सांस्कृतिक वर्चस्ववाद

सांस्कृतिक वर्चस्ववाद

भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक तंत्र की गुलामी से मुक्ति की घोषणा के बाद इसका सामाजिक-राजनैतिक एवं धार्मिक स्वरूप क्या हो या कैसा हो, इस पर राष्ट्र निर्माता एवं युग-द्रष्टा बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के स्पष्ट, सुनिश्चित एवं निर्णायक विचार थे। वे सदियों से चली आ रही गै़रबराबरी पर आधारित रूढ़िवादी सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तनकारी पक्ष के प्रखर प्रवक्ता और प्रबल पैरोकार थे। वे चाहते थे कि इस देश की करोड़ों जनता को अशिक्षा के अंधकार से प्रकाश की ओर लाकर सामाजिक न्याय के ज़रिये शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं सम्मानपूर्ण जीवन बहाल किया जा सके। वे जिस शक्ति-संपन्न, संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य की परिकल्पना करते थे उसकी गूँज उनके व्याख्यानों, अभिभाषणों एवं समग्र लेखन में स्पष्ट रूप से ध्वनित होती है तथा उससे भी आगे उनके द्वारा रचे गए भारतीय संविधान जैसे–महानतम आधार ग्रंथ में जीवंत होकर प्रकट होती है। ऐसा आधार ग्रंथ भारतीय जन-तांत्रिक व्यवस्था को एकता के सूत्र में पिरोये रखकर उसके आदर्शों एवं उन्नति के सपनों को ज़मीन पर उतारने के लिए लगातार सन्नद्ध तथा सक्षम दिखाई देता है। ऐसे संविधान के पृष्ठ-दर-पृष्ठ एवं शब्द-दर-शब्द से डॉ. अम्बेडकर की वैश्विक जनवादी दृष्टि साफ़ नज़र आती है, जो भारत को समेकित एवं समग्र जनशक्ति का सकारात्मक सहयोग प्राप्त कर इसे केवल शक्ति संपन्न ही नहीं देखना चाहती वरन शक्ति के बेजा इस्तेमाल को रोकते हुए विश्व-शांति की नई और व्यावहारिक समझ भी देती है।  

ऐसे भारत के निर्माण हेतु डॉ. अम्बेडकर की कार्य योजनाओं में मुख्यतः शामिल थे–बुनियादी शिक्षा, रोजगार, कृषि एवं उद्योगों का राष्ट्रीकरण, जनसंख्या नियंत्रण, धार्मिक निरपेक्षता एवं जाति-विहीन समाज-निर्माण, नदी, बाँध एवं सुदृढ़ सिंचाई परियोजना, राजनैतिक सुधारों द्वारा ईमानदार-कर्मठ एवं  समुचित जनप्रतिनिधित्व, व्यक्ति पूजा से परे वैचारिक आस्था, आडंबर एवं धर्मांधता की जगह विज्ञानवाद, श्रमिक हितों की रक्षा, नारी शिक्षा-समानता एवं कानून की नज़र में प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार। यहाँ इस प्रकार के परिवर्तनकारी तत्वों का समावेश दिखाई देता है, जिसके ज़रिये एक जनवादी एवं सर्वसाधन संपन्न राष्ट्र का निर्माण किया जा सके। 

भारतीय इतिहास से यह बात प्रमाणित है कि यहाँ तथा-कथित धार्मिक-आध्यात्मिक अधिनायकत्व ने लंबे समय तक सामाजिक समता का क्रियान्वयन होने ही नहीं दिया। इसलिए आर्थिक विकास के ज़रिये आर्थिक साम्यवाद का सपना भी यहाँ आकार नहीं ले पाया। लंबे समय तक कबीलाई-भौगोलिक पृथक्कीकरण ने अपनी-अपनी मजबूत सीमाएँ प्रायः दुर्लंघ्य बना रखी थीं। फलतः एक अंतर्कबीलाई समाज बनने की प्रक्रिया ही नहीं चली। आक्रमणों के दौरान बाहर से आई जातियों के साथ यहाँ के कबीलों ने भी अपने आप को प्रायः पृथक ही रखा तथा कुछ जातियों ने इस अलगाव का फायदा अपने पक्ष में उठाते हुए इस पृथक अस्तित्व को ईश्वरीय बनाकर स्थायित्व दे दिया। इन्हीं प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप छोटे-छोटे राज्यों का स्वतंत्र अस्तित्व लंबे समय तक चला, जिसने भारतीय भू-भाग को कभी एक राष्ट्रीय संस्कृति नहीं बनने दिया। ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था ने पहले से मौजू़द इन स्वतंत्र राज्य-व्यवस्थाओं को ज्यों-का-त्यों रहने दिया तथा उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी की राज्य-व्यवस्था के अंतर्गत एक घटक बना लिया। यह व्यवस्था 1757 के बाद ब्रिटिश साम्राज्य व्यवस्था कायम रहने तक ज्यों-की-त्यों चलने दिया गया। हाँ, इतना परिवर्तन ज़रूर आया कि ऐसी सभी राज्य इकाइयों को एक ही ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन होने के कारण बहुत से एक समान नियम-कायदों से शासित होना पड़ा। शायद इसी व्यवस्था या मज़बूरी ने भारत में एक फेडरल राज्य व्यवस्था की नींव रखी। ब्रिटिश साम्राज्य ने यद्यपि कि समान नियम और प्रावधानों को लागू किए जाने के अपने प्रयासों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किए तथा कई प्रावधान केवल कुछ विशेष राज-तंत्रों तक ही सीमित रहे, फिर भी एक शासन-तंत्र के नीचे आने के बाद सभी राज्यों को मिलाकर, एक वृहत्तर भारत की संकल्पना फलीभूत तो हुई ही। इस नज़र से भी भारत को एक राष्ट्र-राज्य बनाने की दिशा में ब्रिटिश हुकूमत का जाने-अनजाने बहुत बड़ा योगदान रहा। इस प्रकार के भारत की परिकल्पना को लेकर (आज़ादी की पहल करते हुए भी) कुछ पुराने राजतंत्रों ने एक बार फिर  स्वतंत्र होकर स्वशासित होने की माँग उठाई, जिन्हें भारतीय गणराज्य में शामिल करना आसान नहीं था। इन छोटी राज्य-इकाइयों ने ब्रिटिश हुकूमत की अधीनता स्वीकार करते समय तरह-तरह के समझौते किए थे तथा एक बार ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति का अर्थ उन्हें पुनः अपना स्वतंत्र अस्तित्व अलग रहने में दिखाई देने लगा था। इस समस्या से निबटने हेतु डॉ. अम्बेडकर ने ऐतिहासिक क़दम उठाया तथा अच्छे तथा अनुकूल क़ानून के आश्वासन के ज़रिये इन राज्य-व्यवस्थाओं को गणतांत्रिक व्यवस्था में शामिल होने पर राजी कराया। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने खंड-खंड बिखरी व्यवस्था (अव्यवस्था?) को एकीकृत करके अखंड भारत बनाने का स्वप्न साकार किया तथा इन राजतंत्रों को एक लोकतंत्रीय प्रणाली में विलीन करने की कानूनी अड़चनों का समाधान किया।

डॉ. अम्बेडकर के अनुसार राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रवाद अलग-अलग बातें होती हैं–‘राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रवाद के बीच विभेद है, ये मानव मन की अलग-अलग मनोवैज्ञानिक दशाएँ हैं। राष्ट्रीयता का अर्थ है करुणा के प्रति जागरूकता तथा आत्मीयता के जुड़ाव की मौज़ू़दगी की जानकारी। राष्ट्रवाद का अर्थ है–उन लोगों द्वारा जो आत्मीयता से जुड़े हैं अलहदा राष्ट्र की उपस्थिति की इच्छा। दूसरा यह सत्य है कि बिना राष्ट्रीयता के एहसास की स्थिति के राष्ट्रवाद नहीं हो सकता। लेकिन दिमाग में यह रहना चाहिए कि इसके उलट बात हमेशा सत्य नहीं होती। राष्ट्रीयता का एहसास मौजूद रह सकता है फिर भी राष्ट्रवाद का एहसास बिल्कुल अनुपस्थित रह सकता है। इसका मतलब यह कि सभी मामले में राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद की लहर बने इसके लिए दो शर्तें पूरी होनी चाहिए–प्रथम यह कि राष्ट्र के रूप में रहने की इच्छा। राष्ट्रवाद उस इच्छा की गत्यात्मक प्रस्तुति है। दूसरा ऐसा परिक्षेत्र होना चाहिए जिसे राष्ट्रवाद अपना सके, इसे राज्य बना सके तथा इसे राष्ट्र का सांस्कृतिक गृह बना सके। बिना इस परिक्षेत्र के राष्ट्रवाद, लाई एक्सन के मुहावरे में; ऐसी आत्मा होगा जो शरीर की खोज में भटक रहा हो, जिसमें जीवन की शुरुआत कर सके और बिना उसे पाए मर जाता है।

अतः राष्ट्रीयता और राष्ट्रीयता की भावना भारत के लिए ज़रूरी तत्व हैं। इसीलिए धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अलगाव के कारण भारतीय राष्ट्रवाद पर इसके भीतर ही अलग-अलग तरह के राष्ट्रवाद पैदा होने के ख़तरे रहेंगे। इसीलिए डॉ. अम्बेडकर कहते हैं कि ‘राष्ट्र मौजूद नहीं होता इसका सृजन करना होता है, और मेरे विचार से यह स्वीकार्य होगा कि विशिष्ट एवं अलग समुदाय को बलपूर्वक दबाना किसी राष्ट्र के सृजन का तरीक़ा नहीं हो सकता है।’ आशय यह कि राष्ट्र के सृजन में समुदायों को साथ लेकर चलने के लिए ऐसा वातावरण पैदा होना चाहिए ताकि उनकी स्वतः ही दिलचस्पी बढ़े और ऐसा मात्र सह-असित्व और आत्मीयता की भावना से ही संभव है। विचारणीय यह है कि डॉ. अम्बेडकर उपरोक्त कथन में किस प्रकार के राष्ट्र की परिकल्पना करते हैं। निश्चित रूप से वे भारत को धर्म, संप्रदाय एवं जाति विहीन बनाकर मानवीय प्रेम, मानवीय सम्मान एवं सह अस्तित्व की भावना को ही एक राष्ट्र की ज़रूरी शर्त मानते हैं, क्योंकि संप्रदाय, जाति, धर्म ऐसी मानसिक स्थितियाँ हैं जो अपने से इतर के साथ सह अस्तित्व में बड़ी रुकावट पैदा करती हैं। इसीलिए भारतीय संविधान में धार्मिक आडंबर एवं परंपरागत अंध-भक्ति के प्रभाव को ख़त्म कर विज्ञानवादी चेतना के विकास की बात की गई है और इसी रास्ते से हम धर्म-जाति और संप्रदाय की भावना से ऊपर उठकर एक राष्ट्र के रूप में अखंड भारत का निर्माण कर सकते हैं।

डॉ. अम्बेडकर के विचारों के बरअक्स आज के तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद  (आतंकवाद?) के रूप, उसके तेवर, उसके चरित्र एवं उसके उद्देश्य की पड़ताल से स्पष्ट हो जाता है कि आज भारतीय लोकतंत्र किस मोड़ पर खड़ा है और उसके भविष्य का क़दम किस ओर अग्रसर है। सबसे पहले हमें भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह पड़ताल कर लेना होगा कि यहाँ पर सांस्कृतिक शब्द के क्या मायने हैं–सांस्कृतिक पृथकता, सांस्कृतिक समन्वय, सांस्कृतिक संक्रमण एवं सांस्कृतिक विलयन या एकीकरण के क्या निहितार्थ हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में हम सांस्कृतिक आतंकवाद की शिनाख़्त करने की कोशिश करेंगे।

सभ्यता का स्वरूप भौतिक क्रमिक विकास से है जबकि संस्कृति का स्वरूप मानसिक क्रमिक विकास से है। संस्कृति और सभ्यता का अन्योन्याश्रित संबंध है, अर्थात एक दूसरे पर निर्भरता और  साथ-ही-साथ एक दूसरे के विकास में सहयोगी भूमिका। सभ्यता मनुष्य जीवन की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के क्रम में, उसे अधिक सुविधा संपन्न बनाने की दिशा में नित नये आयाम रचती रही है जिसने मनुष्य को अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में अधिक शक्ति-संपन्न बनाया है। इस दिशा में मनुष्य की बुद्धि ने उसके श्रम का साथ दिया। इसी कारण मनुष्य ने एक नियम-बद्ध तरीक़े से प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर अपने पक्ष में प्रकृति से बहुत कुछ प्राप्त करने का गुर सीखा। इसी सीख से उसने अपने अनुभव की बातों को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित किया जिससे आगे की पीढ़ियाँ उससे भी आगे का बौद्धिक सफ़र तय कर सकें। ऐसे ही बौद्धिक संचरणों के भिन्न स्वरूपों एवं माध्यमों का विकास हुआ ताकि इसका संसरण एवं फैलाव अधिक लोगों तक हो और एक सामूहिक स्वीकार्यता में हो। इन्हीं आयामों ने एक साझा रहन-सहन, वेश-भूषा, मनोरंजन एवं ज्ञान-विज्ञान का विकास किया जो भौगोलिक समस्याओं के कारण विशेष क्षेत्रों तक सीमित रहीं। इसी कारण भौगोलिक सीमाओं के बाहर के ज्ञान-विज्ञान, रीति-रीवाज, तीज-त्यौहार व्रत-पूजा और मान्यताएँ भिन्न-भिन्न रहीं जिन्हें हम संस्कृति का नाम देते हैं।

यह भिन्नता ही विशिष्ट सांस्कृतिक समूहों या समाजों की पहचान के रूप में एक बौद्धिक कौशलपूर्ण परंपरा के रूप में सामयिक परिवर्तनों के साथ प्रधानतया अपने मूल स्वरूप में, हस्तांतरित होती रही। इसकी विशिष्टता लंबे समय तक इसकी भौतिक सीमा में मौजूद रहने के कारण भी है। सांस्कृतिक विकास की इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने इसे अलग तथा विशिष्ट बना रखा है। सभ्यता विकास के क्रम में भौगोलिक सीमाओं की अलंघ्ययता कम हुई जिससे संस्कृतियों के मिलन एवं आपसी आदान-प्रदान द्वारा परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ। कई बार अनुकूल परिस्थितियों में एक साझी संस्कृति ने भी आकार ग्रहण किया। लंबे समय तक अपनी विशिष्ट अस्मिता बनाए रखने वाली संस्कृतियाँ आज भी एक दूसरे से पृथक हैं। यह पृथकता प्रायः विरोधी नहीं है।

यह लंबे समय से पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकसित जीवन-पद्धति अपनी अलग पहचान रखती है किंतु सभी ऐसा ही करें यह आग्रह या अपेक्षा नहीं रखती। अपनी परंपरा से बँधे रहकर उसके प्रति मोह तथा आस्था होना एक बात है किंतु दूसरी भिन्न संस्कृतियाँ भी इसी का अनुसरण करें, इसका दुराग्रह बिल्कुल अलग बात है। ऐसे दुराग्रह भारतीय संस्कृति में प्रायः नहीं रहे हैं यही यहाँ की साझा संस्कृति की विशेषता है। जब हम भारतीयता की बात करते हैं तो हमें भारतीयता की ऐतिहासिक  परंपराओं में इसके स्रोत तलाशना लाजमी हो जाता है।

अब तक ज्ञात पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर हम यह मानते हैं कि भारतीयता का मूल उत्स हड़प्पाई है। प्रकृति के साथ सामंजस्य, उसकी असीम सत्ता-शक्ति की स्वीकार्यता-फलतः उसकी श्रेष्ठता एवं विनाशक शक्ति के आगे नतमस्तक होकर उसकी पूजा आराधना। किंतु इसका अर्थ यह क़तई नहीं कि इस पूजा आराधना के कारण मनुष्य ने प्रकृति पर नियंत्रण और उससे अपेक्षित फल प्राप्त करने की कोशिश छोड़ दी हो। ऐसा नहीं। मनुष्य अपने इन्हीं प्रकृति प्रदत्त अनुभवों को अपनी पारंपरिकता के साथ जोड़कर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संस्कारित उपादान से लैस करता रहा। संस्कार या पाली का ‘संखारा’ का अर्थ ही पीढ़ी-दर पीढ़ी जाने-अनजाने हस्तांतरित होने वाले जीवन अनुभवों, गुणों, ज्ञान, संयम और परिस्थितियों से प्रतिक्रिया करने की आदतें। और इसीलिए ये संस्कार व्यक्तियों, परिवारों, कुनबों, कबीलों, समाजों में रूपांतरित होकर एक साझा संस्कृति का निर्माण करता है–ऐसी संस्कृति जिसके कुछ न्यूनतम अवयव जो सभी कुनबों, कबीलों में सामान्यतः मान्य हों।

भौगोलिक पृथकता तथा भौगोलिक जलवायविक अंतर के कारण भिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग संस्कृतियों का विकास हुआ, लेकिन हड़प्पाई परिप्रेक्ष्य में सब का मूल स्रोत वही प्रकृति के साथ सहजीविता थी। इस प्रकार पूरे एशियाई क्षेत्र के दक्षिण-पश्चिम एवं दक्षिण-पूर्व परिक्षेत्र में एक सहजीवी संस्कृति का विकास हुआ, जहाँ मनुष्यता सबसे अहम जीवन मूल्य रही और बाकी चीज़ें उसी के इर्द-गिर्द घूमती रहीं। इसी जीवनानुभव और मूल्य को मनुष्य ने सभ्यता का नाम दिया जहाँ अपने जीने के अधिकार के साथ सहजीवी मनुष्य को भी जीने देने का कर्तव्य बोध विकसित हुआ। कुछ इसी प्रकार की संस्कृति द्वारा हड़प्पाई समाज ने सहजीविता और सहकारिता के ज़रिये बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्यों को अंजाम दिया। 

कालांतर में मनुष्य की वर्चस्ववादिता ने अंतर्समाजीय समूहों का निर्माण कर उन पर अपना आधिपत्य जमाना शुरू किया। इसी क्रम में अंतरसांस्कृतिक समूहों के एक साथ आने तथा  भौगोलिक सीमाएँ टूटने के कारण आपसी आदान-प्रदान द्वारा कई नई संस्कृतियों का सम्मिलित विकास होता रहा या कई संस्कृतियों का संलयन-विलयन होता रहा।

पुराने भारतीय गाँव अपने आप में स्वतंत्र सांस्कृतिक केंद्र रहे, लेकिन उनकी अलग बस्तियाँ अपने अलग अस्तित्व को ज़िंदा रखे थीं। ऐतिहासिक कारणों से बाद के दिनों में अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों द्वारा एक ही गाँव में बसाहट के कारण ही ऐसा हुआ। मूल (पुरानी) ग्रामीण सांस्कृतिक ईकाई बनी रही और उसके इर्द-गिर्द बाद के विस्तारित क्षेत्र में अलग संस्कृतियों ने अपना डेरा जमाया। बाद में आने वाले ये सांस्कृतिक समूह देसी-विदेशी आक्रमणों, प्रवर्जन तथा अन्य कई ऐतिहासिक कारणों से पहले से बसे गाँवों में आबाद हुए किंतु फिर भी मोटे तौर पर सहजीविता की सहिष्णुता प्रायः बनी रही। यह हड़प्पाई सांस्कृतिक सहजीविता वैदिक काल (1500 ई. पूर्व) के बाद भी निर्बाध चलती रही।

इस प्रकार हड़प्पाई संस्कृति कमोवेश एक विज्ञान-सम्मत सांस्कृतिक चेतना को अंगीकार करने की दिशा में आगे बढ़ती रही तथा सहजीवी सहिष्णुता को अपने आचार संहिता में स्थान दिया। अहिंसा, चोरी न करना (अपरिग्रह), झूठ न बोलना आदि जीवन जीने के अभिन्न नियम बन गए जो कई भिन्न सांस्कृतिक ईकाइयों के लिए एक साझा मान्य नियम की तरह अंगीकृत हुए।  इस प्रकार की आचार संहिता तथा ऐसी ही अन्य संहिताओं के प्रभाव में छोटे-छोटे सांस्कृतिक समूह एक बड़े छत्र के नीचे आने लगे जहाँ वे अपने सांस्कृतिक स्वरूप को बचाए रखकर इस वृहद जीवन-मार्ग का अनुसरण करते रहे। इस प्रकार के समूह अपनी सांस्कृतिक भिन्नता के ऊपर एक सामूहिक भावना में बँधकर साझा नाम और साझी पहचान ग्रहण करने लगे।

तथाकथित वैदिक कालीन साहित्य इस प्रकार की गै़र-हड़प्पाई सांस्कृतिक समूहों के भारत भूमि पर कहीं से आकर निवास करने की निशानदेही करता है। यह समूह दूसरों की संपत्ति छीनने हड़पने या युद्ध द्वारा जीतकर लेने में विश्वास करता है, जो भारतीय अपरिग्रह के उल्टी मान्यता है। यह समूह झूठ बोलकर, घोखा देकर, जालसाजी करके, षड्यंत्र करके, विश्वासघात करके दूसरों की संपत्ति हथियाने में विश्वास रखता है। यह समूह दूसरों की हत्या करके, उसकी संपत्ति हथियाने में विश्वास करता है। यह संस्कृति समूह मूलतः कोई आध्यात्मिकता या ध्यान-पूजा में विश्वास नहीं रखता तथा भौतिकता में प्रायः विश्वास करता है। भौतिक उपलब्धि कराने हेतु इन्द्र की पूजा भी भौतिक रूप से ही अर्थात सोम, माँस और सुंदरियों का उपहार देकर। यहाँ आध्यात्म को महत्त्व नहीं दिया जाता तथा वैदिक काल के शुरुआती दिनों में तो अध्यात्म को ‘नग्न श्रमणों का व्यसन’ ही माना है, इस संस्कृति ने। और उत्तर वैदिक काल आते-आते यह गै़र हड़प्पाई संस्कृति ‘ब्राह्मण संस्कृति’ के नाम से विहित होती है। चूँकि ऋग्वैदिक मूल आख्यानों में इसी ग़ैर-हड़प्पाई संस्कृति का दर्शन होता है अतः यह ‘वैदिक संस्कृति’ भी कही गई है, हालाँकि ऋग्वेद के रचनाकार इस संस्कृति के पोषक थे। इस प्रकार यह ‘ब्राह्मण संस्कृति’ आगे चलकर वर्चस्ववादी संस्कृति के रूप में पनपी तथा राज्याश्रित होकर अपनी रीति-नीति को ‘अब्राह्मण संस्कृति’ (हड़प्पाई या मूल भारतीय संस्कृति) पर थोपने लगी। यह राजनैतिक अधिपत्य से इतर, अलग किस्म का आक्रमण था। इसी कारण दोनों संस्कृतियों में टकराव होता रहा। यही कारण है कि लंबे समय तक टकराव के बाद भी आज तक इन दोनों संस्कृतियों की अलग-अलग पहचान तथा अस्मिता बची हुई है।

शासन-सत्ता में ब्राह्मण प्रभाव बढ़ने का क्रम शुरू ही हुआ था कि मुगल शासकों ने यहाँ कब्जा जमा लिया तथा एक बार फिर इस्लाम संस्कृति ने यहाँ की दो-फाँक संस्कृतियों को ज्यों-का-त्यों रहने दिया। ब्राह्मण संस्कृति ने सत्ता का दामन पकड़ा तथा रियाया के स्तर पर, अपनी प्रतिसंस्कृति के बल पर; हड़प्पाई संस्कृति के दमन का कार्यक्रम चलाता रहा। मुगल सत्ता ने भी अपनी राजसत्ता बरकरार रखने के लिए यहाँ की सामाजिक एवं सांस्कृतिक हलचल में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। वैसे भी यह इस्लामी संस्कृति का वाहक था जो हड़प्पाई या भ्रमण संस्कृति की प्रवृत्ति से थोड़ी अलग थी। इस्लामी संस्कृति में चोरी करने तथा झूठ की मनाही तो है जो श्रमण संस्कृति से मेल खाती है। किंतु यहाँ हिंसा को कई मामलों में जायज़ ठहराया गया है, जो ब्राह्मण संस्कृति से क़रीबी का मामला है। हिंसा में विश्वासी दो संस्कृतियों ने राजनैतिक और सामाजिक गठजोड़ कर अपने द्वारा अपनी भूमिका बाँट ली। यहाँ के हड़प्पाई जनों पर दोहरा संकट था। श्रमण धम्म के बरअक्स ब्राहमण धर्म अपनी पैठ अब्राह्मणों में बनाने में लग गया था। राजवंशों पर पहले ही डोरा डाल दिया गया था और तदनंतर वणिक समुदाय को क़ब्ज़े में लेता गया। बची हुई जनता के लिए इस्लामी संस्कृति और ब्राह्मण-संस्कृति कुआँ और खाई जैसी थी। ब्राह्मण को इस्लाम से शिकायत थी तो इतनी ही कि वहाँ सबको बराबर समझते हैं। किंतु इस्लाम के बदले रूप ने वहाँ भी जाति का संपोषण किया तो ब्राह्मण संतुष्ट हो गया। और दोनों ओर के मुल्ला पुरोहितों ने हड़प्पाई जन की नाकेबंदी कर दी। कुछ लोग इस्लाम भी क़ुबूल कर लिए किंतु बात वहीं-की-वहीं रही। इस्लाम में मूर्ति पूजा का विरोध हुआ–यह भी ब्राह्मण के लिए असुविधा का कारण था। ब्राह्मण ने देखा कि हड़प्पाइयों का इस्लामीकरण भी ब्राह्मण के लिए ख़तरनाक ही है। इसीलिए तत्काल ही ब्राह्मण जाति के नाम वाले ‘ब्राह्मण धर्म’ को सीमित दायरे से बाहर निकालने के लिए ‘हिंदू धर्म’ का जामा पहनाया गया तथा बताया गया कि इस्लाम के अलावा यहाँ के सभी लोग हिंदू धर्मानुयायी हैं।

चूँकि फारसी लोग भारतवासियों को हिंदू ही कहते थे इसलिए इस्लाम के शासकों तथा रहनुमाओं को यह बात जँची कि इस्लाम के अलावा यहाँ के लोग हिंदू हैं। ब्राह्मण ने ‘हिंदू’ शब्द की उस व्याख्या को धार्मिक जामा पहनाकर अपनी अल्पसंख्या को बहुसंख्या में बदलने की विसात बिछा दी। इस प्रकार उसने ‘ब्राह्मण संस्कृति’ और ‘भारतीय संस्कृति’ को हिंदू धर्म नामकरण के नीचे ज़बरन और एक तरफ़ा लाकर इसे ही हिंदू संस्कृति का छद्म नाम दे दिया। इस छद्म संस्कृति के बहाने एक तीर में दो निशाने थे–एक इस्लाम के विरुद्ध बहुसंख्यक का गणित जुटाना दूसरा अब्राह्मण संस्कृति के विरोध को दबाकर उसकी अगुवाई अपने हाथ में करना। इस काम के लिए इस्लामोफोबिया का प्रचार होने लगा। इस प्रकार हिंदू संस्कृति ने अपनी ज़मीन तैयार की है और आज भी यह सांस्कृतिक लड़ाई धार्मिक लड़ाई के छद्मवेश में है।

आज की सबसे बड़ी चुनौती है कि हिंदू राष्ट्र निर्माण का नारा। और दुर्योगवश यह केवल किसी धार्मिक समूह द्वारा नहीं बल्कि प्रकारांतर से सरकार के एजेंडे में शामिल है, क्योंकि यह आर.एस.एस. संस्था के एजेंडे में शामिल है। आर.एस.एस. जैसी संस्थाएँ धार्मिक राष्ट्रवाद (हिंदू) की हिमायती हैं तो आज का सत्तारूढ़ दल उनकी ही राजनैतिक शाखा जैसा लगता है। इसी कारण सरकार को भी धार्मिक राष्ट्रवाद कायम करने की दिशा में तत्पर देखा जा सकता है। ऐसा धार्मिक राष्ट्रवाद भारत के कई टुकड़े कर देगा। स्पष्टतः हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए वर्तमान भारतीय भूगोल को हिंदू संप्रदाय के लोगों के अधिकार में होना चाहिए अर्थात दूसरी मान्यता के लोग या तो मार दिए जाएँ या वे लोग यह देश छोड़ दें। यह दोनों ही स्थितियाँ भयावह तथा मुश्किल हैं। हिंदू राष्ट्रवाद की वकालत करने वाले शायद यह कहेंगे कि ‘यहाँ हिंदू राष्ट्र व हिंदू क़ानून लागू होगा जिसे रहना हो रहे या देश छोड़ दे।’ यह ज़बरन हिंदू या ब्राह्मण मान्यता को क़ुबूल कराने वाली बात है। इस संदर्भ में डॉ. अम्बेडकर कहते हैं कि ‘विशिष्ट एवं अलग समुदाय को बलपूर्वक दबाना किसी राष्ट्र के सृजन का तरीक़ा नहीं हो सकता’ ऐसे में हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि डॉ. अम्बेडकर के सपनों का भारत ऐसा तो नहीं ही है जैसा हिंदू राष्ट्रवाद के वर्तमान पहरेदार बनाना चाहते हैं।

इसलिए डॉ. अम्बेडकर धर्मनिरपेक्षता के बारे में कहते हैं कि ‘यह कहना बहुत अच्छा लगता है कि हमने संविधान में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य प्रस्तावित किया है। मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं कि जब कोई सदस्य धर्मनिरपेक्ष राज्य कहता है तो क्या उसका मतलब वही है जो कि संविधान कहना चाहता है। इसका यह अर्थ नहीं कि हम धर्म मिटा सकते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि लोगों की धार्मिक भावनाओं का विचार नहीं करेंगे। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ है कि संसद किसी विशेष धर्म को बाकी किसी समुदाय पर थोप नहीं सकेगी। यही सीमा है जिसे संविधान संज्ञान में लेता है।’

बाबा साहब के उपर्युक्त स्पष्टीकरण एवं हिंदू राष्ट्रवाद की धारणाओं को देखें तो पता चलता है कि संविधान के दायरे में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना कठिन है। इसीलिए कुछ लोग संविधान पर ख़तरे की आशंका से भी इनकार नहीं कर रहे हैं। अतः बाबा साहब के सपनों के भारत में सेकुलर राज्य का नामोनिशान मिटाने की तैयारी को क्या कहा जाएगा। यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर धार्मिक वर्चस्ववाद या आतंकवाद नहीं तो और क्या है?

डॉ. अम्बेडकर के सपनों का भारत रक्तरंजित क्रांति के ज़रिये नहीं बनता बल्कि वह भगवान बुद्ध के बताए मार्ग से बनता है। डॉ. अम्बेडकर मार्क्स की कई बातों से असहमत होकर शांति मार्ग अपनाने की सलाह देते हैं। इसलिए भारत में किसी भी वाद की अपेक्षा अम्बेडकरवाद अधिक प्रसांगिक, अधिक व्यवहारिक और परिवर्तनकारी प्रतीत होता है। डॉ. अम्बेडकर कहते हैं–‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि संवैधानिक तरीक़े से ही सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों का लक्ष्य प्राप्त करना चाहिए। इसका मतलब हुआ कि हमें खू़नी क्रांति का रास्ता छोड़ना होगा। इसका मतलब यह है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ना पड़ेगा। संवैधानिक विकल्प के अभाव में असंवैधानिक तौर-तरीकों को सही ठहराया जा सकता है। जब संवैधानिक विकल्प उपलब्ध है तो असंवैधानिक तौर-तरीका अराजकता के व्याकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जितनी जल्दी उसका त्याग कर दिया जाय उतना ही बेहतर है।’

इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर के सपनों का भारत वह होगा जहाँ सामाजिक लोकतंत्र को जल्दी बहाल कर दिया जाय अर्थात जहाँ व्यक्ति को व्यक्ति के तौर पर पहचान कर अधिकार और सम्मान मिले न कि जाति या धर्म के आधार पर। इसके बिना राजनैतिक लोकतंत्र के साथ अंतर्विरोध रहेगा तथा यह संविधान लंबे समय तक टिके नहीं रह सकता। इसीलिए भारत को एक जातिविहीन धर्मनिरपेक्ष देश बनाना ही बाबा साहब के सपनों का भारत बनाना है।

डॉ. अम्बेडकर एक सच्चे भारतीय के रूप में भारत राष्ट्र के निर्माण की हर बाधा विपदा को मिटाना चाहते थे। वे चाहते थे कि सभी जातियों को बराबर का हक मिले तथा उनका स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की त्रयी में बिना भेद-भाव के अनुकूलन हो। किंतु डॉ. अम्बेडकर का ऐसा संवैधानिक सपना भी हिंदू कोड बिल के रूप में भारी विरोध का सामना करता रहा और अंततः क्षुब्ध होकर उन्होंने मंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया था। डॉ. अम्बेडकर की मान्यता थी कि जिस देश में स्त्री आजाद और शक्ति संपन्न होकर विकास की धुरी में बराबर के पहिये की तरह भूमिका निभाने से रोकी जाएगी वहाँ की प्रगति अधूरी रहेगी। मनु का क़ानून हिंदू राष्ट्रवाद की आदर्श संहिता है। अतः स्पष्ट है कि इसमें जिस प्रकार नारी को भी शूद्र की तरह ही समान नागरिक अधिकारों से महरूम किया गया है वह डॉ. अम्बेडकर के कल्पित भारत की तस्वीर से एकदम विपरीत है। इसलिए हिंदू राष्ट्रवाद का आतंक समूची नारी जाति के लिए भी है। उन्हें शोषण की पुरानी परंपरा में नारकीय प्राणी बन जाने का ख़तरा है। इसी प्रकार के ख़तरे श्रमिक समाज को हैं। हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की मूल विचारधारा में ही समानता का नकार है। इसलिए यहाँ व्यक्ति पूजा भी सर्वमान्य है। व्यक्ति पूजा के ज़रिये ही तानाशाही का रास्ता है जो आमजन के नागरिक अधिकारों की अवहेलना करता हुआ उनके साथ बर्बर पशुता का व्यवहार करता है। इसीलिए डॉ. अम्बेडकर व्यक्ति पूजा को लोकतंत्र के लिए ख़तरा मानते हैं और यही ख़तरा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का भी है। इसलिए यह ऐसा डर या आतंक है जो लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए आतंक का पर्याय है।

आज डॉ. अम्बेडकर की जयकार और महिमा मंडन के पीछे उनके सपनों को साकार करनेवाले संविधान की धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। लोकतंत्रीय प्रणाली की आधारभूत चुनाव प्रक्रिया तक में पादर्शिता न होने की शिकायतें मिल रही हैं, किंतु चुनाव आयोग जैसी स्वतंत्र संस्था भी इस मामले में जनता को कोई ठोस आश्वासन नहीं दे पा रही है। लोकतंत्र को बचाए रखने के जो प्रमुख स्तंभ हैं उन सब में पलीता लगाया जा रहा है। इस प्रकार से लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली कब दम तोड़ दे कहा नहीं जा सकता।


Image: Dr Babasaheb Ambedkar reading a book
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बी.आर. विप्लवी द्वारा भी