कवि पंत की काव्य-साधना

कवि पंत की काव्य-साधना

आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में कोमल प्राण कवि सुमित्रानंदन पंत की देन किसी भी दूसरे बड़े कवि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं। यदि छायावाद का उन्मेष निराला की ‘जुही की कली’ (1916 ई.) से माना जाए और उसका उच्चतम शिखर प्रसाद की ‘कामायनी’ (1936 ई.) को कहें तो उसके बीच की मंजिलें निस्संदेह पंत की कविताओं में दीख पड़ेंगी। इतना ही नहीं, छायावाद की रूपरेखा को स्पष्ट करने और उसे लोक-स्वीकृति दिलाने का श्रेय भी बहुलांश में पंत जी को है। निराला, अवश्य ही, छायावाद के उन्नायक रहे और प्रसाद उसके आदरणीय अभ्यागत; पर छायावाद की समस्त उपलब्धियों और सीमाओं का पूर्ण प्रतिनिधित्व पंत ने ही किया। यही कारण है कि अनेक आलोचकों की छायावाद-विषयक स्थापनाएँ केवल पंत के काव्य पर ही अवस्थित हैं। और जिस प्रकार छायावाद के प्रवर्तन-काल में पंत जी उसके एक प्रमुख प्रवक्ता रहे, उसी प्रकार उसकी सीमाओं के प्रति सबसे पहले असंतोष भी उन्हीं के द्वारा व्यक्त किया गया। यहाँ तक कि पंत जी के ‘युगांत’ के प्रकाशन पर ही श्री इलाचंद्र जोशी ने छायावाद के विनाश की भविष्यवाणी भी कर दी थी। इसी प्रकार जब नई कविता के आंदोलन ने हिंदी साहित्य में बल पकड़ा, पुराने महारथियों में सबसे अधिक स्नेह और आस्थायुक्त आशीर्वाद उसे पंत जी से ही प्राप्त हुआ। यह उनके गतिशील व्यक्तित्व और सृजन-सामर्थ्य का प्रकृष्ट प्रमाण है।

छायावाद प्राचीन रूढ़ि-रीतियों, सामाजिक और साहित्यिक मान्यताओं के प्रति विद्रोह का शंखनाद करता आया था। आरंभ में कुछ लोगों ने इस विद्रोह को पश्चिम के रोमांटिक काव्य का अनुकरण माना। पर यह किसी पश्चिमी भावधारा की नकल नहीं था, इसका प्रमाण यही है कि यह विद्रोह-भावना छायावाद के प्रजापतियों–पंत और निराला–में उस समय भी वर्तमान थी, जब उनका पाश्चात्य साहित्य से नाममात्र का परिचय भी न था। वर्तमान के प्रति तीव्र असंतोष और विद्रोह का कारण कदाचित् तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में ढूँढ़ना अधिक समीचीन होगा। निराला जी की पहली कविता ‘जुही की कली’ की चतुर्मुखी नवीनता तो हिंदी में पर्याप्त चर्चित हो चुकी है। पंत जी की इसी के आस-पास की एक कविता है ‘तंबाकू का धुआँ’। यद्यपि यह पंतजी के विद्यार्थी-जीवन की रचना है और स्वभावतया इसमें भाषा और भावाभिव्यक्ति का कच्चापन भी उसी अनुपात में सुलभ है, लेकिन इसमें उनके भावी काव्य विकास का बीज वर्तमान है। तंबाकू के धुएँ को कवि ने एक स्वाधीनता-प्रेमी के रूप में चित्रित किया है, जो लोगों के प्यार भरे बंधन की उपेक्षा कर बरबस आकाश की अनंत नीलिमा में खो जाना चाहता है। पंत जी की प्रारंभिक रचनाओं में जो सीमातीत प्रकृति-प्रेम दीख पड़ता है, जिस कारण उन्हें जनभीरु, पलायनवादी आदि विशेषण भी झेलने पड़े, उसके मूल में भी यदि गहराई से देखा जाए तो कवि की स्वाधीनता की दुर्दम आकांक्षा ही है। कवि ने अपनी ‘वीणा’–काल की ‘मोह’ शीर्षक कविता में कहा है–

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले तेरे बालजाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!

अर्थात् कवि प्रकृति के सहज सौंदर्य को छोड़कर बालिका के रूपजाल में भी अपनी आँखें उलझाना नहीं चाहता। कारण इसका एक तो यह कि बाला का सौंदर्य सीमित और क्षणिक है, जबकि प्रकृति की सुषमा असीम और चिरंतन है। दूसरी बात यह भी कि संभवत: वर्ड्सवर्थ की भाँति पंत ने भी महसूस किया था कि ‘The world is too much with us’ यानी यह दुनिया हमें बुरी तरह जकड़े है। इसीलिए कवि का भावुक मन इन बंधनों के प्रति विद्रोह कर उठा और उसने समाज से भागकर प्रकृति में शांति ढूँढ़ी।

पंत ने जैसा स्वयं स्वीकार किया है, उन्हें कवि बनाने का श्रेय उनकी जन्मभूमि कूर्माचल प्रदेश को है। कौसानी भारत के उन सौभाग्यशाली अंचलों में है, जिसे प्रकृति ने अपने हाथों से सँवारा है। किंतु इस कौसानी के सौंदर्य की विशेषता है कि वहाँ प्रकृति की केवल सुषमा ही नहीं बिखरी हुई है, बल्कि उसकी दिव्यता भी साकार हो उठी है। इसीलिए उसने एक ओर कविगुरु रवींद्रनाथ को आकृष्ट किया तो दूसरी ओर विश्ववंद्य बापू भी उसकी सराहना करते न अघाए। कवि नरेंद्र शर्मा ने ठीक ही उसकी उपमा ‘साधनामयी उमा’ से दी है। कौसानी की इसी सुरम्यता और दिव्यता के भाव पंत के काव्य में राग और विराग के द्वंद्व के रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। उन्होंने किसी ऐसे सौंदर्य को नहीं सराहा, जो साथ ही शुचि भी न हो। इसी प्रकार उनकी पावनता की कल्पना रमणीयता से वेष्ठित है। उनके लिए ‘सुंदरम्’ और ‘शिवम्’ एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक-से हैं। तभी तो वे कहते हैं–

यह पल-पल का लघु जीवन
सुंदर, सुखकर, शुचितर हो!

पंत का यह प्रकृति प्रेम, जो उनकी काव्य साधना का मूलाधार है, ‘वीणा’ और ‘पल्लव’ की अधिकांश रचनाओं में व्यक्त हुआ है। अंतर केवल इतना है कि ‘वीणा’ में जहाँ एक अबोध उल्लास और विस्मय का भाव था, वहाँ ‘पल्लव’ में कुछ दार्शनिक गंभीरता भी आ गई है और कवि को प्रकृति के मूल में एक ऐसी रहस्मयी सत्ता का बोध होने लगा है, जो सृष्टि के अणु-परमाणु में व्याप्त है एवं जिसके संकेत पर उसके सारे कार्य-व्यापार संचालित होते हैं। साथ ही, ‘पल्लव’ की ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता में कवि केवल प्रकृति की रमणीयता और सम्मोहकता के ही गीत नहीं गाता, उसके रौद्र एवं विध्वंसक पक्ष का भी सजीव अंकन करता है। इस समय तक उसकी भाषा में भी पर्याप्त शक्ति और कोमल-परुष भावों के संवहन की क्षमता का विकास हो चुका है। जो लोग छायावाद को केवल स्त्रैण कल्पना और भावचित्रों का अलबम मानते हुए उसकी पुंसत्वहीनता का ढिंढोरा पीटते नहीं थकते, उन्हें ‘परिवर्तन’ कविता तनिक ध्यान से दुबारा पढ़नी चाहिए।

‘पल्लव’ का प्रकाशन हिंदी कविता के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसके बाद ही ‘छायावाद’ की प्रतिष्ठा हिंदी साहित्य में एक वाद के रूप में हुई। ‘पल्लव’ के ‘प्रवेश’ द्वारा कवि ने पहली बार ब्रजभाषा की निस्पंदता और शक्तिहीनता की ओर साहित्य-महारथियों का ध्यान आकृष्ट किया और उसकी तुलना में खड़ी बोली के शब्द-सौंदर्य, उच्चारण-संगीत और प्राणवत्ता की उद्बाहु उद्घोषणा की। पंत जी से पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी खड़ी बोली के संस्कार-परिष्कार की चेष्टा की थी। लेकिन पंत की खड़ी बोली द्विवेदी जी की खड़ी बोली से उतनी ही भिन्न है, जितनी सूरदास की ब्रजभाषा गोकुलनाथ की ब्रजभाषा से (यद्यपि गोकुलनाथ परवर्ती हैं)। द्विवेदी जी एक कुशल भाषाविद् और वैयाकरण थे। उन्होंने पद्य और गद्य की भाषा को एक करने का नारा देकर काव्य के आवेगतत्त्व की घोर अवहेलना की। फलत: उनकी काट-छाँट और शुद्धीकरण के प्रयास से भाषा के कलेवर का ही निर्माण हो सका, उसमें प्राणों की प्रतिष्ठा करना उनके वश से बाहर की बात हो गई। पंत जी ने द्विवेदी-युग की काव्य-भाषा की रूक्षता के रहस्य को हृदयंगम किया और एक कुशल शिल्पी की तरह शब्दों को खरादकर, उनकी ध्वनि और उच्चारण-संगीत के आधार पर उन्हें अच्छी तरह परख कर अथवा ‘भावों से उन्हें बजा-बजाकर’ नई काव्य-भाषा का रूपविन्यास किया। द्विवेदी जी की–

सुरम्यरूपे, रसराशिरंजिते, विचित्र वर्णाभरणे! कहाँ गई?
अलौकिकानंद विधायिनी महाकवींद्र कांते, कविते अहो कहाँ?

और पंत की–

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृतिवेश!
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार;
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!

में तत्सम शब्दों और समस्त पदावली का आतंक प्रथम उद्धरण में ही अधिक है, फिर भी पहला उद्धरण कोरा पद्य माना जायगा, जबकि दूसरे में भाव और भाषा दोनों का ‘परस्पर स्पर्द्धि चारुत्व’ उसे काव्य का गौरव प्रदान करता है। ‘पल्लव’ की भूमिका में वाद के कलापक्ष का इतना व्यापक और प्रौढ़ विवेचन हुआ है कि आश्चर्य नहीं, इसी कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे सूझ-बूझ के धनी और गंभीर आलोचक भी मात्र उसे शैली-विशेष ही मान बैठे हों। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि इस भूमिका ने छायावाद के प्रति पाठकों में आस्था उत्पन्न की और बहुत कुछ उन पुराने पंडितम्मन्य आलोचकों का भी मुँह बंद कर दिया, जो इस नए काव्यांदोलन की कमजोरियों का आस्फालन करते नहीं अघाते थे।

‘पल्लव’ के उपरांत ‘गुंजन’ में पंत ने ‘सुंदरम्’ से ‘शिवम्’ की भूमि पर प्रवेश किया। ‘पल्लव’ में जो कवि अप्सरा और बादलों के गीत गा रहा था, वह ‘गुंजन’ में जीवन-विटपी की डाल पर बैठकर कलरव करने लगा। कोरी संवेदना का स्थान मनन और अनुशीलन ने ले लिया। ‘गुंजन’ के ‘विज्ञापन’ में पंत जी ने परिहासपूर्वक कहा है–“पल्लव की कविताओं में मुझे ‘सा’ के बाहुल्य ने लुभाया था, यथा–

अर्द्धनिद्रित-सा, विस्मित-सा,
न जाग्रत-सा, न विमूर्च्छित-सा–इत्यादि

‘गुंजन’ में ‘रे’ की पुनरुक्ति का मोह नहीं छोड़ सका, यथा–‘तप रे मधुर-मधुर मन’ इत्यादि। ‘सा’ से जो मेरी वाणी का संवादी स्वर एकदम ‘रे’ हो गया है, यह उन्नति का क्रम पाठकों को खटकेगा नहीं, ऐसा मुझे विश्वास है।” पर इस परिहास के पीछे एक गंभीर सत्य की स्वीकृति भी है। संगीत-शास्त्र के अनुसार ‘सा’ शुद्ध स्वर माना जाता है, पर ‘रे’ के कोमल और तीव्र दो भेद होते हैं। इसी प्रकार ‘पल्लव’ का कवि वेदना को सृष्टि का एकमात्र सत्य मानता था, ‘गुंजन’ में उसे जीवन की विविधता के दर्शन होते हैं। दूसरी बात यह कि ‘सा’ औपम्य-विधान का वाचक पद है, जिसमें सादृश्य का भाव होते हुए भी एक दूरी का बोध है। ‘रे’ संबोधन आत्मीयता का सूचक है। तात्पर्य यह कि ‘पल्लव’ में कवि ने संसार को दूर-दूर से देखा था, इसलिए वह सुंदर लगा था, ‘गुंजन’ में वह सम दु:ख भोगी की भूमिका में अवतरित हुआ है, इसीलिए उसका आग्रह है–‘देखूँ सबके उर की डाली’ और ‘कवि से रे किसका क्या दुराव?’ कवि ने मानव जीवन का निकट से परिचय पाकर अनुभव किया कि–

जग पीड़ित है अति दुख से,
जग पीड़ित रे अति सुख से।

और उसके उपचारस्वरूप सुख-दु:ख में समत्व-संतुलन स्थापित करने की उसने कामना की–

मानव जग में बँट जावें
दुख सुख से औ सुख दुख से।

‘गुंजन’ में कवि का प्रकृति के प्रति मोह सर्वथा छूटा नहीं है। वह संभव भी नहीं। पर अब केवल प्रकृति के रूप-सौंदर्य से प्रभावित नहीं है, उसके आंतरिक ऐश्वर्य पर भी उसका ध्यान गया है, इसीलिए ‘एकतारा’, ‘नौका विहार’, ‘चाँदनी’ आदि कविताओं का प्रारंभ तो वर्णनात्मकता की मंजुल भूमि से हुआ है, पर उसकी परिसमाप्ति वैचारिकता के देश में होती है। प्रकृति कवि को कहीं चिंतन की अप्रत्यक्ष प्रेरणा देती है और कहीं प्रत्यक्ष उपदेशों द्वारा मार्ग निर्देशन करती है। यथा–

इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम;
शाश्वत नभ का नीला विकास, शाश्वत शशि का यह रजत हास,
शाश्वत लघु लहरों का विलास!
वन की सूनी डाली पर सीखा कलि ने मुस्काना,
मैं सीख न पाया अबतक सुख से दुख को अपनाना!

‘युगांत’ जैसा प्रारंभ में ही संकेत किया जा चुका है, पंत जी की भावधारा में एक निश्चित मोड़ का द्योतक है। ‘युगांत’ में कवि ने अपने सौंदर्य-युग की जैसे जानबूझ कर इति कर दी है और मानववाद को प्रश्रय दिया है। ‘युगांत’ में कवि ने एक ओर जहाँ ‘द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र’, ‘गा कोकिल, बरसा पावक-कण’ आदि कह कर प्राचीन रूढ़ि-रीतियों के विनष्ट हो जाने की कामना की है, वहाँ एक स्वस्थ और नव्यतर समाज-रचना का स्वप्न भी देखा है–

मैं एक सृष्टि रच रहा नवल
भावी मानव के हित भीतर,
सौंदर्य, स्नेह, उल्लास मुझे
मिल सका नहीं जग के बाहर!

‘युगांत’ में कल्पना-लोक के प्रवासी कवि ने कठोर जनजीवन की ऊष्मा और प्रदाह को सहने का साहस दिखाया है। स्वभावत: उसकी दृष्टि किसानों, मजदूरों और दूसरे श्रमजीवियों की ओर जाती है जो दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद हर साँझ को थके-हारे, शिथिल तन, बोझिलमन, जीवनरस से निचुड़े हुए-से वापस लौटते हैं–

बाँसों की झुरमुट,
संध्या का झुटपुट,
है चहक रही चिड़िया टी वी टी टुट टुट।
… … … … … … … …
ये नाप रहे निज घर का मग,
कुछ श्रमजीवी धर डगमग पग,
भारी है जीवन, भारी पग।

स्पष्ट ही, यह सूक्ष्म रेखांकन ‘पल्लव’ और ‘गुंजन’ की समृद्धि और रंगीन चित्र-विधायिनी कला से पूर्णत: भिन्न है। यहाँ न पत्तों का मर्मर संगीत है, न पुष्पों का रसराग-पराग, न शब्दों की उफनाती मधुरिमा, न छंदों की नादानुकूल झंकृति। रंगों का कार्य केवल रेखाओं से लिया गया है, फिर भी इन चित्रों में गहरी संवेदनीयता और तीव्र प्रभावान्विति है। ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में ‘युगांत’ की भावधारा का ही विस्तार लक्षित होता है। ‘युगवाणी’ को कवि ने ‘गीतगद्य’ की संज्ञा दी है। ‘गद्य’ से उसका तात्पर्य युग की सूक्षता और उलझनों से है। सूत्ररूप में ‘युगवाणी’ वर्तमान की विरूपताओं का विश्लेषण है–सहज और अनलंकृत। यों, बीच-बीच में सुंदरता के जो ओयसिस आ जाते हैं, उनकी ओर से आँखें बचा लेना न तो कवि का अभीष्ट है और न उसके लिए यह संभव ही है। ‘ग्राम्या’ में भारत के ‘सभ्यता, संस्कृति से निर्वासित’, ‘जीवन्मृत’ ग्रामों का क्लोज-अप (Close-up) देने की कोशिश की गई है। ‘ग्राम्या’ में यद्यपि कवि ने गाँवों की नैसर्गिक सुषमा, उनके सामूहिक पर्व-त्योहार, उत्सव-आमोद का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है, फिर भी ग्रामीण जीवन को वह बौद्धिक सहानुभूति मात्र दे सका, क्योंकि वह जानता है कि आज भारत के गाँव वे नहीं रहे, जिनके विषय में कभी सगर्व घोषणा की गई थी–

अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है,
क्यों न इसे सब का मन चाहे?

इस तालाब का पानी सड़ चुका है, कीचड़ बजबजा रहे हैं और बिना इन्हें बदले स्वस्थ परंपराओं का विकास संभव नहीं। ‘ग्राम्या’ के प्रकृति चित्र भी ‘पल्लव’ के रेशमी बिबों से भिन्न यथार्थ का खुरदरापन और मिट्टी की सुगंध लिए हैं–

लहलह पालक, महमह धनिया, लौकी औ सेम फली, फैली,
मखमली टमाटर हुए लाल, मिरचों की बड़ी हरी थैली।
गंजी को मार गया पाला, अरहर के फूलों को झुलसा,
हाँका करती दिन भर बंदर अब मालिन की लड़की तुलसा!

‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की रचनाओं को देखकर एक समय हिंदी के मार्क्सवादी आलोचकों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और अनायास ही पंत जी प्रगतिवाद के नेता मान लिए गए थे। पर पंत ने मार्क्सवाद को कभी उसकी संपूर्णता में स्वीकार नहीं किया। ‘युगवाणी’-काल में, जब मार्क्स की प्रशस्ति लिखते हुए पंत जी ने उन्हें मानवता के पैगंबर का दर्जा दिया था, तब भी केवल भौतिक समानता ही उन्हें इष्ट थी–

भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
जहाँ आत्मदर्शन अनादि से समासीन अम्लान!

इसीलिए ‘स्वर्णकिरण’ और ‘स्वर्णधूलि’ में पंत का जो अरविंददर्शन की ओर प्रत्यावर्तन हुआ वह न तो उतना अप्रत्याशित है और न आश्चर्यजनक ही। पिछले महासमर ने भौतिकतावादी सभ्यता के दुष्परिणामों को संसार के सामने उजागर कर दिया। जीवन को सुख-सुविधा का आश्वासन देनेवाला विज्ञान ही उसके विनाश का कारण बना। पंत जी भौतिक दर्शनों की सीमा और अध्यात्मवाद की अव्यावहारिकता से तो पहले से ही परिचित थे। इसी समय के आसपास उन्हें महर्षि अरविंद के निकट संपर्क में आने का सुअवसर मिला, जिनके अतिमानव (Super-man) के दर्शन ने कवि को एक अभूतपूर्व संतोष, उसकी वायव्य कल्पनाओं को ठोस आधार दिया। अरविंद के प्रभाव से पंत ने सामाजिक समता और आत्मिक उन्नयन दोनों के योग को मानवता के कल्याण के लिए आवश्यक माना। मन:संगठन के बिना लोकसंगठन सदैव अपूर्ण रहेगा। इसी बहिरंतर के संतुलन को उन्होंने ‘स्वर्णचेतना’ की संज्ञा दी है, जिसके अनुसार कवि की कामना है–

वृथा पूर्व-पश्चिम का दिग्भ्रम मानवता को करे न खंडित,
बहिर्नयन विज्ञान हो महत्, अंतर्दृष्टि ज्ञान से योजित!

मार्क्स का सारा ज़ोर आदर्श समाज की रचना पर था, ऐसा समाज, जिसमें सबको समान जीने की सुविधाएँ प्राप्त हों। इसके विपरीत भारतीय अध्यात्म व्यक्ति के उन्नयन पर बल देता आया है। पंत जी अपनी परवर्ती रचनाओं में इन दोनों जीवन-दृष्टियों का मेल साधना चाह रहे हैं। इस मेल साधने में वे जीवन से भाग नहीं रहे, बल्कि भौतिक ऐश्वर्यों को स्वीकार कर आत्मिक उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील हैं–

मैं स्वर्गिक शिखरों का वैभव हूँ लुटा रहा जन-धरणी पर,
जिसमें जन जीवन के प्ररोह नव मानवता में उठें निखर।
देवों को पहना रहा पुन: मैं स्वप्न, मांस के मर्त्य वसन,
मानव-आनन से उठा रहा अमरत्व ढँके जो अवगुंठन।

यद्यपि यह कार्य कम कठिन नहीं, फिर भी कवि के मन में इस समन्वित आदर्श के प्रति गहरी आस्था है और है अपनी सृजन-सामर्थ्य पर अक्षय विश्वास। अतएव अपने पाठकों से उसका अनुरोध है–

यदि मरणोंमुख वर्तमान से ऊब गया हो कटु मन,
उठते हों न निराश लौह-पग, रुद्ध श्वास हो जीवन।
तो मेरे गीतों में देखो नव भविष्य की झाँकी,
नि:स्वर शिखरों पर उड़ता, गाता सोने का पाँखी!

‘स्वर्णकिरण’ से ‘कला और बूढ़ा चाँद’ तक की प्रगति इन्हीं अंतर के नि:स्वर शिखरों की आरोहणमयी यात्रा है। ‘कला और बूढ़ा चाँद’ का पुन: पंत के संपूर्ण कृतित्व में एक विशिष्ट स्थान है, न केवल शैली-शिल्प की दृष्टि से, वरन् भाव और अनुभूति की दृष्टि से भी। जिस तरह उनके ‘सुंदरम्’-युग का शृंग ‘पल्लव’ और ‘सत्यम्’-युग का ‘ग्राम्या’ है, उसी प्रकार ‘शिवम्’-युग का सर्वोच्च शिखर ‘कला और बूढ़ा चाँद’ है। ‘कला और बूढ़ा चाँद’ में कवि जीवन के खंड-सत्यों का गायक नहीं, उसकी समग्रता का द्रष्टा है। वह बोध की उस ऊँची चोटी पर पहुँच चुका है, जहाँ विचार, भाव, संगीत सभी घुल मिलकर एकमेक हो जाते हैं। इसीलिए उसने छंदों की पायल उतार दी है, प्रतीकों की भाषा में बोलने लगा है। फिर भी इस अनुभूति को व्यक्त करने में भाषा पसीने-पसीने हो जाती है। अलंकार आदि बाह्य प्रसाधनों को तो पंत की वाणी ने युगवाणी-ग्राम्या-काल में ही विदा दे दी थी, यहाँ छंद भी पीछे छूट गए हैं, शब्द छूँछे पड़ने लगे हैं, लेकिन इन पंक्तियों की सांकेतिकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है–

ओ रचने,
तुम्हारे लिए कहाँ से ध्वनि, छंद लाऊँ?
कहाँ से शब्द, भाव लाऊँ?
सब विचार, सब मूल्य,
सब आदर्श लय हो गए!

यदि मैं भूलता नहीं तो टी. एस. इलियट ने कहीं लिखा है कि भविष्य की कविता आकार में बहुत छोटी, सूत्रों जैसी होगी। वह भावना के साथ बुद्धि के धरातल को भी छूनेवाली होगी और उसके अलंकारादि प्रसाधन बाहरी न होकर आंतरिक होंगे। भविष्य की कविता कौन-सा रूप अपनाएगी, इसके निर्णय की अभी उपयुक्त घड़ी नहीं आई है। फिर भी यह सत्य है कि इलियट के बताए लक्षणों से पंत जी की नई कविताएँ बहुत दूर नहीं। कहीं-कहीं उनमें वैदिक सूत्रों जैसी संश्लिष्टता और निराभरण सौंदर्य वर्तमान है। यथा–

ओ रँभाती नदियों,
बेसुध कहाँ भागी जाती हो?
वंशीरव तुम्हारे ही भीतर है!
… … … …
राशि का ही अनंत अनंत नहीं,–
गुण का अनंत बूँद-बूँद में है!

इस प्रकार पंत जी का काव्य विकास पिछली लगभग आधी शताब्दी की हिंदी कविता के इतिहास के साथ एकाकार हो गया है। केवल हिंदी ही नहीं, विश्व की अन्य भाषाओं में भी कम कवि ऐसे होंगे, जो इतनी दूर तक न केवल युग का साथ दे पाते हैं, प्रत्युत् उसके निर्माण, नेतृत्व और संवर्द्धना में भी सफलतापूर्वक हाथ बँटाते हैं। अभी-अभी उनका ‘लोकायतन’ नामक महाकाव्य सामने आया है जो उनके विचारों-आदर्शों का समन्वित रूप है। पंत जी के चुने हुए पथ से मतभेद हो सकता है, पर वे जिस आदर्शलोक के स्वप्न द्रष्टा हैं, इसमें संदेह नहीं, वह आदर्श मानवता की आशाओं का सबसे ज्योतिर्मय केंद्र है।


Image: Flowers 1
Image Source: WikiArt
Artist: Konstantin Makovsky
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