कवि-पत्नी

कवि-पत्नी

(गीति-रूपक)

प्रभात की वेला, वसंत-ऋतु की सुहावनी ऊषा–आगमन का दृश्य
कवि का पत्नी के साथ वार्तालाप
कवि–(अँगड़ाई लेकर शय्या छोड़, खिड़की से बाहर देख, उत्फुल्ल स्वर से)
लो, नभ-मंदिर के कंचन-पट
खोल, सुंदरी ऊषा आती
अरुणांजलियों से प्रकाश की
किरणों का अमृत बरसाती
वनतरुओं के नीड़ों में है
जाग पड़ा मंगल कल-कूजन
नव रसाल-मंजरियों का है
फूट रहा मधु मादक यौवन
चूम रही अग जग की अलकें
पवन, सुरभि से उन्मद होकर
ओ मेरी गृहलक्ष्मी, तुम भी
जाग पड़ो अब निद्रा खोकर
(क्षण-भर रुककर)
कवि-पत्नी–(रूखे-भर्राए स्वर में, झुँझलाहटपूर्ण मुद्रा से)
कहकर भी बार-बार
तुमसे मैं गई हार
अपनी इस कविता को
मुझ पर तुम मत लादो
होगी बहती बयार
मुझको तो काम-भार
महरा हड़ताल किए
मुझको जंजाल दिए
खाँस रही राधा है
तुमको क्या बाधा है
कविता में डूबे हो
घर से तो ऊबे हो
चलो, हटो सोने दो
कर्मों पर रोने दो
कैसी थी अशुभ घड़ी
पल्ले तुम्हारे पड़ी
कवि–(उदास-शिथिल, दीर्घ श्वास लेकर)
क्या कहूँ, तुझसे किशोरी
इस गृहस्थी-भूमि पर तू बीज विष के हे! न बो री
दुख किसे है? जो सदा ही भागता है दूर दुख से
सुख किसे है? जो न सोचे–“मैं रहूँ भरपूर सुख से”
अथिर हैं संसार के सुख-दु:ख दोनों खेल, रानी!
अत: जीवन में चलो कर दो क्षणों का मेल, रानी।
यदि न हों आँसू यहाँ तो, हास का क्या मोल हो फिर
दो न पलड़े हों तुला के, किस तरह से तोल हो फिर
क्या नहीं है रात काली, जब कि ऊषा चमकती है
क्या नहीं हैं विरस काँटे, जब कि कलियाँ गमकती हैं
झेलने संघर्ष जग के, है इसी का नाम जीवन
संतुलन रखो, उठाओ तो तनिक ऊपर नयन-मन
जगत-तापों में गलाकर ही खरा कंचन सँजो री
क्या कहूँ तुझसे किशोरी
कवि-पत्नी–(चिढ़कर)
सुहाते न उपदेश हैं अब तुम्हारे
अँधेरा लगे जग, मिटे ज्ञान सारे
न है पास धन, अन्न की भी कमी है
कहो इस तरह कब गृहस्थी जमी है
तुम्हीं लो रखो गाड़ संतोष का धन
मुझे तो रहे घेर संसार-बंधन
मुझे चाहिए यह न कविता तुम्हारी
मुझे नित्य जो दे रही दु:ख भारी
तुम्हें रात-दिन कल्पना सूझती है
अभागिन गृहस्थी लिए जूझती है
बच्ची–(जागकर खाँसती है, फिर रोना प्रारंभ कर कहती है)
दूध रात में नहीं मिला
अम्मा बिस्कुट मुझे खिला
कवि–(गोद में बच्ची को लेकर चुमकारते हुए)
मेरी मुनिया लाड़ली
मुझे सुना दे काकली
कोयल सी तू बोल री
अमृत मन में घोल री
आ तू रोना भूलकर
फूलों सी हँस, झूलकर
(उछालता है) हाथी घोड़ा पालकी
जै कन्हैया लाल की
(तब तक पत्नी छत पर जाकर पड़ोसिन से बातें करने लगती है)
पत्नी–(हँसती हुई)
हाँ जी पारबती की काकी, कल जो मैंने छौंके सहजन
नहीं किसी ने खाया, जाने क्यों वे गए बड़े कड़ुवे बन
पड़ोसिन–(उपहास की हँसी-हँसते हुए)
अरे, कभी कड़ुवी भी होती हैं फलियाँ सहजन की
तुम्हें नहीं मालूम, किया तुमने उनका भोजन भी?
पत्नी–(लज्जित होकर, प्रसंग बदलती हुई)
हुँह…अच्छा तो सुनो सखी
सुनकर मन में गुनो सखी
कुछ रुपए मैंने जोड़े
बनवा दो मुझको तोड़े
नथ बाली तुड़वा दूँगी
कुछ रुपए छुड़वा दूँगी
नहीं किसी से तुम कहना
मन में बात रखे रहना
पड़ोसिन–(प्रसन्न होकर)
हाँ, हाँ, वाह! इसमें क्या?
प्रेम के हैं माने क्या?
(तब तक कवि, पत्नी को पुकारता है और पत्नी लौट रही है)
कवि–(ज़ोर से पुकारता है)
अरे चलो भी
दिन चढ़ आया
राधा को तो
खूब रुलाया
कामों को तो
समय नहीं हैं
गप्पों की पर
कमी नहीं है
पत्नी–(चिढ़कर ज़ोर से उत्तर देती है)
बातें करना भी अपराध?
कोई नहीं रही जब साध
ले लो फिर तो मेरे प्रान
इस जीवन से हूँ हैरान
कवि–(व्यथित होकर)
मैं नहीं कहता, किसी से मत करो तुम बात
क्यों गरजकर दे रहीं मुझको हृदय-आघात
गप लड़ाने का समय यह है नहीं, अनमोल
काम हाथों से रहो करती, अधर से बोल
स्वच्छ गृह को कर, नहाओ, ओस से जयों फूल
देह को सुंदर सजाओ, प्रणय-झूला झूल
गृह-सरोवर की कमलिनी, मधुप सा मैं कांत
दान कर मधु कोष प्यासा मन करो यह शांत
पत्नी–(हठ, मानपूर्वक रोने का अभिनय)
जब देखो तब कथा ज्ञान की
नहीं पात्र हूँ प्यार मान की
ऐसे भाग्य जले यह मेरे
कवि से पड़े हाय क्यों फेरे
कवि–(क्रुद्ध स्वर से)
हर समय तुम्हें स्नेह से ही समझाता हूँ
हो क्रुद्ध, नहीं मन में कठोरता लाता हूँ
तब तक मेरे सिर पर ही तुम चढ़ती जातीं
हठ से मनमाने पथ पर ही बढ़ती जातीं
है मेरा इसमें दोष कहाँ, बतलाओ तो
जो कहता हूँ तुम गृहलक्ष्मी बन जाओ तो
क्या नाम इसी का घर है या कूड़ाखाना
बिखरे बर्तन, मैले कपड़े, झींके जाना
प्रत्येक वस्तु से शोभाश्री, मानों रूठी
गाई क्यों जाती इस गृह की महिमा झूठी
(पैरों की चाप)
कौन मुझसा दुखी औ’ निरुपाय है।
लो चला मैं मित्र के घर, चाय है।


Original Image: Spring in the Country
Image Source: WikiArt
Artist: Kuzma Petrov Vodkin
Image in Public Domain
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