द्विवेदी जी का पत्र

द्विवेदी जी का पत्र

दौलतपुर, रायबरेली
2-3-38

प्रिय चतुर्वेदी जी,

पहले तो आप मुझ पर विशेष कृपा किया करते थे। क्या कारण है जो अब आप मेरी खबर तक नहीं लेते–जीता हूँ या मर गया!

मालूम हुआ है कि आप ‘विशाल भारत’ से किनाराकशी करके टीकमगढ़ चले गए। क्या कलकत्ते से सदा के लिए विदा हो आए? आशा है महाराजा साहब की छत्र-छाया में आप सानंद और सुखी होंगे–किसी बात की कमी न होगी, सांपत्तिक अवस्था भी अच्छी होगी।

महाराजा साहब ने बहुत यश, बहुत कीर्ति कमाई। उनका हिंदी-प्रेम सर्वथा प्रशंसनीय है, अनेक ग्रंथकारों, कवियों और हिंदी-हितैषियों के विषय में वे द्वितीय कर्ण हो रहे हैं। ईश्वर करे वे दीर्घायु हों और उनका कल्याण हो। यह लिखते समय मुझे संस्कृत का एक श्लोक याद आ रहा है। अर्क (मदार) की झाड़ी वर्षाऋतु से कहती है–

त्वयि वर्षति पर्जंय सर्वे पल्लविता द्रुमा:।
अस्माकमर्कवृक्षाणां जीर्णपत्रेऽपि संशय:॥

मैं अब बहुत वृद्ध हो गया। कमजोरी बेहद बढ़ रही है। चलने में पैर लड़खड़ाते हैं। दृष्टि मंद हो गई है। ‘लीडर’ अब अच्छी तरह नहीं पढ़ सकता। छटाँक भर दलिया भी हजम नहीं होता। दूध पीकर और लौकी का जरा-सा साग खा कर जी रहा हूँ। देखूँ ये भोग कब तक भोगने पड़ेंगे।

कृपापात्र
म. प्र. द्विवेदी


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