कला का भाव-स्रोत

कला का भाव-स्रोत

 कला का मूल है मनुष्यत्व। मनुष्यत्व की सिद्धि तर्क का प्रसंग नहीं है–तर्क में इतना तात्विक सामर्थ्य नहीं है। जिज्ञासा की सांत्वना तक ही उसका अधिकार है। जीवन की गहराई में विद्रोह की जो अनंत तरंगें क्षण-प्रतिक्षण उठा करती हैं, तर्क उन्हें संतुष्ट करने में असमर्थ है–यहाँ तक उसका प्रवेश ही नहीं है।

मनुष्यत्व की सिद्धि का मूल-बिंदु व्यक्ति की अनुभूति है। अनुभूति के बिंदु से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की रेखाएँ बनती हैं। व्यक्तित्व ही जीवन का मापदंड है। मनुष्यत्व के विभिन्न स्तरों की सूचना व्यक्तित्व का बेरोमीटर ही देता है। व्यक्तित्व ही मनुष्य की अपनी मौलिकता है, जो उसे अपने पड़ोसी से अलग अस्तित्व देता है–भिन्नता और असाम्य का द्योतक भी यही है। यही कारण है कि एक व्यक्ति के कार्य-कलाप दूसरों से इतने भिन्न होते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की कर्म-चेष्टा में उसके व्यक्तित्व की छाप रहती है। वाणी के प्रत्येक शब्द में, कर्म की प्रत्येक प्रेरणा में और अंत:करण के प्रत्येक आंदोलन में व्यक्तित्व के ये अनंत अग्नि-स्फुलिंग एक ही अंगारे के अंश हैं। यह अंगार है मनुष्यत्व, जो इन सब अग्नि स्फुलिंगों की मूलगत प्रेरणा है। अनेक में एक और वैषम्य में साम्य की यही शृंखला है–कला व्यक्तित्व की इन बिखरी हुई कड़ियों को जोड़ती है, अनैक्य में ऐक्य का साक्षात्कार करती है । यही उसका प्रयोजन है, यही उसकी सिद्धि है।

मनुष्यत्व की साधना का क्षेत्र जीवन का संघर्ष है। कर्म क्षेत्र के संघर्ष को स्वीकार करने में ही उसकी उपलब्धि निश्चित है। जीवन से कायरता पूर्वक पलायन के द्वारा उसे उपार्जित नहीं किया जा सकता। मनुष्यत्व की साधना के लिए जीवन के संपर्क की अपेक्षा है। हिमालय की निर्जन गुफाओं में अथवा जीवन के एकांत में मनुष्यत्व की साधना असंभव है। यही कारण है कि कलाकार जीवन से भयभीत नहीं हो सकता–वह संघर्ष के सामने पराजय स्वीकार नहीं करता । अमिय गरल रूपी जीवन के घूँटों को वह निर्भय होकर पी पाता है। क्योंकि वह जीवन की उपेक्षा नहीं करता, कर्मक्षेत्र के सत्य की अवहेलना नहीं करता। उसके सुख-दु:ख की छाया उसके अंत:करण का स्पर्श करती है, उसकी प्रेरणाओं पर उसका असर होता है। वह अपने आसपास के कोलाहल को अपने अंत:करण से परे नहीं रख सकता। कर्म के रंगमंच का चाहे वह पात्र न हो, किंतु पात्रों के साथ उसकी प्रगाढ़ सहानुभूति है, अभिनय के प्रति उसमें परिपूर्ण रसमग्नता है। कारण, वह स्वयं एक जाग्रत मनुष्य है। उसकी चेतना प्रबुद्ध है। वह जीवन के मर्म का अन्वेषक है। कला इस अन्वेषण की प्रणाली है। मनुष्यत्व को मूर्तरूप देने का साधन है। कलाकार और शेष जगत के बीच में कला ही एकमात्र संपर्क-सेतु है। अपने से बाह्य जगत का संबंध कला के प्रश्रय पर ही निर्भर है। यही कलाकार की निर्लिप्ति और आसक्ति का रहस्य है। निखिल जीवन के साथ उसकी आसक्ति है, अनुरक्ति है, किंतु उसकी प्रेरणा का स्रोत अनुभूति मात्र ही है, मोह नहीं है। क्योंकि मोह में चैतन्य नहीं, जड़ता है।

मनुष्यत्व की साधना का आधार है प्रेम, जीवन के प्रति श्रद्धा। प्रेम और श्रद्धा में विच्छेद एवं विग्रह का भाव नहीं–यहाँ विक्षेप और वर्गीकरण नहीं होता। सहानुभूति और समन्वय ही इस धारा के दो किनारे हैं, जिनसे मर्यादित होकर जीवन की मंदाकिनी बहती है। भारतीय दर्शन में इसे ही ‘ऐक्यम्’ अथवा अद्वैत कहा है, जहाँ कर्म एवं ज्ञान अन्योन्याश्चित हो जाते हैं। कला का अद्वैत भावना-क्षेत्र का ऐक्य है, जिसकी प्रेरणा है सौंदर्य। सौंदर्य का भाव चराचर व्यापी है, अनंत है और प्राकृतिक है। कलाकार अपनी कला में सौंदर्य को ही मूर्त करता है–अनंत सौंदर्य को वह अपने दृष्टि बिंदु में बंदी बना लेता है, अपने क्षणभंगुर अवलंबन के भीतर वह शाश्वत और सनातन सौंदर्य की आत्मा का साक्षात्कार करता है। अपने आसपास फैले नश्वर जगत के क्षणिक आकर्षण को वह अपने प्राणों का अमरत्व देकर अनश्वर बना देता है। यही मृत्यु से अमरत्व की ओर प्रगति है। कला की यही सिद्धि है । यहीं कलाकार की कला में इतनी सामर्थ्य होती है कि वह हमारे भीतर प्रस्तुत सौंदर्य को जाग्रत करती है और शेष संसार के साथ जो हमारा संबंध विच्छिन्न हो गया है उसे वह फिर जोड़ देती है। कलाकार और कला के उद्देश्य की यही चरितार्थता है। क्योंकि कला जीवन के विस्तार को संकीर्ण नहीं करती, उसे निर्बेध और विस्तीर्ण करती है । देश-काल की क्षुद्र सीमाओं में आबद्ध जीवन यदि कला की प्रकाश रेखाएँ छूकर सीमातीत नहीं बना, तो कला के साथ कलाकार के ध्येय की भी पूर्ति नहीं हो पाई है–यह निर्विवाद सत्य है । कला चैतन्य की प्रेरणा है, चैतन्य सीमा से निर्वेध है। यही कारण है कि कला जीवन को सीमित न करके अनंत करती है, नए वैभव, नई समृद्धि और नए सौंदर्य से उसे परिपूर्ण कर देती है।

उपनिषदों में बताया है कि आनंद से सृष्टि की उत्पत्ति हुई, आनंद में ही उसकी गति-अनुगति है और आनंद में ही उसका पर्यवसान हो जाता है। कला की सृष्टि की भी यही शर्त है–आनंद से ही उसका उद्गम है और आनंद में ही उसकी सिद्धि है। सृजन के समस्त प्रयत्नों की यही प्रेरणा और उसका साध्य भी यही रहता है। यह आनंद, जैसा कि आज के जड़वादी विचारक समझते हैं, भौतिक जीवन की आवश्यकताओं की सृष्टि नहीं करता–कला ने कभी भौतिक सुविधाएँ नहीं जुटाईं। कला का आनंद हमारे भावजगत के दैन्य का ही निराकरण करता है। केवल हमारे अंत:करण की तृषा को ही उससे सांत्वना मिलती है–बाह्य-जीवन के अभावों की पूर्ति का वह साधन नहीं है। कला हमारे जीवन की कुरूपताओं और कार्पण्य को काट-छाँटकर बराबर बना देती है–हमारी भावनाओं में पाशविकता और अमानुषिकता के विकार लिपट जाया करते हैं, कला उनका परिमार्जन करने की क्षमता रखती है। हमारी आत्मा के तिमिराच्छन्न गह्वरों में प्रवेश करके वह हमारे समस्त अंतर्जगत को देदीप्यमान बना देती है।

आज के भौतिक विज्ञान ने यह साबित कर दिया है कि मनुष्य अनंत रहस्यों का आगार है, उसकी शक्तियाँ अनंत हैं। हमारे भीतर का यह अनंत आत्माभिव्यक्ति के लिए छटपटाता है–आत्म-प्रकाश के लिए व्याकुल रहता है, क्योंकि प्रकाश में ही आनंद है, पूर्णता है। निराकार की सबसे पहली प्रेरणा आकार ग्रहण करने की होती है–कला का सृजन इसी प्रेरणा से होता है। कलाकार हमारी निराकार भावनाओं को आकार देता है, कला के ये आकार फिर द्रष्टा या श्रोताओं के मन में निराकार भावनायें पैदा करते हैं। आकार और निराकार का यह परस्पर आदान-प्रदान है। कलाकार दोनों को अपनी अनुभूति के स्पर्श से जोड़ देता है। दो जगत एक दूसरे के पर्याय बन जाते हैं। भारतीय दृष्टिकोण से यही समन्वय की चेष्टा है। निराकार और साकार का सारा वैषम्य और विरोध तिरोहित हो जाता है, तथा परिणाम में एक ऐसा भाव शेष रह जाता है जिसका पर्यवसान आनंद में ही होता है। इस प्रकार, संक्षेप में कला साकार एवं निराकार के सामंजस्य का प्रयत्न है, हमारे अंतर्जगत और बहिर्जगत का सेतु है।

मनुष्य स्वभाव से स्रष्टा है। उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति के मूल में सृष्टि के रहस्योद्घाटन का प्रयत्न रहता है। पैदा होते ही मनुष्य अपने आसपास के चराचर जगत को जिज्ञासा के रूप में ग्रहण करने लगता है। सृष्टि के प्रति मनुष्य की यह प्रश्न वाचक जिज्ञासा अनंत-कालीन है। वस्तुत: जीव एवं जगत के अन्योन्याश्रय संबंध का मूलाधार यह तृषाकुल जिज्ञासा ही है। जिज्ञासा ही मनुष्य को कर्म-क्षेत्र में ढकेलती है। हमारी समस्त कर्मचेष्टा का आवेग जिज्ञासा से ही प्रसूत होता है। हमारे धर्मशास्त्र, दर्शन, कला, साहित्य-सृजन एवं वैज्ञानिक आविष्कार सब जिज्ञासा की अनंत-कालीन तृषा के ही परिणाम हैं। ये सब प्रवृतियाँ अपने वैयक्तिक रूप में जुदा-जुदा अवश्य हैं; किंतु सबकी मूलगत प्रेरणा एक ही हैं–प्रवाह विभिन्न हैं, किंतु सबका पर्यवसान एक ही लक्ष्य-बिंदु में होता है। जीवन की अपूर्णता को भरने में ही सबकी सिद्धि है। कला की अनुभूति में जो रसार्द्रता है उसकी समता योगियों के ब्रह्मानंद से ही की गई है। जीवन के प्रश्नों का उत्तर कला में जिस प्रकार व्यक्त होता है, दर्शन और विज्ञान उस परिधि तक पहुँच नहीं सकते। कलाकार की अनुभूति का एक क्षीण स्पर्श ही हृदय में जीवन की वह स्फूर्ति उड़ेल देता है जिसकी प्रेरणा से जीर्ण शिराओं में नया प्राण हिलोरें लेने लगता है और व्यक्ति के दृढ़ संकल्प से टकरा कर जीवन के संताप छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। सृष्टि अनंत पहेली निरावरण होकर अपनी यथार्थता में मूर्त्त हो उठती है और दैनिक जीवन के भौतिक अभावों से संतप्त व्यक्ति तल्लीनता का वरदान पाकर ऐसे शांति-शृंग पर खड़ा हो जाता है जहाँ से संकीर्णता से मुक्त जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म असलियत को हृदयंगम कर सकता है। यही कला का सम्मोहन है–दिव्य दृष्टि है, जो मनुष्यत्व के दर्शन कराती है और मनोवृत्तियों से संकीर्णता के सघन स्तरों को हटाकर उनमें प्रकाश की नई रेखाएँ भरती है एवं उस सत्य की ओर हमें ढकेलती हैं जिसे आत्मसात् करके हम अपने स्वयं से परिचित हो सकें। यह नई दृष्टि बैर-प्रीति, सुख-दु:ख, जीवन-मरण आदि विशृंखल तारों को एक स्वरैक्य में इस तरह बाँध देती है कि सारा चराचर जगत एक ही सत्य की हलचल ज्ञात होने लगता है। जीवन के अर्थों की सारी बिखरी कड़ियाँ परिपूर्ण समन्वय के एक ही सूत्र में आबद्ध हो जाती हैं और हमें जीवन की समग्रता के दर्शन होने लगते हैं। इस परिष्कार और समृद्धि के द्वारा ही कला मनुष्यता के स्तर को उत्तरोत्तर ऊँचा उठाती रहती है।

कला जीवन को प्रतिबिंबित करती है। प्रत्येक राष्ट्र का अंत:करण, संस्कृति और आकांक्षाएँ कला के माध्यम से ही व्यक्त होती हैं। एक स्वाधीन और निर्बंध देश की भावनाएँ स्वस्थ होती हैं, अत: उसकी कला में भी स्वास्थ्य और शक्ति का सौंदर्य उद्दीप्त रहता है। इसके विपरीत पराधीन अथवा जीवन की प्रगति में पंगु राष्ट्र की कला निर्जीव और तेज-हीन होती है। कला का क्षेत्र अनंत है। देश-काल के सीमित दायरे में बंदी कला में भावना का स्वस्थ और स्वतंत्र प्रतिबिंब नहीं होता। कला अंतर्राष्ट्रीय और सार्वभौम है। विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में उसकी प्रगति किसी राष्ट्र अथवा स्थान विशेष तक ही सीमित रहती है। किंतु ज्यों-ज्यों कलाकार का दृष्टिकोण परिपक्व होता जाता है, त्यों-त्यों उसके देश काल के बंधन भी टूटते जाते हैं और भावनाएँ उन्मुक्त होकर सार्वभौम प्रेरणाओं को आत्मसात् करने लगती हैं। यहाँ कला भारतीय वेदांत के सर्वात्मवाद को प्रमाणित करती है। भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार कला आत्मा की भाँति ही अजर-अमर एवं सार्वभौम होती है! कला के प्रस्फुरण का संबंध मनुष्य की आत्मा से है। प्रत्येक व्यक्ति में कला की प्रेरणा प्रसुप्त रहती है। विकासोन्मुख मनोवृतियों का प्रोत्साहन पाकर इस प्रगूढ़ प्रेरणा-स्रोत से कला का स्फुरण होता है। कालिदास ने इसी सत्य की ओर निर्देश करते हुए लिखा था–

रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्यशब्दान्
पर्युत्सुकी भवति भत्सुखिलोऽपि जंतु:
सच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्वम्
भावस्थिराणि जननान्तर सौहृदानी

ऋग्वेद में कवि को ‘सूर्यचक्षु’ कहा है। वह प्रकाश भी करता है और स्वयमेव प्रकाशित भी है। वह द्रष्टा और स्रष्टा दोनों है। वैदिक शब्दावली में ‘कवि’ का शाब्दिक अर्थ ‘मुनि’ है जिसमें भविष्य-द्रष्टा की सामर्थ्य होती है। द्रष्टा के साथ स्रष्टा की शक्तियों को सम्मिलित करके वैदिक वाङमय में कवि को देवताओं की कोटि में परिणत कर लिया गया है। इस मृत्यु पर विजय कला की अंतिम सिद्धि है। मृत्यु के स्पर्श से वर्तमान अतीत में परिवर्तित हो जाता है; किंतु यह अतीत देश, काल एवं स्थिति की दृष्टि से मर कर भी कला के कर्तृत्व में जीवित रहता है। कला की आत्मा अखिल विश्व की आत्मा के साथ एकरूप है और जब तक जगत की स्थिति है, यह सदैव अविच्छिन्न, एकरूप एवं अखंड रहेगी!
कला जीवन को प्रतिबिंबित अवश्य करती है किंतु इस रूप में नहीं जिस रूप में जलाशय आकाश को प्रतिबिंबित करता है। कला अपने बिंब में अर्थ और मान्यताएँ भरती है; उसकी अभिव्यक्ति करती है! कला वस्तुओं का यथार्थ रूप नहीं चित्रित करती–वह हमें अपने विषय के अंग-प्रत्यंग से परिचित नहीं कराती। इसके विपरीत वह यह समझाती है कि उस विषय के प्रसंग में हृदय की अनुभूति क्या है। चर्म-दृष्टि रेखाओं का जो आकार देखती है, हृदय उसमें भावनाएँ भरकर उसे सजीव बना देता है; कला जीवन को इसी रूप में प्रतिबिंबित करती है। शरीर के बाह्य अंग-प्रत्यंग का फोटोग्राफिक बिंब देकर वह अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर लेती, किंतु उसकी प्रेरणाएँ आंगिक रेखाओं में अनुभूति की रंगीनी भरती है और ऐसा प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है कि जिससे द्रष्टा या श्रोताओं के हृदय में भी तदनुरूप अनुभूतियाँ जाग्रत हो उठें। इसीलिए उपनिषदों में कवि को ‘कविरहि मधु-हस्त्या:’ (कवि मधुर-हाथों वाला होता है) कहा है।

कला की उपयोगिता का भी रहस्य यही है। “जनता की उपयोगिता” के नाम पर उसे अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। भौतिक अभावों की पूर्ति भी कला की शर्त नहीं हो सकती। कला का संबंध हमारे भावपक्ष से है और वही उसकी उपयोगिता का कर्मक्षेत्र है। पाश्चात्य देशों में, विशेष कर कम्युनिस्ट और फासिस्ट विचारधारा को अपनाने वाले व्यक्तियों ने अपने प्रचार से उस समस्या को काफी अस्पष्ट और जटिल बना दिया है। उनके विचार- स्रोत का उद्गम ही इस भ्रांति से होता है कि वे व्यक्ति को स्रष्टा और सृष्टि का अंग नहीं मानते, व्यक्तित्व में जो सृजनशील संभावनाएँ हैं, उनकी वे पूरी उपेक्षा करते हैं। उनकी दृष्टि में समाज या राज्यसत्ता ही सब कुछ है। सारा सृजन समाज या सत्ता से ही होना चाहिए। वैयक्तिक प्रेरणाओं की अवहेलना करते हुए वे सामूहिक भावनाओं को ही सर्वोपरि महत्त्व देते हैं। किंतु कला का स्फुरण स्रोत व्यक्ति ही है। अपनी अनुभूति की जाग्रति ही कलाकार को कलासृष्टि के लिए प्रेरित करती है। अपने हृदय की भावनाओं के प्रवाह में ही वह सबसे पहले बहेगा, समाज की सामूहिक भावनाएँ उसे स्पर्श नहीं करेंगी और जब वे उसका स्पर्श भी करेंगी तो उसकी अपनी निजी अनुभूतियाँ बन जाएँगी।

इस विवेचन का यह अभिप्राय नहीं है कि कला सामाजिक अथवा नैतिक मान्यता में हीन हो। नैतिक मान्यता का संबंध कलाकार के अपने व्यक्तित्व से है, क्योंकि कलाकृति कलाकार के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति ही होती है। महान् व्यक्तित्व से महती कला ही प्रसूत होगी, भावुक व्यक्तित्व भावप्रवण कला की ही सृष्टि तक सीमित रहेगा, अभद्र व्यक्तित्व निम्नकोटि की कलाकृतियाँ ही प्रस्तुत करेगा। संक्षेप में, नैतिकता और कला का यही संबंध है। अत: नैतिकता किसी तानाशाह या प्रचारक की ‘सनक’ के अनुसार कलाकार पर ऊपर से थोपी नहीं जा सकती। कलाकार के अंत:करण की प्रकृति का विकास अभिव्यक्ति अनुसार भीतर से ही होना चाहिए। कलाकार की नैतिक महत्ता अपनी अर्जित संपत्ति है–अपनी कला में प्रयत्न करने पर भी वह उसे अव्यक्त नहीं रख सकता। ऊपर से ओढ़ा हुआ है ‘कोड’ तो कृत्रिम है, मृत है, टैगोर के शब्दों में ‘मानस-कारा’ है।

इसी प्रकार कला का वर्गीकरण भी नहीं हो सकता। किसी ‘वाद’ की सीमा में उसे बंदिनी नहीं बनाया जा सकता। कलाकार जिन अनुभूतियों का चित्रण करता है वे मानव-मात्र में समान होती हैं। सारी मानवता के महान आदर्शों का शिलान्यास उन्हीं अनुभूतियों से हुआ है। अमर कलाकार पिकासो ने इसी भाँति की चर्चा करते हुए कहा है–
“जीवन के अनुरूप ही चित्रकला में भी अभिव्यक्ति होनी चाहिए। हमें वस्तुओं का भेद-प्रभेद नहीं करना होगा। जहाँ जीवन का सवाल है, वहाँ वर्ग विभक्ति कैसी?”

कला समाज की उपजीव्य है और समाज कला का। दोनों के संबंध को अस्वीकार करना आत्म-भ्रांति है। कला वस्तुत: समाज के सुस्वास्थ्य की जीवन-शक्ति है। जिस समाज में कला के कर्तृत्व स्रोत सूखा है वह समाज रोगग्रस्त है। जीवन के रसोद्रेक के लिए वहाँ कला की सृष्टि अपेक्षित है; क्योंकि कला ही हमारे मनुष्यत्व का परिष्कार करती है। हमारी कुंठित प्रेरणा-शक्ति कला का स्पर्श पाकर ही क्रियात्मक अभिव्यक्ति का आकार ग्रहण कर लेती है। कला की यही सबसे बड़ी उपयोगिता है।


Image: The Artist’s Brother James, Holding a Candle
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Artist: George Romney
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रतनलाल जोशी द्वारा भी