मानव और जीवन

मानव और जीवन

[रंगमंच का वातावरण शांत। धुँधला प्रकाश। एक सुंदर फुलवाड़ी का दृश्य। एक युवक का प्रवेश। सफेद धोती-कुर्ता पहने हुए। कंधे पर एक उत्तरीय भी है। यह मनुष्य ‘जीवन’ ग्रहण करने के लिए मर्त्यलोक में अभी-अभी उतरा है। चेहरे पर कुछ बेचैनी है। इधर-उधर कौतूहलभरी दृष्टि से देखता है। इसी बीच एक आवाज होती है और वह चौंक पड़ता है। फिर ‘जीवन’ नेपथ्य से गंभीर स्वर में पूछता है–]

जीवन–तू कौन है?

मानव–मैं हूँ मानव।

(वह चकित होकर कहता है)

जीवन–क्या चाहते हो?

मानव–जीवन।

जीवन–मुझे प्राप्त करना चाहते हो–मुझे?

मानव–हाँ, तुझे पाने को ही मैं अभी-अभी पितृलोक से मर्त्यलोक में उतरा हूँ।

(नेपथ्य में हँसी की आवाज)

जीवन–क्या तुमने मेरे सच्चे रूप को कभी देखा है–भीतरी स्वरूप को भी झाँका है? यदि नहीं, तो धोखे में पड़ जाओगे–अपने ही प्राण अपने शरीर के लिए भार हो जाएँगे मानव!

(एक धड़ाका होता है। उसी के साथ ही रंगमंच जगमगा उठता है और एक सुंदर युवती नृत्य करती हुई प्रवेश करती है। युवक के गले में एक पुष्पमाला डालकर वह नाचने लगती है। जैसे-जैसे नृत्य का समाँ बँधने लगता है, वैसे-वैसे मानव शांत मुद्रा में मुस्कुराता उसे गौर से देखने लगता है।)

(नाच बंद होता है)

मानव–सुंदर! अति सुंदर!! तुमने सौंदर्य को साकार बना दिया, कला को पराकाष्ठा पर ला दिया। सच कहना, तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है?

युवती–मेरे अनेक नाम हैं–मुझे कोई नारी कहकर पुकारता है तो कोई मायाविनी। कोई मुझे नरक का द्वार बताता है तो कोई वसुधा का सुधा-सरोवर। कामिनी मैं हूँ, रसवंती मैं हूँ, विश्वमोहिनी मैं हूँ और विश्वजननी भी मैं ही हूँ।

मानव–सर्वसुंदरी तुम्हीं हो, रस-माधुरी तुम्हीं हो, कला की मूर्ति तुम्हीं हो और मानव-जीवन-लहरी तुम्हीं ही।

युवती–भूलते हो मानव! मैं तो राग की परिचारिका हूँ और वैराग्य की प्रेरणा! सधवा का सुहाग हूँ और विधवा का दयनीय स्वरूप भी। हाँ, आग की ज्वाला भी हूँ और उषा की बयार की शीतलता भी। परंतु इस समय मैं काम की कन्या कामिनी हूँ।

मानव–सचमुच तुम कामिनी हो। तुम्हारे सौंदर्य में मैं संसार का सौंदर्य देख सकूँगा। तुम्हारे स्वर में मैं अपने जीवन-स्वर को सुन सकूँगा, तुम्हारे पायल की झनकार में मेरे हृदय के उद्गार छिपे रहेंगे और तुम्हारी मुस्कान में मेरे जीवनगान।

युवती–तुम अभी भोले हो, जीवन को नहीं समझते। मैं शक्ति का आह्वान भी करती हूँ और दुर्बल प्रवृत्तियों का उन्नयन भी। संसार की हर समस्या का मूल भी हूँ और समाधान भी।

मानव–कामिनी, तुम सब कुछ रहो, परंतु मेरी तो राज-रानी मेरी अपनी–

युवती–ना-ना, काम की कन्या तुम्हारी नहीं, कंचन की। पहले कंचन जुगाओ, फिर मेरी चिंता करना।

(इतना कह वह फिर नाचने लगती है और नाचते-नाचते अदृश्य हो जाती है। युवक सर थाम कर बैठ जाता है, फिर कुछ क्षणों के बाद कहता है–)

मानव–कामिनी भी ‘जीवन’ नहीं। इसे पाने के लिए कंचन जुगाना होगा। कंचन–कामोद–तब कामिनी।

दूसरा दृश्य

[नेपथ्य में–मानव ने कंचन की तलाश में जमीन-आसमान एक कर दिया। सड़क का गर्द-गुब्बार फाँका और संसार की खाक उसने छानी। नदी-नाले पार किए, पर्वत और सागर लाँघकर देशों की यात्रा की, जमीन में सुरंगें लगाईं, पानी पर जहाज चलाया, पहाड़ों पर लाइनें दौड़ाई गईं और आकाश में विमान चलने लगे। फिर वह धनकुबेर बन बैठा।]

(पर्दा हटता है–एक सुसज्जित कमरा। मेज, कुर्सियाँ सजी हैं। दीवाल में चित्र टँगे हैं। एक कोने में बड़ी गद्दी लगी है। उसी पर मानव एक सेठ की पोशाक में बैठा है। हाथ में हीरे की अँगूठी और गले में कीमती हार। कलाई में सोने की घड़ी और शेरवानी में नगीने के बटन। दोनों तरफ रोकड़बही का अंबार पड़ा है। कलम-दवात भी हैं। सामने टेलीफोन रखा है और एक छोटी गद्दी पर मुनीम जी बैठकर गोद रहे हैं। रोकड़ के पन्नों को उलटता हुआ मानव कहने लगता है–)

मानव–मुनीम जी, काम करते–करते अब जी ऊब गया। हटाइए बहीखाते को। कुछ दिलबहलाव, कुछ हँसी-मजाक–

मुनीम–हाँ हुजूर, उसे सवा सात में आने को कहा भी गया है। साढ़े सात हो रहे हैं। आती ही होगी।

(कामिनी का प्रवेश)

मानव–युग-युग जियो कामिनी! तुम्हारे इसरार पर मैंने आसमान-जमीन एक कर कंचन से महल भर दिया। अब तुम मुझे शांति दो, जीवन दो।

युवती–जो आज्ञा महाराज!

मानव–कामिनी! एक कविता सुनाओ। मेरे जीवन की कविता–जिसकी एक-एक कड़ी मेरे हृदय की ध्वनि बनकर मस्तिष्क में गूँज उठे, जिसकी आत्मा मेरी आत्मा में लय हो जाए और आनंदविभोर हो मैं जिंदगी के गीत गाने लगूँ।

(युवती तानपूरा लेकर गाने लगती है, पंद्रह मिनट तक गाती रहती है। फिर गान बंद होता है और मानव कहता है–)

मानव–तुम्हारी कविता में माधुर्य है, अमर-संदेश है। यह पीयूष का फुहार है और कामिनी का शृंगार भी। इसकी एक-एक कड़ी करोड़ रुपये की है। पुरस्कार माँगो कामिनी!

युवती–बस, आपका प्यार।

मानव–यह तो मिला ही समझो, मगर कुछ द्रव्य भी माँगो।

युवती–तो महाराज, वह गले का हार…

(मानव चौंक पड़ता है)

मानव–अरे, यह नवलखा…

युवती–मगर मेरी कविता की एक-एक कड़ी भी तो एक-एक करोड़ रुपये की है! क्यों महाराज, कंचन से इतना शीघ्र आसक्ति बढ़ गई? आपके खजाने में ऐसे अनेक हार पड़े होंगे।

मानव–ना-ना।

(टेलीफोन की घंटी बजती है। मानव तुरत फोन उठा लेता है, फिर चौंककर चिल्लाता है–)

मानव–हाय, मैं मारा गया! मैं लुट गया! कहीं का न रहा।

मुनीम–क्या हुआ सेठ जी? आखिर मैं भी सुनूँ!

मानव–शेयर मार्केट की रिपोर्ट। कपड़े के शेयर का भाव गिर गया। मेरा दस लाख डूब गया। अब क्या होगा!

युवती–आप चिंतित न हों महाराज! व्यवसाय का घाटा व्यवसाय ही पूरा करता है। धीरज धरें।

मुनीम–भला दस लाख से आपका क्या बनने-बिगड़ने का, यह तो दरिया की एक बूँद है।

मानव–अरे, चुप रह बेवकूफ! मरूँ मैं और सांत्वना दे तू!

युवती–आखिर मुझे क्या हुक्म होता है?

मानव–अभी जाओ, फिर कभी मिलना। देखती नहीं–सर पर आसमान टूट रहा है, विपत्ति के बादल घिर रहे हैं!

(युवती चली जाती है)

मानव–गजब हो गया मुनीम। ऐसा क्यों हुआ? मुझे शांति क्यों नहीं मिलती? कंचन मुझे मिला, कामिनी मुझे मिली, परंतु शांति-भंडार में मैं अकिंचन का अकिंचन ही रहा। मेरी आँखों में नींद हराम है, चित्त की शांति दुर्लभ हो रही है और जहाँ मनबहलाव का साधन इकट्ठा कर मनोरंजन शुरू करता हूँ कि अमंगल हो जाता है। आखिर मैं क्या करूँ, कैसे रहूँ? तुम्हीं कोई रास्ता निकालो।

मुनीम–सेठ जी, बहुत दिनों से सोच रहा था कि मैं आपको अपने दिल की बात बताऊँ, मगर ओठ पर आकर मेरी बात सटक जाती थी। आपको कंचन मिला, कामोद भी और कामिनी भी, परंतु शांति न मिली–क्यों? आपने कभी सोचा भी है इस पहलू पर?…नहीं? तो सुनिए, आपने सब कुछ किया परंतु धर्म के नाम पर अभीतक कुछ नहीं किया। आपका भंडार भर गया है, अब परोपकार के मार्ग में भी तोड़ों के मुँह को खोल दीजिए। कुछ दान-पुण्य हो, पूजा-पाठ हो, जप-यज्ञ हो–फिर तो शांति ही शांति है हर घड़ी, हर पल।

मानव–तुमने पते की बात कही मुनीम। बस, दान-पुण्य के ही अभाव से मेरा जीवन अशांत हो गया है। खोल दो तोड़ों के मुँह को और लुटा दो मेरे रुपये को। गजब नुस्खा बताया तुमने।

मुनीम–तो बाहर भिखमंगों की एक टोली बैठी है। यहाँ की कुर्सियों को एक कोने में हटाकर क्या मैं उन्हें यहीं बुला लूँ? आप अपने हाथों कुछ पैसे बाँट दें। अपने हाथों दान देने का सवाब बहुत ज्यादा होता है।

मानव–हाँ-हाँ, जरूर।

(कुर्सियों को हटाकर मुनीम फटे-पुराने कपड़ों में लिपटे कुछ लड़कों को बुला लाता है। सेठ जी उनके सामने रुपये और रिजकारियाँ फेंकते हैं। वे झपटकर उन पर टूट पड़ते हैं और कामिनी गाती हुई प्रवेश करती है। बच्चे भी साथ-साथ गाते हैं। परदा गिरता है।)

तीसरा दृश्य

[नेपथ्य में–धनकुबेर मानव ने शांति की खोज में धर्म के नाम पर लाखों लुटा दिए। शहरों में बड़ी-बड़ी धर्मशालाएँ बनीं, गरीबों के लिए अस्पताल बने, विधवाओं के लिए विधवाश्रम, अनाथों के लिए अनाथालय और साथ-ही-साथ बाढ़-पीड़ितों के लिए भंडार से अन्न बाँटे गए तथा कपड़े की मीलों से वस्त्र। फिर उसने तीर्थाटन की ठानी, चारों धाम की यात्रा की, मंदिरों में प्रसाद चढ़ाया और पंडों को रुपये दिए। पवित्र स्थानों की मिट्टी खाई और धूलों में लोट कर तथा गंगा-स्नान कर शरीर शुद्ध किया। परंतु चित्त की अशांति दूर न हुई। वह शांति को छूने के लिए जितना ही दौड़ता, उतना ही वह दूर भागती। आखिर क्यों–ऐसा क्यों? आवाज बंद होती है। पर्दा हटता है।]

(जंगल का दृश्य, कोने में एक साधु ध्यान में बैठे हैं। मानव उनके सामने आकर खड़ा होता है और झुककर प्रणाम करता है। फिर साधु पूछते हैं–)

साधु–तुम कौन हो?

मानव–मैं हूँ मानव।

साधु–जीवन देखा तुमने?

मानव–नहीं बाबा, यहाँ कदम रखा नहीं कि मायाविनी कामिनी से भेंट हो गई। वह अपरूप सुंदरी है, साकार सौंदर्य! वह मेरी अपनी हो गई–हर घड़ी की संगिनी–हर पल की जीवन-सहचरी।

साधु–तुझे यहाँ और क्या मिला? (गंभीर आवाज में)

मानव–बाबा, कंचन! मुद्रा!! द्रव्य!!!

साधु–यह क्या है?

मानव–यह है जीवन को सफल बनाने की राह, जीवन को सुखमय बनाने का साधन। यह वह चीज है जिससे हम संसार जीत लें, आदमी को खरीद लें, नारी के प्रेम को पा लें, स्वर्ग-सुख को सांसारिक महलों में उतार दें और अपने यश की पताका हर कोने में लहरा दें। हर एक की आवाज में हमारा जयजयकार हो और हर एक के मुँह पर हमारा नाम।

साधु–फिर मेरे पास क्यों आए हो? यहाँ तुम्हें द्रव्य नहीं मिलेगा। यह तो गरीब की कुटिया है, तपस्वी का साधना-मंदिर है। और, तुम्हें तो सब मिल गया, अब चाहते क्या हो?

मानव–हाँ, यह तो भूल ही गया था। शांति चाहता हूँ, महाराज–शांति! (घबराकर)

साधु–क्या वह नहीं मिली?

मानव–नहीं।

साधु–तब तो तुम्हारा कंचन तुम्हारे सरदर्द की दवा नहीं बन पाता। आखिर इसकी दवा मिली तुम्हें?

मानव–बाबा, इस दवा की खोज में मैंने कितनी धर्मशालाएँ बनवाईं, अस्पताल खुलवाए, गरीबों को अन्न दिया, बाढ़-पीड़ितों को वस्त्र भी; परंतु यह दर्द जीवन का परकाला बन गया। कहीं भी शांति नहीं, कहीं भी चैन नहीं। देव-दर्शन में, तीर्थाटन में, हवन-पूजन में तथा भजन-गान में–कहीं भी शीतलता नहीं मिली और न सघन छाया ही।

साधु(मुस्कुराकर) मानव, तू जीवन की पंखुड़ियों पर ही लोट-पोट कर रह गया, परंतु सौरभ बिखेरनेवाले उसके हृदय तक न पहुँच सका। पंखुड़ियों की चिकनाई पर ही तू फिसल गया, उसका सुनहरा रंग ही तेरी आँखों में छिप गया। परंतु जब पंखुड़ियाँ झरने लगीं तब तुझे उसकी वास्तविकता का पता चला। फिर तू ओस से प्यास बुझाने की चाह रखता है; यह तेरी दयनीय दशा का जीवंत दृश्य है। हँसी की खोज में तूने गारा-ईंटों की इमारतें खड़ी कीं तथा दूसरों को हँसाकर हँसने की व्यर्थ कोशिश की। दुखियों की आह को तूने कान देकर सुना, उनके घाव पर मरहम-पट्टी लगाई, परंतु उनकी आह के भीतर जो हाहाकार है, तड़प है, उसे न तू सुन सका, न समझ सका। आवाज सुनी तूने, हृदय की झनकार नहीं; उनकी पुकार आई तेरे पास, मगर उनके जलते कलेजे की दाह नहीं। तू अपने हृदय की झनकार पर उनके हृदय के गीत सुन, आत्मानुभूति के सहारे सहानुभूति करना सीख तथा एक से मिलकर अनेकानेक तक और अनेक से उस एक तक पहुँच जहाँ तुझे अपनी स्थिति का सही ज्ञान हो। मानव! अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष का समन्वय ही ‘जीवन’ है! इनमें से किसी एक की भी अवहेलना करता है, तो ‘जीवन’ को तथा ‘जीवन’ की शांति को खो बैठता है। अब से भी तू अपने को पहचान और समझ।

[पटाक्षेप]

‘आर्यवर्त्त’
12 फरवरी 1950

उदय राज सिंह द्वारा भी