एक बार लाहौर जाकर तो देखें

एक बार लाहौर जाकर तो देखें

मैं पाकिस्तान जाना चाहती हूँ… मेरा यह वाक्य अभी पूरा भी नहीं हो सका था और मैं कई टिप्पणियों के घेरे में थी। ‘यहाँ ऐसी कई नई जगहें हैं, जिन्हें तुम देख सकती हो, फिर पाकिस्तान क्यों?’ यदि भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ी, तो पहला काम वे बाॅर्डर को सील करने का ही करेंगे, फिर तुम हमेशा के लिए उधर ही रह जाओगी।’ ‘यकीन मानो, वहाँ जाना सुरक्षित नहीं हैं। यहाँ तक कि इसके बाद तुम्हें अमेरिका का वीजा भी नहीं मिलेगा।’

एक पंजाबी परिवार में जन्म लेने और पले-बढ़े होने के कारण मेरे लिए ये टिप्पणियाँ बहुत चैंकाने वाली नहीं थीं। लेकिन एक सवाल अपनी जगह पर कायम था कि यह आक्रोश ‘इस्लामोफोबिया’ की देन है या फिर उस नजरिये की, जिसके तहत दुनिया पाकिस्तान को अलकायदा और तालिबान के स्वर्ग के रूप में देखती है?

अपने पासपोर्ट पर लाहौर के वीजा की मुहर और अपने पंजाब के दूसरे हिस्से को देखने के लिए मैं बेताब थी। मेरा दिमाग बिल्कुल साफ था कि मुझे पाकिस्तान जाना है और अपने कई सवालों का जवाब तलाशने हैं। दुआएँ मांगती हुई मैं एक दिन पहले ही अमृतसर पहुँच गई। मुझे तब तक नहीं पता था कि वीजा मिलेगा भी या नहीं। आखिरकार, मेरी मुराद पूरी हुई, मगर इस शिकायत में लिपटी हुई कि ‘हम यकीन नहीं कर सकते कि तुम ऐसा कर रही हो।’

मैं 16 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के उन चंद सदस्यों में एक थी, जो पहली बार पाकिस्तान जा रहे थे। हर कोई टीम का सबसे युवा सदस्य यानी मुझसे पूछ रहा था कि क्या लगता है, पाकिस्तान कैसा होगा? और मेरी उत्सुकता बढ़ती जाती थी। मैं ‘साउथ एशिया पीपुल्स यूनियन’ (सैप) के एक काॅन्फ्रेंस में हिस्सा लेने जा रहे शांति दल में शामिल थी। जैसे ही हमने वाघा बाॅर्डर पार किया और हम उस तरफ पहुँचे, मेरे भीतर एक अजीब-सी सनसनी तैर गई, उस जगह को देखने के लिए, जहाँ कुछ दिनों पहले ही एक फिदायीन हमलावर ने परेड को निशाना बनाया था। पल भर के लिए मैं उन तमाम हिंदू देवी-देवताओं के आशीर्वाद की आकांक्षी हो उठी, जिन्हें मैं जानती थी।

बाॅर्डर पर हमारी अगवानी के लिए आए पाकिस्तानी दोस्तों ने जब हमारे ऊपर गुलाब की पंखुरियाँ बरसाईं, तो मैं कुछ चैंक गई, क्योंकि इस तरह के स्वागत का मुझे इलहाम न था। साउथ एशिया पार्टनरशिप के पाकिस्तानी दोस्तों ने बेहद गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया और हमें वहाँ से सीधे किन्हीं सज्जन के यहाँ दोपहर के खाने के लिए ले जाया गया। वहाँ पहुँचकर मैं कुछ उलझन में पड़ गई, क्योंकि मैंने उनमें और खुद में कोई फर्क नहीं देखा। हम एक जैसे दिख रहे थे, हमारे लिबास एक-से थे, हमने खाना भी एक ही तरह का खाया और एक ही जबान यानी पंजाबी में आपस में बातचीत भी की, जबान का लहजा भी लगभग एक-सा था। हाँ, एक फर्क था हंसी-मजाक के दौरान मैं ‘हाय रब्बा’ बोल उठती थी, जबकि उनके मुंह से ‘हाय अल्लाह’ निकलता।

कुछ घंटों में दरमियान ही सैकड़ों पाकिस्तानियों ने अपने घर और शहर में दावत व ठहरने का हमें न्योता दिया। ऐसा एहसास हुआ, जैसा पूरा मूल्क हमारे खैरमकदम के लिए उतर आया है। यकीन मानिए, पाकिस्तानी मेहमाननवाजी के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कहा जा रहा है। सम्मेलन का उस दिन का सत्र पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग के दफ्तर में था। उसमें हमने वहाँ की नेशनल असेंबली के मेंबरान, काबीना मंत्रियों और वहाँ की शीर्ष अदालत के वकीलों की तकरीरें सुनीं और उन सबने जब-जब भारतीय दल का जिक्र किया, तो बेहद तहजीब और सम्मान के साथ। वे बहुत खुश थे कि भारतीय दल उनके साथ है और वह भी वाघा बाॅर्डर पर हालिया हमले के बावजूद। सच कहूँ, मुझे अपने ऊपर उस वक्त बहुत गर्व हुआ, जब मैंने अपने बारे में मंच से कुछ कहते हुए सुना। वे मेरी टीम के नेता के शब्द थे- ‘हमारे साथ आज हिन्दुस्तान की सबसे युवा डेलीगेट हैं, जो पहली बार पाकिस्तान आई हैं। हालाँकि वह यहाँ आने को लेकर बेहद उत्साहित थीं, मगर उनके दिल के एक कोने ने मुझे उस खौफ के बारे में भी बताया कि उनका मुकाबला यहाँ लंबी दाढ़ी-बाल वाले लोगों से होगा, जो यह पता लगते ही कि यह हिन्दुस्तानी है, उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा। मेरे पाकिस्तानी दोस्तों, हमारे साथ आने के उनके फैसले की मैं दाद देता हूँ और अब यह आप पर छोड़ता हूँ कि आप यह साबित करें कि उनका डर गलत था।’ जोरदार तालियों के बीच मैं अपनी सीट से उठ खड़ी हुई थी।

दो दिन के भीतर ही मुझे अफसोस होने लगा कि मेरे पास महज एक हफ्ते का वीजा है। मैं लाहौर और इसके आसपास के खूबसूरत नजारों को देखकर दंग रह गई थी। लाहौर किला, मीनार-ए-पाकिस्तान से लेकर बादशाही मस्जिद तक मेरे साथ हमेशा एक स्थानीय शख्स मौजूद रहा, जिसने उन जगहों, उन इमारतों के इतिहास से मेरा परिचय कराया। यहाँ की मशहूर अनारकली और लिबर्टी बाजारों में घूमते हुए मैंने यह भी महसूस किया एक आम भारतीय पाकिस्तान के बारे में जो कुछ भी जानता है, वह सब उसका बदतरीन पहलू ही है।

अपने दौरे के आखिरी पड़ाव पर हम पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के दफ्तर में आयोजित रात की दावत के लिए जुटे। वहाँ एक वरिष्ठ सांसद ने मुझ 24 साल की लड़की के लिए अपनी कुर्सी छोड़ दी थी। मुझे लगा कि यह मुल्क औरतों की इज्जत करता है और यह शिष्टाचार उम्र, रंग, नस्ल, मजहब और राष्ट्रीयता से तय नहीं होता। मेरी टीम के नेता ने धन्यवाद ज्ञापन में एक बार फिर मेरा उल्लेख किया- ‘आज सुबह संयोगवश मैंने इस बच्ची के कुछ अल्फाज़ सुने, जो यह अपने माँ-पापा को फोन पर कह रही थी। यह कह रही थी कि जब तक इस्लामाबाद नहीं देख लेगी, तब तक नहीं लौटेगी। दोस्तो, हमने एक युवा हिन्दुस्तानी की पाकिस्तान को लेकर बनी धरणा बदल दी है और इसीलिए मैंने यह कहा कि यह काॅन्फ्रेंस कामयाब रहा है।’

पाकिस्तान में चीजें रातोंरात नहीं बदल जाएँगी, लेकिन उसका सिर्फ एक दौरा आपकी कई गलतफ़हमियों को जरूर दूर कर देगा। वे तमाम लोग, जो पाकिस्तान को एक नाकाम मुल्क कहते हैं, उन्हें लाहौर एक बार जरूर जाना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान के कुछ इलाकों में आतंकी हमलों का खतरा है, लेकिन क्या चंद लोगों की करतूतों के लिए उन 20 करोड़ पाकिस्तानियों को अनदेखा कर देना चाहिए, जो अपनी सरहदों के भीतर और बाहर बेहतरीन काम कर रहे हैं? बिल्कुल नहीं! वक्त आ गया है कि हम दोनों तरफ की सियासत पर इल्ज़ाम लगाना बंद कर अपने-अपने घरों से कम-से-कम एक बार निकलें और एक-दूसरे के यहाँ जाएँ-आएँ। हमारी धरती भले बंट गई है, मगर हमें अपनी रूह को नहीं बंटने देना चाहिए। इसलिए नजरिये में बदलाव लाइए और सरहदों के पार जाइए… जाने दीेजिए। (साभार)


Image: An Open Air Kitchen, Lahore, India
Image Source: WikiArt
Artist: Edwin Lord Weeks
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