लंदन : युद्ध की छाया में
- 1 November, 1951
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- 1 November, 1951
लंदन : युद्ध की छाया में
“कभी-कभी मैं लंदन की विशालता में खो सा जाता हूँ। ऐसा लगता है कि सब कुछ बड़ा, बहुत बड़ा और विषम है…मैं लंदन का हूँ, लंदन का नहीं। जिस दिन ऐसा हो जाएगा उस दिन मुझे नहीं लगेगा कि मेरा व्यक्तित्व सिकुड़ने लगा है।”
नं. 40, क्यू ब्रिज कोर्ट,
चिजेक, लंदन
9-11-43
परसों प्रात: काल मैं लंदन पहुँचा। ज्योंही गाड़ी यूस्टन स्टेशन के नं. 9 प्लेटफार्म पर रुककर खड़ी हो गई, मैं झट से नीचे उतर पड़ा। नीली वर्दी में औरतें कुली का काम कर रही थीं, लोग कायदे से इधर-उधर चल-फिर रहे थे, भीड़ बहुत थी किंतु शोर कम, और दूर, फीके आकाश में तीन-चार चीलें उड़ रही थीं। स्टेशन से बाहर निकला तो देखा–काली-काली तिमंजिली चौमंजिली इमारतें, लाल बसें, बहुत पुराने मॉडल की टेक्सियाँ, ऊँचे क़द के पुलिस के सिपाही, तेजी से कदम बढ़ाती हुई स्त्रियाँ, लंबी-लंबी चिमनियों से निकलता हुआ मटमैला धुआँ और ठूँठ वृक्षों की काँपती हुई टहनियाँ। एक धुँधला तैलचित्र था, जिसमें सब कुछ पुराना, प्रौढ़ और प्रतिक्रियाशील था। हाँ, लंदन की पहली झलक जँची नहीं।
लंदन में रहते हुए दो दिन बीत गए हैं। राशनिंग कार्ड और नेशनल आइडैंटिटी कार्ड बन चुके हैं, अंडर ग्राउंड रेलवे का नक्शा खरीद लिया है, कुछ बसों के नंबर याद हो चुके हैं और पड़ोस में रहने वाले मि. मौरफ्रेट की लड़की विनी मौरफ्रेट से जान-पहचान हो गई है। विनी सीधी, सुंदर और तरुण है। सुनहरे बाल, गहरी नीली आँखें, मँझले कद का इकहरा शरीर, सादा तौर तरीके और उभरे हुए लाल लाल होंठ उसे एक असाधारण व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। किंतु जिस नवयुवक के साथ वह प्रेम करती है वह आजकल फ्रांस के किसी मोर्चे पर है। कौन जाने कब युद्ध समाप्त हो और कब वह घर वापिस लौटे! इसलिए एक साँवली आशंका की छाया विनी की आँखों पर थिरकती रहती है और उसका यौवन परकटे पंछी के समान सीमाओं में सीमित रहता है।
इस समय रात के ग्यारह बजे हैं। मैंने बिजली बुझाकर खिड़कियों से ब्लैक आउट के काले पर्दे हटा दिया हैं और मोमबत्ती के धुंधले प्रकाश में यह डायरी लिखना आरंभ किया है।
कुछ देर पहले बमबारी हुई थी। मैं कमरे में बैठा हुआ, जर्मन कवि रेनर मेरिया रिल्के की कविताएँ पढ़ रहा था। इतने में, एयर रेड एलार्म का साईरेन बजा और मैंने किताब एक कोने में फेंकी, बिजली बुझाई और जल्दी से ओवर कोट पहन कर एयर रेड शेल्टर की शरण ली। करीब आधे घंटे तक हवाई जहाजों की दौड़-धूप, तीन-चार बमों के गिर कर फटने के धमाके और एंटि-एयर-क्राफ्ट गनों की गरजती हुई आवाज़ वातावरण को कंपित करती रही। बमबारी से यह मेरा पहला साक्षात्कार था, इसलिए, शेल्टर में जमा हुए और लोगों से मैं ज्यादा घबराया हुआ था। वैसे, दूसरों की मुद्राएँ भी गंभीर थीं, किंतु उनके चेहरों से ऐसा प्रतीत होता था कि बमबारी उनके दैनिक जीवन का एक अंग बन गई है। इस अप्रिय सत्य से भागना संभव नहीं था, इसलिए इसे स्वीकृत कर लिया गया। लेकिन यह ज़ाहिर था, कि यह कायरों की स्वीकृति नहीं थी, इसलिए मुझे उन पर श्रद्धा हो गई।
औल-क्लियर-साईरेन बज चुका है और मैं कमरे में वापस आकर सोच-विचार में लीन, कभी खिड़की के बाहर का दृश्य देखता हूँ और कभी लिखता हूँ।
शांत रात है, माया ममता रहित वैरागी के मुख-सी। आकाश में मुट्ठी भर तारे हैं, सूनी सड़कों पर नंगे वृक्ष और बिजली के खंभे हैं और बहुत दूर, हैमर स्मिथ में, मिलों-कारखानों से निकलता हुआ काला धुआँ हवा से फाग खेल रहा है। युद्ध के ज़माने में रात को आराम से सोना या सोचना-विचारना भाग्य में कहाँ? लेकिन इस समय एकांत है और वातावरण स्थिर और सुंदर है। चाहिए तो यह था कि युद्ध की बातों को भुलाकर व्यक्तिगत बातों से जी बहलाऊँ, किंतु न जाने क्यों, पिछले कुछ वर्षों का इतिहास स्वयं अतीत के बादलों को चीरता हुआ अपने आपको प्रस्तुत कर रहा है और मैं देख रहा हूँ–
सन् 1931 में जापानियों का मंचूरियाँ में प्रवेश, सन् 1935-36 में मुसोलिनी का एबीसीनिया पर कब्जा, सन् 1936 के बाद स्पेन में गृह युद्ध की घटाएँ, सन् 1937 में जापान का चीन पर हमला, सन् 1937 में हिटलर का डरा-धमका कर ऑस्ट्रिया को हड़प कर जाना; सन् 1939 की गर्मियों में चेकोस्लोवाकिया का अंत और फिर, एलबानियाँ और पोलैंड की चीख-पुकार, रूस और जर्मनी का समझौता, वर्तमान महायुद्ध का आरंभ, रूस के हवाई जहाजों की फिनलैंड पर बमबारी, डेनमार्क और नारवे पर स्वस्तिका की छाया, हॉलैंड और बेल्जियम का पतन, डेनमार्क का अजीब तमाशा, फ्रांस का लज्जाजनक आत्मसमर्पण, लंदन की बमबारी, एटलांटिक और प्रशांत महासागर में समुद्री लड़ाई।
सब कुछ साफ-साफ नज़र आ रहा है,–रक्त की धाराएँ, अधमरे सिपाहियों के दयनीय मुख, गिरते हुए मकान, उजड़ते हुए मुहल्ले, भागते हुए शरणार्थियों की चीख-पुकार और आग की लाल-पीली लपटें–
लेकिन…लेकिन सूनी रात है और लंदन दो घड़ी चैन की नींद सो रहा है।
नं. 40, क्यू ब्रिज कोर्ट
चिजेक, लंदन
13-11-43
लंदन, आधुनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का एक शिरकता हुआ प्रतिबिंब है। अभी तक, यह भूत की चहारदीवारी से अच्छी तरह बाहर नहीं निकला, वर्तमान को पूरी तरह समझ नहीं सका और भविष्य का सामना करने के लिए इसने अभी कमर नहीं कसी।
पार्क लेन में जो लोग रहते हैं वे शिष्ट कम अनुदार विचारों के हैं। नाईट्स ब्रिज और सौऊथ कैंसिंगटन के गंभीर किंतु सीमित और ईस्ट एंड के लोग सीधे, भावुक, किंतु मैले-कुचैले हैं। यहाँ के व्यापारी, जो संसार भर के वाणिज्य और व्यापार की बागडोर अपने हाथों में संभाले हुए हैं, देखने-सुनने में उतने ही अंतर्राष्ट्रीय लगते हैं जितना कि बैंक ऑफ इंग्लैंड, किंतु सच तो यह है कि वे उतने ही सख्त हैं जितना कि वह सोना जो दुनिया के हर कोने से लाकर वे इंगलैड में जमा करते रहते हैं। बौंड स्ट्रीट की वेश्याएँ, ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट और रीजेंट स्ट्रीट के सभ्य दुकानदार और पिकेडिली के होटल वाले भारी जेब वालों को ही मनुष्य समझते हैं। हार्ले स्टार में वे डॉक्टर रहते हैं जो मध्य वर्ग को निम्न वर्ग समझते हैं और यह सोचते हैं कि इलाज तो केवल अमीरों का ही हो सकता है और बाकी सब तो लाइलाज हैं। चैलसी और बलूम्सबरी में रंग-बिरंगा मखमली कोट पहनने वाले कलाकार और साहित्यिक रहते हैं जो आरामकुर्सी पर लेटे-लेटे अधखुली आँखों से उस महाक्रांति के स्वप्न देखते हैं जिसके बाद सत्य, शिव और सुंदर बाँहों में बाँहें डाल सड़कों पर घूमते फिरेंगे। फ्लीट स्ट्रीट में दुनिया भर के समाचार एकत्रित किए जाते हैं और फिर उन्हें काट-छाँट कर, नया रंग-रूप देकर, मोटी-मोटी ऐनक पहनने वाले संपादक पाईप के कश खींचते हुए लार्ड बेवरबुक के दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं। स्विस काटेज में यहूदी रहते हैं, पेटीकोट लेन में चोरी और चोरबाजारी का सामान बिकता है, कैम्डन टाउन में निम्न मध्यवर्ग के लोग दैनिक जीवन के संघर्षण की छाया तले विश्राम करने की चेष्टा करते हैं। हे मारकेट में चमकते-दमकते नाटकघर हैं। चैरिंग क्रास रोड में पुरानी किताबों की दुकानों की कतारें लगी रहती हैं। लैस्टर स्क्वायर में नेपोलियन की प्रतिमा पर कबूतर बैठे रहते हैं, टौटनहम कोर्ट रोड में हबशी अँग्रेज़ लड़कियों की कमरों पर हाथ धरे खड़े रहते हैं, और शाम को, हेमस्टेड हीथ में हरी बेंचों पर बैठे हुए जोड़े, किलकारियाँ मारते हुए बच्चों के खेल देखते हैं।
कभी-कभी मैं लंदन की विशालता में खो-सा जाता हूँ। ऐसा लगता है कि सब कुछ बड़ा, बहुत बड़ा और विषम है। सामूहिक और संगठित जीवन का विराट रूप मेरे व्यक्तित्व को कुचलने लगता है और सब कुछ पराया और बेगाना लगता है किंतु ऐसा इसीलिए होता है कि मैं तटस्थ होकर लंदन और लंदन के जीवन पर विचार करता हूँ। अभी तक मैं यहाँ के जीवन में घुलमिल नहीं पाया। मैं लंदन में हूँ, लंदन का नहीं हूँ। जिस दिन ऐसा हो जाएगा उस दिन मुझे नहीं लगेगा कि मेरा व्यक्तित्व सिकुड़ने लगा है।
परसों शाम बड़ी अजीब घटना देखी। ईस्ट एंड में सिंह रेस्टुरां में डॉक्टर मुल्कराज आनंद के साथ खाना खाकर, मैं कुछ दूर तक अकेला पैदल जा रहा था। बहुत रात नहीं हुई थी, इसलिए, सोचा कि जरा ईस्ट एंड की दुनिया देखता जाऊँ किंतु अभी दो-चार ही कदम आगे बढ़ा था कि एक शराबखाने के बाहर बहुत से लोगों की भीड़ देखकर रुक गया। वैसे, मैं व्यक्तिवादी हूँ, भीड़-भाड़ और शोरोगुल से, मुझे घृणा है! किंतु यह सोचकर कि देखें ईस्ट एंड में झगड़े-फसाद किस तरह के होते हैं, मैंने अपना नियम तोड़ ही दिया। बड़ा रोचक किस्सा था। एक शादीशुदा औरत किसी अमेरिकन सिपाही के साथ उस शराबखाने में चली आई। दोनों शराब पीकर मस्त हो, भविष्य में मिलने-जुलने के इरादे बाँध ही रहे थे कि इतने में उस स्त्री का पति भी उस शराबख़ाने में आ पहुँचा। फिर क्या था…उसने आते ही अमेरिकन सिपाही की नाक पर घूसा मारा। अमेरिकन सिपाही यकायक घूसा खाकर संभल नहीं सका। किंतु वह उस अँग्रेज़ से तगड़ा था। इसलिए, कुछ ही देर में उठ खड़ा हुआ और उसने पल ही पल में उस अँग्रेज का कचूमर निकाल दिया। जिस समय मैं घटना स्थल पर पहुँचा, अमेरिकन सिपाही माथे का पसीना सुखा रहा था, वह अँग्रेज ज़मीन पर बैठा हुआ मैले रूमाल से अपनी नाक से निकलता हुआ खून पोंछ रहा था और उसकी स्त्री चुपचाप एक बिजली के खंभे के सहारे खड़ी हुई अपनी नाक पर पाउडर लगा रही थी। मुझे लोगों की निष्पक्षता पर आश्चर्य हुआ। सब के सब चुप थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। न किसी ने आचार-शास्त्र के सिद्धांत ही दुहराए और न किसी ने नागरिकता पर ही व्याख्यान दिया।
जब वह अमेरिकन सिपाही विदा हुआ, तो उसने सब से बड़े शिष्टता से हाथ मिलाया, उस अँग्रेज़ स्त्री का हाथ दबाकर उससे कहा, ‘बैड लक हनी’ और फिर रात की काली स्याही में लुप्त हो गया।
Image: Composition N. 11 London with Blue, Red and Yellow
Image Source: WikiArt
Artist: Piet Mondrian
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