होनहार लेखकों से

होनहार लेखकों से

हिंदी अब राष्ट्र-भाषा बन गई है, वैसे भी वह लगभग बीस करोड़ लोगों की भाषा अर्थात् उनके सांस्कृतिक परिष्कार का माध्यम है। भाष्ट्र-भाषा घोषित हो जाने पर भी अभी हिंदी न तो केंद्रीय सरकार के दफ्तरों में प्रवेश पा सकी है, न विश्वविद्यालयों की उच्च कक्षाओं में। आप जानते हैं कि हिंदी के राष्ट्र-भाषा बनने का काफी विरोध हुआ था, और आज भी उसके विरोधियों की आवाज़ बंद नहीं है। अत: यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि बारह-तेरह वर्ष के बाद हिंदी राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठत एवं सर्वमान्य हो ही जाएगी।

हिंदी के विरोध में कहा जाता रहा है कि उसका साहित्य, विशेषत: आधुनिक साहित्य, दूसरी कतिपय देशी भाषाओं के साहित्यों की तुलना में समृद्ध नहीं है, कि हिंदी में उच्च कोटि के लेखकों की कमी या अभाव है, कि हिंदी ने कोई रवींद्र जैसा कवि अथवा शरत चंद्र जैसा उपन्यासकार पैदा नहीं किया, इत्यादि। मैं इस प्रकार की आलोचनाओं से बहुत कम सहमत होना चाहता हूँ । फिर भी यह मानना ही पड़ेगा कि ऐसी आलोचना में काफी सचाई है, विशेषत: यदि हम हिंदी-साहित्य को समृद्ध यूरोपीय साहित्यों के सामने रख कर आँकने का प्रयत्न करें।

दूसरी ओर यह स्थिति है कि हिंदी में अनगिनत लेखक हैं । मेरा अनुमान है कि अकेले कानपुर में कम-से-कम पचास कवि और उतने ही कथाकार होंगे। मैं यह भी नहीं मानता कि हिंदी भाषी प्रांतों में प्रतिभाशाली लेखक पैदा नहीं होते, अथवा यहाँ प्रतिभा की कमी है। मेरा विश्वास है कि हमारे अधिकांश नए कवि जो बालकपन से स्वत: ही कविता लिखने लगते हैं, निसर्गसिद्ध कवि होते हैं, यही बात कथाकारों के संबंध में भी कही जा सकती है। फिर क्या कारण है कि आधुनिक हिंदी-साहित्य के संबंध में हम इतनी प्रतिकूल आलोचना सुनते हैं, और सुन कर मौन रह जाते हैं? इसका कारण, मेरी समझ में, यही हो सकता है कि हमारे अधिकांश कवि, कथाकार आदि सृजन की ऊँचाइयों तक पहुँचने में असमर्थ रहते हैं, अर्थात् अपनी निसर्गसिद्ध प्रतिभा का पूरा-पूरा उपयोग नहीं कर पाते। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हमारे अधिकांश लेखक उतनी लगन से उच्च कोटि की वह साधना नहीं कर पाते जो साहित्य-सृष्टि का धरातल ऊँचा करने के लिए अनिवार्य रूप में अपेक्षित है। किसी ने कहा है–प्रतिभा एक-प्रतिशत प्रेरणा है, और निन्यानबे-प्रतिशत पसीना अर्थात् परिश्रम। मतलब यह कि जिन्हें हम प्रतिभाशाली कहते हैं वे प्राय: बड़े परिश्रमी साधक होते हैं। प्रश्न है, इस साधना का स्वरूप क्या है? किस प्रकार हमारे नवयुवक लेखक अपने सृजन के धरातल को उच्चतर बना सकते हैं? इस समय हम महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश करेंगे।

साहित्यकार साधक के लिए सबसे अधिक अपेक्षित वस्तु है–महापुरुषों अथवा महान् लेखकों की कृतियों का घना परिचय। इन कृतियों को ही अँग्रेजी में ‘क्लासिक्स’ कहते हैं। ‘क्लासिक्स’ का परिचय साहित्यकार और समीक्षक दोनों के लिए समान रूप में जरूरी है। ‘क्लासिक्स’ के पढ़ने से जो मुख्य लाभ होता है वह है–रुचि का परिष्कार। उनके अध्ययन से आप यह महसूस करना सीखते हैं कि उच्च कोटि के भाव और भावाभिव्यक्ति क्या होते हैं। कविता लिखते समय कवि अक्सर एक पद के स्थान में दूसरे पद या शब्द की, और एक पंक्ति के स्थान में दूसरी पंक्ति की नियोजना करता है, ताकि उसकी भाव-संवेदना अधिक सुंदर अथवा प्रशस्त बन सके। इस प्रकार के परिवर्तन करते हुए, स्पष्ट ही, वह अपनी रुचि से नियंत्रित होगा और उसकी यह रुचि अच्छे-बुरे साहित्य के पढ़ने से ही निर्मित होती है। उदाहरण के लिए जिस व्यक्ति ने साहित्य के नाम पर सिर्फ पं. राधे श्याम कथावाचक की रामायण पढ़ी है उसकी रुचि का धरातल एक होगा, और जिसने तुलसी के ‘मानस’ तथा वाल्मीकि के काव्य को पढ़ा है उसकी रुचि का दूसरा। अनंत: हमारी रुचि का मानदंड विश्व के श्रेष्ठतम कलाकारों की कृतियाँ ही हैं।

हिंदी में कुछ लोगों का विचार है कि कवि के लिए विशेष अध्ययन अपेक्षित नहीं है तथा अच्छा कवि अच्छा आलोचक नहीं हो सकता, और इसके विपरीत भी। किंतु यह मान्यता निराधार और भ्रामक है। अँग्रेजी लेखक टी. एस. इलियट अपनी पीढ़ी का सबसे बड़ा कवि और सबसे बड़ा आलोचक है। वह एक उच्च कोटि का विचारक भी है। उसने दार्शनिक ब्रेडले की शैली पर सुंदर आलोचनात्मक लेख लिखा है; और संस्कृति पर एक पूरी पुस्तक लिख डाली है। समीक्षक के रूप में उसने दाँते, शेक्सपीयर, आदि पर विस्तृत निबंध लिखे हैं तथा शेली आदि रोमांटिक कवियों का पुनर्मूल्यांकन किया है। इसी प्रकार जर्मनी का सर्वश्रेष्ठ कवि तथा नाटककार गेटे यूरोप का अन्यतम समीक्षक-विचारक भी है। रूसी टाल्स्टाय विश्व के दो-तीन सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकारों में है, उन्होंने ‘कला क्या है?’ नाम से एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा है। वे नवयुवक जो सचमुच महत्त्वपूर्ण लेखक बनना चाहते हैं इस भ्रामक धारणा से अपने को जल्दी-से-जल्दी मुक्त कर लें कि–कवि अथवा साहित्यकार केवल एक भावुक व्यक्ति होता है जिसे शिक्षित और समझदार होने की जरूरत नहीं। सचमुच ही कविता और मूर्खता में कोई आवश्यक लगाव नहीं है और यदि मूर्ख अथवा विचार-शून्य होना कवि बनने की आवश्यक शर्त हो तो, कम से कम मेरी दृष्टि में, कवि होना कोई वांछनीय वस्तु नहीं। अवश्य ही कवि अथवा साहित्यकार भावुक एवं संवेदनशील व्यक्ति होता है; किंतु साथ ही इसे न भूलना चाहिए कि विचारशील एवं गंभीर व्यक्ति की भावनाओं में ही गहराई और ऊँचाई आ सकती है। विचारशील होने का अर्थ है जीवन के विभिन्न पहलुओं को अधिक स्पष्ट एवं संबद्ध रूप में देख सकना–जीवन की प्रत्येक छवि को देश-काल की विशाल पृष्ठभूमि में रखकर समझ और आँक सकना। हम साहित्यकारों के ग्रंथों में उनके ‘संदेश’ की खोज करते हैं; स्पष्ट ही एक विचारशून्य एवं विवेकहीन लेखक मानवजाति को कोई महत्त्वपूर्ण संदेश नहीं दे सकता।

वस्तुत: विश्व में ऐसा कोई बड़ा लेखक नहीं हुआ जो अपने युग की ज्ञान-राशि से सुपरिचित न रहा हो। सूर और तुलसी हिंदू-दर्शन एवं संस्कृति तथा उसकी उलझनों से पूर्णतया परिचित थे। इसी प्रकार कालिदास, भारवि, माघ आदि कवियों में भारतीय दर्शन, राजनीति, धर्मशास्त्र आदि की गहरी जानकारी पाई जाती है। आधुनिक काल में रवींद्रनाथ काफी अधीत लेखक थे, जैसा कि उनकी गद्य-कृतियों–‘साधना’, ‘रिलीजन ऑफ मैन’–आदि से स्पष्ट प्रमाणित होता है।

हिंदी के नवयुवक लेखकों को न केवल हिंदी-साहित्य की ‘क्लासिक्स’ का अच्छा परिचय होना चाहिए अपितु संस्कृति साहित्य की महनीय कृतियों का भी। तभी के विशाल भारतीय संस्कृति की उचित अवगति प्राप्त कर सकेंगे। आज के हिंदी लेखकों के लिए यह भी बहुत जरूरी है कि वे समृद्ध यूरोपीय साहित्य का अच्छा परिचय प्राप्त करें।

‘क्लासिक्स’ को पढ़ने का अर्थ अतीतवादी अथवा अतीतोन्मुख होना नहीं है; न उसका यही अर्थ है कि आप विद्रोही अथवा क्रांतिकारी न बनें। उसका यह मतलब भी नहीं कि आप हमेशा अतीत आदर्शों का राग अलापें और अपना लक्ष्य अतीत का पुनरुज्जीवन अथवा अनुकरण बना लें। कोई भी महत्त्वपूर्ण लेखक किसी भी क्षेत्र में अतीत की पुनरावृत्ति नहीं करता। एक नया लेखक अपनी महत्ता तब ही सिद्ध कर सकता है जब वह अपने वैयक्तिक माध्यम से अपनी निराली अनुभूतियों को अभिव्यक्ति दे। जो अनुभूति किसी पुराने कलाकार द्वारा पूर्ण अभिव्यक्ति पा चुकी उसे प्रकट करने के लिए आज एक नए लेखक की आवश्यकता नहीं। यही कारण है कि वे लेखक जो अतीत के महान् कलाकारों का अनुकरण करते हैं साहित्य के इतिहास में ऊँचा स्थान नहीं पाते। न जाने कितने कवियों ने ‘मेघदूत’ का अनुकरण किया, पर उनमें से कोई भी कालिदास का समकक्ष न बन सका। एक नया उदाहरण लीजिए। विदग्धता तथा वाणी की पूर्णता में ‘उद्धवशतक’ के लेखक रत्नाकर ब्रज के किसी कवि से पीछे नहीं हैं, फिर भी आप मानेंगे कि आधुनिक हिंदी-साहित्य के इतिहास में उनका वह स्थान नहीं है जो पंत, महादेवी अथवा प्रसाद और निराला का है। छायावादी कवि भारतेंदु से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, कारण यही है कि भारतेंदु के काव्य में भी प्राचीन की झलक प्रधान है। शाश्वतवादी साहित्य-समीक्षकों को इन उदाहरणों से सबक़ लेना चाहिए।

‘क्लासिक्स’ के अध्ययन एवं अनुराग का अर्थ पुराणपंथी होना नहीं है–जैसा कि, गुर्भाग्यवश, इस देश के बहुत से वयोवृद्ध समझते हैं। ‘क्लासिक्स’ को हम दो प्रयोजनों से पढ़ते हैं; एक, अपनी रुचियों का धरातल ऊँचा बनाने के लिए, और दूसरे, मानव-अनुभूतियों की महत्त्वपूर्ण धरोहर को आत्मसात् करने के लिए। इस धरोहर में वृद्धि करने के लिए ही आज के कलाकार और विचारक लिखते-सोचते हैं। अपने युग की विशिष्ट अनुभूतियों को प्रकट करने तथा विशिष्ट समस्याओं को सुलझाने का दायित्व शत-प्रतिशत हमारा अपना है। आज हम अपने युग-जीवन को अभिव्यक्ति देने के लिए कालिदास का उसी तरह आह्वान नहीं कर सकते जिस प्रकार अपनी नैतिक-दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाने के लिए शंकर और मनु का। ‘क्लासिक्स’ पढ़ने से हमें यह गलत प्रेरणा नहीं मिलनी चाहिए कि स्वयं हमें उतना ही काम नहीं करना है जितना कि कालिदास और शंकर ने अपने समय में किया था।

हमारे देश के लेखकों तथा विचारकों के लिए एक नियम हो सकता है–वे प्राचीन साहित्य केवल अपने देश का पढ़ें और आधुनिक साहित्य यूरोपीय देशों का भी। इसका मतलब यह है कि हमारे लिए संस्कृत साहित्य पढ़ना जितना जरूरी है उतना प्राचीन यूनानी, रोमन, फारसी, चीनी आदि साहित्यों का पढ़ना नहीं। यों इन विभिन्न साहित्यों के अध्ययन से हम प्राचीन संस्कृतियों की तुलनात्मक दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं जो गलत कोटि की–देशभक्ति एवं सांस्कृतिक अभिमान से बचे रहने के लिए जरूरी है।

अब तक हमने ‘क्लासिक्स’ की बात की। साहित्यकार का प्रधान और एकमात्र उद्देश्य अपने युग-जीवन का उद्घाटना और अभिव्यक्ति है। इस युग-जीवन को समझ लेना हँसी-खेल नहीं है। वर्तमान युग के अनगिनत लेखक और विचारक उसकी सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक, दार्शनिक तथा धार्मिक गुत्थियों को समझने और सुलझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। एक ओर मनुष्य का वर्तमान जीवन अतीत की असंख्य मान्यताओं तथा परंपराओं से प्रभावित है, दूसरी ओर, नवीन ज्ञान-विज्ञान के आलोक में, वह उन परंपराओं के प्रति विद्रोही बन रहा है। अतएव उस जीवन को समझने के लिए हमें वर्तमान भौतिक सामाजिक विज्ञानों तथा दर्शन से उतना ही परिचित होना होगा जितना कि अतीत की विचार-रूप धरोहर से। तभी हम वर्तमान युग के जीवन को उसकी संपूर्ण गहराई और विस्तार में समझ सकेंगे। जो क्षमता रखता है वही अमर साहित्यकार के पद पर प्रतिष्ठित होने का स्वप्न देख सकता है।

संक्षेप में कहा जाए तो कलाकार की साधना जीवन की भाँति ही व्यापक एवं सर्वतोमुखी होनी चाहिए। दर्शन, आचार-शास्त्र, राजनीति, अर्थ-विज्ञान आदि स्वयं जीवन के ही विभिन्न पहलुओं को समझने के प्रयत्न हैं। ये सब प्रयत्न परस्पर-संबद्ध हैं। इसलिए जिम्मेदार कलाकार उनमें से किसी की भी अवहेलना नहीं कर सकता। वह न प्लेटो की ‘आदर्श राज्य’ की कल्पना की उपेक्षा कर सकता है, न पेंगलर कृत सभ्यताओं के उत्थान-पतन की व्याख्या की। जीवन की दिशा के संबंध में ठीक से सोच सकने के लिए उसे वैराग्यवाद और भोगवाद दोनों की पोषक युक्तियों का ठीक से मूल्य आँकना होगा। मतलब यह कि श्रेष्ठ कलाकार को गहरे अर्थ में विचारशील और विवेकी होना चाहिए।

हमारी देशी-भाषाओं का शास्त्रीय साहित्य बहुत ही पिछड़ी अवस्था में है। इसके विपरीत प्राचीन संस्कृत का गद्य-साहित्य बहुत उन्नत है, यही बात यूरोपीय भाषाओं के आधुनिक साहित्य पर लागू है। अत: उस लेखक के लिए जो सच्चे अर्थ में विचारशील बनना चाहता है, वर्तमान यूरोपीय साहित्य से परिचित होना बड़ा जरूरी है। साहित्य प्रेमियों की भाषा में सहज गति होती है, अत: भावी साहित्यकारों के लिए अँग्रेजी अथवा किसी दूसरी यूरोपीय भाषा पर अधिकार कर लेना कठिन नहीं होना चाहिए। यदि यह कठिन भी हो, तो भी उसके लिए प्रयत्न करना प्रत्येक उस युवक का जो अच्छा लेखक बनना चाहता है, कर्तव्य होना चाहिए। देश की वर्तमान स्थिति देखते हुए मैं नवयुवकों के सामने लेखकों की योग्यता का एक माप या पैमाना रखना चाहता हूँ–यह पैमाना है अँग्रेजी में अधिकारपूर्वक लिख सकने की योग्यता। अभी हिंदी के दैनिक पत्रों का धरातल बहुत नीचा है, और मासिक पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति भी संतोषप्रद नहीं है। मैं चाहता हूँ कि हिंदी का प्रत्येक लेखक इतनी योग्यता संपादित कर ले–और यह योग्यता सिर्फ भाषा की ही नहीं, विचारों की भी होगी–कि उसके लेख अँग्रेजी के दैनिक तथा मासिक साहित्य में स्थान पा सकें। इतनी योग्यता संपादित कर लेने का यहाँ यह अर्थ नहीं कि लेखक संपूर्ण विश्व को सिखाने अथवा संदेश देने लायक बन गया, वहाँ यह अर्थ जरूरी है कि वह देश के सुशिक्षितों के सामान्य बौद्धिक स्तर पर पहुँच गया है। मुझे यह देखकर बड़ी लज्जा और कष्ट होता है कि हिंदी के किसी लेखक ने अभी तक अँग्रेजी में हिंदी-साहित्य का कोई ठोस इतिहास अथवा परिचय प्रस्तुत नहीं किया, यद्यपि हिंदी-भाषी प्रांतों में एक दर्जन के लगभग बड़े विश्वविद्यालय और अनेक दर्जन डिग्री कॉलेज हैं। हिंदी के जो विद्वान साक्षात् काव्य साहित्य की सृष्टि में नहीं लगे हैं वे अब तक ऐसा क्यों नहीं कर सके इसका उत्तर मेरी समझ से बाहर है। मेरा अनुमान है कि हिंदी के अधिकांश आलोचक अभी तक अपने को दूसरे समृद्ध साहित्यों के विद्वान् आलोचकों का समकक्ष नहीं समझते और शायद ठीक नहीं समझते, भले ही वे हिंदी-भाषी जनता के सामने अपनी-अपनी बहुज्ञता का दावा तथा प्रदर्शन करते रहे हों। आशा है हिंदी के समीक्षक तथा शिक्षक मेरे इस वक्तव्य को धृष्टता न मानकर चुनौती के रूप में लेंगे। मेरी कामना है कि हिंदी भाषी प्रांतों के बहुत से लेखक अधिकार पूर्वक अँग्रेजी में अपने साहित्य तथा साहित्यकारों की चर्चा करने लायक बन जाएँ। जिस दिन हमारे अनेक लेखक इस योग्य बन चुकेंगे, उस दिन हिंदी की साहित्य-सृष्टि एवं साहित्य-समीक्षा का स्तर अवश्य ही उच्चतर बन गया होगा। उस दिन कोई सहसा हमारे साहित्य पर कटाक्ष करने का साहस नहीं करेगा, और न हम ऐसे कटाक्षों को असहाय मौन के साथ सहन ही करेंगे, जैसा कि अब तक करते चले आए हैं।


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डॉ. देवराज द्वारा भी