कला : एक अंतरीक्षण

कला : एक अंतरीक्षण

काल के कपोल पर स्नेह-सिक्त नेत्र की एक अश्रु-बूँद के सदृश आगरे के ताजमहल की दुग्धधवलता, सर्जन और संहार के प्रतीक नटराज शिव की दक्षिण-भारत की काँस्यनिर्मित मूर्ति की तांडव-मुद्रा की भाव-भंगिमा, अजंता की गुफा के भित्ति-चित्रों में अंकित प्रज्ञाप्राप्त भगवान् बुद्ध का अपनी पत्नी और पुत्र के समक्ष भिक्षार्थ देन्य एवं साम्यभाव प्रदर्शन, वीणा विनिनादित सुमधुर कंठ-स्वर-लहरी, पीयूषवर्षिणी कल्पनामयी वाणी का सुखद श्रवण; बाल-रवि की सुनहली किरणों से आलोकित हिम-कणों की मनोहारिणी छटा तथा शीतल-मंद-सुगंध वासंतिक समीर का मदिर स्पर्श प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में अलौकिक आनंद और आह्लाद का उद्रेक करते हैं और उसकी प्रकृति, सहानुभूति, परिस्थिति एवं संवेदनशीलता के अनुकूल नाना प्रकार की भावनाएँ उद्भूत होती हैं।

यह विश्व वैलक्षण्य तथा विरोधी भावों का एक समष्टि-रूप है जिसके काँटे में पुष्प, अंधकार में प्रकाश, रोदन में हास, संयोग में वियोग एवं विराग में अनुराग है। इसका प्रत्येक अणु-परमाणु एक विशेष सौंदर्य-किरण की ज्योति से दीप्त है जिसके मधुर स्पर्श से स्वत: प्रकाश भी कोमल तथा विनम्र हो निखर जाता है, “इसकी रज को छू प्रकाश बन मधुर विनम्र निखरता।” इस विश्व में तिरस्कार में अभिवादन, अभिशाप में वरदान तथा चिंता में शांति के नैसर्गिक आनंद का स्रोत अविरल रूप से प्रवाहित होता रहता है। आनंद के इस रहस्यमय सर्वव्यापी प्रभाव के परिज्ञान से कलाकार का हृदय द्रवीभूत, कल्पना प्रखर तथा दृष्टि तीक्ष्ण हो जाती है। वह पुष्पों के गान सुनता है और पर्वतों को अँगड़ाई लेते देखता है। उसे शैवाल समूह में चंद्रमुखी की कोमल केश-राशि की अपूर्व छटा का दर्शन होता है :

तापसबाला गंगा निर्मल

शशिमुख से दीपित मृदु करतल,

लहरे उर पर कोमल कुंतल।      –पंत

सौंदर्य की खोज मानव की आदि पिपासा है। भयानक परिस्थितियों में, मृगया और युद्धों में आयुधों का प्रयोग करते-करते जब वह ऊब कर क्षुब्ध हो गया तो उसे एक ऐसी वस्तु की आवश्यकता का अनुभव हुआ जो चिर सौंदर्यमयी हों। सारी संसृति उसे सौंदर्य के प्रतीक के रूप में दीख पड़ी, “अकेली सुंदरता कल्याणि, सकल ऐश्वर्य़ों का संधान!” कलाकार की अनुभूति प्रकृति का सहारा ले नाना रूपों में प्रकट होने लगी, उसके नेत्रों की अश्रुधारा पुष्पों के कपोलों को भिगोने लगी, उसके हास के प्रकाश से घोरतम अंधकार का विनाश हो गया।

काली कलूटी कृषक-बाला कला के आलोक से दीप्त हो मृगेक्षिणी कृष्णकली बन गई :

कृष्ण कली आमितारेइ बलि

कालो तारे बले गाँयेर लोक।

मेघला दिने देखे छिलाम माठे

कालो मेयेर कालो हरिण चोख।

घोमटा माथाय छिलोना तार मोटे

                                        मुक्त वेणी पीठेर परे लोटे।*                   -कवींद्र रवींद्र

कलाकार की दृष्टि ऐहिक सौंदर्य से परितृप्त नहीं होती, वह अतींद्रिय सौंदर्य-परक होती है। जहाँगीर की प्रेयसी नूरजहाँ अनिंद्य सुंदरी थी। उसके रूप-सौंदर्य की अपरिमित महिमा के समक्ष सारा संसार नतमस्तक था। पर वह ऐंद्रिय सौंदर्य दिक् और काल की सीमाओं को पार नहीं कर सका। टैगोर की उर्वशी अमर, सर्वथा अकलुष एवं सौंदर्य की एक अखंड सत्ता है। उसकी कांति से सागर की उत्तुंग लहरें, आकाश के प्रकाशमान तारे तथा प्रकंपित पृथ्वी के अणु-परमाणु अंतर्भासित हैं :

सुर सभातले जबे नृत्य करो पुलके उल्लसि

हे हिल्लोल विल्लोल उर्वशी,

छंदे-छंदे नाचि उठे सिंधु माझे तरंगेर दल

शस्य-शीर्षे सिहरिया काँपि उठे धरार अंचल

तव स्तनहार होते नभस्तले खसि पड़े तारा

अकस्मात पुरुषेर वक्षोमाझे चित्त आत्महारा

नाचे रक्तधारा

विश्व के जड़ और चेतन सभी एक दूसरे से किसी अदृश्य सूत्र में आबद्ध हैं। सभी एक दूसरे की ओर आकृष्ट हैं। सागर का तरंगित हो चंद्रमा को अपनी गोद में धारण करने की उत्कट अभिलाषा, प्रेमिकाओं के सदृश सरिताओं का सागर को आलिंगित करने के लिए उल्लसित हो आगे बढ़ना, लताओं का वृक्ष का सहारा पा लहलहाना, सबों में एक दूसरे के प्रति रहस्यमय आकर्षण है, एक अनुराग है। यही आकर्षण सौंदर्य का पर्याय है। इसी सौंदर्य का व्यक्तीकरण, इसी को कल्पना के उन्मुक्त पंखों द्वारा प्रकट करना कला है। वस्तुत: विश्व में अनुभूति या अनुभूत्याभास की आह्लादमयी चमत्कारपूर्ण मनोहारिणी अभिव्यक्ति का ही नाम कला है। किसी वस्तु का तद्रूप निरूपण या अनुकरण कला नहीं कहला सकती। कला विश्वात्मा की अनुभूति की अभिव्यक्ति तथा निस्सीम सौंदर्य का प्रकटीकरण है। कला सौंदर्य को इंद्रियगम्य और  सौंदर्य कला को मंगलमयी बनाता है।

सौंदर्य कोई भौतिक तथ्य नहीं है। वह पूर्णरूपेण मानसिक व्यापार से संबंध रखता है और वह व्यापार मानसिक या आध्यात्मिक तत्त्व है। हृदय की उन्मुक्त वृत्ति अपने अनुकूल सौंदर्य की कल्पना कर लेती है। जिसका हृदय जितना ही उदार, विशाल एवं विस्तृत होगा उसमें सौंदर्य भी वैसे ही विशाल तथा विशद रूप में उत्पन्न होगा। अर्थात् सौंदर्यानुभूति मानसिक वृत्तियों तथा अंतर की अवस्थाओं से बनती है। मन की जैसी परिस्थिति होती है वैसे ही रूप की कल्पना होती है :

जाकी रही भावना जैसी,

प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

ऐसे रूप-सौंदर्य की उपासना वासनामूलक नहीं वरन् आत्मा को पवित्र, विशद एवं दिव्य बना देने वाली है। वास्तव में रूप-सौंदर्य वहीं अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है जहाँ वह निष्काम सहज आनंद प्रदान करता है। राम-लक्ष्मण के अनुपम रूप सौंदर्य को देखकर विदेहराज जनक भी मुग्ध हो जाते हैं :

सहज विराज रूप मन मोरा,

थकित होत जिमि चंद चकोरा।

सहज सौंदर्य तो आनंद को भी आनंद प्रदान करने वाला है :

सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता, आनंदहु के आनंद दाता।

 

सौंदर्य की अखंड सत्ता समस्त मानव-विकारों से परे, अपने रूप में पूर्ण तथा शाश्वत होती है। रूपजन्य सौंदर्य तथा वासनामूलक आकर्षण क्षणिक होता है। सहज सौंदर्य, “क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया:”–प्रतिपल नवीनता धारण करनेवाला रमणीय रूप है। सौंदर्य स्वयं पाप-वृत्ति की ओर नहीं जाता और वह दूसरों को भी उस ओर जाने से रोकता है, “यदुच्यते पार्वति पापवृत्तये न रूपमित्य-व्यभिचारि तद्वच:”–कुमारसंभव।

जो सुंदर है, वही सत्य है, वही आनंद है, वही कला है। कलाकार परिमार्जित सत्य को सौंदर्य-रूप में परिणत कर उसकी रमणीय अभिव्यक्ति द्वारा कलाकृत्ति की रचना करता है, “अभिव्यक्ति की कुशलशक्ति ही तो कला”–मैथिलीशरण गुप्त। अपनी सर्जनात्मक कल्पनाशक्ति के योग से वास्तुविद् ईंट-पत्थरों से स्थापत्य-कला की, मूर्तिकार काँस्य-प्रस्तरों से मूर्तिकला की, चित्रकार रंग-रेखाओं से चित्र-कला की, संगीतज्ञ स्वर-संधान से संगीत-कला की तथा कवि वाणी-वैदग्ध्य से काव्य-कला की सृष्टि करता है। एक ही अखंड अनुभूति, अनेक प्रकार से व्यक्त हो विभिन्न कला-भेदों की सृष्टि करती है। कला आत्मा की अभिव्यक्ति है और आत्मा एक अविच्छिन्न सत्ता है, अत: कला में भी भेद-प्रभेद का प्रश्न नहीं उठता। भेद-प्रभेद कला के नहीं, वरन् कलाकृत्तियों के होते हैं जो अंतरात्मा के वाह्य रूप हैं। कला में उपकरण की विशेष महत्ता नहीं है क्योंकि कला का सौंदर्य अभ्यंतर सत्य की अभिव्यक्ति में है। वाह्य उपादान उस सत्य को मूर्त-रूप प्रदान करने वाले आधार मात्र हैं।

सत्यानुभूति आश्रयों के अनुसार विभिन्न नामों से अभिहित होती है :

वही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप

हृदय में बनता प्रणय अपार,

लोचनों में लावण्य अनूप;

लोक सेवा में शिव अविकार। –पंत

कलाकार सत्य का उपासक और सौंदर्य का पुजारी होता है। उसकी सौंदर्याभिव्यक्ति में अमरता तथा सत्याभिव्यक्ति में रमणीयता होती है। इस लोक में प्रेमी-प्रेमिका का रूप-लावण्य एवं मिलनोत्कंठा क्षयिष्णु है, पर कलाकार के लोक के प्रियतम-प्रेयसी का रूप-सौंदर्य तथा संयोग-प्रयास चिरंतन एवं अनंत है :

Bold lover, never, never, canst thou kiss,

For ever wilt thou love, and she be fair!  –Keats.

 

कलाकार का सत्य अनंत और उसकी सृष्टि अमर होती है। राम की अयोध्या काल के प्रवाह में निमग्न हो सकती है पर वाल्मीकि की अयोध्या शाश्वत और काल के प्रभाव से सर्वथा मुक्त है :

सेइ सत्य या रचिबे तुमि,

घटे या ता सब सत्य न हे,

कवि, तव मनोभूमि

रामेर जन्मस्थान अयोध्यारचेये सत्य जेनो।[1]   – कवींद्र रवींद्र

परमात्मा सत्यं शिवं सुंदरम् का समष्टि रूप है। आत्मा उसका अंश होने के कारण वह भी इन तीनों विभूतियों से युक्त है। सत्य अनुभूते से समन्वित होने पर सुंदर और सुंदर लोक-हित-रूप में परिणत होने पर मंगलमय हो जाता है। कला में ‘शिव’ अर्थात् कला का चरमोद्देश्य ऐंद्रिय सुख एवं भौतिक आनंद की प्राप्ति नहीं है, अपितु आत्मिक विकास तथा आध्यात्मिक आनंद की उपलब्धि है। कलाजन्य रसानुभूति की अवस्था में मनुष्य का मन स्वार्थमय सांसारिक संबंधों के संकुचित क्षेत्र से ऊपर उठकर लोक-सामान्य-भाव-भूमि पर पहुँच जाता है और अपनी सत्ता को लोक-सत्ता में विलीन कर देता है। उस समय विश्व के समस्त प्राणियों के साथ रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है और सावरणता-निरावरणता, प्रेम-घृणा, रक्षा-विनाश तथा सुंदर-असुंदर सबों में एक ही आनंददायिनी सत्ता की व्याप्तिका अनुभव होने लगती है।

कलाकार का हृदय भावना के कोमल तंतुओं से निर्मित होता है। उसकी हृत्तंत्री के तार सुख की अपेक्षा दु:ख, हर्ष की अपेक्षा शोक तथा संयोग की अपेक्षा वियोग से विशेष रूप से झंकृत होते हैं; सभी रागात्मिका वृत्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं और हृदय दया, कृपा, क्षमा, सहानुभूति, औदार्य प्रभृति भावों से परिप्लावित हो जाता है। दु:ख तथा वियोगजन्य वेदना विश्वकल्याण की भावना के रूप में परिणत हो जाती है। ऐसे समय में जो आह की ध्वनि निकलती है वही मधुरतम गान है :

Our sweetest songs are those

That tell of saddest thought  –Shelley.

 

कविवर पंत ने भी वियोग-प्रजन्य वेदना को कविता की मूलभूत प्रेरणा माना है :

वियोगी होगा पहला कवि

आह से निकला होगा गान,

निकलकर आँखों से चुपचाप,

वही होगी कविता अनजान।   –पंत

 

इसी वेदनामयी आत्मानुभूति को भवभूति ने प्राणभूत रस कहा है। एक करुण रस ही निमित्त-भेद से शृंगार आदि रसों के रूप में पृथक्-पृथक् प्रतीत होता है, “एकौ रस: करुण एव निमित्तमेदाद् भिन्न: पृथक् पृथिगिवाश्रयते विवर्तान्।”

कलाकार की प्रतिभा जीवन की सृष्टि में है। वह जिस मूर्ति का निर्माण करता है, जिस चित्र का अंकन करता है यदि वह सजीव और चैतन्य हो सका, यदि उसके रंग, ध्वनि और रेखा ऐसे रूपों का विधान कर सके जिनके अंगों से किसी आयुध के स्पर्श होते ही रक्त की धारा-सी प्रवाहित होने लगे तो कलाकार की सृष्टि सप्राण कहला सकती है। जो कलाकार अपनी चेतना तथा संजीवनी शक्ति देकर जितना ही अधिक सशक्त, जाग्रत और जीवंत बना सकता है वह उतना ही अधिक उच्च कोटि का कलाकार है।

इस प्रकार सौंदर्यानुभूति की रमणीय अभिव्यक्ति-प्रणाली को कला कहते हैं। जैसे, सूर्य, चंद्र, तारे सर्वप्रथम उत्पन्न हुए वैसे ही मंदिर, गिरजा, मसजिद आदि मानव-सभ्यता के आरंभ में निर्मित हुए। ये मानवीय भावों और अप्रमेय सत्य को प्रकाशित करना चाहते हैं। इनमें मानवीय आकृति नहीं है पर इनके द्वारा मानवीय विचारों, जातीय भावों तथा सभ्यता के विकास-क्रम का द्योतन होता है। ये मिट्टी, पत्थर के अत्यंत स्थूल रूप परम सत्ता की अपार महिमा को अभिव्यंजित कर रहे हैं। इनके भाव की गहराई में न्यूनता है पर व्यापकता में आधिक्य है। इसीलिए वास्तु-कला को घनीभूत संगीत कहा गया है, “Architecture is frozen music”.

–Goethe.

जिस प्रकार स्थापत्य-कला सभ्यता का प्रथम सोपान है उसी प्रकार तक्षण-कला मानवीय-भाव-विकास-क्रम का द्वितीय प्रतिष्ठान है। भव्य भवनों, कीर्ति-स्तंभों तथा देव-मंदिरों के द्वारा मानवीय भावों तथा अनंत सत्यानुभूति की अभिव्यक्ति में जो न्यूनता रह जाती है उसकी पूर्ति मूर्तिकला के द्वारा होती है। मूर्तियाँ प्रस्तर भाव-चित्र हैं। मूर्तियों में अंगों का आनुपातिक समविभाग, क्रिया, भाव-भंगिमा तथा संयत सरलता ऐसे गुण हैं जिनके कारण ये भव्य, सप्राण और जीवंत-सी प्रतीत होती हैं। इस कला के द्वारा समस्त रसों की सर्वांगीण अभिव्यक्ति होती है। इसमें एक साथ ही गांभीर्य, रमणीयता, भावुकता एवं आध्यात्मिकता अंतर्निविष्ट रहती हैं।

सौंदर्यानुभूति को एक विशेष व्यंजक रूप में, एक निश्चित अर्थ में अभिव्यक्ति का प्रयास चित्र-कला है। यह मूर्ति तथा वास्तुकला का विकसित और सूक्ष्मतर रूप है। चित्र-कला में कभी-कभी भाव इतनी सूक्ष्मता और मार्मिकता के साथ व्यंजित होता है कि इसमें भी रस-निष्पत्ति के लिए वास्तविकता का आदर्शीकरण एवं साधारणीकरण होता है। ऐसे चित्रों को देखकर तथा नीरव गान को सुनकर मानव-मन कुछ क्षणों के लिए आत्म-विस्मृत हो जाता है। चित्र की रेखाएँ हृत्तंत्री को झंकृत कर देती हैं। आलेख्य कला में माधुर्य, ओज और प्रसाद तीनों गुण तथा हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, दया, क्षमा प्रभृति भाव अंतर्निहित रहते हैं और यह अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष को देनेवाली है, “कलानां प्रवरंचित्रं धर्मकामार्थ मोक्षदम्।”

चित्र और संगीत काव्य के प्रधान अंग हैं। चित्र भाव को आकार प्रदान करता और संगीत उसे गतिशील, रमणीय एवं प्रेषणीय बनाता है। चित्र शरीर है, संगीत प्राण है। संगीत का प्रभाव विश्वव्यापी है। मनुष्य क्या पशु-पक्षी भी मधुर ध्वनि सुनते ही आनंद में मग्न हो जाते हैं। संगीत की रसमयी स्वर-लहरी अंतर में प्रवेश कर मन की सभी चंचल वृत्तियों को परितृप्त कर देती है। मन कुछ क्षणों के लिए अन्य सभी विषयों से विलग हो एक अलौकिक आनंदमयी अवस्था में तल्लीन हो जाता है।

वस्तुत: काव्य स्वत: संगीत है। काव्य और संगीत दोनों सृष्टि के मूल में हैं। दोनों के इसी सामंजस्य के कारण मानव-हृदय सृष्टि में तारतम्य का अनुभव करता है और विश्व के कण-कण में अनाहत मधुरनाद का श्रवण कर एक दिव्य सर्वव्यापिनी सत्ता के अस्तित्व का आभास पाता है। काव्य में संगीत के सामंजस्य होते ही कवि विश्व के चिरंतन लय से अपना संबंध स्थापित कर लेता है और उसकी आत्मा आनंद एवं शांति के चेतन प्रवाह में विलीन हो जाती है। इस अपूर्ण जीवन को संपूर्णता की उपलब्धि काव्य में ही होती है। चित्र की प्रत्येक रेखा से एक रसमय भाव की व्यंजना होती है और काव्य की प्रत्येक पंक्ति से एक पूर्ण या खंड-चित्र की कल्पना होती है, “Poetry is a speaking picture and picture a mute poetry.”

वाह्य जगत् ज्यों ही अंतर्जगत् में प्रवेश करता है वह एक दूसरे ही जगत् के रूप में परिणत हो जाता है। इस नवीन जगत् में वाह्य जगत् के रूप, रंग, ध्वनि, हर्ष, शोक आदि ही नहीं होते वरन् उसमें कलाकार की अभिरुचि, भय, विस्मय, उत्साह, हर्ष प्रभृति समन्वित हो जाते हैं। इस प्रकार एक ही दृश्यमान् जगत् मानसिक भावनाओं के मिलने से अनेक रूपों में प्रकाशित होता है। अंतर्भावनाओं से संकुलित यह जगत् सर्वथा नवीन, आकर्षण, रमणीय एवं आनंदमय है। द्रष्टा इस नवीन जगत् में अपना स्पष्ट प्रतिबिंब देखता है, हृदय-साम्य का अनुभव करता है और आत्मा की ध्वनि के रूप में सर्वात्म-सत्ता की अमृतमयी ध्वनि को सुनता है। कला-जगत् की अजस्र भावधारा प्रत्येक रसिक हृदय में प्रवाहित हो विषमता का विनाश कर साम्य-भाव का प्रकाश करती है। यह प्रवाह चिर-पुरातन एवं चिर-नवीन है। यह अंतर्भाव-धारा रंग-रेखा-विधान, स्वर-लहरी, शब्द-योजना तथा भाव-भंगिमा के द्वारा अनेक रमणीय मूर्त-रूपों में प्रकट हो विभिन्न कलाओं की सृष्टि करती है।

कलाकार अपनी संजीवनी शक्ति और सौंदर्य-ज्ञान के द्वारा ऐसी सृष्टि की कल्पना करता है जो इस सृष्टि की अपेक्षा विशेष रमणीय और जीवंत होती है। कलाकार की कल्पना उसकी अंतर-प्रेरणा है, जिससे उसकी दृष्टि सूक्ष्म, मन चैतन्य और हृदय विशाल हो जाता है। दिक् और काल की सीमाएँ उसके स्वप्निल आदर्शों की पूर्ति में बाधा उपस्थित नहीं कर सकतीं। अमूर्त भावनाएँ मूर्त और साकार रूप में उसे दृष्टिगत होती हैं। एक कल्पना-मात्र इंद्र लोक की अप्सरा कवि पंत के समक्ष हाड़-मांस की सृष्ट एक नर्त्तकी के सदृश नृत्य करने लगती है :

नग्न देह में सतरंग सुर-धनु

छाया-पट सुकुमार

तड़ित-चकित चितवन से चंचल

कर सुर सभा अपार।

कलाकार की यह विधायिका कल्पना-शक्ति इतनी प्रखर और तीक्ष्ण होती है कि वह केवल अमूर्त और इंद्रिय-अगम्य वस्तुओं को ही मूर्त-रूप प्रदान कर उन्हें निश्चित नाम से अभिहित नहीं करता वरन् एक मूर्तिमान् सत्य पदार्थ को भी सर्वथा नवीन और विशेष महत्त्वपूर्ण रूप में व्यक्त करता है :

“It is the spirit in man that retouches reality in a way and makes possible the rebirth of a higher reality which we call art. The touch of the spirit brings forth the blossoms on the arid wastes of the world–.” Radha Krishnan.

कलाकार लघु और विशाल तथा तुच्छ और महान्, हिमालय और हिमकण सभी वस्तुओं में एक अनंत सौंदर्य सत्ता की निष्ठा का अनुभव करता है और सबों की एक दूसरे में परिणिति की कल्पना करता है। उसके हृदय का द्वार लँगड़े-लूले, रक्षक-घातक, पवित्र-पतित सभी के लिए खुला रहता है। वह राम-रावण, राधा-कुबरी, गाँधी-गोड्से सबों के प्रति समान रूप से सहानुभूति प्रगट करता है। वह पुण्यात्मा का स्वागत और पापात्मा का अवमान नहीं करता। निकृष्टता और श्रेष्ठता का भाव तो हृदय संकीर्णता तथा अज्ञानता का फल है। कला अंतर्ज्ञान की ज्योति है। उसके प्रकाश से आँखों पर पड़ा हुआ आवरण हट जाता है और किसी प्रकार का अहम् भाव नहीं रह जाता। राजकुमार कृष्ण भोली-भाली आशिक्षित व्रजवनिताओं के साथ रासलीला में तन्मय हो उनके एक-एक भ्रूक्षेप पर थिरकने लगता है। युवराज राम एक वनवासिनी भीलनी के उच्छिष्ट बेर में मधुरतम स्वाद का अनुभव करता है।

रसानुभूति की इस अवस्था में विश्व की प्रत्येक वस्तु की सत्ता में हम अपनी सत्ता का और अपनी सत्ता में प्रत्येक वस्तु की सत्ता का अनुभव करते हैं। कला में इसी रागात्मिक वृत्ति का, सारी सृष्टि के साथ आत्मीय संबंध का आभास दीखता है। इसीलिए कला हमारे लिए प्रिय है। इसमें आत्मिक सुख समस्त विश्व का सुख है और समस्त विश्व का सुख आत्मिक सुख है। रामचरितमानस की रचना से तुलसी के ‘स्वांत: सुखाय’ में तुलसी के सुख में समस्त विश्व का आनंद अंतर्निहित है।

आनंदानुभूति की इस अवस्था में हम दूसरों को अपना और अपने को दूसरा समझने लगते हैं। हमें अपनी अनुभूति में ही आनंद का अनुभव होने लगता है। याज्ञवल्क्य ऋषि ने इसकी निम्न प्रकार से सुंदर व्याख्या की है :

न वारे पुत्रस्य कामाय पुत्र: प्रियो भवति,

आत्मनस्तु कामाय पुत्र: प्रियो भवति।

न वारे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवति,

आत्मनस्तु कामाय विप्तं प्रियं भवति।

पुत्र और धन हमें इसलिए प्रिय नहीं हैं कि हम उन्हें चाहते हैं, वरन् हम अपने को चाहते हैं, इसलिए वे हमें प्रिय हैं।

हम: स्वत: पूर्ण नहीं हैं, जिन वस्तुओं में हम अपनी सत्ता से अपने को कुछ विशेष पाते हैं, अर्थात् जो वस्तुएँ हमारी-पूर्ति के रूप में हैं, वे हमारे लिए प्रिय हैं। हमारी पूर्ति किसी एक विशेष वस्तु से नहीं होती, जड़-जंगल, पशु-पक्षी सबों के समन्वय से होती है। इसीलिए यह सारा विश्व ही हमारे लिए सुंदर और प्रिय है :

प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,

तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,

सुंदर अनादि शुभ सृष्टि अमर।   –पंत

कला इसी ‘सुंदर अनादि शुभ सृष्ट’ के अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। अरस्तू ने कला को प्रकृति की अनुकृति कहा है। पर कला प्रकृति की अनुकृति नहीं है क्योंकि कला में जो है वह प्रकृति में नहीं है। प्रकृति अपूर्ण और माया-मात्र है, कला पूर्ण और सत्य है। प्रकृति विश्वात्मा की एक झलक है, कला उसकी अभिव्यक्ति है। कला प्रकृति की अपेक्षा विशेष सुशृंखल तथा भावप्रधान है। यह किसी की अनुकृति नहीं वरन् स्वत: एक सृष्टि है।

कला, कलाकार के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। इसमें कलाकार के वास्तविक और काल्पनिक दोनों रूपों का सुखद समन्वय होता है। नहीं तो, केवल वास्तविक रूप नीरस और केवल काल्पनिक रूप व्यर्थ होता है। दोनों के समन्वित रूप की अभिव्यक्ति-स्वरूप कला सार्थक, सरस तथा रमणीय होती है।


* जिस कृषक कन्या को ग्राम के निवासी काली कहते हैं, मैं उसे कृष्ण कली कहता हूँ। एक दिन जब आकाश मेघाच्छन्न था मैंने खेत में उसके हरिण के समान नेत्रों को देखा। सिर पर घूँघट एकदम ही नहीं था। मुक्तवेणी फीठ पर लोट रही थी।

आई उर्वशी, जब तुम देवताओं की सभा में पुलकित तथा उल्लसित हो चंचलता के साथ नृत्य करती हो, तब सागर के मध्य में तरंगों का समूह छंद-छंद में, नियमित गति से नाच उठता है। पृथ्वी का अंचल प्रकंपित हो उठता है और हरे-भरे अन्न के पौधे सिहरने लगते हैं। तुम्हारे स्तन के हार के दाने निकलकर तारों के रूप में बिखर जाते हैं। अकस्मात् पुरुष आत्मविभोर हो जाता है और उसके वक्षस्थल में रक्त की धारा नाचने लगती है।

[1] हे कवि, तुम्हारीही रचना सत्य होगी। जितनी घटनाएँ घटती हैं वे सब सत्य नहीं होतीं। तुम्हारी मनोभूमि राम के जन्मस्थान की  अपेक्षा विशेष सत्य है।


Image: The Musical Mode Todi
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