काव्य और मंत्र

काव्य और मंत्र

काव्य और मंत्र दोनों की ही भित्ति, आश्रय-आधार है वाक्य,…वाक्य का वजन जब अधिक हो जाता है, वह चाहे कितना ही क्यों न हो, तब वह काव्य की कोटि में चला जाता है। और वाक्य का वजन जब संपूर्ण रूप से वाक्य के आश्रयी का वजन हो जाता है तब वह बन जाता है मंत्र!

काव्य और मंत्र एक चीज नहीं है, उनके इस अंतर को ही यहाँ दिखाना है। काव्य मंत्र का रूप ग्रहण कर सकता है और केवल इतना ही नहीं, काव्य का मंत्र बनना ही उचित है, काव्य का श्रेष्ठ रूप, उसकी पराकाष्ठा ही है मंत्र। और मंत्र भी काव्य के आकार और ढाँचे में प्रकट हो सकता है। परंतु सोने में यह सुगंध साधारणत: आसानी से नहीं दिखाई देती।

एक बात और ध्यान में रखने की है। हम जब गीता पढ़ते हैं या उपनिषद् पढ़ते हैं या वेद-संहिता पढ़ते हैं, तब यह बात एक प्रकार से हमारे मन में उठती ही नहीं कि हम कोई काव्य पढ़ रहे हैं, हमारी चेतना मुख्यत: काव्य-रस की अपेक्षा एक अन्य रस का…उसे क्या ब्रह्म-रस कहें?…उपभोग करती है। उसका प्रमाण यह है कि काव्य का, कवित्व का उदाहरण जब दिया जाता है तब वेद, उपनिषद्, गीता का उल्लेख प्राय: नहीं किया जाता, उल्लेख किया जाता है व्यास, वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति का। अथच वस्तुत: क्या गीत, क्या उपनिषद्, क्या वेदमंत्र, ये सभी सर्वश्रेष्ठ काव्य की कोटि में हैं…काव्य नामक कोई भी सृष्टि प्राकृत या लोकोत्तर…कोई भी रस-रचना कवित्व की मर्यादा में इनसे आगे नहीं गई है, आदिकवि वाल्मीकि भी नहीं, होमर-शेक्सपिअर भी नहीं। एक कहावत है कि शिल्प-सौंदर्य जितने ही उच्चस्तर का होता है वह उतना ही अधिक अपने को छिपाए रखता है…The highest art is to conceal art. वेद, उपनिषद्, गीता के कवि ने जिस प्रकार से अपने को छिपा रखा है उस प्रकार से कवि नाम से परिचित कविगण सहज ही अपने को नहीं छिपा सकते। उपनिषद् कहती है–

एतदालंबनं श्रेष्ठमेतदालंबनं परम्।
एतदालंबनं ज्ञात्वां ब्रह्मलोके महीयते॥ क 1, 2, 17

–यही श्रेष्ठ अवलंबन है, यही परम अवलंबन है, इसी अवलंबन का ज्ञान होने पर ब्रह्मलोक का महत्त्व प्राप्त होता है।
अथवा गीता जब कहती है…

दु:खेष्वनुद्विग्नमन: सुखेषु विगतस्पृह:।

–दु:ख से जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख के लिए जिसको स्पृहा नहीं होती…

तब क्या सबसे प्रथम, जरा भी यह ख्याल होता है कि हम काव्यरस की दृष्टि से भी चरम शिखर पर जा खड़े हुए हैं। इसी को हम काव्य न कह कर मंत्र कहना चाहते हैं!

तब काव्य क्या है? रसात्मक वाक्य। इससे सुंदर संज्ञा काव्य को कभी दी गई है या नहीं, इसमें संदेह है। इसे मैं स्वीकार करता हूँ, तब मैं कहता हूँ–मंत्र की संज्ञा है…वाकब्रस। काव्य और मंत्र दोनों की ही भित्ति, आश्रय आधार है वाक्य, दोनों को वाक् की महिमा और माहात्म्य कहा जा सकता है। अवश्य ही एक सूक्ष्म सीमा है जिसकी एक ओर वाक् बन जाता है मंत्र और दूसरी ओर कहलाता है काव्य, चाहे वह कितना ही सुंदर या महान क्यों न हो। बस बात यही है। वाक् अपने को बिल्कुल जाहिर नहीं करता, अपने निजी चातुर्य को प्रकट करने में तत्पर नहीं रहता…कस्तूरी-मृग की भाँति स्वयं अपनी सुगंध में ही आत्मविस्मृत नहीं हो जाता। अपना ही सौंदर्य प्रकट करना नहीं, अपने को ही व्यक्त करना नहीं, बल्कि जब उसका एकमात्र लक्ष्य होता है अपने अंत:स्थ रसवस्तु में, जिसमें वह प्रतिष्ठित है, एकदम तन्मय रहना, उसी को जब वह तीक्ष्णता, निर्दोषता के साथ प्रकाशित करता है और अति सहज भाव से यह कार्य कर सकता है तभी प्रकट होता है मंत्र! वाक्य का वजन जब अधिक हो जाता है, वह चाहे जितना ही क्यों न हो, तब यह काव्य की कोटि में चला जाता है। और वाक्य का वजन जब संपूर्णरूप से वाक्य के आश्रयी का वजन हो जाता है, तब वह बन जाता है मंत्र।
किंतु ऐसी बात नहीं है कि मंत्र का अर्थ अध्यात्म, साधना की बात, धर्म-तत्व की बात ही हो। लौकिक या ऐहिक अनुभूति, उपलब्धि को भी मंत्रबद्ध करके प्रकट किया जाता है! उस अनुभूति और उपलब्धि का जो मूल सत्य, जो निजी रसमय सत्य है, वाक्य यदि उसी का आत्मप्रकाश हो, उसी का यथार्थ विग्रह हो, तब वह लौकिक वाक्य भी मंत्र है। स्वयं ब्रह्म या ब्रह्मवस्तु का वाहन वह न भी हो, तो भी जिसका वह वाहन है उसको ब्रह्मानंद सहोदर,…तटस्थ…ब्रह्म, उपब्रह्म कहा जा सकता है।

शेक्सपियर का विख्यात वाक्य…And in this harsh World draw thy breath in pain. अथवा दांते के वाक्य…Lasciate ogni speranga voi chantrata अथवा वाल्मीकि के वाक्य…

अपहृत्य शचीं भार्याम् शक्यमिंद्रस्य जीवितुम्।
न च रामस्य भार्याम् मामपनीयास्ति जीवितम्॥

इनमें आध्यात्मिक शब्द का जो भाव हम समझते हैं वह बिल्कुल नहीं है, यहाँ पर है हमारे आपके जैसे साधारण मनुष्य की बात, तथापि इनको हम कहेंगे मंत्र। कारण वाक्य यहाँ पर अनुभूति-उपलब्धि का, रस-वस्तु का मानों अपना ही हिल्लोल और झंकार है, अलंकार नहीं है, पोशाक नहीं है, वह इतना स्वच्छ, इतना बाहुल्य वर्जित है…अधिक भी नहीं है, कम भी नहीं है…इतना अधिक प्रयोजन नियंत्रित है कि वह वस्तु के साथ घुलमिल गया है, अंगीभूत, एकीभूत हो गया है। इसीलिए तो मंत्र वस्तु का आह्वान् करता है, उसे प्रकट करता है, मूर्त करता है। मंत्र में वाक्य अपनी स्वतंत्रता को नहीं बचाए रखता, वह अपने को पूर्णरूप से अनुगत कर देता है वाक्यातीत के निकट। एक देह है, आधार है, उसने अपनी स्वकीयता को बचा रखा है, वह देही का, आधेय का, आत्मा का प्रकाश है गौण भाव से, अपने को वह चाहे जितना ही सुंदर, श्रेष्ठ क्यों न बना डाले…वह है आज्ञानात्मक और मरधर्मी ही। ग्रीक भास्कर्म का सौंदर्य इसी स्तर का है। ग्रीक लोगों ने जीवन में भी इसी सौंदर्य और सुषमा को चाहा था। किंतु एक और देह है, एक और आधार है, जो अपनी स्वाधीनता का विसर्जन कर अमरत्व का वाहन और विग्रह बन गया है! हमारा ख्याल है कि भारतीय भास्कर्म का यही रहस्य है। और भारत की अनेक आध्यात्मिक साधनाओं का लक्ष्य था यही अमरत्व, अलौकिक शारीरिक सिद्धि। खैर, वह चाहे जो हो। मैं कह रहा था वाक्य के अव्यर्थ परिमाण और मात्रा की बात।

कालिदास बड़े कवि माने जाते हैं, श्रेष्ठ कवियों की कक्षा में उन्हें रखा जाता है। वह इस आसन के उपयुक्त ही हैं। तथापि मोटे तौर पर ऐसा मालूम होता है कि उपनिषदों के कवियों की तरह वह मंत्र-दृष्टा या ऋषि नहीं हैं, वह कवि ही हैं। वह जब कहते हैं–

वैदेहि पश्यामलयाद्विभक्तं मत्सेतुना फेनिलमम्बुराशिम्
छायापथेनेव शरत्प्रसम्नम् आकाशमा वष्कृतचारुतारम्॥

तब हम लोग चमत्कृत हो जाते हैं, वाह वाह कहते हैं…तो भी यह चीज नहीं है जो सारी स्तुति-प्रसंशा के बाद की हमारी समझदारी के परे की हो, जिसके संबंध में वाक् स्तब्ध, चेतना समाहित हो…भावैकरसम् मन: स्थिरम्। कालिदास ने स्वयं भी इस प्रकार का मंत्र उच्चारण नहीं किया है, ऐसी बात नहीं है। सुनिए…

सेयं याति शकुंतला पतिगृहं सर्वारनुच्चामताम्

भाषा यहाँ पर भाव के साथ इस प्रकार घुल-मिलकर एक हो गई है कि हम उसके पृथक माहात्म्य को, अस्तित्व को एक प्रकार से अनुभव ही नहीं करते। यहाँ पर वाक्य की शुद्ध स्वच्छ ऋजुता ने रस-वस्तु को जितनी सहज और अबाध रूप से प्रकट किया है वह केवल मंत्र शक्ति के द्वारा ही संभव है। पर यहाँ पर मैं कह रहा था कालिदास की साधारण, मोटी-मोटी धारा की बात।

मैथ्यू आर्नल्ड ने कवि वर्ड्सवथ के संबंध में एक बात कही है जिसे हम सभी जानते हैं। उन्होंने कहा है कि वर्ड्सवर्थ का कवित्व जहाँ पर पराकाष्ठा को प्राप्त हुआ है वहाँ पर हमें ऐसा अनुभव होता है मानो कवि अंर्तधान हो गए हैं और स्वयं प्रकृति आकर लिख गई है। मैं कहना चाहता हूँ कि सब मंत्रों की विशिष्टा है यही अपौरुषेयता, यही निर्वैयक्तिकता। सृष्टि रचना के अंदर जब तक व्यक्तिगत अस्मिता की छाप रहती है तब तक स्रष्टा मंत्रकार ऋषि नहीं हो सकता…तब तक वह कवि ही रहता है। कवि जहाँ पर केवल कवि है, केवल कलाकार है, उससे अधिक कुछ भी नहीं…वहाँ पर कवि रूप में सजग, सज्ञान रहता है, अपने कृतित्व की बात वह सहज नहीं भूलता…इसलिए तो भवभूति गर्व के साथ कह सके–

ये नाम केचिदिह न: प्रथयंत्यवज्ञां जानंति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्न:।
उत्पत्स्यतेस्ति मम कोपि समानधर्मा कालो हायं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी॥

मेरी जो अवज्ञा करते हैं, उनका ज्ञान चाहे जो भी हो, मेरा यह प्रयास उनके लिए नहीं है; मेरा समानधर्मी शायद कहीं कोई है, अथवा भविष्य में जन्म ले सकता है, क्योंकि काल का तो अंत नहीं और पृथ्वी भी विपुला है।

मिल्टन या वर्जिल को हम इस दृष्टि से कवि तक ही कह सकते हैं…इससे अधिक नहीं। मिल्टन या वर्जिल या कालिदास के भी ऊपर जो लोग शेक्सपियर या होमर या वाल्मीकि को स्थान देते हैं, उनका सिद्धांत इसी बोध के ऊपर प्रतिष्ठित है। मंत्र की भाषा में कहा जा सकता है कि एक श्रेणी के कवि-कंठ से ‘बैखरी’ वाक् मुखरित होती है और दूसरी श्रेणी के कंठ से प्रकटित होती है ‘पश्यंति’ वाक्।

ऋषि या ऋषि कवि और कवि या कवि कवि इसलिए पृथक हैं कि उनकी वाक् धारा पृथक है। बैखरी वह है कि जहाँ वाक् अपनी महिमा में प्रतिष्ठित है, उसने अपनी पृथक मर्यादा और माहात्म्य को कायम रखा है, ध्वनि की स्वतंत्र निपुणता को प्रकट करने के लोभ का संवरण नहीं किया। इसीलिए अंतरतम, वास्तविक रसमय पुरुष उस कलरव से सब समय संतुष्ट नहीं होता, हैमलेट की भाँति बोल उठता है–Words words, words शब्द, शब्द केवल शब्द…अथवा जयदेव की भाँति…मुखरम् धीरं त्यज मंजीरं…किंतु पश्यंति होती है अंतरात्मा की सहज, अनाहत वाणी, सत्यदृष्टि की स्वकीया सुंदर रश्मि रेखा।


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