लोक-रंगमंच का नवनिर्माण

लोक-रंगमंच का नवनिर्माण

एक विशाल वटवृक्ष के नीचे प्रत्यंचा की भाँति घुमावदार चबूतरा जिस पर मिट्टी के कलश चार दीपकों का भार सँभाले हुए अपनी चित्रित आशा में देदीप्यमान हो रहे थे। वृक्ष के दोनों ओर बाँस और ताड़ की चटाई के पर्दे जिनके पीछे शृंगार-कक्ष ‘ग्रीन रूम’ का आभास होता था। चबूतरे के सामने और पार्श्व में कुछ दरियाँ और चटाई। वटवृक्ष के तने के सहारे एक ग्राम देवता की मूर्ति और उसके आसपास कुछ बंदनवारें। बस इतनी ही सजावट थी उस रंगमंच की। लेकिन साँझ होते ही उसकी धुँधली ज्योति के इर्द-गिर्द बच्चे, बूढ़े, युवक-युवती, थके हुए हलवाहे, ऊँघता दूकानदार, मुस्कराता ग्वाला, सभी मँडराने लगे। थोड़ी देर बाद स्थानीय पाठशाला के अध्यापक ने कार्यक्रम पढ़ कर सुनाया। तब तक सामने का मैदान भर चुका था। जब माँझियों का सम्मिलित गीत प्रारंभ हुआ, तो सारे दर्शकों की सामूहिक उत्सुकता तन्मयता की एक सर्वव्यापी लय में परिवर्तित हो गई। माँझियों का गीत धरती की उत्ताल जलतरंगों की ललकार थी, सारा वातावरण झूमने लगा। उसके बाद एक अधेड़ ग्वाले ने कुछ ‘नकलें’ सुनाईं, मीठा व्यंग्य, हलकी चुटकियाँ गाँव के चिर परिचित चरित्रों पर फबतियाँ कसीं लेकिन बिना किसी दुर्भावना के। तदुपरांत एक लघु नाटक स्थानीय छात्रों द्वारा प्रस्तुत किया गया। कथा थी कि बटवारे के बाद दो भाई अपने-अपने खेत की रखवाली करते समय कैसे एक छोटी-सी बात पर झगड़ पड़ते हैं। लड़ाने वाला वही गाँव का चिरपरिचित मुकदमेबाज। सारे नाटक में वार्तालाप संयत था, लेकिन कथानक सत्वर और घटनाक्रम प्रभावोत्पादक।

और यों उस रंगमंच की विभा फैलती ही गई और दर्शक समूह भी झूमता ही गया। यह वर्णन किसी काल्पनिक रंगमंच का नहीं है। लगभग दस दिन हुए उत्तर बिहार के दो गाँवों में जो कुछ मैंने देखा यह उसी की एक झलक है। उनमें से एक ग्राम में हर पंद्रहवें रोज यानी पूर्णिमा और अमावस्या को इलाके भर की जनता और धूल में छिपे हीरों की भाँति प्रतिभावान् गायक, अभिनेता और नर्तक जमा होते हैं। दो महीने के भीतर ही यह पाक्षिक उत्सव उन ग्रामों के जनजीवन का एक प्रधान अंग बन गया है। जिस रसधारा को ऊपर से डाला गया उसका लोक जीवन की धमनियों में सतत प्रवाहशील रसस्रोत से नाता जुड़ गया और अब उसका सौंदर्य कोश अक्षय है।

उस गाँव में लोक रंगमंच का प्रारंभ करते समय हम लोगों के सामने उद्देश्यों और कार्यक्रम का बिलकुल स्पष्ट चित्र नहीं था। लेकिन दो महीने के अनुभव से ही कई बातें साफ हो गईं। यदि यह अनुभव न होता, तो मेरे सारे कथन सिद्धांतों का पिष्ठपेषण मात्र होते। लेकिन लोक रंगमंच की बुनियाद में जनजीवन से बराबर संपर्क और नित नए प्रयोगों का तारतम्य अपेक्षित है। पिछले दस वर्षों में हमारे देश में अन्य प्रगतिशील राष्ट्रों की देखा-देखी लोक रंगमंच के कई प्रयोग होते रहे हैं। प्राय: ये प्रयोग दो प्रकार के रहे हैं। या तो बड़े-बड़े नगरों में पढ़े-लिखे और प्रगतिशील समाज के युवक-युवतियाँ लोकनाट्य और गीतों का बड़ी चमक-दमक के साथ प्रदर्शन करते रहे हैं, या उसी वर्ग के लोग, कुछ दल बनाकर राजनैतिक प्रचार के विचार से गाँवों में भेजते रहे हैं। दोनों ही प्रदर्शन वस्तुत: कृत्रिम रहे। एक में ग्रामजीवन अजायबघर की वस्तु हो गई है, दूसरे में प्रचार का क्षेत्र। एक में ग्रामीण जनता नागरिक कलात्मक प्रयोगों के लिए सहारा है और दूसरे में वे मात्र दर्शक। चाहिए तो यह था कि ग्रामीण जनता और लोकजीवन के बीच में ही, उन्हीं के बिखरे और खोए साधनों से संपर्क होकर लोक-रंगमंच का श्रीगणेश किया जाता। ऐसे लोक-रंगमंच की ही जड़ें मजबूत हो सकती हैं और ऐसा ही रंगमंच जनजीवन को भी परिष्कृत और उन्नत बनाने में समर्थ हो सकता है!
लोक-संस्कृति के ये बिखरे हुए साधन क्या हैं? सबसे पहले तो हमें ग्रामों में छिपे पड़े अभिनेताओं, गायकों और नर्तकों के विषय में पूरी जानकारी करके, उन्हीं को एक संस्था के रूप में संगठित करना है। लोक-रंगमंच का इसी उद्देश्य से सूत्रपात हो कि पहले प्रदर्शन से ही ग्रामीण प्रतिभा को स्टेज पर लाया जाएगा, छात्रगण या नगर से गए हुए कलाकार पीछे रह कर ही निर्देशन करेंगे और बीच-बीच में अपना प्रोग्राम भी दिखाएँगे। प्रधानता दी जाएगी देहाती प्रतिभा को ही। जहाँ भी रंगमंच स्थापित किया जाएगा, उसके मुख्य सदस्य और कर्णधार वे ही लोग होंगे। ये ग्रामीण कलाकार प्राय: छोटी कही जाने वाली जातियों में पाए जाते हैं। भले कहाने वाले उच्चवर्गीय लोग तो उनके संपर्क में आना भी पसंद नहीं करते हैं। लेकिन युग-युग की धरोहर लोक-संस्कृति तो इन्हीं के पास सुरक्षित है। इनके अतिरिक्त देश के कुछ भागों में मध्यकाल से विविध प्रकार की मंडलियाँ संगठित होती रही हैं, नौटंकी, जात्रापार्टी, कीर्तनमंडलियाँ और भोजपुरी नाटकमंडलियाँ, इसी क्षण रंगमंच के उदाहरण हैं। एक जमाने में समूचे लोक जीवन को ये ही मंडलियाँ सरस बनाती थीं। पिछले दिनों लोक जीवन और नवीन भारतीय संस्कृति और चेतना के बीच जो पार्थक्य हो गया, उसके फलस्वरूप इन मंडलियों को निर्देशन और उच्च सांस्कृतिक प्रेरणा मिलनी बंद हो गई। साठ-सत्तर वर्ष पहले तक बड़े-बड़े जमींदार और धनीमानी सज्जन इन मंडलियों के संरक्षक थे और उनकी परिष्कृत रुचि उन्हें नए विषय, कथानक और वेशभूषा इत्यादि की सुविधाएँ देते थे। किंतु समाज के नए नेताओं ने वह लीक छोड़ दी और शहर की राह पकड़ी। परिणामत: इन मंडलियों को अपने ही साधनों द्वारा और अपनी ही रुचि के अनुसार जीविका-निर्वाह के लिए काम चलाना पड़ा। निर्देशन और रुचि-परिमार्जन के अभाव में न तो इन मंडलियों में वह नैसर्गिक और निश्छ्ल सौंदर्य-छटा रह सकी जो हमें साधारण ग्रामीणों माँझियों के नृत्य, हरवाहों की तान इत्यादि में मिलती है और न वह कलात्मकता जो उच्चकोटि के प्राचीन नाटकों की विशेषता है। फिर भी इनके अनेक नाटक हृदयग्राही हैं, मार्मिक हैं और लोक जीवन की करुण परिस्थितियों के परिचायक भी। कला में निखार कम है, पुनरुक्तिदोष की भी बहुलता है और कहीं-कहीं भद्दी रुचि की झलक भी। फिर भी जन-मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय साधन यही मंडलियाँ हैं। भिखारी ठाकुर के ‘बिदेसिया’ लोक-रूपक का तो भोजपुर के जन-मानस पर एकछत्र अधिकार है। उनके जैसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों के द्वारा ही यह उपेक्षित लोक रंगमंच की धारा कभी सूखने नहीं पाई।

तो, लोक रंगमंच के नवनिर्माण में हमें इन मंडलियों के प्रतिभावन अभिनेताओं को साथ लेना है, और उनकी लोकप्रिय शैली से नए रंगमंच और नाटक के उपकरण भी उधार लेने हैं। लोक-रंगमंच पर आधुनिक समस्यामूलक यथार्थवादी शैली के नाटक खेलना कोरी विडंबना होगी। प्राचीन संस्कृति नाटकों तक में, मृच्छकटिकम् को छोड़कर, यथार्थ परिस्थितियों अथवा संवादों की अवतारणा का प्रयास बहुत कम लिया जाता था। भारतीय कला का आधार यथार्थ का अनुकरण है ही नहीं। चित्रकला, मूर्तिकला, नाटक, सभी क्षेत्रों में पाश्चात्य परंपरा से हमारी परंपरा इस विचार से बहुत कुछ भिन्न है। वास्तव में तो जो हमारी उत्कृष्ट साहित्य और कला की परंपरा है, वही हमारी लोक-कला और साहित्य की भी। सारे विश्व में लोक-कला यथार्थ को प्रतिबिंबित करने का प्रयास नहीं करती, वह तो यथार्थ जीवन में से रससिक्त सौंदर्य संपन्न और मर्मस्पर्शी अनुभवों को चुनकर ही सजा-सजा कर सामने रखती है। इसलिए अस्वाभाविकता को इन नाटकों के दोषों में शुमार करना एक मूल सिद्धांत को विस्मृत करने के तुल्य होगा। बिदेसिया प्रभृति नाटकों में आधे से अधिक संवाद पद्य में होता है। काव्य मार्मिक परिस्थितियों के लिए स्वाभाविक भाषा है और पद्य जन जन के स्मृतिपटल पर अधिक आसानी के साथ अंकित हो जाते हैं। इन नाटकों में पात्रों के परिचय की भी प्रणाली रंगमंच की आवश्यकताओं के अनुसार है। हमें इस प्रणाली के अनुकरण में नवीन रंगमंच के लिए सूत्रधार का सृजन करना होगा! सूत्रधार न सिर्फ पात्रों का परिचय कराएगा बल्कि दृश्यों और अंकों के बीच कड़ी का काम करेगा और पात्रों की वेशभूषा इत्यादि बदलने का अवसर भी देगा।

प्रचलित नाटक मंडलियों से हमें न सिर्फ प्रतिभावान् व्यक्तियों और शैली की विशेषताओं को लेना है बल्कि अपनी रंगशाला (स्टेज) की रूपरेखा भी उनके अनुभवों के आधार पर ही बनानी हैं। लोक-रंगमंच बंद भवन में हो ही नहीं सकता और उसका स्वप्न जितनी जल्दी त्यागा जाए उतना ही अच्छा। रंगशीर्ष यानी स्टेज के आगे पर्दे की आवश्यकता नहीं। पर्दा एक पीछे हो जो कभी-कभी भीतरी दृश्य दिखाने के लिए हटाया जा सके। रंगमंच के दोनों तरफ कुछ नीचे दो ओर चबूतरे हों। एक तरफ वाद्यकार आपस में बाजों के साथ बैठे और सूत्रधार के लिए भी स्थान हो, दूसरी ओर कुछ विशेष अतिथियों के लिए स्थान सुरक्षित रहे या स्त्रियों के लिए। सामने और दोनों पार्श्व में दर्शक बैठें। यदि रंगमंच के लिए कुछ धन उपलब्ध हो, तो प्रेक्षागृह यानी Auditorium आधुनिक सरकस की भाँति अर्धवर्तुलाकार बनाया जा सकता है जिसमें सबसे पीछे बैठने के स्थान सोपानों के रूप में होंगे। लेकिन साधारणत: लोक-रंगमंच कम से कम साधनों के द्वारा ही बनाया जाना चाहिए और उसकी सजावट के लिए देहाती हाटों में मिलने वाले पदार्थों का ही उपयोग करना चाहिए। तेल, गेरु, ताड़ के पत्ते और उसकी चटाइयाँ, सींक की रंग-बिरंगी टोकरियाँ, मिट्टी के कलश और दीपक, देहाती जुलाहों द्वारा बुनी हुई विविध रंगों की साड़ियाँ और गमछे, बाँस की टट्टी और पर्दे, सुतली की झालरें, ऐसी अनेक वस्तुएँ हर देहाती हाट में मिलती हैं। लोक-रंगमंच के निर्माणकर्ता को इन्हीं पदार्थों द्वारा अपने रंगमंच की छटा बढ़ानी है। बिहार के एक सिद्धहस्त कलाकार की उँगलियों में वह जादू है कि साधारण देहाती वस्तुओं को ही देखते-देखते सौंदर्यराशि का रूप दे देते हैं। उन्होंने वैशाली में दो-चार अनपढ़ देहाती मजदूरों को अपनी यह कला सिखा दी है और अब वे लोग बिना उनकी सहायता के रंगमंच की शोभा सँवार देते हैं।

चूँकि लोक-रंगमंच में भव्य पर्दों के द्वारा दर्शक को चकाचौंध में नहीं डाला जाता, इसलिए यह आवश्यक है कि वेशभूषा और पोशाक कमनीय और नयनाभिराम हों। लेकिन इस विषय में भी लोक-जीवन के दायरे से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं और न यथार्थ वेशभूषा और अंगराग की ओर ही दौड़ने की जरूरत है। वेशभूषा लोक-कला में प्रतीक के तुल्य हैं। त्रावणकोर के कथाकली नृत्य नाट्य में पोशाक बड़ी मेहनत से तैयार की जाती है और उसके प्रत्येक अंग-उपांग में गागर में सागर की भाँति प्रतीकों द्वारा भावानुभाव की राशि समाविष्ट रहती है। कथाकली की यह विशेषता है कि पृष्ठभूमि बिल्कुल सादी होते हुए भी वेशभूषा भव्य और रंग-बिरंगी होती है। लंका के सुप्रसिद्ध लोकनृत्य-कांडी नृत्य में भी मैंने यही विशेषता पाई। वेशभूषा रमणीय और कलात्मक होते हुए भी ग्रामीण पदार्थों से ही बनाई जाती है। पटने के आसपास छठ के मेले में जो देहाती बाजे वाले उपासकों के दलों के साथ जाते हैं, वे अपनी धोतियों के ऊपर अत्यंत चित्ताकर्षक वस्त्र लपेट लेते हैं। तो हमारे नए लोक-रंगमंच पर उतरने वाले अभिनेताओं को इसी भाँति के रंग-बिरंगे वस्त्रों का उपयोग करना होगा और शायद विशेष प्रवृत्ति के पात्रों के लिए खास रंगों की वेशभूषा निर्धारित करनी होगी। फिर भी नियमों और अंधपरिपाटी के बंधनों से बचना होगा, स्थानीय परिस्थितियों और कला की शैली के अनुकूल ही लोक-रंगमंच बदलता रहेगा।

यह तो कहना अनावश्यक है कि लोक-रंगमंच पर हारमोनियम या अन्य शहरी वाद्यों का बहिष्कार होना चाहिए। हमारे लोकसमाज में न जाने कितने सुंदर और उपयोगी वाद्य उपेक्षित पड़े हैं, उनमें से कितने ही प्राचीन वैदिक वाद्यों की परंपरा में हैं। किंतु कालांतर में वे न सिर्फ विस्मृत हो गए बल्कि हेय और निम्न कोटि में भी गिने जाने लगे। अभी उसी दिन एक देहाती युवक से मैंने केवल सवा रुपए में सारंगी के ढंग का एक वाद्य खरीदा, जिसका स्वर हारमोनियम की अपेक्षा कहीं अधिक मानव स्वर के अनुकूल है।

तात्पर्य यह है कि लोक-रंगमंच के उन्नयन के द्वारा हम न सिर्फ ग्रामीण संस्कृति का उत्थान कर सकेंगे बल्कि अनेक ग्रामीण शिल्पों और व्यवसायों को फिर से संगठित कर सकेंगे। लोक-संस्कृति समूचे लोक जीवन से संबद्ध है, यह कथन केवल एक दलील ही नहीं है। यह तो एक ऐसा तथ्य है जिसको सरलता से कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है। लोक-संस्कृति हृदय और मानस की तुष्टि का माध्यम मात्र नहीं है। वह अमीरों की दिमागी ऐयाशी नहीं, वह अवकाश में दिलबहलाव का साधन मात्र नहीं। लोक-संस्कृति जीने की कला है जिसकी छाप हर क्रिया पर रहनी चाहिए। वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को सरस और रंगीन और साथ ही साथ अधिक उर्वर बनाने की कला है। इसीलिए लोक-रंगमंच में व्यावसायिक यानी Professional और अव्यावसायिक यानी Amateur का कोई विशेष अंतर नहीं। यह वर्गीकरण तो शहरी सभ्यता और आर्थिक परिस्थिति की देन है। जहाँ जीवन अलग-अलग दरजों में विभक्त नहीं है, जहाँ लोग काम के संकीर्ण दरबे से छूटकर कृत्रिम मनबहलाव के तंग दरबे में नहीं घुसते हैं, वहाँ रंगमंच सारे जीवन की गति का प्रतीक हो सकता है। यही मुख्य अंतर है लोक-रंगमंच और नागरिक रंगमंच में और यही है उसके अक्षय अस्तित्व का रहस्य। जो धरती अन्न देती है वही गान भी; दोनों धरती की देन हैं, दोनों में एक चुनौती है, हमारे बाजुओं का और हमारे हृदय का। जब मैं इस चुनौती को सुन पाता हूँ, तो मुझे तरस आती है अपने ऊपर और अपने साथी नाटककारों के ऊपर। आखिर हम लोग जो क्षयग्रस्त रूमानी या सैद्धांतिक दलदल में फँसे मनोवैज्ञानिक नाटक लिख रहे हैं उनका जनजीवन में स्थान क्या है? हम जो अपने को नवीन चेतना के अग्रदूत समझते हैं, हम जो स्वतंत्र भारत की संस्कृति के ज्योतिवाहक माने जाते हैं, क्या है हमलोगों की कृतियों की हस्ती, क्या है हमारे स्वर का स्पंदन, क्या है हमारी इमारतों की बुनियादें? ये बुनियादें सरकती बालू पर स्थित हैं, यह स्वर किन्हीं रोगग्रस्त फेफड़ों से निकल रहा है। एक अहम्मन्य बौनापन हमारी कृतियों पर लड़खड़ा रहा है। जीवंत साहित्य इस ढंग से पैदा नहीं होगा। उसके लिए हमको अपने कान खोलने होंगे ताकि जनजीवन की चुनौति हम सुन सकें। और तब हमारी कलम उसी हल का प्रतीक होगी जो धरती से अन्नराशि निकालता है, क्योंकि हमारी कलम की नोक पर धरती के गान थिरक उठेंगे।

[ऑल इंडिया रेडियो के सौजन्य से]


Original Image: Phulkari_bridal_shawl_Punjab_early_20th_century_cotton_silk_and_embroidery_Honolulu_Academy_of_Arts
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