कुलटा!

कुलटा!

…बोल उठी–“यह पुराना ठग है बाबूजी। एक नंबर का लफ़ंगा, बेईमान…!”
अब उस स्त्री की ओर स्वभावत: मेरा ध्यान आकृष्ट हो गया।

कई दिनों से नौकर नहीं है। चार दिन की छुट्टी लेकर गया था और आज चौदह दिन हो गए हैं। नया आदमी रखकर नई परेशानियाँ मोल लेने की अपेक्षा, पुराने साथी की प्रतीक्षा में कुछ दिन तक हाथ-पैरों की बिगड़ी आदत सुधार लेना कहीं अच्छा है।

इसलिए कई दिनों से सबेरे शाक-भाजी लेने स्वयं मुझे ही जाना पड़ता है। इस नए कार्यक्रम में कुछ नए अनुभव भी हो रहे हैं। आज भी एक ऐसी घटना हो गई जिसकी याद किसी तरह भूल नहीं रही है।

शाकवाला जाति का कलवार है। उमर चालीस नहीं, तो छत्तीस से कम भी नहीं है। बात करने में कभी कमजोरी नहीं दिखलाता, यह मैंने प्राय: लक्ष्य किया है। मुहल्ले के दो-तीन हजार आदमियों से उसका परिचय है। पहले दिन जब मैं शाक-भाजी लेकर चलने लगा, तो उसने चार-छै हरी मिरचें और चार छै पौदे हरी धनियाँ के, अपने मन से, मेरे झोले में रख दिए। तब यह समझते देर न लगी कि यह शाकवाला है व्यवहार-कुशल।

बात चल रही थी दूध पर। क्योंकि यह शाकवाला गाय का दूध भी बेचता है। और आज प्रात:काल, जरा देर से उठने के कारण, दूध लेने के लिए, मैं उसके यहाँ पहुँच नहीं पाया था और फिर आवश्यकता पड़ने पर पास की दूकान से ले आया था।

हाँ, तो वह शाकवाला करेले तौलता हुआ कह रहा था–“आज आप दूध लेने के लिए नहीं आए!
मैंने कहा–आज मैं जरा देर से उठा था।

वह बोला–और मैंने आपके लिए रखे हुए दूध को देर तक कई ग्राहकों को भी नहीं दिया।

मुझे कहना पड़ा–तो अब दे दो अगर रखा हो।

उसने कह दिया–अब तक भला रखा रह सकता है।

तब मैंने कहा–अच्छा अब से रखा ही रहने दिया करो, मैं चाहे देर से भी आऊँ।

इतने में कई और ग्राहक आ गए। मैंने यद्यपि देखा नहीं कि कौन है। और तभी शाकवाला मेरे लिए लौकी देता हुआ बोला–“सामने (गैया) दुह देने की बात और होती है। पीछे की बात ही और है। मैं चाहे जितनी ईमानदारी बरतूँ, पर आज नहीं तो कल, आप ही कहने लगेंगे कि पानी जरूर मिलाया गया है। बतलाइए, तब मेरी क्या इज्जत रह जाएगी।”

“लेकिन मुझे तुम्हारी ईमानदारी पर विश्वास है। मैं ऐसा कभी नहीं कहूँगा।”–मैंने स्वभावत: साधारण रूप से कह दिया।

पर शाकवाला अपनी बात पर डटा रहा। बोला–“नहीं बाबू जी, यहाँ आप भूल कर रहे हैं। विश्वास जमा लेने पर मेरी भी नियत डोल सकती है। रोजी-रोजगार में पड़कर आदमी क्या नहीं करता।”

इतने में एक स्त्री जिसको दो सेर बड़ी जाति के आलू उस शाकवाले ने तौले थे, बोल उठी–“यह पुराना ठग है बाबू जी। एक नंबर का लफ़ंगा, बेईमान…।”

अब उस स्त्री की ओर स्वभावत: मेरा ध्यान आकृष्ट हो गया।

शरीर से स्थूल, वय से चालीस के लगभग। रूप? ऊँ हुँ। मुझे तो कहीं झलक मिली नहीं। आँखें अलबत्ता अपेक्षाकृत बड़ी हैं। धोती साधारण–न मैली, न उजली। बाँहों पर चाँदी की टाड़ें और पैरों में मोटे-मोटे कड़े। चूड़ियाँ हरी-नीली काँच की। रंग गेहुँआ। एक बार सोचा–“शायद इसका कुछ परिचय इससे रहा है।” तभी शाकवाला बोल उठा–“झूठ बोलेगी तो राँड़ होते देर न लगेगी।” उत्तर में स्त्री जरा भी नहीं झिझकी, लज्जा की एक रेखा, उसका एक कण भी उसके मुख पर नहीं आ सका और उसने तत्काल कह दिया–“राम राम। ऐसा न कहो। क्योंकि चाहे जो हो, यह मैं नहीं चाहती कि मरना दूर–कभी तुम्हारा सिर भी दर्द करे!”

सुनकर शाकवाला पहले हँसा, फिर गंभीर हो गया।