प्राकृतिक सुषमा का द्वीप : बाली
- 1 December, 2023
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- 1 December, 2023
प्राकृतिक सुषमा का द्वीप : बाली
गर्मी की छुिट्टयों में सपरिवार बाली (इंडोनेशिया) जाने का प्रोग्राम बन रहा था। परिवार के सभी सदस्य वहाँ जाने को लेकर ख़ासे उत्साहित थे। उत्साहित तो मैं भी था। लेकिन, मन में कही-न-कही लंबी दूरी की हवाई यात्रा को लेकर डर समाया हुआ था। दरअसल, मैं स्वभाव से कुछ डरपोक किस्म का हूँ। हवाई यात्राओं में मुझे बहुत डर लगता है, विशेषकर लंबी दूरी की यात्राओं में, लेकिन डर पर उत्साह भारी पड़ा। आने-जाने और घूमने में कोई असुविधा न हो, इसलिए हमने पैकेज ले लिया था। उस पैकेज में आने-जाने के किराये के अलावा वहाँ ठहरने और यातायात की व्यवस्था भी शामिल थी। दिल्ली से बाली के लिए कोई सीधी विमान सेवा नहीं थी। इसलिए दिल्ली से हनोई (वियतनाम) और कुछ घंटों के ठहराव के बाद वहाँ से बाली का टिकट लिया हुआ था।
30 मई, 2023 को रात्रि 10:50 बजे दिल्ली से हमलोगों की फ्लाईट थी। हवाई जहाज़ में बैठने तक तो सब ठीक था। लेकिन जैसे ही हम दिल्ली से उड़े, डर ने मेरे मन में पैठ बनाना शुरू कर दिया। उससे ध्यान भटकाने की हर संभव कोशिश की। पत्नी, दामाद, बेटी, बेटा और नाती अगस्त्य से इधर-उधर की बातें करता रहा। सोने की हर संभव कोशिश की। मोबाइल में भी ध्यान लगाया। लेकिन नाकाम रहा। डर जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। मन कह रहा था कि आज तक तो जी लिया, अब अगर आगे भी जीना लिखा होगा, तो जहाज़ सकुशल धरती पर लौट जाएगा। 5 घंटे का वह हवाई सफर बड़ी मुश्किल से कटा था।
हनोई हवाई अड्डे पर विमान के लैंड करते ही एक अजीबोगरीब वाक्या हुआ। मेरी घड़ी में उस समय सुबह के 3 बजकर 30 मिनट हो रहे थे। लेकिन बाहर उजाले की पंखुड़ियाँ खुलने लगी थी। मैं भ्रमित हो उठा। घड़ी के बंद होने का संदेह हुआ तो मोबाइल पर नजर दौड़ाई। उसमें सुबह के 5 बज रहे थे। मैं कुछ पल तक हतप्रभ होकर खड़ा रहा। मेरी सोचने-समझने की शक्ति ही जैसे चली गई हो। तभी बेटी ने यह कहकर मेरा भ्रम दूर किया कि हनोई का वक्त भारत से डेढ़ घंटे आगे है और मेरी घड़ी अभी तक भारत के हिसाब से ही चल रही है। मैंने विदेश यात्राएँ गिनी-चुनी ही की हैं, इसलिए समय के साथ सामंजस्य बिठाने में मुझे कठिनाई होती है। दिल्ली से हनोई की इस यात्रा में भी समय का फ़र्क़ देखकर मैं कुछ पलों के लिए परेशान हो गया था।
हनोई से बाली की फ्लाइट पाँच घंटे बाद थी। यह पढ़ रखा था कि रोमांस का शहर कहा लाने वाला हनोई पूर्व और पश्चिम का अनोखा संगम है। एक और भी जानकारी मिली थी कि हनोई में कन्फ्यूशियस के सम्मान में ‘टेम्पल ऑफ लिटरेचर’ का निर्माण हुआ है।
उस टेम्पल का दर्शन करने की इच्छा थी। लेकिन समय की कमी और हवाई यात्राओं के नियम-कानून उसकी इजाजत नहीं दे रहे थे। एयरपोर्ट के लाउंज में ही आराम कुर्सी लगी हुई थी। मैं उस पर लेट गया। रात भर सोया नहीं था। इसलिए जल्द ही नींद आ गई। तीन घंटे बाद जब नींद खुली तो सामने की विशालकाय काँच की दीवारों के उस पार रनवे पर हवाई जहाज़ चमकता नजर आ रहा था। फ्लाइट का समय हो चला था। इसलिए नित्य-क्रिया से निवृत होकर हम बाली के लिए उड़ चले। हनोई से बाली की हवाई यात्रा साढ़े तीन घंटे की थी। मैंने हनोई हवाई अड्डे पर ही अपने बेटे को बोलकर अपने मोबाइल में एक हिंदी फिल्म डाउनलोड करा लिया था। फिल्म अच्छी थी। दो घंटे का समय कब बीत गया, पता ही नहीं चला। तभी पायलट ने घोषणा की कि हम अभी 25 हज़ार फीट की ऊँचाई पर हैं और आशा करते हैं कि आधे घंटे बाद हम देनपसार (बाली) हवाई अड्डे पर लैंड करेंगे। खिड़की से बाहर नीचे की ओर झाँका तो चारों तरफ सिर्फ समुद्र-ही-समुद्र दिख रहा था। वह भी सूर्य के प्रकाश में झिलमिलाता हुआ। अद्भुत दृश्य था। मैं मंत्रमुग्ध हुआ जा रहा था। करीब दस-पंद्रह मिनट तक मैं उसमें खोया रहा। जहाज़ अब समुद्र के बिल्कुल ही करीब आ गया था। लेकिन दूर-दूर तक सिर्फ पानी का सैलाब दिख रहा था। मेरी घबराहट शुरू हो गई। दस मिनट और बीत गए। जहाज़ समुद्र को छूने को था। रनवे कहीं नहीं दिख रहा था। लग रहा था कि जहाज़ समुद्र में ही गोता लगाएगा। शरीर के सारे रोएँ खडे़ हो गए थे। लेकिन चंद मिनटों बाद जब जहाज़ ने समुद्र तट के बिल्कुल सटे रनवे पर लैंड किया, तब जाकर जान में जान आई।
रनवे के ठीक सामने बौद्ध मंदिरों जैसी पिरामिडनुमा कई इमारतों की वास्तुकला दूर से ही आकर्षक लग रही थी। एयरपोर्ट भी काफ़ी खूबसूरत था। उसके लाउंज की दीवारें पेंटिंग और म्यूरलस से पटी हुई थी। बेटी, बेटा और दामाद कस्टम क्लीयरेंस की औपचारिकताओं को पूरा करने में व्यस्त थे और श्रीमती जी सामानों की निगरानी कर रही थी। लाउंज के चारों तरफ की दीवारें बाली की स्थानीय पेंटिंग्स और कलाकृतियों से सुसज्जित थी। मैं उन्हें अपलक निहारता रहा। उनमें रामायण और महाभारत के कथानकों की बहुलता थी। जगह-जगह पर गरूड़, राम, हनुमान, शंख, चक्र और कृष्ण आदि की आकृतियाँ मुझे यह एहसास करा रही थी कि मैं भारत की तरह ही हिंदू संस्कृति से प्रभावित देश के वातावरण में हूँ। गुगल एवं अन्य स्रोतों से पहले ही यह जानकारी मिल चुकी थी कि चारों ओर नीले-हरे समुद्र से घिरा हुआ, प्राकृतिक सुषमाओं का द्वीप बाली, सदियों से दुनिया भर के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। अपनी समन्वयी संस्कृति के आधार पर वह सदियों से भारत के संपर्क में भी रहा है। बाली के जनजीवन पर हिंदू धर्म और संस्कृति का गहरा प्रभाव है और यहाँ की 86 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिंदुओं की है। यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे हिंदू देवी-देवताओं के अनगिनत मंदिर हैं। पर्यटकों के आकर्षण की एक और बड़ी वजह बाली की आबोहवा भी है। यहाँ की आबोहवा इतनी संतुलित है कि पूरे साल यहाँ घूमने का लुत्फ लिया जा सकता है।
देनपसार एयरपोर्ट की औपचारिकताओं को निपटाकर हम बाहर की ओर निकले। ड्राइवर अपने हाथों में हमारे नाम की तख्ती लिए इंतजार कर रहा था। हम गाड़ी में बैठकर गंतव्य की ओर बढ़ चले। बाली का मौसम सचमुच ही सुहावना था। न सर्दी थी न गर्मी। ड्राइवर से पता चला कि हमारे लिए कुटा में रिसॉर्ट का आरक्षण है, जो यहाँ से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर है। मैंने मन-ही-मन अनुमान लगाया कि रिसोर्ट पहुँचने में लगभग आधा घंटा का समय लगेगा। बाली शहर को पहली बार देखने की उत्सुकता थी। इसलिए चलती गाड़ी में बैठे-बैठे चारों तरफ का नजारा लिए जा रहा था। अजनबी शहरों में घूमने का एक अलग सुख होता है। तमाम बिखरे हुए चित्र स्मृतियों के कैमरे में अपने आप कैद होते जाते हैं। शुरू में तो चौड़ी सड़कें मिलीं, लेकिन कुछ देर बाद तंग सड़कें मिलनी शुरू हो गईं। सड़क के दोनों तरफ बड़े-बड़े भवन और दुकानें थीं। सड़कों पर भारी भीड़। गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ। बहुत कुछ भारत जैसा ही। लेकिन भारत से अलग थी तो वहाँ की साफ-सफाई और ट्रैफिक व्यवस्था। सड़कें तो सड़कें, गलियाँ भी ऐसी पक्की और साफ-सुथरी कि मन मुग्ध हो रहा था। बाली के लोग ट्रैफिक नियमों का बड़ी दृढ़ता से पालन कर रहे थे। जगह-जगह पर जाम की स्थिति थी। लेकिन सभी रुककर प्रतीक्षा कर रहे थे। कोई अतिक्रमण नहीं कर रहा था। रास्ते में मिलने वाले चौक-चौराहों पर महाभारत एवं रामायण के कथाओं को चित्रित करती कई मूर्तियाँ दिखीं। पंच पांडव, कौरवों पर वाण-वर्षा करते अर्जुन, अर्जुन को उपदेश देते कृष्ण और घटोत्कच की मूर्तियों को देखकर मुझे भारत के ही किसी शहर में होने का भ्रम हो रहा था।
मकान करीने से बने हुए थे। अधिकांश खपरैल छत वाले और ढालुवाँ थे। प्रत्येक घर में मंदिर दिख रहा था और उसके प्रवेश द्वार पर गणपति या द्वारपाल की मूर्तियाँ थीं। हर घर के बाहर केले या ताड़ पत्र से बनी प्लेट के दोना में फूल, चम्मच और अगरबत्ती को देखकर मुझे कौतूहल हो रहा था। पूछने पर ड्राइवर से मिली जानकारी चौंकाने वाली थी। उसने बताया कि बाली के देवी-देवता अदृश्य होते हैं। वे आकाश, पर्वत या समुद्र में रहते हैं। अपने भक्तों के समक्ष वे तभी प्रकट होते हैं, जब उन्हें कुछ अर्पित कर उनका आह्वान किया जाता है। इसलिए बाली के हिंदू धर्मावलंबी अपने घर या दुकान के सामने ये टोकरियाँ रखकर अपने देवी-देवताओं का आह्वान करते हैं। बदले में उन्हें देवी-देवताओं से सौभाग्य और शांति का आशीर्वाद मिलता है। मुझे बाली और भारत के हिंदू धर्म में यह मूलभूत अंतर दिखाई पड़ रहा था।
जगह-जगह पर जाम के चलते एयरपोर्ट से कुटा पहुँचने में एक घंटा का समय लगा। हमारे लिए आरक्षित रिसॉर्ट बहुत ही आनंददायक था। उसमें सुसज्जित कमरा, ड्राइंग रूम, डायनिंग स्पेस और स्वीमिंग पुल सहित तमाम सुविधाएँ उपलब्ध थीं। मन पुलकित हो उठा। शाम को 7 बज रहा था। पिछले 20 घंटे की यात्रा की थकान सब पर हावी थी। इसलिए कुछ देर आराम करने के बाद हमने रिसॉर्ट में ही डिनर का आर्डर दिया और भोजन के बाद बिस्तर पर पसर गए। उस रात गहरी नींद आई।
अमूमन, सुबह 4 बजे मेरी नींद खुल जाती है। लेकिन आज देर से नींद खुली। शायद थकान का असर था। सुबह के 6 बज रहे थे और बाहर में उजाला हो चुका था। मैं रिसॉर्ट से बाहर निकलकर चहलकदमी करने लगा। मौसम खुशनुमा था। 25-26 डिग्री सेंटीग्रेड के आसपास। कुछ देर तक टहलते हुए आसपास के इलाकों का अवलोकन करता रहा। बहुत कुछ भारत जैसा ही दीख रहा था। तभी आसमान की ओर नजर गई। नीला आसमान विविध सतरंगी पतंगों से गुलजार था। ईगल, ड्रेगन और स्पाइडरमैन जैसे डिजाइन की दर्जनों पतंगें आसमान में उड़ रही थी। 5 से 6 फुट की विशाल पतंगें, लंबी पूँछ वाली पतंगें और हाइटेक पतंगें विस्मित कर रही थी। उन पतंगों के इन्द्रधनुषी रंग को देखकर न जाने कितने उत्सवी ख्याल मेरे मन में तैरने लगे। मुझे गाँव में बिताए अपने बचपन के दिन याद आने लगे। तब दो-तीन पैसे में मिलने वाली पतंग भी हमारी पहुँच के बाहर होती थी। इसलिए कागज और बाँस की कमाची से हम खुद पतंग बनाते थे। लेई और शीशे का पाउडर बनाकर उसे धागे पर चढ़ाते थे। तब ‘वो लड़ी, वो काटा’ जैसे शब्द खूब प्रचलन में थे। लेकिन बाली में आसमान में उड़ रही पतंगें अपनी-अपनी जगह पर स्थिर थीं। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शायद बाली में भारत की तरह एक-दूसरे की पतंगों को काटने का कौशल-प्रदर्शन नहीं होता है।
आसमान की शोभा बढ़ा रही उन पतंगों के बारे में जानने की मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। सामने ही एक अघेड़ सज्जन चहलकदमी कर रहे थे। ‘गुड मॉर्निंग’ कहते हुए अपना परिचय देकर उनसे आसमान में उड़ रही पतंगों के बारे में जानना चाहता हूँ। वे सज्जन बड़े ही भलेमानस थे। उन्होंने बताया कि बाली में पतंगबाजी खेल नहीं है, बल्कि देवी-देवताओं के करीब पहुँचने का एक जरिया है। यहाँ पतंगों का उपयोग मूल रूप से देवी-देवताओं का संदेश भेजने और भरपूर फसल की प्रार्थना के रूप में होता है। आमतौर पर ये पतंगें बाँस की पटि्टयों और सूती-रंगीन कपड़ों से तैयार की जाती है। उस सज्जन ने यह भी जानकारी दी कि प्रत्येक वर्ष जुलाई महीने में बाली में तीन दिनों का पतंग महोत्सव होता है। पतंगबाजी के उस महाकुंभ में विभिन्न प्रकार की आकृति वाली हज़ारों पतंगें आसमान छूती नजर आती हैं। उस महोत्सव में सैकड़ों टीमें भाग लेती हैं और सर्वश्रेष्ठ डिजाइन वाली पतंग को पुरस्कृत भी किया जाता है।
चाय की तलब होने लगी थी। इसलिए उस सज्जन को आभार प्रकट करते हुए रिसॉर्ट में वापस लौट आया था। फिर चाय लेकर स्वीमिंग पुल में देर तक स्नान किया। तन-मन तरोताजा हो गया। रिसॉर्ट में सुबह का नास्ता कम्पलीमेंटरी था। उसके मेन्यू में भारतीय व्यंजनों की तलाश करता-करता रहा, लेकिन नाकामयाब रहा। मजबूरन, अंडे की रोटी और पालक की भूजिया खाकर भूख मिटानी पड़ी। आज बाली के समुद्र तटों के भ्रमण का कार्यक्रम था। दस बजे गाड़ी में लदकर पेटी टेगनेट नामक समुद्र तट के लिए निकल पड़े।
मौसम खुशनुमा था। न सर्दी थी, न गर्मी। पेटी टेगनेट समुद्र तट बहुत ही खूबसूरत था। नीले पानी और चमकते रेत से सजा-धजा। लेकिन अन्य समुद्र तटों की तरह यह पर्यटकों से भरा नहीं था। पिकनिक मनाने और शांत वातावरण के चहेतों के लिए यह तट किसी स्वर्ग से कम नहीं था। नीले समुद्र के सामने सुनहरी चमकती रेत पर बलखाती लहरों का खूबसूरत अनोखा नजारा। समुद्र गहरा नीला। दूर-दूर तक सिर्फ समुद्र। बेटा, बेटी, दामाद और नाती समुद्र की आती-जाती लहरों में खुद को भिंगोकर मस्ती कर रहे थे और मैं वहीं रेत पर बैठकर शांति और सुकून के साथ देर तक समुद्र की लहरों की उच्छृंखलता देखता रहा। एक लहर आती और रेत को छूकर लौट जाती। थोड़ी देर बाद दूसरी। उन ऊँची-नीची लहरों को देखकर मन आह्लादित होता रहा। मन की बेचैनी कहीं गुम हो गई। मुझे लगा कि तन-मन को आराम देने के लिए शायद इससे बढ़िया कोई दूसरा समुद्र तट हो ही नहीं सकता।
लगभग दो घंटे तक पेटी टेगनेट तट पर वक्त बिताने के बाद हमलोग नुसादुआ बीच के लिए निकल पड़े। नुसादुआ तट पर लगभग एक घंटे का वक्त बिताने के बाद हम बाली के विश्वप्रसिद्ध उलूवातु मंदिर के दर्शन के लिए निकल पड़े। दोपहर के दो बज चुके थे। भोजन का समय हो चुका था। तय किया कि रास्ते में किसी रेस्तराँ में बैठकर भोजन का आनंद लिया जाए। परदेस घूमते जाते समय हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या खान-पान को लेकर ही आती हैं। तमाम सवाल उमड़ते-घुमड़ते है कि शाकाहारी खाना मिलेगा या नहीं, मिलेगा भी तो क्या स्वादिष्ट होगा? पर बाली में यह आशंका निर्मूल होती दिख रही थी। आते-जाते रास्ते में कई भारतीय रेस्तराँ दिखाई पड़ रहे थे। बातचीत के क्रम में ड्राइवर नियोमैन ने कहा कि बाली आने वाले पर्यटकों में आस्ट्रेलिया और जापान के बाद सबसे बड़ी संख्या भारतीयों की है। इसलिए यहाँ पर भारतीय रेस्टोरेंट, होटल आदि की संख्या में प्रतिवर्ष इज़ाफ़ा हो रहा है। तभी ‘क्वीन्स ऑफ इंडिया’ नामक एक भारतीय रेस्तराँ पर नजर पड़ी। हमने गाड़ी रुकवायी और उसमें प्रवेश कर गए। रेस्तराँ में ‘मिले हो तुम हमको बड़े नसीबों से’ हिंदी गाना बज रहा था। मन प्रफुल्लित हो उठा। ऐसा भान हो रहा था मानो हम भारत के ही किसी रेस्तराँ में बैठे हुए हैं। रेस्तराँ का खाना भी स्वादिष्ट था। रोटी, दाल, चावल और सब्जी में घर जैसा स्वाद मिला। मन-तन दोनों तृप्त हो उठा।
उलूवातु मंदिर तक जाने के क्रम में जाम के कारण कई जगहों पर गाड़ी रेंगती रही। लेकिन बोरियत नहीं हुई। क्योंकि रास्ते में दोनों तरफ सैकड़ों एकड़ में धरती की चुनर-हरे धान के पौधे बड़ा ही मनोरम दृश्य पैदा कर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि उन खेतों में बीज एक साथ ही बोई गई हो। बीच-बीच में मकई, ताड़ और केले के पौधे वातावरण को और भी आकर्षक बना रहे थे। अजनबी शहरों में घूमने का एक अलग सुख और आकर्षण होता है। तमाम चीज़ें नई लगती हैं और उनके चित्र स्मृतियों के कैमरे में अपने आप कैद होते जाते हैं।
उलूवातु मंदिर पहुँचते-पहुँचते शाम के चार बज चुके थे। बाली के हिंदुओं के लिए उलूवातु मंदिर का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि जब बाली के हिंदुओं पर मुस्लिम धर्म अपनाने का दबाव था, तब उन्होंने इस मंदिर में शरण लेकर हिंदू धर्म को बचाया था। उलूवातु में सूर्यास्त का नजारा भी देखने लायक होता है। सूर्यास्त का समय करीब था। प्रवेश टिकट के लिए पर्यटकों की लंबी लाइन थी। हम भी उस पंक्ति में खड़े हो गए। बाली के अन्य हिंदू मंदिरों की तरह यहाँ भी ड्रेस कोड था। उसमें कमर के नीचे के हिस्से को धोतीनुमा कपड़े से ढँकना पड़ता है। प्रवेश टिकट के साथ ही ड्रेस भी मिला। ड्रेस पहनकर हम मंदिर की तरफ बढ़ चले। उलूवातु मंदिर समुद्र में 70 मीटर ऊँची चूना-पत्थर की चट्टान पर बना हुआ था। इसलिए चढ़ाई दुरूह थी। साँस फूल जा रही थी और थकान उतारने के लिए जगह-जगह रुकना पड़ रहा था। रास्ते में आते-जाते पर्यटक वहाँ के उत्पाती बंदरों से सतर्क रहने की हिदायत दे रहे थे। उन्हीं से पता चला कि यहाँ के बंदर चश्मा, मोबाइल और कैमरा छीनने के लिए कुख्यात हैं। रास्तें में बंदरों के कई झुंड मिले। हम सतर्क थे, इसलिए कोई परेशानी नहीं हुई। हँफा देने वाली चढ़ाई तय कर बड़ी मुश्किल से मंदिर तक पहुँचे। मंदिर के भीतर प्रवेश की मनाही थी, इसलिए हमने बाहर से मंदिर का दर्शन किया। 11वीं सदी में बने उस मंदिर की दीवारों पर स्थापत्य और वास्तुकला का अनुपम नजारा दिख रहा था।
उलूवातु मंदिर की चोटी से जब हम नीचे उतरे तो वहाँ समुद्र की लुभावनी पृष्ठभूमि में रामायण पर आधारित केचक नृत्य का प्रदर्शन हो रहा था। दो दर्जन से अधिक पुरुष कलाकार एक घेरे में अपनी बाँहों और शरीर को जोर-जोर से हिलाकर नृत्य कर रहे थे। घेरे के केंद्र में जलती हुई लौ रहस्यमय लग रही थी। कुछ देर तक हम उस नृत्य का आनंद लेते रहे। शाम के 7 बजने को थे। इसलिए गाड़ी में बैठकर रिसॉर्ट के लिए प्रस्थान कर गए।
बाली में आज हमारा तीसरा दिन है। पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के तहत आज हमें बाली के सुप्रसिद्ध मंदिर तनाहलोट का दर्शन करना था। गुगल से यह जानकारी हासिल कर चुके थे कि समुद्र के देवता को समर्पित तनाहलोट मंदिर सागर तट पर बने उन सात मंदिरों में से एक है, जिन्हें एक शृंखला के रूप में बनाया गया है। तनाहलोट मंदिर को देखने की उत्सुकता थी। इसलिए दैनिक नित्य-कर्मों से निवृत होने के बाद हम फटाफट नहा-धोकर तैयार हो गए। फिर नास्ते के बाद गरमा-गरम चाय लेकर रिसॉर्ट से निकल पड़े।
रिसॉर्ट से तनाहलोट की दूरी लगभग 20 किलोमीटर की थी। डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद जाम मिलना शुरू हो गया। एक तो बाली की सड़कें तंग हैं और ऊपर से गाड़ियों की भीड़। जिधर नजर घुमाओ, पर्यटक ही पर्यटक। दो दिनों के भ्रमण में ही मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि बाली में ट्रैफिक एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। लंबे जाम की वजह से पर्यटकों का पैसा के साथ-साथ वक्त भी बर्बाद होता है। गाड़ी धीरे-धीरे रेंगती रही। कुछ देर बाद हम खुले इलाके में आ गए। सड़क की दोनों तरफ धान के हरे-भरे खेत, गेंदा के रंग-बिरंगे फूल मन को प्रफुल्लित कर रहे थे। बीच-बीच में सैनिकों की तरह तन कर खड़े मकई और केले के पौधे वातावरण को और आकर्षक बना रहे थे। इसलिए जाम की वजह से पैदा हुआ अवसाद धीरे-धीरे मिटने लगा था। तनाहलोट मंदिर से कुछ दूर पहले ही पार्किंग की व्यवस्था थी। गाड़ी पार्क कर हम मंदिर की ओर बढ़ चले। रास्ते की दोनों तरफ हस्तशिल्प की कतारबद्ध दुकानें सजी हुई थीं। उनका अवलोकन करते हुए आगे बढ़ते रहे। कुछ मिनटों के बाद हम मंदिर के प्रवेश द्वार पर थे। वहाँ बहुत ही आकर्षक पत्थर का गेट निर्मित था, जो स्थापत्य शिल्प की दृष्टि से भव्य एवं असाधारण था। उसका प्रत्येक भाग भिन्न-भिन्न ललित मूर्तियों, लता-पुष्प और पशु-पक्षी से अलंकृत था। उस पर निर्मित एक-एक मूर्ति, एक-एक फूल, एक-एक कली, एक-एक बेल सजीव बोलती हुई दिख रही थी। नक्काशियाँ और बेल-बूटे बहुत ही महीन, आकर्षक और कलात्मक दृष्टि से बेजोड़ थे।
मुख्य मंदिर की विशालता एवं भव्यता को देखकर हम चमत्कृत थे। मंदिर में प्रवेश की मनाही थी। इसलिए बाहर से ही उसका अवलोकन करना पड़ा। समुद्र किनारे एक बड़े से चट्टान पर वह बना हुआ था। उसके भीतरी और बाहरी दीवारों पर पुष्पलता और नक्काशियों का सुंदर अलंकरण चमत्कृत करने वाला था। मंदिर की निर्माण पद्धति से शिल्पियों की निपुणता का परिचय मिल रहा था। मंदिर के सामने एक आयताकार मंडप एवं विशाल प्रांगण था। मंदिर का मुख पूरब दिशा की ओर बनाया गया था ताकि उषा की प्रथम किरणों से मंदिर आलोकित हो उठें। मुझे ऐसा लगा कि यह मंदिर दिन में सीमा-चिह्न तथा रात्रि में नाविकों के लिए गंतव्य स्थान की ओर जाने में आकाशद्वीप की भाँति पथ-प्रदर्शक का काम करता होगा। सहस्त्राब्दियों से समुद्र की लहरों के झोंकों की मार सहने के उपरांत भी यह मंदिर शालीनता के साथ समुद्र की शक्ति को मानो चुनौती दे रहा है। मेरा मानना है कि एक बार इस मंदिर को सामने से देखने के बाद इसकी यादों को जेहन से मिटा पाना किसी के लिए भी मुश्किल होगा। मुख्य मंदिर के बाद मैंने बारी-बारी से अन्य मंदिरों का अवलोकन किया। सभी मंदिर वास्तुशिल्प एवं अलंकरण के दृष्टिकोण से विलक्षण थे।
बाली के सुहावने मौसम की काफ़ी ख्याति सुन रखी थी। लेकिन आज सुबह से ही मौसम काफ़ी गरम था। जब हमने ड्राइवर नियोमैन से इस बावत चर्चा की तो वह कहने लगा कि पिछले चार-पाँच वर्षों से बाली में गर्मी पड़ने लगी है। कारण, बाली की बढ़ती जनसंख्या। ड्राइवर बता रहा था कि पाँच-छह वर्ष पहले तक बाली की जनसंख्या 20 लाख के आसपास थी। लेकिन जब से बाली पर्यटन के तौर पर विकसित हुआ है, जापान, जावा, हालैंड इत्यादि देशों के लोग व्यवसाय के लिए यहाँ बसने लगे हैं और बाली की आबादी लगभग दुगनी हो गई हैं। परिणामस्वरूप पेड़-पौधे कट रहे हैं और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल उग रहे हैं। बारिश कम हो रही है और बाली का तापमान 30-32 डिग्री तक पहुँच जा रहा है। मैं यह सोचने पर विवश हो गया कि मौसम में तीव्र बदलाव सिर्फ बाली में ही नहीं, सारी दुनिया में दृष्टिगोचर हो रहा है। तेजी से कम हो रही हरियाली उसका मुख्य कारण है। मुझे संयुक्त राष्ट्र संघ और रेड क्रॉस द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट का स्मरण आ गया, जिसमें यह चेतावनी दी गई है कि अगर इस दिशा में शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाया गया तो सदी के अंत तक एशिया और अफ्रीका के कई हिस्से लोगों के रहने योग्य नहीं रहेंगे, जहाँ वर्तमान में करीब 60 करोड़ लोग बसते हैं।
बाली में आज हमलोगों का चौथा दिन है। आज से तीन दिनों के लिए उबुद में एक होटल का आरक्षण है। इसलिए सुबह के नास्ते के बाद हम कुटा का रिसॉर्ट छोड़कर उबुद के लिए निकल पड़े। हमें बताया गया था कि उबुद बाली का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थल है। चारों ओर खूबसूरत जंगल और धान के खेत से घिरा उबुद कला और शिल्प का केंद्र भी है। उबुद में दर्जनों ऐसे गाँव हैं, जो पारंपरिक आभूषण, पत्थर की मूर्तियों, ग्लास वर्क, बाटिक और बाँस एवं लकड़ी के खिलौने के लिए विख्यात हैं। ड्राइवर की सलाह थी कि उन गाँवों की पारंपरिक कलाओं का अवलोकन करते हुए उबुद स्थित होटल पहुँचना ठीक रहेगा। हमने ड्राइवर की बात मान ली। लगभग डेढ़ घंटे की सड़क यात्रा के बाद हम सेलुक गाँव में थे। पता चला कि यह गाँव सोने और चाँदी के आभूषण निर्माण के लिए प्रसिद्ध है। सेलुक गाँव की बात ही निराली थी। साफ-सुथरी सड़क, रंग-बिरंगे साइन बोर्ड और अलग-अलग रंगों के फूल-पौधे, गाँव की खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे। सब कुछ व्यवस्थित और नियोजित। प्रत्येक घर एक दुकान था और उसके सामने साइन बोर्ड टँगा हुआ था। एक दुकान के सामने ड्राइवर ने गाड़ी खड़ी कर दी। उस दुकान के प्रवेश द्वार पर एक छोटा-सा मंदिर था, जिसमें काले पत्थर की गणपति की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। उस मूर्ति के समक्ष ताड़-पत्र से बनी टोकरियों में फूल और प्रसाद रखे हुए थे। मंदिर के बायीं तरफ दो-तीन कारीगर चाँदी और सोने के आभूषणों की निर्माण-प्रक्रिया का जीवंत प्रदर्शन कर रहे थे। उनके निपुण हाथों की कारीगरी का अवलोकन करने के बाद हम अंदर की ओर बढ़ चले। अंदर हॉल में प्रवेश करते ही आभूषणों की चकाचौंध देखकर आँखें चौंधिया गईं। सुंदर और सुसज्जित शो-केशों में रखे सैकड़ों-हज़ारों किस्म के नेकलेस, कान की बाली, झुमका, कंगन इत्यादि को कुछ देर तक हम मंत्रमुग्ध होकर देखते रहे। श्रीमती जी और बेटी उन आभूषणों का मोल-भाव करने में लग गईं। उनका रेट भारत से कुछ सस्ता था। बेटी ने एक-दो आभूषणों की खरीदारी भी की। तत्पश्चात हम वहाँ से निकल पड़े।
दुनिया भर के चित्रकारों की निर्वसना नारी में अभिरुचि रही हैं। बाली के इस गैलरी में भी वही देखने को मिल रहा था। कुछ पेंटिंग्स में नारी की शरीर-रचना का बड़ी बारीकि से चित्रण था। शृंगारिक और अत्यंत कामोद्दीपक चित्र से लेकर शांत-सौम्य चित्र प्रदर्शित थे। कुछ न्यूड पेंटिंग्स बेतुके एवं विकृत ढंग के भी थे। लगभग एक से डेढ़ घंटा तक उस गैलरी में प्रदर्शित चित्रों का अवलोकन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि बाली की कला देश और काल की सीमाओं से परे है। उस गैलरी में प्रदर्शित कुछ गंभीर और मूल्यवान कृतियाँ दुनिया की किसी भी कलाकृति के साथ तुलनीय है। हमें उबुद के बाटिक एवं स्टोन क्राफ्ट के गाँवों को देखना था। लेकिन समय का अभाव था। दोपहर के डेढ़ बज चुके थे। इसलिए हमने निर्णय लिया कि अगर समय मिला तो दूसरे दिन उन गाँवों का भ्रमण करेंगे। आर्ट गैलरी से हमलोग तेनेगुंगन वाटर फॉल के लिए चल पड़े। निकलते वक्त भी कई घरों के सामने आर्ट गैलरी का बोर्ड टँगा हुआ दिखाई पड़ा। मुझे यह गाँव ‘ओपन एयर आर्ट गैलरी’ की तरह लग रहा था। यही वजह है कि कला एवं शिल्प में रुचि रखने वाले सैलानी यहाँ कई-कई दिन गुजारना पसंद करते हैं।
कुछ देर बाद हम तेनेगुंगन वाटर फॉल के प्रवेश द्वार पर थे। गाड़ी से उतरकर हम झरने की ओर बढ़ चले। रास्ते के दोनों तरफ हस्तशिल्प से लेकर खाने-पीने तक की दुकानें थीं। एक होटल के सामने नारियल पानी बिक रहा था। उस दुकानदार को शायद हमारी वेश-भूषा से भारतीय होने का आभास हो गया था। इसलिए वह हिंदी में–‘ठंडा नारियल पानी ले लो’ की आवाज लगा रहा था। हिंदी भाषी होने के कारण मेरा मन पुलकित हो उठा। आगे बढ़ते गए। सामने में ऊँची-नीची पहाड़ियाँ, उन पर बेशुमार हरियाली तथा बादलों की छटा देखते ही बन रही थी। कुछ देर तक उनके जादुई आकर्षण में ओत-प्रोत होता रहा। वहाँ से नीचे झरने तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थी। हम सीढ़ियों के सहारे नीचे उतरते गए। जब झरने के तल पर पहुँचे तो प्रकृति का अनूठा करिश्मा हमारे सामने था। चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य का सागर। सामने 70 फुट की ऊँचाई से पूरे वेग से फेनिल दूधिया पानी नीचे गिर रहा था। पानी की बूँदें, जो हवा में उड़कर हम पर आकर गिर रही थी, हमें रोमांचित कर रही थी। ऊँची पहाड़ी से गिरते जल की बूँदें तथा उससे बनी धुँध को देखकर एक अलौकिक आनंद की अनुभूति हो रही थी। हम बूँदों को मंत्रमुग्ध होकर एकटक निहारते रहे।
वापसी के लिए सीढ़ियों के सहारे चढ़ाई शुरू की। लगभग 200 सीढ़ियाँ होंगी। चढ़ते-चढ़ते टाँगें लड़खड़ाने लगी। जगह-जगह रुककर आराम फरमाते किसी तरह ऊपर तक पहुँचे। थकान के चलते बुरा हाल हो गया था। इसलिए वहीं पर एक होटल में बैठकर थकान के साथ-साथ भूख भी मिटाई और फिर गाड़ी में बैठकर उबुद के लिए निकल पड़े।
विगत चार दिनों के बाली भ्रमण के दौरान मुझे जगह-जगह लुवाक कॉफी के कई बोर्ड दिखाई पड़े थे। दामाद राहुल से इंडोनेशिया के लुवाक कॉफी की तारीफ सुन चुका था। उनका कहना था कि यह दुनिया की सबसे महँगी एवं शानदार कॉफी है और इस कॉफी को जो एक बार टेस्ट कर लेगा, उसे फिर कोई दूसरी कॉफी रास नहीं आएगी। इंटरनेट और गुगल पर सर्च कर यह जानकारी ले चुका था कि यह कॉफी बिल्ली प्रजाति के सिवेट नामक जानवर की पॉटी से बनती है। कॉफी के पकने के क्रम में सिवेट बिल्ली उसकी चेरी खाती है, जिसका गुदा वह पचा लेती है, लेकिन बीजों को अपने मल के जरिये बाहर निकाल देती है। उस बीज को शुद्ध कर उससे लुवाक कॉफी बनाई जाती है। कहा जाता है कि सिवेट के शरीर में आँतों से गुजरने के बाद कॉफी बीन्स में कई तरह के पाचक एंजाइम मिलकर उसे काफ़ी पौष्टिक बना देते हैं जिससे उसकी स्वाद भी ज्यादा बेहतर हो जाती है।
राहुल की लुवाक कॉफी पीने की इच्छा हो रही थी। इसलिए एक लुवाक कैफे के सामने गाड़ी रोककर हम उसमें प्रवेश कर गए। लगभग एक-डेढ़ एकड़ के विस्तृत भू-भाग में फैला हुआ वह कैफे था। प्रवेश द्वार पर ही एक पिंजरे में कैद दो बेजुबान जानवर दिखाई पड़ें। राहुल ने बताया कि यही लुवाक बिल्ली है। स्वच्छंद रूप में ये बिल्लियाँ कॉफी के पेड़ पर ही अपना आशियाना रखती हैं। लेकिन उन्हें पिंजरे में बंद कर रखने का अमानवीय तरीका मुझे पसंद नहीं आया। कैफे में लुवाक कॉफी के शौकीन और भी कई पर्यटक बैठे हुए थे। एक पर्यटक दूसरे को बता रहा था कि जब चलते-चलते शरीर बुरी तरह से थक जाता है, तब इस कॉफी के कुछ घूँट शरीर में नए प्राण फूँक देते हैं। टेबल पर बैठकर मेनू को उलटने-पुलटने लगा। एक कप लुवाक कॉफी की कीमत 2000 रुपया देखकर मेरे पैर तले की जमीन ही खिसक गई। मैंने दिल्ली और मुंबई के कैफे में 500 रुपये तक की कीमत की कॉफी पी थी। लेकिन इतनी महँगी कॉफी पहले कभी नहीं पी थी। श्रीमती जी तो लुवाक कॉफी की निर्माण प्रक्रिया को जानकर ही, नाक-भौं सिकोड़ने लगी थीं। उन्हें छोड़कर शेष सभी के लिए कॉफी का आर्डर दिया गया। थोड़ी देर में विश्व प्रसिद्ध लुवाक कॉफी हमारे सामने था। मैं पहली बार लुवाक कॉफी का स्वाद चखने वाला था। इसलिए मुझे उत्सुकता थी। लेकिन सच कहूँ तो कॉफी पीने के बाद वह बेस्वाद लगी। आप सोचेंगे कि मैं कैसा निरा मूर्ख हूँ। जिस लुवाक कॉफी की सारी दुनिया मुरीद है, उसे मैं बेस्वाद बता रहा हूँ। लेकिन यकीन मानिये, मुझे लुवाक कॉफी बिल्कुल ही पसंद नहीं आई थी।
करीब 45 मिनट की सड़क यात्रा के बाद हम उबुद स्थित उस होटल के प्रवेश-द्वार पर थे, जो अगले दो दिनों के लिए हमारा ठिकाना बनने वाला था। वह होटल उबुद के सबसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थल मंकी हाउस के ठीक सामने था। विस्तृत भू-भाग में फैला और पेड़-पौधे से घिरा वह होटल वाकई शानदार था। बहुत ही आकर्षक और अत्याधुनिक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण। कमरा वातानुकूलित और करीने से सजा हुआ था। चाय-कॉफी के लिए केतली एवं अन्य आवश्यक समान कमरे में उपलब्ध थे। कुछ देर तक विस्तर पर लेटकर दिनभर के भागदौड़ से उपजी यात्रा की थकान उतारी।
आज बाली में हमारा आखिरी दिन है। तयशुदा कार्यक्रम के तहत सबसे पहले उबुद मंकी फॉरेस्ट, फिर मांउट बटुर और अंत में तीर्थ एम्पुल का अवलोकन करना था। इसलिए कम्पलीमेंटरी ब्रेक फास्ट के बाद हम पैदल ही मंकी फॉरेस्ट के लिए निकल पड़े। मंकी फॉरेस्ट के प्रवेश-द्वार पर टिकट के लिए लंबी लाइन थी। टिकट दर भी काफ़ी महँगा था। प्रति व्यक्ति 600 रुपया। टिकट काउंटर के पास कई सूचना पट्ट थे। मैं उन्हें ध्यान से पढ़ने लगा। यह जानकारी हुई कि 14वीं शताब्दी से यह जंगल है और इस जंगल में कुछ प्राचीन मंदिर भी हैं। उसमें यह भी वर्णित था कि 700 से अधिक, लंबी पूँछ वाले बंदरों का यह आश्रय है और यहाँ पेड़-पौधों की 186 से अधिक प्रजातियाँ हैं। इस वन अभयारण्य में अधिकांश फलदार पेड़-पौधे हैं। इसलिए बंदरों को खाने के लिए कहीं अन्यत्र भटकना नहीं पड़ता है।
टिकट लेकर हम गुफानुमा प्रवेश द्वार से अंदर प्रवेश कर गए। सामने ही एक प्राचीन शिव मंदिर था। उस मंदिर में नक्काशी की हुई मूर्तियाँ आकर्षित कर रही थी। जगह-जगह यह चेतावनी अंकित थी कि बंदरों से छेड़छाड़ न करें! क्योंकि वे कभी-कभार हिंसक भी हो जाते हैं। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। घने पेड़-पौधों का दृश्य बड़ा ही आनंददायक और रोमांचकारी लग रहा था। आसपास के पेड़ों पर दर्जनों बंदर उछल-कूद मचा रहे थे। धूप पेड़ों से छन कर आँख-मिचौनी करती दिखाई दे रही थी। प्रकृति का अनुपम दृश्य देखते हम सब आत्मविभोर होकर आगे बढ़ते रहे।
बाली की सबसे ऊँची चोटी पर स्थित है माउंट बटुर। समुद्र तल से उसकी ऊँचाई 5600 फीट है। करीब आधे घंटे की सड़क यात्रा के बाद हम माउंट बटुर की चोटी पर थे। आकाश में काले बादल छाये हुए थे। बादलों के झुंड कई बार इतने नीचे तक आ जा रहे थे कि उन्हें छू लेने की कल्पना को साकार होते देख मन रोमांचित हो जा रहा था। उस चोटी से चारों ओर का मनोरम दृश्य देखते ही बन रहा था। हमारी दृष्टि निर्बाध रूप से प्रकृति के मनोरम विस्तार पर फिसलती चली गई। चारों ओर प्रकृति का अद्भुत शृंगार दिख रहा था। सामने की पहाड़ी ज्वालामुखी से काले रंग में तब्दील हो गई थी। ज्वालामुखी विस्फोट से पिघली हुई चट्टान और उसके निकट नीले रंग की बाटुर झील की सौंदर्यमय भव्यता को हम सुध-बुध खोकर कुछ देर तक निहारते रहे। पास खड़े एक पर्यटक को मैंने यह कहते सुना कि यह ज्वालामुखी आज भी सक्रिय है। यहाँ पहला विस्फोट 1804 में और आखिरी विस्फोट वर्ष 2000 में हुआ था।
माउंट बटुर के बाद हमलोग पुरा तीर्थ एम्पुल के दर्शन के लिए निकल पड़े, जो बाली का सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल है। मंदिर से कुछ दूर पहले ही पार्किंग में हमने गाड़ी खड़ी कर दी। सड़क के दोनों तरफ हस्तशिल्प की दर्जनों दुकानें सजी हुई थीं। पर्यटक मोल-भाव कर रहे थे। हमारा भी मन ललच उठा। हमने भी कुछ कलाकृतियों की खरीद की और फिर मंदिर की तरफ बढ़ चले।
सामने ही था पुरा तीर्थ एम्पुल। बाली के धार्मिक रीति-रिवाज़ों के तहत यहाँ भी मंदिर प्रवेश के पहले सेरांग एवं कमरपट्टा पहनना अनिवार्य था। हमने भी उसे धारण किया और अंदर की ओर प्रवेश कर गए। प्रवेश द्वार पर ही एक बड़ा आयताकार तालाब था और उसमें दो दर्जन से ज्यादा फव्वारों से जल आ रहा था। ढेर सारे पर्यटक उस तालाब में डुबकी लगा रहे थे। किंवदंति है कि इन फव्वारों का निर्माण भगवान इंद्र ने किया था और यहाँ गंगा का जल आता है। यह भी मान्यता है कि जो कोई भी इस तालाब के पवित्र जल में डुबकी लगाएगा, वह शुद्ध हो जाएगा, उसे सौभाग्य और अच्छा स्वास्थ्य मिलेगा। इस आस्था और विश्वास के चलते वहाँ स्नान करने वालों की भारी भीड़ थी। तालाब के बाद खुले क्षेत्र में छोटे-छोटे कई मंदिर बने हुए थे। पर्यटक उन मंदिरों की परिक्रमा कर रहे थे। हम भी बारी-बारी से मंदिरों का अवलोकन करते हुए आगे बढ़ते रहे। मुख्य मंदिर से बाहर निकलने के रास्ते में एक बड़ा तालाब था, जिसमें बड़ी संख्या में विभिन्न प्रजातियों की छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही थीं। उनमें पैरोटफिश, अगलीफिश और मंदारिन ड्रेगनेट प्रजाति की मछलियाँ अपने चमकदार रंग, बड़े मुख और विशेष पंखों के कारण कुछ ज्यादा ही आकर्षक दिख रही थी। ऐसा लग रहा था, मानो उन पर किसी ने पेंटिंग की हो। उन्हें देखकर एक अलग तरह के आनंद की अनुभूति हो रही थी। गोधूलि बेला प्रारंभ हो चुकी थी। इसलिए हम वहाँ से होटल के लिए प्रस्थान कर गए।
सुबह 5 बजे ही नींद खुल गई। उजाले की पंखुड़ियाँ धीरे-धीरे खुलने लगी थी। आज ही दोपहर डेढ़ बजे बाली से हो-ची-मिन्ह होते हुए दिल्ली के लिए हमारी फ्लाइट है। इसलिए सुबह 10 बजे ही हमें एयरपोर्ट के लिए निकलना होगा। मैं अपने कमरे में बैठकर बाली में बिताए क्षणों को अपनी स्मृतियों में कैद करने लगा।
लगभग 6000 वर्ग किलोमीटर में फैले बाली द्वीप की सौंदर्यमय भव्यता अद्भुत एवं अद्वितीय है। कुदरती सौंदर्य और पर्यटन में विविधता की वजह से बड़ी संख्या में सैलानी यहाँ खिंचे चले आते हैं। बाली में और भी ढेर सारे आकर्षण हैं। लेकिन बाली अब अपने आकर्षण की कीमत चुका रहा है। पिछले एक-डेढ़ दशक के दौरान बाली की जनसंख्या बेतहाशा बढ़ी है। लेकिन सड़कें पहले की तरह ही संकरी है। ज्यादातर सड़कें 30 फीट ही चौड़ी हैं। ट्रैफिक को डायवर्ट करने और भीड़-भाड़ कम करने के लिए फ्लाईओवर और ओवरब्रिज का निर्माण नहीं के बराबर हुआ है। परिणामस्वरूप बाली की मुख्य सड़कें अक्सरहाँ जाम रहती हैं। विगत पाँच दिनों में हमारा शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरा, जब हमें जाम की समस्या से न जुझना पड़ा हो। भारत जहाँ कैशलेस अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है, वहीं बाली अभी तक नकद लेन-देन पर निर्भर है। यानी डिजिटल लेन-देन बहुत कम है। पर्यटकों हेतु प्रत्येक गली-चौराहों पर एटीएम तो है, लेकिन किसी भी मॉल या दुकान में मोबाइल वॉलेट, यूपीआई, गुगल पे और कार्ड भुगतान की सुविधा नहीं दिखी।
बाली में हिंदू धर्म की जड़ें काफ़ी गहरी हैं। मान्यता है कि इस द्वीप का नामाकरण पुराणों में वर्णित पाताल देश के राजा बलि के नाम पर हुआ है। यहाँ मंदिरों की संख्या बहुत ज्यादा है। हर एक गली, घर और दुकान में मंदिर है। यहाँ के मंदिर, संस्कृति, धर्म, कला, नृत्य, संगीत इत्यादि में हिंदू धर्म का लुभावना रूप दर्शनीय है। यहाँ के लोगों के नाम भारतीय नामों से मिलते-जुलते हैं। भारत की तरह बाली के हिंदुओं की भी मान्यता है कि दुनिया में धर्म और अधर्म दोनों हैं और अधर्म पर धर्म की विजय होती है। स्वर्ग और नरक में भी वे यकीन करते हैं। रामायण, महाभारत आदि हिंदू महाकाव्यों में उनकी गहरी आस्था है। वे पूजा एवं विधि-विधान पूरी निष्ठा और आस्था से करते हैं। लेकिन बाली के मंदिरों में भारत की तरह मूर्तियाँ नहीं होती। उन मंदिरों के भीतर ऊँचे स्तंभों पर सिर्फ आसन होते हैं। लेकिन नकारात्मकता दूर रखने के लिए घरों और मंदिरों के प्रवेश द्वार पर द्वारपाल या गणपति की मूर्तियाँ स्थापित की जाती है।
बाली में चौथी, पाँचवीं शताब्दी में हिंदू राज्य स्थापित हुआ था। शुरुआती समय में हिंदू धर्म की विसंगतियाँ यानी ऊँच-नीच और छुआ-छूत भी रही होंगी। आज भी बाली की जनसंख्या की बहुसंख्यक (86 प्रतिशत) आबादी हिंदू है। उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र भी हैं। लेकिन जातीय संकीर्णता रत्ती भर भी नहीं है। इस मामले में बाली के हिंदुओं ने जो सुधार किया है, वह भारत के हिंदुओं के लिए भी अनुकरणीय हैं।
Image: Palma al atardecer acapulqueño
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