थप्पड़

थप्पड़

सुषमा प्रधानाचार्या की केबिन से बाहर निकली और उसे कुछ चक्कर-सा आ गया। वह थोड़ी देर के लिए दीवार के सहारे खड़ी रह गई। वहाँ स्टूल पर बैठे नाथूभाई एकदम खड़े हो गए, ‘कोई तकलीफ है, मेम, कुर्सी लाऊँ?’

‘नहीं, नहीं, नाथूभाई। थैंक यू। यह तो बस ऐसे ही!’ कहती हुई सुषमा आहिस्ता-आहिस्ता सीढ़ी की तरफ बढीं। सीढ़ी के पंद्रह सोपान उन्हें आज पंद्रह मंजिल जैसे लगे। 

स्टाफ रूम में जाकर सुषमा कुर्सी में जैसे गिर पड़ी। थोड़ी देर तक तो वह शून्यवत होकर सामने रखी नोटबुक्स की तरफ देखती रही। फिर उसके विचारों की धारा जलप्रपात की तरह दिमाग में उमड़ आई। ‘अभी तो कितना काम पड़ा था! इतनी सारी नोटबुक्स देखनी थी। अचानक पाँच-छह शिक्षक बीमार हो गए थे और फ्री पीरियड तो मिल ही नहीं रहा था। शिक्षक को तो वैसे भी देह से और दिमाग से–दोनों लड़ाइयाँ लड़नी होती है। टाइम-टेबल के अनुसार तो हर-रोज दो पीरियड फ्री मिलने चाहिए। लेकिन कई दिनों से रोज आठ-आठ पीरियड लेने पड़ते थे। शाला में प्रोक्सी की पारायण और घर में मोंटू का महाभारत। शमिक नई नौकरी की तलाश में दिन भर बाहर रहता था और उसको अपने ही काम से फुरसत नहीं मिलती थी। इसलिए मोंटू के ऊपर बिलकुल ध्यान नहीं दे सकते थे। लड़का दिन-ब-दिन पढ़ाई में पीछे हो रहा था! थोड़े दिनों से तो वह पलट कर जवाब देना भी सीख गया था। इतने सारे तनाव में किसी का भी बोइलर कभी तो फटेगा ही न? 

सुषमा ने पेन हाथ में लिया, लेकिन यह हाथ चल क्यों नहीं रहा था? क्या हो गया था इस हाथ को? अचानक अंदर की नलियों में खून का बहना बंद हो गया? हाथ से जैसे चेतना ही चली गई। सुषमा अपने हाथ को मेज पर जोर-जोर से मारती रही। जब तक हाथ लाल हो गया तब तक वह पछाड़ती रही। फिर देर तक वो लाल हो गई हथेली की ओर देखती रही। उसे ऐसा महसूस हो रहा था, मानो आहिस्ता-आहिस्ता उसका पूरा बदन सुन्न हो गया हो और दिमाग भी शून्य हो गया हो। कल दिमाग बधिर बन गया था और आज शरीर सुन्न हो गया था। 

सुषमा के कानों में प्रधानाचार्य के कहे शब्द घूम रहे थे, ‘मिसेस देसाई, मेरे लिए स्कूल की प्रतिष्ठा के ऊपर कुछ भी नहीं है और होना भी नहीं चाहिए। आज एक शख्स मुझे धमकी देकर गए हैं कि ‘जिम्मेदार शिक्षक के ऊपर आप कार्यवाही नहीं करेंगे, तो मैं पुलिस में शिकायत करूँगा। बाद में आपकी शाला का नाम ख़राब हो जाय, तो उसके लिए जिम्मेदार आप ही रहेंगे।’   

सुषमा एकदम चौंक गई। उसको भी अपनी शाला के लिए उतना ही गौरव था। 

‘पुलिस में शिकायत! परंतु मैडम हुआ है क्या?’

सीधा जवाब देने के बदले मैडम ने सुषमा से पूछा था–‘कक्षा चार डी की वर्ग शिक्षिका आप ही हैं न?’ 

‘हाँ मैडम, लेकिन हुआ है क्या?’ सुषमा को अब बेचैनी होने लगी थी। 

‘आपके क्लास में युनुस कादरी नाम का कोई लड़का है न? कैसा है वह? बहुत शरारती है?’ सुषमा की आँखों के सामने युनुस कादरी आ गया–पतला शरीर, लंबा चेहरा, गोरा रंग और नीली आँखें। सभी शिक्षक हमेशा उसकी शिकायत करते रहते थे कि ‘कक्षा में सीधा बैठ ही नहीं सकता’, ‘उसकी थोड़ी-थोड़ी मस्ती तो हमेशा चलती ही रहती है,’ आसपास बैठे हुए बच्चों को भी वह परेशान करता रहता है’ वगैरह। छात्रों को कक्षा से बाहर भेजने की सजा देने की मनाई थी, नहीं तो सब शिक्षक चाहते थे कि युनुस को वर्ग से बाहर ही रखें। सुषमा ने उसके लिए एक जगह तय कर रखी थी–शिक्षक की मेज के सामने वाली बेंच के ऊपर, जिससे हमेशा उसके ऊपर नज़र रख सकें।

लेकिन युनुस पर इन सबका असर कहाँ था? सुषमा के पीरियड में तो वह सारी हदें पार कर देता था। वह ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखने के लिए उल्टा घूमती और उस समय युनुस कुछ-न-कुछ मस्ती कर ही लेता। वर्ग शिक्षिका सुषमा थी, इसलिए सारे शिक्षक उससे ही शिकायत करते रहते थे। नतीजा यह आता कि युनुस को सबसे ज्यादा डाँट सुषमा से ही खानी पड़ती। वह कई बार रिसेस के समय उसे कुछ लिखने का काम दे देती और उसका खेलने का समय छीन लेती। कभी-कभी उसको दोगुना होम वर्क दे देती। लेकिन ये सब करने के बावजूद कुत्ते की पूँछ की तरह युनुस वैसा-का-वैसा ही था। न चाहते हुए भी, अपनी प्रकृति से विपरीत, सुषमा जितनी ज्यादा कठोरता बरतती थी, उतनी युनुस ज्यादा शरारतें करता था। इतने वर्षों में सुषमा को युनुस जैसा शरारती छात्र कभी नहीं मिला था। उसको वैसे तो जल्दी गुस्सा आता नहीं था, लेकिन ऐसा लग रहा था मानो, युनुस उसकी धीरज की कसौटी कर रहा हो। 

आचार्या ने दूसरी बार सुषमा से पूछा, ‘बहुत शरारती लड़का है न? मैंने भी उसके बारे में सुना तो है।’

‘सच बताऊँ मैडम, वह हम कहते है न–कुत्ते की पूँछ–ऐसा लड़का है युनुस। कितना भी दंड दें, कितना भी डाँटें–उसके ऊपर कोई असर ही नहीं होता है।’ सुषमा से भी अपनी व्याकुलता व्यक्त हो ही गई। उसके इतने वर्षों के काम में कभी भी उसके वर्ग के किसी भी विधार्थी की कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी, अतः वह कुछ नर्वस होती जा रही थी। 

‘बात ऐसी है मिसेस देसाई, कि आज युनुस के पिता मेरे पास आए थे। बहुत गुस्से में थे। उन्होंने बताया कि उनके लड़के को किसी अध्यापिका ने इतने जोर से थप्पड़ लगाई है कि उसके कान के पर्दे पर असर हो गया है। वह अभी अस्पताल में है। शायद ऑपरेशन करना पड़ेगा।’

‘ओह माय गॉड!’ सुषमा का हाथ छाती पर चला गया। 

‘सबसे पहले तो छात्रों को शारीरिक सजा दे ही नहीं सकते! हाँ, मैं भी कभी शिक्षिका रह चुकी हूँ। कभी-कभी अपवाद के रूप में किसी को हल्के से लगा देते हैं, लेकिन ऐसी थप्पड़! किसी के शरीर को हानि हो, ऐसा तो बिल्कुल नहीं मार सकते। अब इसमें अगर मामला पुलिस के पास गया और पूरी घटना को धार्मिक मोड़ दिया गया तो बात का बतंगड़ बन जाएगा। फिर मुझे तो आगे ट्रस्टियों को भी जवाब देना है…।’ 

आँखें बड़ी कर सामने वाली दीवार को देख रही सुषमा को आचार्या के आगे के शब्द सुनाई ही नहीं दे रहे थे। उसको ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने उसके गाल पर एक थप्पड़ लगाकर उसे कुर्सी से उठाकर नीचे पटक दिया हो।

‘आप समझ रही हैं न, मिसेस देसाई? आप क्यों कुछ बोल नहीं रही हैं?’

‘क्या? हाँ-हाँ, मैं यह सोच रही थी कि अब क्या करेंगे मैडम?’

फिर आचार्या ने बताया कि उन्होंने सुषमा को क्यों बुलाया था। 

‘मिसेस देसाई, मुझे मालूम है कि आप स्टाफ में, विद्यार्थियों में काफ़ी लोकप्रिय हैं। आप अपनी ओर से यह जानने की कोशिश करें कि युनुस को थप्पड़ किसने मारा था। मैं पूछूँगी तो कोई सच बतानेवाला नहीं है। कक्षा में जाकर विद्यार्थियों से पूछूँ यह ठीक नहीं है। फिर तो सभी माता-पिता भी इसके बारे में जान जाएँगे। बात बढ़ जाएगी। हो सके तो मुझे एक दो दिन में बताओ। मामला नाजुक है, इसलिए कुछ कुनेह (चातुर्य) से काम लेना पड़ेगा।’ आचार्या का अनुभव बोल रहा था ।

केबिन से बाहर निकलते हुए सुषमा को चक्कर आ गए और स्टाफ रूम में जाकर तो वे जैसे कुर्सी पर गिर ही पड़ीं। अपनी लाल हो गई हथेली को देखते हुए वे सोच रही थीं कि कल अचानक इस हाथ में इतना ज़ोर कहाँ से आ गया था? क्या हो गया था उसे? घर में कितनी भी समस्याएँ क्यों न हो, अपनी हताशा ऐसे एक विद्यार्थी के ऊपर वह कैसे उतार सकती थीं? कोई विद्यार्थी गुस्सा थूकने की नाली तो नहीं है न? वह खुद सबको सीख देती थी कि क्रोध के ऊपर विजय पाना चाहिए और वह खुद हार गई? अब अगर उस लड़के को हमेशा के लिए सुनने में तकलीफ रह गई, तो वह क्या अपने आप को माफ़ कर सकेगी?

आचार्या ने चोर को ही कोतवाल बना दिया था। किसी से क्या पूछना था? पूरी घटना ने कक्षा के कमरे के बाहर ही आकार लिया था, जिसे मात्र दो शख्स ही जानते थे–एक वह खुद और दूसरा युनुस। एक तो कल पूरे दिन में एक भी फ्री पीरियड नहीं मिला था। सातवें पीरियड के लिए अपने क्लास में प्रोक्सी करने गई, तब सिर फट रहा था। बच्चों को कुछ काम देकर वो क्लास रजिस्टर लेकर अपना काम करने बैठ गई थी। कुछ खुसूर-फुसुर तो चालू ही थी। नौ-दस साल के बच्चे कितनी देर तक शांत बैठ सकेंगे? पीरियड ख़त्म होने की घंटी बजी, वह जल्दी से बाहर निकली ही थी और उसने युनुस को दौड़कर पीछे आते हुए देखा। शमिक की बेकारी का तनाव, मोंटू के द्वारा प्राप्त कम अंकों की हताशा और थकान, सब कुछ हृदय से निकलकर और हाथ से बहता हुआ युनुस के गाल पर जा गिरा था। उस समय दिमाग में एक ही सोच थी–मैं अभी तो कक्षा से बाहर निकली और इस लड़के ने मस्ती शुरू कर दी! युनुस ने उत्पन्न प्रतिक्रिया के कारण चेहरा घुमा लिया था और उसका हाथ कान से जा टकराया था। लेकिन उसमें इतना सब हो जाएगा, वह कहाँ सोचा था?

सुषमा एक भी नोटबुक चेक नहीं कर सकी। पीरियड समाप्त होने की घंटी बजी। अगला पीरियड उसकी कक्षा में ही था। स्टाफ रूम से कक्षा तक जाते हुए दिमाग ने कितना कुछ सोच लिया! शमिक को नई नौकरी न मिले, तब तक तो घर उसे ही चलाना था और ये नई आचार्या तो जिम्मेदार शिक्षक के ऊपर कार्यवाही करने की सोच रही थी। क्या करेगी? नौकरी से निकाल देगी? मेमो मिलेगा? 

इतने वर्षों में कमाई हुई आबरू मिट्टी में मिल जाएगी? अगले वर्ष तो ‘श्रेष्ठ शिक्षक’ के लिए राष्ट्रपति पारितोषिक हेतु उसका नाम प्रस्तावित किया जाएगा ऐसी बातें हो रही थीं। इसके बदले तो अब नौकरी ही चली जाएगी? 

भूकंप के जैसी एक थप्पड़ के बाद के प्रभाव इतने भयंकर हो सकते हैं? मुझे इतना गुस्सा क्यों आ गया? युनुस का नाम बदनाम था, इसलिए यह सब हुआ? उसने एक पल रुक कर वह देखने की परवाह ही नहीं की कि वह पीछे-पीछे दौड़ता हुआ क्यों आया था। वह तो थप्पड़ खाने के बाद भी, एक हाथ कान पर रखकर, आँसू से छलकती आँखों से सुषमा को देखते हुए, उसने दूसरा हाथ उसकी ओर आगे किया, तब ही सुषमा को पता चला कि वह तो मेज के ऊपर रह गई उसकी पेन लौटाने के लिए पीछे दौड़ता हुआ आया था। उस समय तो सुषमा पेन लेकर चलती बनी थी! मन को पछतावा करने की फुरसत ही कहाँ थी? या ऐसा तो नहीं था कि विद्यार्थियों की चहेती होने के कारण अपने ही अंदर छलक-छलक रही उसकी मन की मटकी आधी हो गई थी?

अब क्या? सुषमा ने सोचा कि वह युनुस के पापा से मिलकर जो सच है वह बता देगी, दो हाथ जोड़कर माँफी माँग लेगी, अपने घर की हालत बताकर इतनी बार माफ़ कर देने के लिए विनती करेगी। लेकिन वे उसकी बात सुनेंगे? अगर मोंटू के साथ ऐसा हुआ हो तो वह क्या करे? जो भी हो–वह जब तक युनुस को अपनी आँखों से एक बार देख न ले, तब तक दिल की जलन ठंडी नहीं होगी। सुषमा के नयनों के सामने से, उस लड़के का आँसू भरा हुआ चेहरा हटता ही न था।

सुषमा ने कक्षा के रजिस्टर में से युनुस के पापा का फोन नंबर ढूँढ़ लिया। उनको फोन कर वह शाम को अस्पताल पहुँच गई। युनुस के कान के ऊपर पट्टी लगी हुई थी। वह उसके पलंग के ऊपर ही बैठ गई और उसका हाथ पकड़ लिया। युनुस की पतली कोमल उँगलियाँ सुषमा की रुक्ष उँगलियों के साथ गुँथ गईं। सुषमा ने सोचा–काश! ये उँगलियाँ बोल सकें–तो वह खुद ही युनुस की माँफी माँग लेती।

पास में खड़ी युनुस की मम्मी ने ही बात की शुरुआत की, ‘मैडम, आप इसकी कक्षा की शिक्षिका हैं न? युनुस घर आकर आपकी ही बातें करता रहता है।’ 

अनजाने ही युनुस की उँगलियों के ऊपर सुषमा की उँगलियों की पकड़ मजबूत हो गई। ‘क्या-क्या शिकायतें की होंगी इस लड़के ने? ऊपर से यह। अब कहूँ तो कैसे कहूँ? लेकिन कहना तो है ही। आज नहीं तो कल, सब कुछ सामने तो आएगा ही। बाद में? लड़के ने अब तक तो कुछ बताया नहीं है, शायद न भी बताए, लेकिन मैं हृदय में सीसा भरकर कैसे जी सकूँगी? कुछ कुनेह (चातुर्य) से बात करूँगी। 

‘मैडम, हमें मालूम है कि हमारा बेटा थोड़ा शरारती है, लेकिन ऐसे थोड़े मार सकते हैं? घर आया तब कान से खून निकल रहा था। अल्ला करम, यह तो बच गया। लेकिन खुदा-ना-खास्ता, अगर बहरा हो जाता तो क्या करते?’ युनुस की मम्मी की आवाज़ में गुस्सा भरा हुआ था। 

‘मैं उस अध्यापिका को छोड़ने वाला नहीं हूँ’, युनुस के पापा जोर-जोर से बोलने लगे। ‘उसे शाला से निकलवा कर ही रहूँगा! अमेरिका जैसा मुल्क हो तो ऐसी टीचर पर हजारों डॉलर का मुकदमा चलाया जा सकता है।’ लावा जैसे शब्दों की गर्मी पूरे कमरे में फ़ैल गई। सुषमा का बदन काँपने लगा। कपाल पर पसीना फ़ैल गया।

‘मैं आपकी बात समझ सकती हूँ, भाई। लेकिन शिक्षक भी आखिर में है तो इनसान ही। उन्होंने पहले कभी युनुस के ऊपर हाथ उठाया है? हो सकता है कि उस दिन…’ सुषमा ने कबूल करने के लिए पूर्व-भूमिका तैयार की। फिर वाक्य को आधा छोड़ कर युनुस के सामने देखकर उसने किसी ग़ज़ल के मतले की तरह अहम् सवाल पूछा–‘युनुस क्या कहता है?’ बोलते हुए उसका दिल इतने जोर से धड़क रहा था कि उसे लगा कि आधी रात को पुल के ऊपर से गुजरती हुई फ़ास्ट ट्रेन जैसी है, जिसके अंदर से आती हुई यह आवाज़ ये लोग भी सुन रहे होंगे। 

‘वही समस्या है न मैडम। घर आया तब बिलकुल खामोश था। मैंने उसकी कमीज पर खून के दाग देखे और पूछा तो कहता है, ‘टीचर ने थप्पड़ मारी।’ मैंने उसके अब्बा को बताया। जब इन्होंने कहा कि वे उस शिक्षिका को स्कूल से बाहर करवा देंगे, तब से पलट गया है। कहता है, ‘किसी ने नहीं मारा। बस में चढ़ते हुए गिर गया था और कान के ऊपर लग गया।’ अब आप ही पूछिए मैडम, शायद आपको सच बता दे। वैसे भी मेरा बेटा, आपको बहुत पसंद करता है, मैडम।’

सुषमा ने युनुस की तरफ मुँह मोड़ा। वह अपलक उसको ही देख रहा था। उस नज़र में शिकायत के कोई काँटे नहीं थे, उसमें तो था मोरपंख जैसा कुछ मुलायम-मुलायम। सुषमा को अहसास हुआ कि ये नीली आँखें तो निरंतर उससे स्नेह की याचना कर रही थी। उसने थोड़ा झुककर युनुस की पैशानी को चूम लिया। एक दूसरे में जकड़ी हुई दस उँगलियों ने क्या बातें कीं, वे तो हृदय के कान ही जाने, लेकिन चार आँखों से झरने जरूर बह रहे थे। 

सुषमा को पहली बार महसूस हुआ कि इनसान अपनी जड़ से हिल जाय, ऐसी मुलायम थप्पड़ सीधी दिल के ऊपर भी लग सकती है।

हिंदी अनुवाद : राजेन्द्र निगम


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