कवि का शांति-पथ

कवि का शांति-पथ

“इसी पूर्ण और सार्वभौम मानव की परिकल्पना में, उसे चरितार्थ करने वाले क्रियाकलापों में सत्य का प्राणवान सक्रिय रूप प्रकाशित होता है।”

शांतिनिकेतन एक द्रष्टा कवि का दिखाया हुआ शांति-पथ है। कवि आज जो कुछ सोचता अथवा करता है, मानव समाज अनागत भविष्य में उसी का अनुसरण किया करता है। कवि को इसीलिए मानव समाज का नियंता कहा जाता है। किंतु दुर्भाग्य आदमी का इसी जगह है कि वह कवि के निर्देश, उसके स्वप्न और उसकी आवाज को सुनकर भी अनसुनी कर देता है।

हमारे युग में कविगुरु रवींद्रनाथ ने बार-बार अपने विशिष्ट स्वर में जीवन की सर्वांगीण सार्थकता प्राप्त करने का आदर्श दुहराया था। इसी सार्थकता में समग्र मानव सामाज का सामंजस्य, सम्मिलित संगीत की मंगल ध्वनि की आवाज या आश्वासन छुपा है। इसी सामंजस्य और समवेत मंगलगान के अंतर में सत्य की पूर्णता भी व्याप्त रहती है, सौंदर्य की प्रेरणा भी।

धर्म में मनुष्य के सबसे सुंदर, सबसे उदात्त सपने छुपे होते हैं, इसीलिए वह उसके जीवन का सर्वोपरि सत्य माना जाता है। किंतु धर्म को अपनी चरम सार्थकता उसी समय प्राप्त होती है जब उसमें एक ओर प्रकृति और पुरुष का पूर्णतम गठबंधन संपन्न होता है और दूसरी ओर मनुष्य तथा मनुष्य की भावनाएँ दोनों एक दूसरे के प्रेम-पाश में आबाद्ध हो जाएँ। अतएव जहाँ कहाँ भगवान की मानवीयता और मनुष्य की भगवती शोभा व्यक्त होती है वहीं हमें धर्म का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य वहाँ सीमाहीन, व्यापक, पूर्ण और सार्वभौम मनुष्य होता है। यही कबीर सा ‘बेहकी’ मैदान है। धर्म का अर्थ इसी अर्थ में सार्थक है कि वह पूर्णता तक पहुँचने वाले सेतु का निर्माण करता है। मनुष्य के अंदर सोये हुए पूर्ण ‘पुरुष’ को जगाता है।

इसी पूर्ण और सार्वभौम मानव की परिकल्पना में, उसे चरितार्थ करने वाले क्रियाकलापों में सत्य का प्राणवान सक्रिय रूप प्रकाशित होता है। इस प्रकार से सारे बंधन शिथिल होकर दूर होते हैं। फिर वे बंधन राजनीतिक हों या आर्थिक, सांसारिक हों या भौगोलिक। इसी मुक्ति से मनुष्य शांति की उपलब्धि करता है।

वस्तुत: शांतिनिकेतन कवि का ऐसा ही एक प्रयोग है जिसमें शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में कवि ने इसी निर्विशेष पूर्ण मनुष्य के विकास की साधना करनी चाही थी। उसकी हवा में यही आदर्श बसा हुआ है। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य भी ऐसे ही वातावरण की सृष्टि करता है जहाँ पूर्णता और शांति की ओर छात्रों का चित्त सहज भाव से बढ़ सके। इसीलिए यहाँ विरोध को स्थान नहीं मिलता। शिल्प और विज्ञान, नगर और ग्राम, पूर्व और पश्चिम, कुलीन और अंत्यज के विरोध के लिए यहाँ अवकाश ही नहीं है। आदर्श और व्यवहार यहाँ मिलजुलकर रहना चाहते हैं। शांतिनिकेतन प्रकाश के उस उज्ज्वल शतदल की तरह है जिसमें जीवन के समस्त पहलुओं की सार्थकता छुपी हुई है और जो पूर्णता की खुशबू फैलाने का प्रयास कर रहा है। स्वार्थ की गंध से जब दम घुटता हो तब शांति निकेतन का अस्तित्व मनुष्य के सौभाग्य की घोषणा करता है!

शांति इसी परिपूर्णता का दूसरा नाम है। शांति में वर्जन को जगह नहीं। वह जीवन के तत्वों को छोड़कर नहीं, उनके सहित पूरी होती है। कवि गुरु इसी से संसार-त्यागी नहीं थे। वैराग्य-साधन से प्राप्य मुक्ति को उन्होंने छोड़ दिया था। वे शत-लक्ष बातियों में जीवन-ज्योति जगाना चाहते थे। प्रेम को इसीलिए उन्होंने गले लगाया। जो प्रेम के पारस को पा लेता है उसके लिए क्या खरा और क्या खोटा। प्रति अणु परमाणु को वह अपने जादू से छूकर महान बना देता है। यह शक्ति प्रेम में ही होती है। इसीलिए प्रभु को प्रेममय कहा गया है।

हमारे संघर्षमय, द्वेषमय मानव समाज के लिए कवि ने जो औषधि दान की है वह है सार्वभौम निर्विशेष मनुष्य के प्रति प्रेम की भावना। यह मनुष्य न इस देश का है न उस जाति का, न इस हैसियत का है न उस खासियत का। वह मामान्य मनुष्य है जो एक ही आशा-आकांक्षा से बना है, एक ही पूर्णता का प्रत्याशी है।

संसार का सबसे बड़ा दोष अगर कुछ है तो वह जो खंड को पूर्ण से विच्छिन्न करता है। जब एक अपने लाभ के लिए सर्वजन की लाभ-चिंता को भूल जाता है, जब वह व्यापक मंगल में ही अपना मंगल नहीं देखता, बल्कि अपने लाभ को चुराना चाहता है, जब वह एकांगी होकर शिल्प, विज्ञान अथवा व्यवहार शास्त्र के किसी एक ही पहलू को सर्वोपरि समझता है, तभी वह मानव जीवन के साज संगीत को बेसुरा कर देता है। स्वर की पूर्णता संहति में है, विश्लेषण में नहीं।

इसीलिए पुराकाल के महान साधकों के समान शांतिनिकेतन भी पूर्णता की साधना में शांति के आनयन के लिए परम पूर्ण का आह्वान करता है अपने ज्ञान में, कर्म में, भाव में, व्यष्टि में भी और समूह में भी। धर्म और मंगल का सूत्र ही एक मात्र वह बंधन है जो सब को एक करता है। शांति की संस्थापना है। शांतिनिकेतन उसी धर्ममय की उपासना करना चाहता है, जो बहु वर्णों में भी एक है, जो अपनी बहुल शक्ति के द्वारा मनुष्य मात्र का भरण-पोषण करता है, जो आदि में भी है और अंत में भी, जो भागवत है, हम उसी के निकट प्रार्थना करते हैं कि वह हमारा मंगल सिद्ध करे, हमें सबके साथ कल्याण पथ की ओर प्रेरित करे।


Image: Rabindranath Tagore unknown location
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