सपने और उम्मीदों की कविताएँ
- 1 August, 2015
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- 1 August, 2015
सपने और उम्मीदों की कविताएँ
किसी भी कवि के लिए युग के दबावों को अनदेखा करना संभव नहीं होता। उसकी चिंता के केंद्र में समय, समाज, सत्ता, जीवन-मूल्य होते हैं। वैसे भी कविता के सरोकार मूलतः मनुष्य के सरोकार ही होते हैं और कवि को अपने समय की विपरीत परिस्थितियों का अहसास रहता है। हालाँकि यह बात उन कवियों या रचनाकारों पर लागू नहीं होती जो जीवन की सामाजिकता को नहीं, व्यक्तिगत नजरिये में यकीन करते हैं। शायद यही कारण है कि मानवीय स्मस्याओं, जीवन व मूल्यों और समय को केंद्र में रखकर लिखी जाने वाली कविताएँ पाठकों के साथ आत्मीय और अंतरंग संवाद करने में सक्षम होती हैं। ऐसी ही कविताओं का एक संग्रह है ‘दिल्ली में गाँव’। सुप्रतिष्ठ कवि शिवनारायण का यह तीसरा काव्य-संग्रह है। इसके पूर्व ‘काला गुलाब’ और ‘सफेद जनतंत्र’ नाम से उनके दो काव्य-संग्रह छप चुके हैं। दोनों पुस्तकों के कई-कई संस्करण भी हुए। ‘काला गुलाब’ पर तो कवि को सन् 2003 में बिहार सरकार का सर्वोच्च काव्य-सम्मान ‘नागार्जुन पुरस्कार’ भी मिला। आलोच्य संग्रह की कविताओं के सहारे शिवनारायण ने आजादी के 68 वर्षों के बाद भी बदहाल एवं उजड़ते गाँवों के साथ-साथ महानगरों के कोने-कोने में हर दिन बसते-उजड़ते गाँवों की स्याह किंतु उम्मीद भरी दुनिया की सच्चाई को आँकने की कोशिश की है। देश के विभिन्न हिस्सों में विकास के बड़े-बड़े दावों के बीच सिसकते, सिमटते और उजड़ते गाँवों और ग्रामीणों की पीड़ा ‘दिल्ली में गाँव’ शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में समाहित है–‘भैया जी, गाँव में अब/केवल बच्चे-बूढ़े रह गए/जवान सब तो यहाँ खट रहे हैं/यहीं दिल्ली में अपने लोगों का गाँव है’/…यहीं शास्त्री पारक में अपना गाँव है न!/आप कभी रात में आइये हमारे गाँव/चैता-बिरहा सब सुनायेंगे आपको!…/भैया जी, अब मुलुक लौटकर क्या होगा?/वहाँ अब पहले से भी अधिक/बड़े-बड़े राक्षस उग आए हैं/झक-झक सफेद राक्षस!’
शिवनारायण की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बहुत ही सहज ढंग से संप्रेषित होती जाती हैं। न तो यह बौद्धिकता के दबाव में बोझिल होती है और न ही सहज-सरल शब्दों के कारण अपने लक्ष्य से भटकती हैं। सहजता और सरलता अपने आप में कितनी प्रभावकारी है, इन पंक्तियों को गुनगुनाते हुए समझा जा सकता है–‘भीड़ को सब मालूम है/समाज सब देखता है/फिर भी सारे चुप हैं!/कब टूटेगी यह चुप्पी!!’
कवि ने वाग्जाल में पड़े बिना ग्रामीण जीवन की विसंगतियों, विशेष कर ग्रामीण युवाओं के कड़वे सत्य और अनुभवों को आसानी से अभिव्यक्ति दी है। ‘गाँव-जवार में इनके लिए कोई काम नहीं/दबंगों और पुलिस का शोषण चरम पर/अपना ही मुलुक इनके लिए कसाईबाड़ा है/पत्नी बच्चे और जमीन का मोह/इन्हें गाँव खींच ले जाता है/पर इनके पंख मुलुक में जम नहीं पाते/कुछ दिन मुलुक में प्रवासी सा रहकर ये/फिर महानगरों की ओर उड़ जाते हैं!’ प्रसिद्ध कवि-चित्रकार हरिपाल त्यागी के शब्दों में–‘कवि त्रिलोचन जी की ‘नगई महरा’ और ‘भोरई केवट के घर’ की तरह शिवनारायण के यहाँ भी व्यक्ति प्रधान कविताएँ हैं जो निचले जीवन स्तर पर जी रहे लोगों के दुःख-दर्द की थाह लेती हैं।’ यह तथ्य कवि की सामाजिक पक्षधरता को सामने लाता है। ‘मानुष से प्यार’ एक ऐसी ही कविता है–‘जिन रिश्तों के नाम नहीं होते/समाज उसकी चिंता नहीं करता/पर जिन रिश्तों के नाम होते हैं/उसके दुःख संताप को काल/ओझल कर देता है।’
‘सुशासन की सरकार’, ‘खेल’, ‘रामे वाम’, ‘फूलों का साज’, ‘सुशासन’, ‘प्रतिरोध’, ‘मीना माँझी’ और ‘जनतंत्र की रक्षा के लिए’ के बहाने कवि ने विकास के कथित बड़े-बड़े दावों की पड़ताल की है। भूमंडलीकरण और बाजारवाद के इस निर्मम दौर में अर्थतंत्र ने सामाजिक विषमता तो पैदा की ही है, तथाकथित विकास ने भ्रष्टाचार को नई ऊँचाइयाँ भी दी हैं। शासन और सरकार किस बेहयाई से जन सरोकारों से भागती है, जनता के मुद्दों से कन्नी काटती है और मीडिया के लिए नित नए पोज धरती है, इसका बड़ा ही सटीक चित्रण ‘सुशासन की सरकार’ में देखने को मिलता है। कविता की आखिरी पंक्तियों में कवि ने सवाल जोड़ा है–‘जनता हैरान है/कि आखिर लोकतंत्र में/क्यों काबिज है लोक पर तंत्र?/क्यों सत्ताधारी दल, सरकार/कर रहे हैं असहमतियों पर हमला?/साठ पार के जनतंत्र में/कैसे होंगे फिर/आम आदमी के सपने साकार!/क्या यही है सुशासन की सरकार?’
‘दिल्ली में गाँव’ की कविताओं में जहाँ एक ओर गाँव और ग्रामीणों की चिंता के साथ-साथ श्रमिक विस्थापन की पीड़ा है, वहीं सांप्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद के बढ़ते खतरे से लड़ने वालों की हौसला आफजाई भी है। ‘मलाला की आवाज’ और ‘मुक्तिगीत’ ऐसी ही सशक्त संवेदनक्षम कविता है, तो ‘भीड़ की चुप्पी’ दलितों की आड़ में सवर्ण वर्चस्व की आक्रामकता के विरुद्ध शंखनाद है। यह कविता हर प्रकार के भ्रष्टाचार से मोर्चा लेने को उकसाती है।
‘काला गुलाब’ और ‘सफेद जनतंत्र’ की कड़ी में ‘दिल्ली में गाँव’ भले ही शिवनारायण का तीसरा कविता संग्रह है, लेकिन वे कविता से इतर कहानी, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में भी लगातार अपनी लेखन सक्रियता बनाए रखते हैं और शायद यही कारण है कि उनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या तीन दर्जन के आँकड़े को पार कर गई हैं। कहानी, निबंध, आलोचना, संस्मरण आदि विधाओं में निरंतर लिखने वाले शिवनारायण मूलतः कवि हैं और इनका काव्य-कर्म मुख्यतः जनतांत्रिक जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए सत्ता-संस्कृति का प्रतिरोध है।
‘दिल्ली में गाँव’ संग्रह की एक विशेषता यह है कि इसकी कविताओं से गुजरते हुए बड़ी ही सहजता से यह समझा जा सकता है कि कवि ने किस-किस संदर्भ में कविता रची है। कविता के अंत में उसकी रचना तिथि इस कार्य को आसान बना देती है। पाठकों को यह सहज अनुमान हो जाता है कि इस कविता के माध्यम से कवि का आशय क्या है। संग्रह में कोमल भावों की कुछ खूबसूरत कविताएँ भी शामिल हैं। ‘मधुमास छुवन’, ‘कई बार’, ‘जीवन रस’ और ‘प्रेमधारा’ ऐसी ही कविताओं की सूची में शामिल की जा सकती हैं। ‘विदा होती बेटी’ भारतीय समाज में बेटियों के सोच में आए बदलाव का संकेत करती है। संग्रह की ‘लैलख ममलखाँ’ और ‘बड़ा राइटर’ (भाग-1 और 2) अनूठी कविताएँ हैं, जिसकी चर्चा जरूरी है। ‘लैलख ममलखाँ’ है तो बुहत ही खूबसूरत प्रेम कविता, लेकिन मेहनतकश जमात के नायकों की पहचान को जिंदा रखने की सफल कोशिश भी है। ‘बड़ा राइटर’ के बहाने तथाकथित वाम विचारधारा के रचनाकारों के कपटपूर्ण आचार-व्यवहार की एक बानगी प्रस्तुत की गई है, जो राजनीति को राह दिखाने वाले साहित्य से जुड़े लोगों के भ्रष्ट आचरण को दर्शाती है। इस कविता के बहाने कवि की चिंता समाज की उस चिंता में शामिल है जो उनके चरित्र को नेताओं के चरित्र से होड़ लेती दिखती है। इसी तरह ‘पास की दूरियाँ’ शीर्षक कविता में अपार्टमेंट कल्चर का चित्रण है। अपार्टमेंट कल्चर एक प्रकार की भीड़ सोसायटी है। इस सोसायटी में पास-पास रहकर भी लोग एक-दूसरे से कोसों दूर होते हैं। उनमें अपनापन पनप नहीं पाता। चाहकर भी यह समाज का रूप नहीं ले पाता। तमाम भौतिक सुविधाओं का उपयोग करने वाले चाहकर भी परस्पर प्रेम सृजित नहीं कर पाते। वे अपने एकाकी जीवन में ही संतुष्ट होते है। यह प्रवृत्ति व्यक्ति को समाज से विलग करती है। कवि ने इस कविता में पास-पास रह रहे लोगों में व्याप्त दूरियों का खूबसूरत चित्रण किया है।
‘दिल्ली में गाँव’ की कविताओं के बहाने शिवनारायण ने समाज के वर्तमान परिदृश्य को बड़ी ही सहजता से पाठकों के सामने रखने की कोशिश की है। 21वीं सदी में डेढ़ दशक की यात्रा के बाद हम किस धारा में बह रहे हैं और यह हमें कहाँ ले जाएगी, भले इसकी चिंता अंध दौड़ ने खत्म कर दी हो, लेकिन समय और समाज की यह अनदेखी कहीं मानव और मानवता पर भारी न पड़ जाए, यह चिंता तो वाजिब है। ‘दिल्ली में गाँव’ से गुजरते हुए बार-बार यह अहसास होता है कि हमें अपने सपने और उम्मीदों को जीवित तो रखना ही है।
Image : Forest Sunrise
Image Source : WikiArt
Artist : Albert Bierstadt
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