भारत का स्वीट्जरलैंड : खज्जियार
- 1 December, 2016
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- 1 December, 2016
भारत का स्वीट्जरलैंड : खज्जियार
गजब की कशिश है पहाड़ों की नैसर्गिक सुंदरता में! पहाड़ सदा से मुझे अपनी ओर खींचते रहे हैं। जीवन की यात्रा में जब घुमावदार मोड़ पर आकर साँसें थमने लगती हैं, तो अक्सर मन होता है कि किसी ऐसे एकांत स्थल पर चली जाऊँ जहाँ से सीधे रास्तों की तलाश आसान हो जाए। शायद पहाड़ के तीखे मोड़ों पर पहाड़ियों की कर्मठता और विपरीत परिस्थितियों में भी सामंजस्य बनाए रखने की कला जीने की कला सिखा दे। पिछले कई सालों से पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण कहीं जाना नहीं हो पाया था। इस बार अक्टूबर के महीने में हमने डलहॉजी जाने का मन बना लिया और बुकिंग भी करवा ली। असली यात्रा माता वैष्णव देवी के दर्शन की थी। यात्रा का यह पहला पड़ाव काफी सुखद था। फिर कटरा से पठानकोट और पठानकोट से डालहॉजी। पहाड़ों पर बहुत करीने से उगी देवदार की ऊँची-ऊँची डालियाँ जब आकाश से बातें करती प्रतीत होती हैं तो लगता है कि आपस में होड़ लगी है, कौन सूरज तक पहुँच पाता है। टेढ़े-मेढ़े दिल को दहला देने वाले रास्तों के साथ-साथ कभी बरसाती नदियाँ चलती हैं तो कभी टटुओं पर सामान लाद कर एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले स्थानीय निवासी।
समुद्र तल से करीबन 6728 फीट की ऊँचाई पर बसा डलहॉजी धौलाधर पर्वत शृंखला पर बसा बेहद रमणीय स्थान है। अँग्रेजों के ज़माने में गर्मियों के समय यह उनका प्रिय हिल स्टेशन हुआ करता था। अभी भी पुराने चर्च और सड़कों के नाम उस समय की याद दिला देते हैं। हमने हेरिटेज होटल में बुकिंग करवा रखी थी। यह वही होटल है जो आज़ादी के पहले से बना हुआ है, यकीनन अब यह अपने नए रूप में ढेर सारी सुविधाओं के साथ पर्यटकों को आकर्षित कर रहा है। कहते हैं महान क्रांतिकारी सुभाषचंद्र बोस ने अपने स्वास्थ्य लाभ के दौरान यहीं शरण ली थी। इसी के पास सुभाष बावली है जहाँ के प्राकृतिक झरने का पानी बोस की असाध्य बीमारी में बहुत फायदेमंद रही थी। यहीं से अन्य दर्शनीय स्थलों को देखने की शुरुआत हुई। हम पहुँचे पंचपुला जहाँ महान क्रांतिकारी एस. अजीत सिंह की समाधि है। यह स्थान पहाड़ पर ट्रैकिंग और अन्य रोमांचक खेलों के लिए बच्चों को खूब भाता है। रोप-वे पर निरे पैर चलना भी रोमांचक है। ठंड इतनी जोरदार कि चाय की तलब जाती ही नहीं। इसलिए यहाँ की ढेर सारी दुकानें खुली हुई हैं जो साथ में पारंपरिक वस्त्र-आभूषण भी रखते हैं।
कुछ देर यहाँ ठहरने के बाद डलहॉजी का विशेष आकर्षण खज्जियार की ओर चल पड़े। मनोरम घाटियों के संकरे-संकरे रास्तों से होकर खज्जियार तक पहुँचने का अलग आनंद है। यात्रियों का जत्था रास्ते भर मिलता रहा। सभी घाटियों के मध्य फोटो खिंचवाने के लिए रुकते, गुनगुनी धूप का मज़ा लेते और फिर चल पड़ते। अलग-अलग प्रांतों से आए यात्रीगण बड़ी आत्मीयता से आपस में मिलते। तत्क्षण परिचय होता और कुछेक के साथ तो इतनी देास्ती हो जाती कि तुरंत व्हाट्सअप पर नंबरों का आदान-प्रदान हो जाता। यात्राएँ जीवन की आपा-धापी में रिश्तों के मध्य ठंडी होती जा रहीं संवेदनाओं को सहेज कर पुनः गर्माहट लाने का सहज साधन होती है। इस बात की लैंडस्केप जिसके चारों ओर करीने से सजी देवदार के वृक्ष आसमान से बातें कर रहे हों, बरबस ही उस कुदरत की याद दिला देता है, जिसने बेशुमार सुंदरता से धरती का दामन भर रखा है।
इसे हम भारत का स्वीट्जरलैंड कह सकते हैं। खज्जियार के घुमावदार रास्तों के मध्य घने जंगलों की ऐसी कतारें मिलती हैं कि सूर्य का प्रकाश भी धरती तक नहीं पहुँच पाता है। कालाटोप के जंगलों के बीच से बर्फ से ढकी पर्वतचोटियाँ दिखलाई पड़ती हैं मानो देवदारों ने सफेद टोपी पहन रखी हों। थोड़ा आगे भनी देवी का मंदिर है, जिसके लिए आपको करीबन डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी होती है। यह डलहॉजी का सबसे ऊँचा प्वाइंट है। कहते हैं पुराने समय में कुश्ती करने के पहले पहलवान यहाँ पूजा करने आते थे। खड़ी ढाल की पहाड़ी पर चढ़ना यूँ भी आसान नहीं होता। घाटी की तरफ फेसिंग भी संभव नहीं है। इसलिए कमजोर दिल वाले लोगों को चढ़ान के समय नीचे देखने की मनाही की जाती है। पहाड़ी झरनों से सजी पर्वत शृंखलाएँ अपने कलकल निनाद से श्रांत-क्लांत लोगों की थकान जाने कब हर लेती हैं, पता ही नहीं चलता। रावी नदी के ऊपर बसा चम्बा पुराने मंदिरों की आस्था व विश्वास का केंद्र है। भरमौर के मंदिर और मणिमहेश झील की अपनी ही खासियत है। ईश्वर के अस्तित्व में क्यों न भरोसा हो, जब हर शै में उसकी अनुभूति होती है। किसी ने कहा है, तुझमें डूब कर देखा है, गज़ब का नशा है। मैंने सरस-स्निग्ध प्रकृति की गहराई में खुद को खो जाने दिया ताकि उस रोमांच को ताउम्र महसूस करती रहूँ।
डलहॉजी से करीब 150 किलोमीटर की दूरी पर तिब्बती समुदाय का खूबसूरत प्रांत धर्मशाला बसा हुआ है। धर्मशाला की खुशगवार मौसम पर्यटकों को खूब आकर्षित करती है। पहाड़ की गोद में बसा अत्यंत मनहर स्थल यूँ तो लामाओं का निवास है, पर हिमाचली संस्कृति को जीवित रखने वाली अनेक जातियों और जनजातियों का भी यहाँ निवास है। शहर की भागदौड़ और प्रदूषण से निजात पाने का बेहतरीन स्थान है यह । नोर्बलिंगका का विशाल संग्रहालय हाथ से बनी पेंटिंग्स और अन्य सामानों को सहेज कर रखा हुआ है। यहीं इन सामानों को बनाने का वर्कशॉप भी है। फूलों से निकाले प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। बुद्ध के मंदिरों में रंगों की कलात्मकता सजीव हो उठती है। धर्मशाला अपने नाम की सार्थकता कैसे बनाए हुए है, इसे धर्मगुरु दलाई लामा जी के विशाल मंदिर में जा कर हो जाता है। बुद्ध की विशाल प्रतिमा गज़ब की सकारात्मक शक्ति का संचार करती है। इतनी दूर जा कर इस स्थान को स्थापित करने वाले दलाई लामा जी का दर्शन भी सुखद था। धर्मशाला और मैक्लोडगंज में चीड़ की उसी तरह लंबी-लंबी गाछें हैं जैसी देवदार की हैं डलहॉजी में। असल में पूरे पहाड़ी इलाकों में नुकीली पत्तियों वाले वृक्ष ही ज्यादातर मिलते हैं मसलन, चीड़, देवदार, फर, पाइन, स्प्रूस आदि। अंतिम दो हिमालय की ऊँचाइयों में मिलते हैं।
मैक्लोडगंज का तिब्बती मार्केट, डल झील और चाय बगान की अपनी सुंदरता है। नड्डी की ऊँचाइयों में भागसूनाग का मंदिर है और बगल से बहती सुंदर जल प्रपात। कहते हैं यहाँ कभी नागवंश का राज था। राजस्थान के असुरों के राजा भागसू यहाँ पानी की खोज में आए थे। यहाँ से सरोवर का पानी लेकर जब वे जाने लगे तो नागों के साथ युद्ध हुआ, युद्ध में भागसू की हार हुई। जहाँ-जहाँ उनके कमंडल का पानी गिरा, सरोवर बनते गए। प्राण त्यागने के पहले उन्हें पता चला कि नाग भी शिव का रूप है, तो उनसे अपने प्रदेश में पानी की कमी पूरी करने का आग्रह करके अपना प्राण त्याग देते हैं। इस पूरे प्रदेश में जलप्रपात और सरोवरों की बहुतायत देख कर इस पौराणिक कथा पर आपको विश्वास करना ही पड़ेगा। चाय बगान, क्रिकेट स्टेडियम और वॉर मेमोरियल अन्य रमणीक स्थल हैं जहाँ यात्रा के दौरान कुछ देर विश्राम भी कर सकते हैं। अक्टूबर की गुनगुनी धूप में घंटों बैठे रहें, उठने का मन नहीं होगा।
पहाड़ों के विस्तृत अंचल में आड़ी-तिरछी रेखाओं वाले बुजुर्ग हों या नख से शिख तक सजी पहाड़ी युवतियाँ, सब में कुछ जीवित है। जीवित है, अपनी संस्कृति को बचाये रखने की जद्दोजहद और एक स्वच्छ पर्यावरण को बचाये रखने की पुरजोर कोशिश। खनिज तत्त्वों से भरपूर प्राकृतिक झरने का पानी अब भी लोग पीते हैं, इसलिए आर. ओ. वाटर की जानकारी केवल टी.वी. के प्रचार तक ही सिमटा हुआ है। बहुत संघर्ष है इनके जीवन में पर बहुत आनंद है। प्रकृति की गोद में रहने वाला इनसान सहज-सरल और सौम्य होता है। गर्मी वांछित है, स्वास्थ्य के लिए भी और सौंदर्य के लिए भी। चीड़-देवदार की घाटियों को चीर कर जब सूर्य की किरणें घाटियों तक पहुँचती हैं तो लगता है, घंटों उन्हें निहारते रहें। यह उष्णता अंतर्मन तक पहुँच कर सीधे कुदरत से रिश्ता जोड़ती है। ऊँची-ऊँची चीड़ और देवदार की डालियों को आकाश छूते हुए देख कर मेरा कवि मन अक्सर कह उठता था ‘ऐ आसमाँ, तेरी निगहबानी में, हमने मुद्दत से पलकें नहीं झपकाएँ हैं।’
Image : Staubbach Falls, Near Lauterbrunnen, Switzerland
Image Source : WikiArt
Artist : Albert Bierstadt
Image in Public Domain