हूरों के देश का सफर–(मेरी अफगानिस्तान यात्रा)

हूरों के देश का सफर–(मेरी अफगानिस्तान यात्रा)

मेरा विदेश सेवा में आने का एक और कारण था–विभिन्न देशों की यात्रा करना। इसलिए जब दिल्ली में ट्रेनिंग के दौरान पता चला कि हमारी अफगानिस्तान यात्रा होने वाली है तो रोमांच हो आया। तुरंत घर पर नहीं बताया कि सब डर जाएँगे और खामखवाह यात्रा में विघ्न डालेंगे। खासकर मैया, दादी और बाबूजी।

पर विघ्न कैसे डालते–अभी उनसे हमारी बातचीत बंद थी। वे सब मुझसे अभी तक नाराज थे–क्योंकि मैंने लव मैरिज जो की थी! मेरी नयी नयी शादी हुई ही थी। यानी साल दो हजार तीन की गर्मियाँ थीं। दोनों ओर तनातनी का माहौल था। फिर भी यह जानकर कि मैं अफगानिस्तान जा रही हूँ–मैया ने फोन किया था और ठीक से रहने की हिदायत दी थी।

मेरे पति ने कहा था कि कुपथ्य (यानी नॉन-वेज) न खा लेना! उन दिनों हमारा प्यार जवाँ था और हम असंभव सपने देखा करते थे–कसमें वादे किया करते थे। मैंने पति-प्रेम में वादा किया कि–मैं भी उनकी तरह शाकाहारी बनूँगी। मांस-मछली का सेवन वर्जित कर लूँगी। पर, मेरे पति को मुझ पर और मेरे वादे पर बिलकुल विश्वास न था।

खैर, विश्वास हमारी टीम में से किसी को भी न था कि हमारी अफगानिस्तान यात्रा हो भी पाएगी। अभी दो साल पहले ही यह देश तालिबानों के कब्जे में था और राष्ट्रपति को जिंदा इलेक्ट्रिक पोल पर लटका दिया था। ये सब सुनकर हमारे होश पाखता हो गए।

हमारे टीम लीडर थे–विदेश सेवा संस्थान के संकायाध्यक्ष श्री संतोष कुमार, जो भारत सरकार में सेक्रेटेरी थे–विदेश मंत्रालय में सबसे वरिष्ठ अधिकारी! आपत्ति अफगानी साइड से भी थी। वे हमारी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं थे इसलिए बार-बार हमारे मंत्रालय का वीजा निवेदन ठुकराया जा रहा था।

फिर ऐसी खबर आयी कि अफगानिस्तान में पुरुष अधिकारी तो जा सकते हैं परंतु महिला अधिकारियों को प्रवेश नहीं दिया जाएगा। हम दो लड़कियाँ थीं–दोनों मायूस हो गयीं। हम मरे मन से कक्षा में लड़कों की तैयारियाँ देखते। लड़के वहाँ से लाने के लिए शॉपिंग लिस्ट बना रहे थे–अफगानी कार्पेट, कंबल, ड्राई-फ्रूट, लेदर बैग, लैपिस-लपिस पत्थर की सिल्वर ज्वेलरी! और भी प्लान थे उनके कि–सलमा डैम–जो भारत सरकार का प्रोजेक्ट है–देखेंगे। श्रीनिवास का प्लान था कि पूरे अफगानिस्तान में वह वीडियो शूटिंग करेगा। उसके पास सोनी का हैंडी कैम जो था!

यह यात्रा चार-पाँच शहरों में दस दिनो के लिए हो रही थी, इसलिए सब बेहद उत्साहित थे। थोड़े डरे तो थे पर रोमांचित थे। पर उससे क्या! हम लड़कियाँ उस रोमांच से वंचित थे। पहली बार लड़की होने से बैरीअर का आभास हुआ। काश! हम पुरुष होते तो यह वीजा बैन न होता। पर भला हो हमारे डीन का जिन्होंने हमारी मनोकामना पूरी कर दी। बड़ी मशक्कत के बाद अफगान अधिकारियों ने महिला प्रशिक्षु अधिकारियों का भ्रमण अनुमोदित किया। ‘हाँ, छूटा गाँव है/बादल पे पाँव है/अपनी तो चल पड़ी/देखो ये नाव है!!’

हम दोनों लड़कियों ने अलग अलग बैठना कुबूल किया कि हम खिड़की से काराकोरम रेंज देखते हुए जाएँगे। अद्भुत दृश्य था! पहली बार हमने पाकिस्तान को हवाई मार्ग से क्रॉस किया और हमारा विमान अफगानी आकाश में उड़ चला। हमारी दाहिनी तरफ काराकोरम अपने पूरे शान शौकत में खड़ा था! बादल बार-बार चोटियों से लिपट रहे थे।

पर यह क्या! इन पहाड़ों और रास्ते में एक भी पेड़ नहीं थे!

पूछने पर पता चला कि रसिया के द्वारा जैविक रासायनिक हथियार से सारे पेड़-पौधे मर गए हैं–जमीन विषाक्त और बंजर हो चुकी है–जिस पर कोई पौधा नहीं पनपता।

हवाई जहाज में हम तीन घंटे खिड़की से चिपककर बैठे रहे।

तभी हमारी ब्रीफिंग हुई कि हमें सिर पर हमेशा दुपट्टा ढँककर रखना है।

मुझे बड़ा अटपटा लगा। पर डिमॉक्रेसी आने के बावजूद अफगानिस्तान में लड़कियों को दुपट्टा रखना अनिवार्य था। जैसे ही हमने काबुल हवाई अड्डे पर कदम रखा–अफगानी विदेश मंत्रालय से बहुत से सिक्योरिटी स्टाफ और प्रोटोकॉल के लोग आते हुए दिखे थे।

डीन एफएसआई–संतोष सर–के आभामंडल और सीन्यॉरिटी का हमें अहसास होने लगा था। सब उन्हें ‘एक्सेलेन्सी’ कहकर संबोधित कर रहे थे।

सुखद आश्चर्य यह हुआ कि अधिकांश लोग हिंदी उर्दू बोल रहे थे और अँग्रेजी भी। थोड़ी देर में हमारा सामान आ गया और हम एयरपोर्ट से बाहर आ गए।

बाहर हमारे दूतावास के ब्लू नंबर प्लेट वाली बुलेट प्रूफ माज्डा मिनी बस खड़ी थी। बस की दीवारों और छत में ढेर से छेद थे–मुख्यतः डेंट–पूछने पर ड्राइवर ने बताया कि इसमें अक्सर गोलियाँ चलती हैं। वहाँ कभी भी मार्केट में या रिहायशी इलाकों में अचानक गोली बारी होने लगती है।

बाप रे! हम सब अंदर ही अंदर सहम गए।

श्रीनिवास ने हैंडी कैम ऑन कर लिया।

अभी शाम के चार बज रहे थे। बाहर धूप ढल रही थी पर अभी भी सूरज में तपिश थी। हम सब लपक कर बस में सवार हो गए। हमारे दूतावास के प्रोटोकॉल ऑफिसर हमें रास्तों और शहर के बारे में बताते जा रहे थे।

होटल पहुँचते-पहुँचते हमने काबुल को विहंगम दृष्टि से नाप लिया। बाजार बिलकुल भारत के बी-टाउन मार्केट की याद दिला रहे थे–लग रहा था जैसे मैं लखनऊ का अमीनाबाद पहुँच गयी हूँ। सारे घरों में बहुत ऊँची चहारदिवारी थी सो अंदर से घर कैसे थे ये तो न दिखा पर कुछ चहारदिवारियाँ कच्ची थीं और दरकी व टूटी हुई भी–सो दिखा कि घर मुख्य गेट से बहुत दूर बनाए गए थे। ढीले सलवार कुर्ते में बच्चे खेल रहे थे।

किसी भी देश में चाहे कितनी भी क्राइसिस क्यों न हो–बच्चे मासूम बच्चे ही रहते हैं–हमारे प्रोटोकॉल ऑफिसर ने ममता से कहा।

सड़कों के बीच में कटान थी–जैसे किसी ने एक निश्चित अंतराल पर सड़क पर कंकरीट की क्यारियाँ बनायी हों–पूछने पर पता चला कि शहर में टैंकर और भारी वाहन की वजह से सड़क काट दी गयी थी।

तो सड़क भी युद्ध की विभीषिका झेलते हैं! मैंने दुःख से सोचा।

एयरपोर्ट से काबुल होटल पहुँचने में करीब आधा घंटा लगा होगा।

काबुल होटल किसी समय बेहद जवाँ और हैपनिंग रहा होगा, इसलिए बेहद खूबसूरती से बनाया गया था। छत से बड़े-बड़े झाड़-फानूस और दीवारों पर नीली लापिस लजूली की कलाकृतियाँ लटक रही थीं।

रिसेप्शन के पीछे काबुल का नक्शा था।

काबुल अफगानिस्तान की राजधानी और वहाँ का सबसे बड़ा शहर है–देश का पूर्वी भाग। यह नगर पालिका भी है, जो 22 जिलों में विभाजित है। 2021 में अनुमान के अनुसार, काबुल की जनसंख्या 46 लाख है और यह अफगानिस्तान के राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र के रूप में कार्य करता है। तेजी से होते शहरीकरण ने काबुल को दुनिया का 75वाँ सबसे बड़ा शहर बना दिया है।

काबुल हिंदूकुश पहाड़ों के बीच एक संकरी घाटी में स्थित है और नदी से घिरा है, जिसकी ऊँचाई 1,790 मीटर (5,873 फीट) है, जो इसे दुनिया की सबसे ऊँची राजधानियों में से एक बनाती है। कहा जाता है कि यह शहर 3,500 साल से अधिक पुराना है, एशिया के चौराहे पर स्थित–पश्चिम में इस्तांबुल और पूर्व में हनोई के बीच लगभग आधा–यह दक्षिण और मध्य एशिया के व्यापार मार्गों के साथ एक रणनीतिक स्थान पर है, और प्राचीन सिल्क रोड का एक प्रमुख माइलस्टोन है।

काबुल भारतीय मौर्य कुषाण, खिलजी तथा मुगल साम्राज्य का हिस्सा रहा है। कई विदेशी ताकतों द्वारा शासित, आखिरकार अफगान दुर्रानी साम्राज्य का हिस्सा बन गए। अहमद शाह दुर्रानी के पुत्र तैमूर शाह दुर्रानी के शासनकाल के दौरान 1776 में काबुल अफगानिस्तान की राजधानी बना। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में, अँग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया, लेकिन विदेशी संबंध स्थापित करने के बाद, उन्हें अफगानिस्तान से सभी बलों को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।

काबुल में शांति काल 1979 में सोवियत संघ के काबुल पर कब्जा के बाद समाप्त हो गया, जबकि 1990 के दशक में विभिन्न विद्रोही समूहों के बीच गृहयुद्ध ने शहर के अधिकांश हिस्से को तबाह कर दिया। 2001 से, शहर पर अमेरिका के नेतृत्व में नाटो सहित बलों के एक गठबंधन का कब्जा था। शायद इसलिए हमारे काबुल भ्रमण अपेक्षाकृत सुरक्षित था। होटल में हमारा चेक इन तुरंत हो गया और हमें नए सेट ऑफ इंस्ट्रकशन मिले–जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण था कि हम कभी भी होटल छोड़कर अकेले बाहर नहीं जाएँगे और हम सब ग्रुप में ट्रैवल करेंगे।

दूसरी बात यह कि सुबह नाश्ते के लिए छह डॉलर अलग से देने होंगे। हाय! अभी तो मेरे पास एक भी डॉलर नहीं है–शायद मुझे भूखे रहना पड़ेगा।

रात को एक और ट्रैजेडी मेरा इंतजार कर रही थी।

काबुल होटल काबुल का एकमात्र ठीक ठाक सुरक्षित होटल था इसलिए बुकिंग फुल थी। हमलोग चूँकि अफगान विदेश मंत्रालय के मेहमान थे इसलिए बड़ी मुश्किल से कुछ कमरे हमारे डेलगेशन के लिए अलॉट किए गए थे। जाहिर है हमें कमरा शेयर करना था। हम दो लड़कियाँ थीं इसलिए हम दोनों को एक कमरा मिला।

अल्पना भागकर कमरे में पहुँची और बेड पर अपना पोटला गाड़ दिया।

मुझे संतोष सर की कुछ मदद करनी थी, तो मैं उनके साथ खड़ी रह गयी।

जब मैं कमरे में पहुँची तो अल्पना कपड़े बदलकर घर से लाया हुआ ठेकुआ और पेड़किया (गुझिया) खा रही थी। उसने मुझे ऑफर नहीं किया इसलिए माँगना मुझे बुरा लगा। शाम के छह बज रहे थे और मुझे भूख लग रही थी।

भारत में मैंने सोचा नहीं था कि काबुल में खाने के लाले पड़ जाएँगे और बाहर निकलना दूभर होगा–वरना मैं भी कुछ ले आती। खैर, सो जाना भूख का सबसे अच्छा इलाज है। सो मैं भी कपड़े बदलकर कमरे में आयी और बेड के एक किनारे बैठना चाहा कि अल्पना चिल्ला पड़ी ‘अंजु, यहाँ मत बैठो। तुमको सोफे पर सोना पड़ेगा।’

‘क्यों?’ मैं चौंक गयी।

‘क्योंकि तुम्हें टीबी है।’

‘क्या बोल रही हो तुम?’

‘तुमने छुट्टी ली थी न कि तुम्हें टीबी है और तुम उसका डायग्नोसिस और इलाज करवाना चाहती हो। इसलिए मेरे पति ने मुझे मना किया है कि मैं तुम्हारे करीब रहूँ। इसलिए तुम अलग सोओ।’

‘ओह नो!’

‘ओह यस।’

‘अल्पना, यार वो तो मेरा आँख में टीबी हुआ था–कूटेनियस टीबी–यह फेफड़े वाला पल्मनेरी टीबी नहीं है–तुम गलत समझ रही हो। यह बिलकुल भी संक्रामक नहीं है।’ मैं गिड़गिड़ायी।

‘फिर भी तुम सोफे पर ही सोओगी।’

‘यार, सोफा कितना गंदा और झूला सा है, ऊपर से दो सिटर है। प्लीज अल्पना, मुझे ठंड लगेगी और सचमुच अस्थमा हो जाएगा।’ मुझे याद है कि मैं रुआसी हो गयी थी।

‘तुम मेरा और अपना समय बर्बाद कर रही हो।’ कहकर अल्पना ने करवट बदली और बेड स्विच ऑफ कर दिया। हताश और बेहद आहत मैं टटोलते हुए सोफे पर जा गिरी।

ऐसा क्यों होता है। इतना अपमान और लांछन!

अल्पना इतनी क्रूर और अजीब सी क्यों है।

शायद वह मेरे देहाती आउट्लुक की वजह से मुझे नापसंद करती है। वह स्वयं इंदिरा गाँधी रेसडेंटीयल कॉन्वेंट से पढ़ी है और दिल्ली में रहकर यूपीएससी की तैयारी की है–इसलिए अपने आपको हरदम सुपीरीअर सिद्ध करने की कोशिश करती है।

क्या करूँ–संतोष सर को बताऊँ? या पांडेय सर को?

वे लोग कमरे में सो रहे होंगे। अब सुबह बात करूँगी।

बड़ी देर तक मुझे नींद नहीं आयी। भारत फोन करने का मन कर रहा था पर इंटर्नेशनल कॉल बहुत महँगा था और मेरे पास तो नाश्ते तक के पैसे नहीं थे।

सुबह हमारे कई बैचमेट नाश्ता कर रहे थे पर हम जल्दी नीचे नहीं उतरे क्योंकि मेरे पास डॉलर नहीं था। भूख से पेट में चूहे दौड़ रहे थे क्योंकि आखिरी खाना मैंने भारत में कल दोपहर में खाया था।

पर इसका अफसोस करने का समय नहीं था। हमें दुबारा ब्रीफ किया गया। संतोष सर ने मीटिंग में हम सब को डिसिप्लिन से शांत बैठने को कहा।

‘यही सब तो तुम सबको सीखना है कि फोर्मल मीटिंग में कैसे खुद को कॉन्डक्ट करते हैं। कुछ प्रश्न पूछने पर कैसे रीऐक्ट करते हैं और कौन से प्रश्न पूछने चाहिए।’

हमें हार्दिक संतोष इस बात का था कि हमें साड़ी नहीं पहनना पड़ रहा था–सलवार सूट सूटेबल था क्योंकि दुपट्टा हम सिर पर रख सकते थे।

लड़कों को बंदगला सूट और लड़कियों को सलवार सूट!

पहली मीटिंग अफगानी फॉरेन सेक्रेटेरी के साथ थी। मीटिंग में सिर्फ हमारे टीम लीडर–संतोष सर को ही बोलना था–हमें तो सिर्फ खाना था।

अफगानी आवभगत के क्या कहने!

सबके लिए कार्पेट मढ़ी गद्देदार कुर्सी और इसके सामने सुंदर नक्काशी की हुई चकौर टेबल। टेबल पर ड्राई फ्रूट्स और मेवे की इरफात! साथ में अफगानी ब्रेड (बहुत कड़ा पर नमकीन खिंचा हुआ बटर ब्रेड), अंडे और लैम्ब चॉपस!

हमारी तो बाँछे (अगर शरीर में कही होती हो तो) खिल गयी!

जिन्होंने छह डॉलर सुबह नाश्ते में लुटाए थे अब लूटे पीटे नजर आ रहे थे–और हम ‘लेसर मोर्टल’ छक कर खा रहे थे।

संतोष सर ऊँची कुर्सी पर विदेश सचिव के साथ स्ट्रटीजिक चर्चा में व्यस्त थे। इसी दौरान, किसी ने जोर से अखरोट या पिश्ता तोड़ा!

इस शांत फोर्मल माहौल में अखरोट खटकाने की आवाज ‘टक्क’ से पूरे कमरे में फैल गयी। पता चला कि ए. के. पांडेय सर ने अखरोट फोड़ा था। संतोष सर ने कड़ी नजर से उन्हें देखा। तब पांडेय सर (जो अलमस्त टाइप इनसान थे) ने लापरवाही से उन्हें देखा और कहा–‘यू कंटिन्यू’

हमलोग खाना छोड़कर अटेंशन की मुद्रा में बैठ गए यह सोचकर दिल काँप रहा था कि संतोष सर क्या प्रतिक्रिया देंगे। अभी थोड़ी देर पहले ही उन्होंने हम सबको शांत बैठने के लिए ब्रीफ किया है और यहाँ लोग खटाखट अखरोट तोड़ रहे हैं जो बिलकुल भी उन्हें स्वीकार्य नहीं होगा। पर वे बहुत बढ़िया इनसान हैं। उन्होंने उस समय भी कुछ नहीं कहा और बाद में भी नहीं!

दूसरी महत्त्वपूर्ण मीटिंग अफगानी पार्लियामेंट में थी। हम सब उत्साहित थे। वहाँ एक बड़े डाइनिंग टेबल पर हम सबको बिठाया गया। फिर से खाना और चाय सर्व किया गया।

अब नाश्ते में एक भी डॉलर नहीं खर्च करेंगे–हम सब सोच रहे थे।

लेकिन जब हम सब मीठे ब्रेड पर चाकू से बटर पोतने में लगे हुए थे तभी संतोष सर ने मुझे देखा। दृष्टि मिलने पर इशारा किया।

मुझे कुछ समझ में नहीं आया।

जैसे हम शेराड में करते हैं–उन्होंने क्वेश्चन मार्क हवा में बनाया।

मैं समझ गयी कि मुझे स्पीकर महोदय से कोई प्रश्न पूछने हैं।

हाय राम कौन सा प्रश्न पूछूँ।

तभी याद आया कि क्लास में हम जेएनयू के प्रोफेसर या किसी और संभाषण के दौरान एक ही प्रश्न पूछते थे–महिलाओं की स्थिति पर!

‘महोदय, अफगानी पार्लियामेंट में महिलाओं की क्या स्थिति है, यहाँ महिलाओं की कितनी प्रतिशत सहभागिता है?’ मैंने यह सवाल पूछ लिया।

संतोष सर की आँखों में संतोष और गर्व था। उत्तर बेहद सकारात्मक था।

‘अफगानी संविधान महिलाओं के तैंतीस प्रतिशत सहभागिता को सुनिश्चित करती है। अभी हमारे यहाँ प्रथम सरकार में ही दस प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी है–अगली सरकार में इसे संपूर्णतः हासिल करने की योजना है।’

‘बहुत धन्यवाद सर’

और तब हम राष्ट्रपति करजई को कॉल ऑन करने गए।

राष्ट्रपति भवन पर अमेरिकी नाटो सिक्योरिटी बीफड तैनात थी। बहुत कठिन सुरक्षा प्रक्रिया से गुजरकर हम राष्ट्रपति के कक्ष तक पहुँचे।

राष्ट्रपति गर्मजोशी से हमारे डीन–संतोष सर से मिले।

वे बहुत स्मार्ट और खूबसूरत व्यक्ति लगे। कढ़ा हुआ हरा चोगा कर्जई साहब को विशिष्ट बना रही थी। वे धाराप्रवाह व शुद्ध हिंदी बोलने वाले निकले।

पता चला कि राष्ट्रपति करजई शिमला में पढ़ चुके हैं। तब संतोष सर ने हमारे एक बैचमेट विश्वेश को आगे कर दिया और हाथ मिलाने को कहा। विश्वेश शिमला का है। वह भी बेहद स्मार्ट और खूबसूरत नौजवान है।

जब हम फोर्मल मीटिंग करके बाहर निकले तो प्रोटकॉल ऑफिसर हमें कुछ जगह दिखाने ले गए क्योंकि काबुल अपने ऐतिहासिक उद्यानों, बाजारों और महलों के लिए जाना जाता है। बाबर गार्डेन और दारुल अमन पैलेस सुप्रसिद्ध उदाहरण हैं। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, यह पर्यटकों को आकर्षित करने वाले हिप्पी ट्रेल पर काबुल उनका ठिकाना बन गया था। काबुल शहर को मध्य एशिया का पेरिस भी कहा जाता था।

बाग-ए-बाबर या बाबर गार्डन अफगानिस्तान के काबुल में एक ऐतिहासिक पार्क है। बाबर का मकबरा भी यहीं स्थित है। माना जाता है कि उद्यान 1528 ई. के आसपास विकसित किया गया था, जब बाबर ने काबुल में ‘एवेन्यू गार्डन’ के निर्माण के आदेश दिए थे। बाबरनामा के अनुसार बाद में जहाँगीर और रुकैया बेगम ने 1607 में अफगानिस्तान यात्रा के दौरान इस उद्यान को दीवारों से घेरने के आदेश दिए थे।

रुकैया बेगम का मकबरा भी यहीं स्थित है। अब मुझे बस इतना याद है कि पेड़ों की कतार के बीच से हमलोग मकबरे तक पहुँचे थे जहाँ पानी के नहर जैसे चैनल थे जैसा कि ताजमहल में है। बाद में हम काबुल म्यूजियम और दारुल पैलेस भी गए। पैलेस एकदम जर्जर अवस्था में था जिसका जीर्णोद्धार किया जा रहा था। ये जगह देखकर तुरंत गाड़ी में बैठ जाते। बाहर हमारे अलावा कोई टूरिस्ट नहीं था।

शाम को हमें राजदूत महोदय के यहाँ रिसेप्शन डिनर का आमंत्रण था।

भारतीय हाई कमिशन काबुल का बहुत महत्त्वपूर्ण संस्थान है।

भारत हमेशा अफगानिस्तान का दोस्त रहा है। प्राचीन काल से ही दोनों देशों के बीच सामरिक और राजनयिक संबंध रहे हैं। भारतीय राजदूत और वहाँ के अधिकारियों का काबुल में बहुत सम्मान है क्योंकि भारत अफगानिस्तान के इंफ्रास्ट्रक्चर विकास एवं इन्स्टिटूशन बिल्डिंग में अफगान को सहयोग कर रहा है।

इसलिए हाई कमिशनर के यहाँ रिसेप्शन डिनर महत्त्वपूर्ण था।

हम साड़ी पहनकर और सिर पर घूँघट लेकर दुल्हन की तरह तैयार हुए, पर अंदर इंडिया हाउस के गेट में घुसते ही हमने घूँघट उतार लिया और अफगानी औरतों ने बुर्के।

हाई कमिशनर विवेक काटजू सर ने सबका स्वागत किया। डीन साहब के सम्मान में कई गणमान्य अफगान व्यक्ति आमंत्रित थे–औरतें भी आमंत्रित थीं। उन्होंने कतर एयर होस्टेस की तरह सिर पर कढ़ी हुई टोपी पहन रखा था। बिना बुर्के में पहली बार हम अफगानी औरतों को देख रहे थे। बला की सुंदर थीं वे। झलमल सफेद रंग, तीखे नैन नक्श, काले बाल, और सुर्ख होंठ।

मैं आँख फाड़कर देखती रह गयी। तब उस औरत जिसका नाम फातिमा था, ने बताया कि वह बसरा से हैं–जहाँ की औरतें हूर यानी परी कहलाती हैं और वे परियों सी ही सुंदर होती हैं।

‘मैं मान गयी आपको देखकर।’

फातिमा अफगानी विदेश मंत्रालय की इंटर्न थी और उसने अमेरिका के बर्कले यूनिवर्सिटी से अँग्रेजी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया था। तालिबानी शासन खत्म होने के बाद वह स्वदेश वापस लौट आयी थी और विदेश मंत्रालय ज्वाइन कर लिया था। वह हमारी लायसों ऑफिसर थी और हमारे साथ हेरात व सलमा डैम प्रोजेक्ट दिखाने साथ चलने वाली थी।

हाई कमिशनर सर ने हम सबका बहुत खयाल रखा और खासकर हम महिला अधिकारियों का–हमारी अफगानिस्तान की यात्रा उनके रेकमेंडेशन के बिना असंभव थी। सबके चले जाने के बाद भी हमलोग वहीं बैठे रहे और मंत्रालय व दिल्ली के बारे में संतोष सर और काटजू सर बतियाते रहे।

अचानक काटजू सर ने हम सबको अंदर बुलाया।

वे हमें इंडिया हाउस दिखाना चाह रहे थे। विदेशों में स्थित राजदूत के घर को इंडिया हाउस कहा जाता है। वहाँ भी ऑफिस की तरह राष्ट्र ध्वज तिरंगा शाम से लहराता है और पूरे नियम के साथ इसे सुबह फहराया तथा शाम को सूर्यास्त के वक्त उतार लिया जाता है। फ्लैग कोड का सख्ती और मुस्तैदी से पालन किया जाता है।

इंडिया हाउस पहुँचते ही लगता है कि हम अपने देश पहुँच गए हैं–कम से कम हम विदेश सेवा के लोगों को तो ऐसा ही लगता है। सो इंडिया हाउस को हम सब अंदर से देखने वाले थे! हमारे उत्साह का ठिकाना न था। आगे आगे काटजू सर और पीछे-पीछे हमलोग।

‘क्या आप सबको पता है कि इंडिया हाउस भी तालिबानियों के कब्जे में चला गया था?’

‘नहीं पता सर।’

‘हाँ, जब अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जा हो गया तो भारतीय दूतावास भी खाली करवाया गया। सभी कर्मचारियों और सुरक्षा कर्मियों को बड़ी मशक्कत के बाद रातों-रात भारत मँगा लिया गया था। जरूरी दस्तावेज तो चले गए कुछ जला दिए गए। परंतु इंडिया-हाउस तो नहीं ले जा सकते थे न! सो इसे तालीबान ने हथिया लिया।’

‘उन्हें तो इतना सुंदर महल यों ही मिल गया मानो!’

‘हाँ, और पता है, यह उनका रिहायश था। यहाँ वे परिवार के साथ रहते थे। आओ चलो कुछ इंट्रेस्टिंग दिखाऊँ।’ हम सब मानो कोई थ्रिलर पढ़ रहे हों–उनके पीछे-पीछे स्वप्नाविष्ट से चल रहे थे।

इंडिया हाउस के बिलकुल अंदरूनी भाग में दो प्रकोष्ठों की खिड़कियों पर दो परतों में जालियाँ लगी थीं। पहले महीन और फिर मोटे लोहे की छड़ें। सबसे बाहर कॉरगेटेड शीट ठोंककर पूरी खिड़कियों को सील कर दिया गया था।

अंदर से भी खिड़कियों के महँगे शीशों को काले रंग से बेतरतीबी से पोत दिया गया था। यह सब देखकर हमारे रोयें खड़े हो गए।

‘सर इतनी सुरक्षा क्यों थी, क्या वे इन प्रकोष्ठों में अपने हथियार रखते होंगे।’ हमारे बैचमेट प्रकाश ने क्लू समझना चाहा।

‘नहीं, यहाँ उनका हरम था। वे यहाँ औरतों को रखते थे। उनके बच्चे और औरतें यहाँ सुरक्षित महसूस करती होंगी।’

शरिया कानून के अनुसार औरतों को पर्दे में रहना अनिवार्य है। एक स्त्री का पति भी अपनी स्त्री को खुले सिर रात के अलावा नहीं देख सकता।

उस लोहे के जंगले से जड़े प्रकोष्ठ को याद कर मुझे अब भी सिहरन होती है। महामहिम महोदय ने बताया कि सारे घर में तालिबान ने तोड़फोड़ और ढाँचागत बदलाव किए थे ताकि अपने जरूरत के मुताबिक कम्फर्टली रह सकें।

दुबारा तब–जब–यह बिल्डिंग भारत सरकार को मिली तो सब कुछ रिपेयर किया गया पर यह प्रकोष्ठ छोड़ दिए गये ताकि तालिबान का यह चिह्न हमें याद दिलाता रहे कि हमारे लोग अफगानिस्तान में किन विकट परिस्थितियों में काम करते हैं जहाँ कभी भी कब्जा हो सकता है। कई अधिकारियों और कर्मचारियों की जाने भी गयी हैं।

तीसरे दिन सुबह हम सब भारतीय हाई कमिशन यानी दूतावास गए।

मैं पाठकों को बता दूँ कि हाई कमिशन या उच्चायोग और एम्बेसी या दूतावास–सब एक ही ऑफिस हैं। इनका नामकरण का आधार कॉमनवेल्थ देश हैं। जो कॉमनवेल्थ देश हैं वहाँ इसे उच्चायोग या हाई कमिशन कहते हैं और नॉन-कॉमनवेल्थ देशों में इसे दूतावास कहते हैं। सो हाई कमिशन जाना हमारे लिए देव-स्थान जाने के समान है। जो हमारी कर्मभूमि है–देश से बाहर जो हमारे देश की जमीन है–सारे भारतीय लोगों को हाई कमिशन जाकर लगता है कि वे भारत ही आ गए हैं।

हाई कमिशन में हमारा बेहद जोरदार स्वागत और ब्रीफिंग किया गया। डीएचसी और बाकी लोगों ने नाश्ते और चाय से पेट भर दिए। वहाँ आईटीबीपी के करीब दो सौ जवान तैनात हैं। उन्होंने भी मुस्कुराकर हमारा स्वागत किया। हाई कमिशन में कैंटीन की भी सुविधा है जहाँ ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर मिलता है।

हाय! हम तीन दिन बिना नाश्ते के क्यों रहे! यहीं आ जाते और खाते!

पर एक बात अफगानिस्तान में अजीब थी कि वहाँ सब्जियाँ बहुत कम मिलती थीं। कैंटीन में भी चिकन सैंड्विच, चिकन कबाब, चिकन टिक्का आदि मिलते थे। बाहर भी ब्रेकफास्ट में ब्रेड प्लस चिकन कबाब, लंच में ब्रेड प्लस चिकन टिक्का और डिनर में ब्रेड प्लस चिकन कोरमा ही मुख्य डिश थे। शाकाहारियों के लिए चावल भी नहीं थे। काबुली पुलाव मैंने वहीं पहली बार देखा और खाया। पर खाने के बाद पता चला कि उसमें मटन कीमा मिला हुआ है।

हे भगवान! चावल मेरा वीक्नेस है और यहाँ चावल की एकमात्र डिश भी संक्रमित है! मैंने पति से वादा किया था कि मैं शाकाहारी बनी रहूँगी। आज तीन दिन हो गए थे–मैंने कितनी मुश्किलों का सामना करते हुए यह वादा निभाया।

पर कब तक! साथ के लड़के चिकन तंदूरी, टिक्का और स्क्यूअर उड़ा रहे थे और मैं सबसे यह पूछती चल रही थी कि वेजेटेरीयन फिश कौन-सा है। मुश्किल से कभी दाल मिलती या तो चने की सूखी सब्जी और अफगानी ब्रेड!

गला खींचकर ऊँट जैसा खाना पड़ रहा था। और ऊपर से चावल भी नहीं।

क्या करूँ? तभी मेरे मित्र जेपी ने समझाया कि ‘रंजन (पति) को फोन करो और अपनी दुविधा बता दो कि उसके आदेश का पालन करना तुम्हारे लिए कितना मुश्किल है। सिर्फ सूखे चने और ब्रेड खाकर तुम दस दिन और कैसे काटोगी?’

‘यह आइडिया अच्छा है। पर फोन कैसे और कहाँ से करूँ। आईएसडी कॉल तो बहुत महँगा है।’

‘अरे मूर्ख, यहाँ से भारत इंटरकॉम से बात होती है। स्पेशल कनेक्शन मिला हुआ है–हाई कमिशन और दिल्ली के बीच। फिर उसके बाद कॉल जोड़कर सिर्फ एसटीडी लगेगा। वह भी यहाँ डीएचसी के ऑफिस से मुफ्त में हो जाएगा। सारे प्रोबेशनर देखो अपने-अपने घर बातें करने के लिए लाइन में खड़े हैं।’

ओहो! अब समझ में आया कि डीएचसी और चौन्सरी ऑफिस के सामने इतनी भीड़ क्यों है!’ मैंने तुरंत डीएचसी ऑफिस से अपने पति को फोन किया। तीन दिन से हमारी कोई बात नहीं हुई थी। वे बड़े चिंतित थे।

मैंने बताया कि यहाँ खाने-पीने की बड़ी किल्लत है इसलिए मैं दुबारा नॉन वेज शुरू कर रही हूँ। इसके उत्तर में उन्होंने क्या कहा मैंने बिना सुने ही फोन काट दिया और अपने दूसरे बैचमेट को फोन दे दिया।

कल हम सबको हेरात जाना था।

हेरात एक मरु उद्यान है और अफगानिस्तान का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। इसकी अनुमानित जनसंख्या लगभग छह लाख है और यह अफगान के पश्चिमी भाग में हरि नदी की उपजाऊ घाटी में स्थित है। हेरात प्रांत की राजधानी के रूप में भी कार्य करता है। मध्य पूर्व, मध्य और दक्षिण एशिया के बीच सिल्क रोड पर यह देश के पश्चिम में एक क्षेत्रीय सेंटर है और इसके ऐतिहासिक फारसी प्रभावों के कारण इसे अफगानिस्तान के लिटल ईरान का उपनाम दिया गया है।

हेरात अवेस्तान-काल की बस्ती है और पारंपरिक रूप से अपनी शराब के लिए जानी जाती थी। शहर में कई ऐतिहासिक स्थल हैं, जिनमें हेरात गढ़ और मुसल्ला परिसर शामिल हैं। मध्य युग के दौरान हेरात खुरासान के महत्त्वपूर्ण शहरों में था क्योंकि इसे खुरासान के मोती के रूप में जाना जाता था। तैमूर की विजय के बाद, हेरात इस्लामी दुनिया में बौद्धिक और कलात्मक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया। तैमूर साम्राज्य के पतन के बाद, 18वीं शताब्दी की शुरुआत से हेरात पर विभिन्न अफगान शासकों का शासन रहा है। 1747 में अहमद शाह दुर्रानी के सत्ता में आने के बाद, हेरात अफगानिस्तान का हिस्सा बन गया। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इसमें कुछ राजनीतिक गड़बड़ी और सैन्य आक्रमण हुए लेकिन 1857 की पेरिस संधि ने एंग्लो-फारसी युद्ध की शत्रुता को समाप्त कर दिया। हेरात से ईरान (इस्लाम कला के सीमावर्ती शहर के माध्यम से) और तुर्कमेनिस्तान (सीमावर्ती शहर तोरघुंडी के माध्यम से) की सड़कें अभी भी रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। ईरान के प्रवेश द्वार के रूप में, यह अफगानिस्तान के लिए सर्वाधिक मात्रा में सीमा शुल्क राजस्व एकत्र करता है। हेरात में एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा भी है। 2001 के युद्ध के बाद से यह शहर अपेक्षाकृत सुरक्षित रहा है जबकि शेष अफगानिस्तान तालिबान के हमलों से पीड़ित रहा है।

12 अगस्त 2021 को, तालिबान लड़ाकों द्वारा पुनः शहर पर कब्जा कर लिया गया, जो आक्रमण के हिस्से के रूप में तालिबान द्वारा कब्जा की जाने वाली उनकी बेहद महत्त्वपूर्ण स्ट्रटीजिक उपलब्धि रही।

खैर, हम अपने हेरात यात्रा की बात कर रहे थे। हेरात का रास्ता कच्चा, धूल और गड्डों से भरा और ऊबड़-खाबड़ था। हमारी बस हिचकोले खाते हुए सड़क पर आगे बढ़ रही थी कि किसी ने आइडिया दिया कि क्यों न टाइम पास के लिए ताश खेला जाय?

वाह क्या बात कही है! हम सबने समर्थन किया।

हम सबको नाते नाते डॉलर मिले थे जिससे मानो हाथों में खुजली हो रही थी। पहली बार इतने सारे डॉलर हाथ आए थे–करीब पाँच सौ तो होंगे ही। सो यह तय हुआ कि हम सब तीन पत्ती खेलेंगे।

मुझे थोड़ी बहुत यह गेम आती थी। मैं चहककर लड़कों के बीच जा बैठी। जाहिर है कई लोगों को यह पसंद नहीं आया पर इससे हमारा उत्साह कम नहीं हुआ।

पत्ते बाँटे गए। दो गेम के बाद हम सब आपस में झगड़ने लगे। निखिलेश किसी बात पर जेपी से उलझ गया। तब जेपी ने उसके हारे हुए पैसे वापस करने चाहे। निखिलेश और गुस्सा हो गया और उसने ढेर सारे डॉलर जेब से निकाल कर जेपी को दे दिए।

काश! यह सब डॉलर मुझे मिल सकते!

फिर किसी का किसी से झगड़ा हुआ फिर कइ ने पैक कर लिया।

मैं तल्लीन योगिनी सी खेलती रही।

अंत तक मैं और जेपी ही बच गए थे। जैसा कि होता है–दो ग्रुप में लोग बँट गए और हम दोनों को सहकारने लगे कि हम और बड़ा बेट लगायें। जेपी मुझे परोक्ष रूप से शो करने को सजेस्ट कर रहा था। वह चिढ़ा भी रहा था।

‘बाद में रोना-धोना मत करना। तुम्हें मैं निखिलेश की तरह पैसे नहीं लौटाऊँगा। अभी पैक कर लो।’

‘लेट्स प्ले टिल हंडरेड डॉलर। हारूँ या जीतूँ, हिसाब तो साफ और रेस्पेक्टबल रहेगा।’ प्रकाश जेपी के पत्ते चुपके से देख आया और मुझे समझाने लगा–‘अंजु, उसके पत्ते बड़े अच्छे हैं। ट्रेल है। तुम पक्का हारोगी। प्लीज अब शो करा लो।’

‘अभी नहीं। अभी खेला होबे। और तुम सब मुझे क्यों शो करने बोल रहे हो? जेपी को क्यों नहीं बोल रहे?’

‘क्योंकि उसके पास तगड़ी पत्तियाँ हैं।’

‘अरे! मेरे पास भी तगड़ी पत्तियाँ हैं, मेरे हिसाब से।’

तभी शेरिंग बोल उठा–‘अरे यार! छोड़ दो! इसको पत्ते भी ठीक से समझ नहीं आ रहा होगा। जेपी तुम ही शो कर लो ना।’

जेपी अड़ गया! मैं भी तन गयी!

फिर से खेला होबे! खेला होबे–सब चिल्लाए।

करतल ध्वनि से स्वागत किया गया।

‘दस डॉलर’ जेपी ने पाँच से चाल बढ़ायी।

‘बीस डॉलर’ मैंने और भी बोली लगा दी।

‘चालीस’…‘अस्सी’ मैं किसी तरीके से हार नहीं मानना चाहती थी। जेपी ने ही विवेक दिखाया। वह शुरू से बहुत सुलझा हुआ लड़का है।

‘अरे यार, एक सौ साठ पर शो करो।’

‘जेपी, तुम पैक भी कर सकते हो।’

‘अब तुम अधिक दिखावा कर रही हो। ऐसा क्या पत्ता आ गया है कि तुम मेरे ट्रेल को भी चुनौती दे रही हो।’

‘तुम शो करवा लो।’

‘ओके एक सौ साठ डॉलर–शो।’

और उस शो में तीन रानियों की ट्रेल तीन इक्के के सामने सिर झुकाए रो रही थीं। सिर धुन रही थीं। सिर तो जेपी भी धुन रहा था और मैं भी। जेपी बेहद स्वाभिमानी और जुबान का पक्का इनसान है। उसने मुझे एक सौ साठ डॉलर दे दिए। मुझे जितना अपने जीतने की खुशी नहीं थी उतना जेपी के हारने का दुःख था।

पर मैं क्या करती। दस मिनट के बाद मैं उन जीते हुए डॉलर से हेराती कार्पेट और ड्राई फ्रूट खरीदने की योजना बना रही थी।

थोड़ी देर में हेरात आ गया। ताश के खेल में हमें समय और ऊबड़-खाबड़ सड़क का कुछ पता न चला। हम सब शाम होते ही पहुँच गए। हेरात होटल में चेक इन कर लिया।

यहाँ भी मुझे सोफे पर ही सोना था।

हेरात के गवर्नर उस समय गुल अघा शेरजई थे जो प्रेसिडेंट करजई के बेहद करीबी थे। उन्होंने भी भारत में कुछ दिन गुजारे थे। मीटिंग के बाद जब हम डिनर वाले कमरे में पहुँचे तो गवर्नर साहब खुद हमारे टीम लीडर संतोष सर के लिए आगे बढ़-बढ़कर डिश से ढक्कन उठा रहे थे। उन्होंने कहा–‘हिंदोस्तान हमारा दोस्त है।’ उन दिनों खासकर यात्रा के दौरान यह हम लोगों का टैगलाइन हो गया था। मार्केट में अक्सर हम सब ये सुनते रहते थे कि हिंदोस्तान हमारा दोस्त है। बड़ा अच्छा लगता था कि पशतोन और अफगानी लोग इतनी अच्छी हिंदी भी बोलना जानते हैं।

एक जगह गवर्नर शेरजई रुक गए। वह सब्जी की कोई डिश थी।

‘यह ढक्कन उठाने से पहले आपको गेस करना होगा कि इसमें क्या बनाया गया है। यह स्पेशल तौर से भारत से इंपोर्ट किया जाता है–क्योंकि यह यहाँ नहीं उपजता।’ हम लोग दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगे।

क्या हो सकता है? आलू, मटर, गोभी, पनीर? आखिर क्या है इसमें? हममें से कोई भी नहीं बता पाया। तब गवर्नर साहब ने स्टाइल से ढक्कन उठाया।

‘यह भिंडी है। मैं उसको बहुत मिस करता हूँ। जब भी भिंडी की सब्जी खाता हूँ तो भारत में बिताए दिन याद आ जाते हैं। शिमला याद आ जाता है।’

हम सब भौंचक थे। कोई गवर्नर भारत की सब्जी–भिंडी को इतना मिस करता है कि अपने अजीज मेहमानों के लिए भिंडी आयात करके बनवाता है।

भई वाह! इतने दिनों के बाद हम सबको भी कुछ सब्जियाँ खाने को मिलीं। हम सब प्रोटकॉल भूल भालकर भिंडी पर टूट पड़े।

‘कंधार’ शब्द वस्तुतः ‘गंधार’ से निकला है। गंधार का अर्थ होता है सुगंध। महाभारत की एक प्रमुख नारी पात्र–गांधारी, गांधार देश के ‘सुबल’ नामक राजा की कन्या थीं। वह गांधार की राजकुमारी थीं, इसीलिए उनका नाम गांधारी पड़ा। यह हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी और दुर्योधन आदि कौरवों की माता थीं। गांधार प्रदेश भारत के पौराणिक सोलह महाजनपदों में से एक था। कहा जाता है कि शकुनि को गांधारी ने शाप दिया था कि जैसे तुमने मेरे खानदान का अंत किया वैसे ही तुम्हारा देश भी नष्ट हो जाएगा। कौन जानता है कि गांधारी का श्राप अभी तक अफगानिस्तान पर भारी पड़ रहा हो!

अंगुत्तरनिकाय के अनुसार बुद्ध तथा पूर्व-बुद्धकाल में गंधार उत्तरी भारत के सोलह जनपदों में से एक था। सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय गंधार में कई छोटी-छोटी रियासतें थीं, जैसे अभिसार, तक्षशिला आदि। भारतीय मौर्य साम्राज्य में संपूर्ण गंधार देश सम्मिलित था। ऋग्वेद में गंधार के निवासियों को गंधारी कहा गया है तथा उनकी भेड़ो के ऊन को सराहा गया है और अथर्ववेद में गंधारियों का मूजवतों के साथ उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड में गंधर्व देश की भी स्थिति बताई गई है। कैकय जनपद इसके पूर्व की ओर स्थित था। कैकय नरेश युधाजित के कहने से भरत ने गंधर्व देश को जीतकर यहाँ तक्षशिला एवं पुरूकलावती नामक नगरियों को बसाया था।

आधुनिक कंधार अफगानिस्तान का एक शहर है, जो देश के दक्षिण में अरघंदब नदी पर 1,010 मीटर (3,310 फीट) की ऊँचाई पर स्थित है। यह लगभग छह लाख की आबादी के साथ काबुल के बाद अफगानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। कंधार, प्रांतीय राजधानी होने के साथ-साथ तालिबान की भी राजधानी है, जिसे औपचारिक रूप से अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात के रूप में जाना जाता है। 1747 में दुर्रानी वंश के संस्थापक अहमद शाह दुर्रानी ने कंधार को अफगान साम्राज्य की राजधानी बनाया।

कंधार पश्तूनों के सबसे सांस्कृतिक रूप से महत्त्वपूर्ण शहरों में से एक है और 300 से अधिक वर्षों से उनकी सत्ता का केंद्र रही है। कंधारी अनार का नाम आप सबने सुना होगा। अनार के अलावा कंधार भेड़, ऊन, कपास, रेशम, खाद्यान्न, ताजे और सूखे फल और तंबाकू का एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र है। यह क्षेत्र अच्छे फल पैदा करता है, विशेष रूप से अनार और अंगूर, और शहर में डिब्बाबंदी, सुखाने और फलों को पैक करने के लिए पौधे हैं। दुःखद बात यह है कि कंधार मारिजुआना और हशीश का भी एक प्रमुख स्रोत है।

कंधार के आसपास का क्षेत्र सबसे पुरानी ज्ञात मानव बस्तियों में से एक है। कंधार 1000-750 वर्ष ईसा पूर्व, और यह 6ठी शताब्दी ईसा पूर्व में एकेमेनिड (फारसी) साम्राज्य का एक महत्त्वपूर्ण शहर बन गया था। सिकंदर महान ने चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में अब वाले कंधार की नींव रखी थी और इसे प्राचीन यूनानी नाम अरकोसिया या (अलेक्जेंड्रिया) दिया था।

कई साम्राज्यों ने दक्षिणी, मध्य और पश्चिमी एशिया के व्यापार मार्गों के साथ अपने रणनीतिक स्थान के कारण शहर पर लंबे समय से लड़ाई लड़ी है।

7वीं शती में जब मोहम्मद बिन कासिम का सिंध और बलूचिस्तान पर आक्रमण हुआ तब गंधार के अनेक भागों में बौद्ध धर्म काफी उन्नत अवस्था में था और यहाँ हिंदूशाही के राजा राज करते थे। इसी दौरान, लगभग 6ठी से आठवीं शताब्दी में बामियान बुद्ध की दो मूर्तियों का निर्माण किया गया। ये मूर्तियाँ विश्व की सबसे ऊँची व विशाल बुद्ध की मूर्तियों में एक थी जिसे 2001 में तालिबानी मुल्ला के आदेश से ध्वस्त कर दिया गया। यह स्थान काबुल से कंधार के रास्ते में है। लोगों का कहना है कि ओसामा बिन लादेन का शह इस कृत्य के पीछे था–ताकि उसका प्रभाव इस्लामी दुनिया में बढ़ सके।

हमें बामियान जाने की बहुत इच्छा थी परंतु सुरक्षा कारणों से हमें जाने की अनुमति नहीं मिल पायी। कंधार में हम भारत सरकार तथा संयुक्त राष्ट्र द्वारा फंडेड अस्पताल में गए। वहाँ रोगियों की भीड़ लगी हुई थी। हमें वहाँ एक अजीब जुमले से पाला पड़ा कि ‘कोई भी दवा इक्स्पायर नहीं होती’!

यही कहा था भारत द्वारा फंड किए हुए हॉस्पिटल के डॉक्टर ने! क्योंकि, अफगानिस्तान में चिकित्सा सुविधाएँ इतनी बदतर हैं कि कोई भी दवा उनके लिए खराब नहीं होती। इक्स्पायर्ड भारतीय जीवन रक्षक और जेनरिक दवाओं की बहुत माँग है। परंतु सप्लाई बेहद कम। इसलिए वे लोग भारत के स्वयंसेवकों को देखते ही दवाओं की माँग करते हैं।

उनके अनुसार दवाओं का मानसिक एक्सपायरी होती है–अन्यथा उनकी कोई समय सीमा नहीं होती। यह अनुभव बहुत दुःख पहुँचाने वाला था। मानव जीवन की कोई वैल्यू नहीं? कोई कीमत नहीं।

आज फिर हमारी मीटिंग कंधार के गवर्नर से थी। वहाँ पर तालिबान का शुरू से आतंक रहा है इसलिए गवर्नर का किला एक पहाड़ी पर स्थित है जहाँ चारों ओर सुरक्षा के कड़े इंतजाम थे। पहाड़ के हर बड़े पत्थर पर डाकूनुमा सिपाही कलाएनिसकोव लेकर खड़े थे। उधर देखने में भी डर लग रहा था।

हमें बेहतरीन मेलोन खिलाए गए। उतने मीठे खरबूजे फिर मैं कभी नहीं खा पायी। यहाँ दुनिया के सबसे मीठे खरबूजे मिलते हैं–और बहुत सारी वेराईटी के!

पंजशीर घाटी को पंजशेर भी कहा जाता है। शाब्दिक रूप से उसका अर्थ है पाँच शेरों की घाटी! उत्तर-मध्य अफगानिस्तान में पंजशीर एक घाटी है, जो काबुल के उत्तर में 150 किलोमीटर (93 मील) उत्तर में है। हिंदू कुश पर्वत शृंखला। यह पंजशीर नदी द्वारा विभाजित है। इस घाटी में एक लाख से अधिक लोग रहते हैं, जिसमें अफगानी ताजिकों की सबसे बड़ी संख्या भी शामिल है। अप्रैल 2004 में, यह नए पंजशीर प्रांत का केंद्र बन गया, जो पहले परवान प्रांत का हिस्सा था। काबुल में काबुली पुलाव हमने खाए थे परंतु उसमें मटन कीमा मिले हुए थे। पंजशीर में काबुली पुलाव दूसरी तरह के थे। विश्वास कीजिए इसमें काबुली चने नहीं मिले हुए थे बल्कि यह एक विशेष विधि से पकाया हुआ रेजिन (किशमिश) और ड्राई फ्रूट से रीच डिश है जो घी में या ऐनिमल लैड (चर्बी) से भूना जाता है। यह खाने में बेहद स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है।

हमारा वाला घी में भुना गया था!

खाने के बाद हम नदी के किनारे बैठ गए।

पंजशीर नदी बह रही थी–पानी स्वच्छ और हरा-नीला रंग का था। उसी के तट पर हम सब बैठे थे। बगल में एक लोहे का पुल भी था।

तभी आसमानी बुर्के का हुजूम पुल पार करने लगा।

संतोष सर फिलॉसफर भी हैं। तभी किसी ने बहस छेड़ी कि सभ्यता के शुरुआत से महिलायें घरों में रहती हैं और पुरुष बाहर। पुरुष हार्ड वर्क–जैसे शिकार करना और भोजन जुटाना–कमाना आदि करते हैं और औरतें ऑड जॉब्ज जैसे घर सँभालना, बच्चे पालना और खाना पकाना। काबुली पुलाव और मटन कोरमा खाने के बाद समय बिताने के लिए यह बहस तो होनी ही थी।

‘औरतें इसलिए घर में रहती थीं क्योंकि वे शारीरिक रूप से कमजोर थीं। आदमी बाहर जाते थे क्योंकि वे स्ट्रॉन्ग थे।’

‘यह बात मैं मान नहीं सकता! औरतें कभी भी कमजोर नहीं थीं। औरतों का शिकार पर जाना और खेती के कार्यों में बराबर की हिस्सेदारी रही है। भीमबेटका और इसी तरह के रॉक पेंटिंग में इसकी पुष्टि होती है।’

बहस गरमाती जा रही थी। अधिकांश लोग औरतों को कमजोर साबित करने में लगे हुए थे। तभी संतोष सर ने सबको समझाते हुए कहा कि ‘औरतें कमजोर नहीं थीं वे स्पेशल थीं। इसलिए उन्हें सुरक्षित रखना पुरुष व समाज की जिम्मेदारी थी।’

‘कैसे सर?’

‘संतानोत्पत्ति सिर्फ औरतें कर सकती थीं। यह कार्य शारीरिक रूप से मजबूत पुरुष भी नहीं कर सकता। गर्भधारण करना, बच्चा पैदा करना और उसे पालना–पुरुष के वश की बात नहीं। मनुष्य में शुरू से ही परिवार की चाहत थी–परंतु उसे पता नहीं था की परिवार कैसे बनाएँ? नारी ने वह परिवार बनाया। संतान के माध्यम से मनुष्य जाति का वंश आगे बढ़ाया। इसलिए औरतों को यह प्रेवलेज थी कि वे घर पर रहें।’ संतोष सर के इस तर्क से सब सहमत हो गए।

मेरी आँखों में आँसू आ गए। संतोष सर जितने कितने पुरुष हैं जो औरतों को इतना मान दे सकते हैं? औरतों को अभी भी बहुत दूरी तय करनी है–अपने विकास की गाथा को सशक्तिकरण से गुँथना है।

अब जब भी उस टॉपिक पर बहस होती है–तो मैं पंजशीर पहुँच जाती हूँ। पंजशीर अफगानिस्तान का कश्मीर है। उतना ही हरा-भरा, खूबसूरत वादियों और झरनों से सजा हुआ। माला की तरह पंजशेर नदी लिपटकर इस घाटी से बहती है।

शाम होते ही जब हम वापस काबुल चले आए–तो काबुली पुलाव और पंजशेर नदी का तट भी हमारे साथ चले आए थे।

हमें अंतिम दिन मजारे शरीफ जाना था। मजार-ए-शरीफ अफगानिस्तान का चौथा सबसे बड़ा शहर है, जिसकी अनुमानित जनसंख्या 500,207 है। यह बल्ख प्रांत की राजधानी है और पूर्व में कुंदुज, दक्षिण-पूर्व में काबुल, दक्षिण-पश्चिम में हेरात और उत्तर में उज्बेकिस्तान के साथ राजमार्गों से जुड़ा हुआ है। यह उज्बेक सीमा से लगभग 55 किमी (34 मील) दूर है। यह शहर अपने प्रसिद्ध मंदिरों के साथ-साथ इस्लामी और हेलेनिस्टिक पुरातत्त्व स्थलों के कारण भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। बल्ख का प्राचीन शहर भी पास में है।

हजरत अली (नीली मस्जिद) श्राइन पैगंबर मोहम्मद के चचेरे भाई और इस्लाम के चौथे खलीफा अली बिन तालिब की कब्रगाह है। कहा जाता है कि तात्कालिक सेल्जुक सुल्तान, अहमद संजारी ने मुल्ला को बताए गए स्थान पर एक दरगाह बनाने का आदेश दिया और वही आज की ब्लू मस्जिद है। इसका इतिहास बेहद उथल-पुथल का रहा है। ब्लू मस्जिद को 13वीं शताब्दी में चंगेज खान और उसकी मंगोल सेना ने नष्ट कर दिया था।

ब्लू मस्जिद जो बेहद खूबसूरत मस्जिद थी। कुछ कुछ इस्तांबुल मॉस्क की तरह। हमें अंदर जाने की इजाजत नहीं थी और बार-बार दुपट्टा सिर पर डालने के आदेश मिल रहे थे।

रात में मस्जिद रंगीन रोशनी से जगमगाती है। हालाँकि, आसपास के पार्क में कई बेघर और आतंकवादी के विचरने के कारण अकेले घूमने की सलाह नहीं दी जाती है। पाँच घंटे गाड़ी में हिचकोले खाते हुए हम मजारे शरीफ पहुँचे थे। ब्लू मस्जिद देखने के बाद खाने की तलब लगी।

हमारी अफगानी लिएजॉन ऑफिसर ने बताया कि यहाँ भारतीय रेस्तराँ मौजूद है जो बस एक किमी की दूरी पर स्थित है। लगभग एक सप्ताह के बाद हम लोगों को दिल्ली दरबार में अच्छा भारतीय खाना मिला। गैर-अफगानों के लिए यहाँ शराब भी उपलब्ध थी। दिल्ली दरबार को इसे स्थानीय अफगानी ‘इंडियन होटल’ कहते हैं।

मजार-ए-शरीफ के थोड़ा और पश्चिम की ओर जाने पर चिश्ती शरीफ जिला है जहाँ पर भारत सरकार द्वारा विकसित किया और बनाया गया अफगान-भारत मैत्री बाँध (एआईएफडी) स्थित है। पहले इसे सलमा बाँध कहा जाता था। यह पश्चिमी अफगानिस्तान में हेरात प्रांत के चिश्ती शरीफ जिले में हरि नदी पर स्थित एक जलविद्युत और सिंचाई बाँध परियोजना है। चूँकि इस परियोजना को भारतीय सहायता परियोजना के एक भाग के रूप में भारत सरकार द्वारा फाइनेंस और निर्मित किया गया है, अफगान कैबिनेट ने दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत करने के लिए कृतज्ञता के भाव में सलमा बाँध का नाम बदलकर अफगान-भारत मैत्री डैम कर दिया।

यहाँ पनबिजली से 75000 हेक्टेयर में सिंचाई के अलावा 42 मेगावाट बिजली का उत्पादन करना लक्ष्य रखा गया था। हम बस में हिलते-धक्के खाते सलमा डैम भी देखने गए। बाद में बहुत डिले होने के बाद भारत सरकार और विदेश मंत्रालय के अथक प्रयासों से इसका 4 जून 2016 को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथ उद्घाटन एवं लोकार्पण किया था। रास्ते में अक्सर गधे पर बैठे अफगानी दिखे। हमें आश्चर्य हो रहा था, हँसी आ रही थी–गनीमत थी कि गाड़ी में डार्क शीशा था सो हमारी हरकत या खुला सिर लोगों की निगाहों में नहीं आ रहा था।

सड़कों का तो बुरा हाल था। बीच से कटी-उघड़ी सड़कें अपनी बदहाली बयान कर रही थीं। पूरे अफगानिस्तान में हम जहाँ भी गए खराब सड़कें मिलीं। शहर से बाहर निकलते ही गरीबी, बदहाली, भुखमरी, खराब सड़कें और आसमानी बुर्के में छिपी औरतों को देखकर देश की नब्ज आसानी से जाँची जा सकती थी। लगता था कि शांति की यह प्रक्रिया अधूरी है–और जो शांति है वह वस्तुतः तूफान से पहले की स्थिति है।

अंतिम दिन हम काबुल में शॉपिंग करने गए। अफगानिस्तान अपने रेशमी कालीन और ड्राई फ्रूट्स के लिए सुप्रसिद्ध है। हमारे डीन–संतोष सर भी एक छोटा 32 रेशमी हस्त निर्मित कार्पेट खरीदना चाह रहे थे। हम सब लड़के-लड़कियाँ उनके साथ दुकानदार से बॉर्गन करने लगे। दुकानदार टूटी-फूटी हिंदी में अपनी बेबसी बयान कर रहा था।

‘दोष्ट! हमारा मुल्क का हालत खराब है इसलिए सारी चीजें कौड़ियों के मोल बेच रहा है। ये रेशमी ऐंटीक कालीन दूसरे टाइम और गैर-मुल्क पाँच सौ डॉलर से कम में नहीं मिलेगा, परंतु हम आपको सत्तर डॉलर में देता है। बादशाहो! हिंदुस्तान हमारा दोष्ट है, इसलिए आपको और सस्ता देगा। साब, कुछ दाम तो बोलो।’

‘हम पचास डॉलर देंगे।’ प्रोटकॉल ऑफिसर ने कहा।

‘साठ तो दे दो दोष्ट।’

‘सॉरी, इतने ही पैसे बचे हैं।’

‘ठीक है, दे दो।’

पचास डॉलर में महँगा और ऐंटीक सिल्क कार्पेट खरीदकर संतोष सर के साथ-साथ हम सब भी बहुत खुश थे।

गाड़ी में प्रोटकॉल ऑफिसर से पता चला कि ये अफगानी लोग अपने घरों और दीवारों पर लगे कालीन सस्ते दामों में बेच रहे हैं–क्योंकि तालीबानी शासन ने अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी है।

हम कालीन तो नहीं पर ढेर से ड्राई फ्रूट्स खरीद रहे थे। पिश्ता, बादाम, अंजीर की लड़ियाँ, चिलगोजे, अनारदाना!

वहाँ का लेदर भी प्रसिद्ध है–सो हमने कमेल लेदर का एक ब्राउन बैग खरीद लिया। मन तो बहुत हो रहा था कि लैपिस लुपिस के कुछ गहने भी खरीदूँ, पर पैसे नहीं थे।

हमारी तब इतनी ही औकात थी।

हमारे कुछ बैचमैट्स ने सिल्क कालीन और साधारण कालीन भी खरीदे।

पर सबसे अच्छी बारगेनिंग हुई थी डीन सर के सिल्क कार्पेट में!

वह बहुत संतुष्ट हो गए थे।

हमें बता रहे थे कि स्टडी रूम में यह कार्पेट लगाएँगे।

जब हम होटल पहुँचे तो डीन के लिए एक गोलाकार रोल किया हुआ गिफ्ट प्रतीक्षा कर रहा था। होटल के कर्मचारियों ने उसे खोला। गिफ्ट देखते ही हम सब उछल पड़े।

यह 45 मीटर का एक नायाब सिल्क कार्पेट था जो अफगानी विदेश ऑफिस से डीन के लिए तोहफे के रूप में भेजा गया था। डीन संतोष सर थोड़ी देर मुस्कान लिए चुप रहे फिर उन्होंने यह अफगानी जुमला कहा–‘तुम अगर खच्चर खरीदते हो तो तुम्हें उसके साथ एक घोड़ा मुफ्त मिलेगा।’

‘मैं पूछना भूल गयी कि इस कार्पेट को संतोष सर कहाँ लगाएँगे?’

हमारी वापसी की फ्लाइट एयर इंडिया की थी–हम सब लदे-फदे एयर पोर्ट पहुँचे। तकरीबन सबके पास एक्स्ट्रा सामान हो गया था। पर एयर इंडिया वालों ने सहृदयता दिखायी और सब एक्स्ट्रा सामान भी चेक इन कर लिया।

वापसी में हिंदू कुश और गोलन पहाड़ियों को विदा देते हमारी आँखें नम थीं। शायद हमको पता था कि अब मैं कभी अफगानिस्तान वापस न आ पाऊँगी।

पर यहाँ बिताए वे दस दिन हमेशा मुझे इन खूबसूरत नीली वादियों की याद दिलाते रहेंगे–और उस नीली आँखों वाली फातिमा की भी, जो हमारी लिएजॉन ऑफिसर रही थी और जिसका सपना था–हमारी तरह अफगानिस्तान विदेश सेवा में जाकर देश का नाम रौशन करना–मुल्क की सेवा करना।

मैं नींद में सपना देखती हूँ और सपने में फातिमा को मुस्कुराते हुए देखती हूँ। शायद अफगानी औरतें इसलिए इतनी सुंदर हैं कि वे दुखी होते हुए भी अगले ही पल मुस्कुरा सकती हैं।

ओके फातिमा!

टिल वी मीट!

अपना खयाल रखना!!


Image: Girl with a hoop
Image Source: WikiArt
Artist: Oleksandr Bogomazov
Image in Public Domain

अंजु रंजन द्वारा भी