़ी में वरिष्ठ दलित लेखक प्रो. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के जीवन संघर्ष और उनके चिंतन को देखता हूँ। मेरी इस बात से कोई असहमत हो सकता है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनका संघर्ष और चिंतन दलित साहित्य की नींव है। वे पिछले दो दशकों से दलित साहित्य चिंतन को लेकर गंभीर विचार करते आ रहे हैं। उनके चिंतन के केंद्र में दलित समाज की वे समस्याएँ हैं, जिनसे दलित समाज जूझ रहा है। उनके चिंतन और साहित्य से दलित जीवन की वास्तविक तस्वीर सबके सामने उभर कर आई है।

दलित चिंतन जिस दौर में अपनी स्वतंत्र वैचारिकी और इतिहास की खोज में लगा हुआ था उस समय हिंदी के आलोचकों द्वारा उस पर निर्मम प्रहार कर उसे खारिज करने का षड्यंत्र किया जा रहा था। सन् 2005 दलित चिंतन की दृष्टि से बहुत संघर्ष का साल रहा था। यह साल दलित दृष्टि से दलित चिंतन की कसौटी, उसकी वैचारिकी, प्रतिबद्धता और कौन दलित चिंतन के पक्ष और विरोध में है इसको परखने का था। इस वर्ष दलित चिंतन के विरोध में जहाँ द्विज आलोचकों की ओर से षड्यंत्र किए जा रहे थे, वहीं दूसरी ओर कुछ दलित लेखक और लेखिकाएँ सवर्णों के साथ मिलकर दलित चिंतन को पिटवा रहे थे। इसी वर्ष डॉ. धर्मवीर की आलोचनात्मक पुस्तक ‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’ प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक के लोकार्पण में कुछ दलित लेखिकाओं द्वारा डॉ. धर्मवीर पर चप्पलें फेंकी गई। इसके बाद एक सुनियोजित ढंग से इस पुस्तक पर खूब राजनीति हुई। कुछ आलोचकों ने उनकी किताब ‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’ को और डॉ. धर्मवीर को स्त्री विरोधी बताया। इस समय कई दलित लेखकों में वैचारिक विचलन देखा गया। लेकिन श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ किसी लेखक के बहकावे में नहीं आए। यह वह दौर था जब दलित लेखकों को दलित लेखकों से लड़वाया जा रहा था।

कुछ दलित लेखकों ने अपनी स्वार्थपरता के चलते डॉ. धर्मवीर के विरोध में जमकर भाषणबाजी की और लेख लिखे। वह दलित लेखकों में विचलन और फिसलन का दौर था। ऐसे समय में प्रो. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ ने अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए आलोचना के मठों और गढ़ों में बैठे मठाधीशों पर वैचारिक प्रहार करके दलित चिंतन की लड़ाई एक योद्धा की तरह से लड़ी थी। उस समय डॉ. धर्मवीर के पक्ष में आने का अर्थ था कि अपनी नौकरी और साहित्यिक जीवन को दाँव पर लगा देना। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ उस समय दिल्ली के एक कॉलेज में प्रवक्ता थे। आज की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नहीं थे। वे चाहते तो अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए द्विजों के षड्यंत्र में शामिल होकर उनका साथ दे सकते थे। लेकिन उन्होंने दलित चिंतन और साहित्य के विरोध में कोई समझौता नहीं किया। जब हिंदी के कई दलित लेखक और लेखिकाएँ द्विज आलोचकों के सुर में सुर मिलाकर दलित विचार को खारिज करने में जुट थे, डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ ने उसी समय में दलित चिंतन के पक्ष में ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए, ‘साहित्य में संवाद चले या चप्पल-जूते?’ लेख लिखकर षड्यंत्र को उजागर किया था। वे जब डॉ. धर्मवीर के पक्ष में खुलकर आए तो उनको साहित्यिक गुंडों की तरफ से धमकियाँ दी जा रही थी कि उन्हें नौकरी और साहित्य दोनों से खारिज कर दिया जाएगा। श्यौराज सिंह बेचैन यह जानते थे कि धर्मवीर के खारिज होने का अर्थ था दलित चिंतन का खारिज होना।

सन् 1998 में हिंदी आलोचना ने एक करवट बदली थी जब डॉ. धर्मवीर की आलोचनात्मक किताब ‘कबीर के आलोचक’ आई। इस किताब ने हिंदी के आलोचकों में काफी उथल-पुथल मचा दी। हुआ यों कि डॉ. धर्मवीर ने आचार्य शुक्ल से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी सहित कबीर पर काम करने वाले विद्वानों को सवालों के घेरे में खड़ा करते हुए, सवाल उठाया कि हिंदू विद्वानों ने कबीर को रामानंदी दृष्टि से जाँचा और परखा है। कुछ प्रगतिशील आलोचक डॉ. धर्मवीर के पक्ष में आए। लेकिन उनकी प्रगतिशीलता की पोल तब खुल गई, तब ‘कबीर के आलोचक’ को हिंदी आलोचना की किताब न कह कर दलित विमर्श की किताब कहा गया। यानी, प्रगतिशील आलोचकों को प्राचीन कबीर स्वीकार हैं और भविष्य के कबीर भी स्वीकार हैं, लेकिन डॉ. धर्मवीर के कबीर स्वीकार नहीं हैं। इस पूरे प्रकरण से श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ पूरी तरह से वाकिफ थे। वे एक गंभीर चिंतक की तरह से हिंदू आलोचकों की रणनीतियों को समझने में लगे हुए थे। ऐसे में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ ने दलित चिंतन के पक्ष में एक जबरदस्त स्टैंड लेते हुए ‘इक्कीसवीं सदी के कबीर’ लेख लिखकर परदे के पीछे की राजनीति को उजागर किया। इस लेख के आने से कई लेखक जो उनके दोस्त थे, दुश्मन बन गए। क्योंकि इस लेख में कई लेखक एक्सपोज हुए थे।

हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने कविता, कहानी, आलोचना और आत्मकथा लिखी है। उनकी आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ आजादी के बाद भारत के बच्चों के बचपन की त्रासदी बड़ी बेबाक ढंग से उजागर करती है। लेखक बड़ी सादगी और ईमानदारी के साथ एक ऐसे भारत में ले जाते हैं जहाँ पीड़ा  और दर्द को सहते हुए बच्चे अपने बचपन को अपने ही कंधों पर ढो रहे हैं। इन बच्चों के जीवन में पीड़ा और दर्द के सिवाए कुछ नहीं है। यह आत्मकथा प्रत्येक उस बच्चे की कथा कहती है जो नींबू बेचते, बूट पॉलिस करते, रेलगाड़ी में झाड़ू लगाते, बेलदारी करते, होटल में बर्तन धोते, गाँव में मजदूरी करते हैं या फिर जो स्कूल जाने से वंचित रह जाते हैं। दलित चिंतक डॉ. धर्मवीर इस आत्मकथा को लेकर जब यह लिखते हैं, ‘यह आत्मकथा भारतीय बच्चों पर उपकार है’ तो वे सही लिखते हैं।

इस आत्मकथा को लेकर भी गैर दलित आलोचकों ने खूब राजनीति की और श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ पर आरोप लगाया कि उनकी आत्मकथा की चर्चा ना होने से वे दुखी हैं। आज दलित साहित्य अपने बल पर आगे बढ़ रहा है। इसको किसी की सिफारिश की जरूरत नहीं है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के दु:ख का कारण यह नहीं है कि उनकी आत्मकथा कि चर्चा क्यों नहीं हो रही है, उनकी चिंता का कारण तो यह है कि गैर दलित लोग उनके समाज के साथ अन्याय क्यों कर रहे हैं? यह श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के लिए सुखद समय है कि उनकी आत्मकथा साहित्य की दुनिया में बिना किसी सिफारिश से निरंतर आगे बढ़ती जा रही है। प्रो. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का जीवन संघर्ष प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है जो संघर्ष करते हुए तमाम झंझावातों से टकराते हुए, जहालत भरे जीवन से निकलने की चाह रखते हैं। उनकी कविताओं और कहानियों में दलित जीवन की वास्तविक तस्वीर देखी जा सकती है।

दलित चिंतन में आज दो धाराएँ साफ तौर पर देखी जा सकती है। एक धारा वह है जो गैर दलितों को खुश करने के लिए दलित साहित्य लिख रहा है। हालाँकि यह धारा अब लुंजपुंज हो गई है, क्योंकि गैर दलितों की तरफ से इस धारा के लेखकों को कुछ मिला नहीं। इसी धारा के साहित्य पर द्विज आलोचक आत्ममुग्ध दिखाई देते हैं, क्योंकि यह धारा उनके मनोनुकूल साहित्य लिख रही थी। द्विज आलोचक की ओर से यहाँ तक घोषणाएँ की जाती रही हैं कि अमुख लेखक से अच्छी दलित साहित्य में कोई दूसरी रचना नहीं है। दलित लेखक के साहित्य को लेकर यह माना जाए कि सभी दलित लेखकों ने मिलकर दलित साहित्य की एक ही किताब लिखी है। यह बात डॉ. धर्मवीर के शब्दों में कही जा रही है। वे लिखते हैं, ‘हिंदी के पूरे दलित साहित्य ने एक किताब लिखी है। ‘अपने-अपने पिजरे’, ‘जूठन’, ‘तिरस्कृत’, ‘संतप्त’, ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’, ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’, ‘मुर्दहिया’ आदि उसके क्रमवार अध्याय हैं।’ दूसरी धारा वह है जो गैर दलित से मुक्त होने के लिए अपना साहित्य और चिंतन दे रही है। इस दूसरी धारा के चिंतन में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का चिंतन और साहित्य आता है, जहाँ एक ओर कुछ दलित लेखकों का लेखन जाने-अनजाने गुलामी की ओर अग्रसर है वहीं दूसरी ओर श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का लेखन अपने कौम को गुलामी से बचाते हुए मुक्ति का लेखन है।


Image : Portrait of writer Vsevolod Mikhailovich Garshin
mage Source : WikiArt
Artist : Ilya-Repin
Image in Public Domain